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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> मुक्ति

मुक्ति

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4351
आईएसबीएन :000000

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प्रस्तुत प्रसंग मानस रोगों से मुक्ति का प्रसंग है.....

Mukti

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मुक्ति

परमपूज्य गुरुदेव के चरणों में समर्पित

गुरुदेव आपने हमारा हाथ तब थामा, जब हम संसार को मृगतृष्णा की भाँति पाने के लिए दौड़े चले जा रहे थे। तब आपने अपनी कृपा के जल से हमें तृप्त किया। हमारी दौड़ रुक गई। आपकी वो पकड़ हम आज भी महसूस करते हैं।

इस पुस्तक को अपने पूज्य माँ और पिताजी की स्मृति से जोड़ने का तात्पर्य यह है कि उनके लिए इससे अधिक हार्दिक प्रसन्नता और सन्तोष कुछ नहीं हो सकता कि मैं आपके चरणों में हूँ और मुझे आपका संरक्षण प्राप्त है। आपका साहित्य मानव जीवन के लिए एक सन्देश है।

योगेन्द्र शान्ति शुक्ल एवं परिवार


दो शब्द


इस पुस्तक का नाम, ‘मुक्ति’ के प्रचलित अर्थों में नहीं है। पर जिन अर्थों में इसको मुक्ति का नाम दिया गया है, यदि उन मानस रोगों से हम मुक्त हो जाएँ तो सम्भवतः कोई बन्धन तो नहीं रह जाएगा।
उत्तर काण्ड में गरुड़-काकभुशुण्डि संवाद में सप्तप्रश्नों के समाधान में काकभुशुण्डिजी गरुड़जी के समक्ष जिन मानस रोगों और उसकी चिकित्सा का सारगर्भित वर्णन प्रस्तुत करते हैं, उसकी विशद व्याख्या परमपूज्य गुरुदेव श्रीरामकिंकर जी महाराज ने अपने पैंतालीस प्रवचनों में की थी। प्रस्तुत प्रसंग मानस रोगों से मुक्ति का प्रसंग है। प्रत्येक व्यक्ति का जीवन मानस रोगों की थोड़ी-सी चौपाइयों का साकार रूप है।

परमपूज्यवाद महाराजश्री ने मानस रोगों की व्याख्या के माध्यम से मनुष्य के मन का जिस पद्धति से शोधन किया है, जिसे पढ़कर कोई भी मनोवैज्ञानिक चिकित्सक अपनी चिकित्सा पद्धति को और जीवन को दिशा दे सकता है। उन्होंने अपनी प्रत्येक उपलब्धि को श्रीराम और रामचरित मानस से इसलिए जोड़ा क्योंकि श्रीराम उनकी आस्था की केन्द्रभूमि हैं, जिस पर केन्द्रित होकर वे प्रत्येक घटनाक्रम और मनोदशा की सूक्ष्मतम् व्याख्या कर पाए। स्वाभाविक रूप से सब कुछ देखने के लिए तो आपको सबसे पहले ऊपर चढ़ना पड़ेगा। और श्रीराम का चरित्र और उसके साथ जब मानस जुड़ जाए तो श्रीराम के चरित्र के गुणगान की सार्थकता ही तब है जब हम श्रीराम के गुण और अपने मानस के दोषों का दर्शन कर सकें। और जब अपने दोष दिखने लगें तो उसका अर्थ श्रीराम का दर्शन ही है। वस्तुतः श्री रामकिंकर साहित्य एक ऐसी अत्याधुनिक चिन्तन शैली है जो सबसे नई और सबसे पुरानी है। गंगा पुरानी, जल नया। यही उसकी निरन्तरता, पवित्रता अगाधता और अनन्तता है।
रामायणम् ट्रस्ट का यह प्रकाशन सच्चिदानन्द है, जो सत् है, चित है और आनन्द है।

प्रकाशक

।।श्रीराम: शरणं मम।।

पहला प्रवचन


मानस-रोगों की बातें कहते-कहते मुझे ऐसा लगा कि कई मानस रोगों का विश्लेषण करना बाकी रह गया है, कुछ परिवर्तन होना चाहिए। मानस में भी यह प्रसंग पढ़ने से ऐसा लगता है मानो कागभुशुण्डिजी रोगों का वर्णन करते-करते थक गये और अन्त में यही कहते हैं-कहाँ तक बताऊँ, रोग तो असंख्य प्रकार के हैं-


कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका।।7/121/37


और ये रोग इतने व्यापक हैं कि संसार में ऐसा कोई व्यक्ति है ही नहीं, जो इन रोगों से पूरी तरह से मुक्त हो। यहाँ पर तो कागभुशुण्डिजी ने मानो दावे के साथ एक वाक्य कहा-हहिं सबके ये मन के रोग हैं तो प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में, पर ऐसे व्यक्ति बहुत बिरले हैं जो अपने मन के रोगों को देख पाते हों, उनका विश्लेषण कर पाते कि हमारे मन में रोग कहाँ पर किस रूप में है।

मन के रोगों के साथ सबसे जटिल समस्या यह है कि इसके रोगी को यह प्रतीत नहीं होता कि उसे रोग हुआ है। शरीर में रोग होने पर साधारणतया व्यक्ति को अनुभव होने लगता है कि वह बीमार हो गया है और तब स्वाभाविक रूप से उसके मन में स्वस्थ होने की तीव्र आकांक्षा उत्पन्न होती है, पर मन का रोगी यह अनुभव नहीं करता कि वह मानसिक रूप से अस्वस्थ है। अतः उसमें स्वस्थ होने की प्रवृत्ति भी नहीं दिखाई देती। इसके साथ ही एक समस्या मन के रोगी के साथ यह भी जुड़ी हुई है कि वह हर सामनेवाले व्यक्ति को मनोरोग से ग्रस्त देखता है।

 वह यदि स्वस्थता की चिन्ता करता भी है तो दूसरों की। इसका तात्पर्य यह है कि वह स्वयं को पूर्ण स्वस्थ मानता है। इसीलिए हम जब भी चर्चा करते हैं, तो दूसरों की बुराई पर करते हैं। इसका अर्थ है कि हमें अपनी बुराइयों की प्रतीत ही नहीं हो रही है और हम सोचते हैं कि सारी बुराइयाँ दूसरे लोगों में ही हैं, हममें बिल्कुल नहीं हैं। हम बड़े चिन्तित होते रहते हैं कि व्यक्ति और समाज से ये बुराइयाँ कैसे दूर हों। समाज में अगणित व्यक्ति हैं, जो व्यक्ति और समाज की रुग्णता की समस्याओं पर चिन्ता करते हैं और उनका समाधान चाहते हैं, पर इसके साथ एक विचित्र विडम्बना यह जुड़ी हुई है कि स्वयं की ओर उनकी दृष्टि नहीं जाती, वे यह अनुभव नहीं करते कि पहले उन्हें स्वयं को स्वस्थ होना है।

इस सन्दर्भ में ‘मानस’ में एक सांकेतिक प्रसंग आता है। रामचरितमानस के जो उत्कृष्ट से उत्कृष्ट पात्र हैं, जिनकी गाथा में हमें उनका महानता का परिचय मिलता है, उनके चरित्र का जो चित्र प्रस्तुत किया गया है, उसमें आप यह अवश्य पायेंगे कि कभी न कभी उनमें किसी न किसी बुराई अथवा दुर्गण का उदय हुआ। यह कोई सन्तुष्ट हो जाने की बात नहीं है कि जब इतने महान् व्यक्तियों में भी दोष हैं, तो फिर हमें अपने दोषों के बारे में चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं। अभिप्राय यह है कि ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जिसमें किसी न किसी मात्रा में मन का कोई रोग विद्यमान न हो।
अतः मानस में आदि से अन्त तक प्रत्येक काण्ड में आप ऐसे पात्रों को देखेंगे और यहाँ तक कि उन पात्रों को भी, जो हमारे परम आदर्श हैं, उनकी भी वाणी अथवा चरित्र में कभी न कभी यत्किंचित् ऐसी कोई बात आ ही जाती है। बालकाण्ड में नारदजी के चरित्र का जो वर्णन किया गया है कि किस तरह उनके अन्तःकरण में विकारों का उदय हुआ, तो पढ़कर आश्चर्य होता है।

इसी तरह अयोध्या काण्ड में कैकेयी के अन्तःकरण का परिवर्तन देखते हैं। एक ओर तो कैकेयीजी इतनी उदार हैं, उनका चरित्र इतना उत्कृष्ट है और दूसरी ओर उनकी यह दुर्बलता पढ़कर बड़ा आश्चर्य होता है। पर उससे भी बढ़कर आश्चर्य तबे होता है, जब अरण्यकाण्ड में हमारी जगज्जननी जगद्वन्दिता श्रीसीताजी, उनमें तो दोष की कल्पना भी नहीं की जा सकती, पर उन्होंने भी अपने नरनाट्य में श्रीलक्ष्मण के लिए जिन वाक्यों का प्रयोग किया, उसे हम लीला के सन्दर्भ में ही देखकर सन्तोष कर सकते हैं, अन्यथा जगदम्बा श्रीसीताजी द्वारा लक्ष्मणजी जैसे महान् सर्वत्यागी, विरागी के लिए ऐसी भाषा का प्रयोग ? गोस्वामीजी से बढ़कर जनकनन्दिनी का भक्त और कौन होगा, परन्तु वह भाषा कितनी अनुचित थी, इसका पता तो इसी से चलता है कि श्रीसीताजी ने लक्ष्मणजी से कौन सा वाक्य कहा, यह लिखने के साहस गोस्वामीजी भी जुटा नहीं पाते। गोस्वामी जी यही पंक्तियाँ आप पढ़ते हैं कि जिस समय लक्ष्मणजी ने यह कहा था कि माँ, क्या प्रभु पर भी कोई संकट आ सकता है ? गोस्वामीजी ने वहाँ पर लिखा-


मरम बचन सीता जब बोला। 3/28/5


एक अन्य प्रसंग भी हैं, जहाँ गोस्वामीजी को अपने आराध्य की वाणी से निकले शब्द को सुनकर मौन धारण कर लेना पड़ा, उन शब्दों को उन्होंने नहीं लिखा-लंकाकाण्ड में रावण की मृत्यु के बाद जब जनकनन्दिनी श्रीसीतीजी आती हैं, तब अग्निपरीक्षा के सन्दर्भ में जब श्रीराम उनके प्रति कुछ कठोर शब्द कहते हैं। इन प्रसंगों में गोस्वामीजी ने लिखा कि श्रीसीताजी ने लक्ष्मणजी के प्रति कुछ सन्देहास्पद शब्द कहे और भगवान् ने श्रीसीताजी के लिए कुछ कठोर शब्द कहे। गोस्वामीजी अपनी इस गोपन वृत्ति की सफाई देते हुए इतना ही कहते हैं कि उन्हें यह उपयुक्त नहीं लगा कि उन शब्दों को विस्तार से प्रस्तुत किया जाय, क्योंकि लोग इसे सही अर्थों में नहीं ले पायेंगे और जनमानस पर इसका उल्टा प्रभाव पड़ जायेगा। अभिप्राय यह है कि गोस्वामीजी की इस सजगता में एक महत्त्वपूर्ण संकेत है और इसके द्वारा वे एक महत्त्वपूर्ण सूत्र देते हैं। यह एक अच्छी तरह से समझ लेने योग्य बात है और इसे समझ लेने के बाद ही हम रामायण का अधिकतम लाभ उठा सकेंगे। सूत्र क्या है ?



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