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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> रामकथा मंदाकिनी

रामकथा मंदाकिनी

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4353
आईएसबीएन :0000

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रामकथा की महिमा......

Ramkatha Mandakini

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।।श्रीराम शरणं मम।।

महाराजश्री : एक परिचय

प्रभु की कृपा और प्रभु की वाणी का यदि कोई सार्थक पर्यायवाची शब्द ढूँढ़ा जाय, तो वह हैं- प्रज्ञापुरुष, भक्तितत्त्व द्रष्टा, सन्त प्रवर, ‘परमपूज्य महाराजश्री रामकिंकर उपाध्याय’। अपनी अमृतमयी, धीर, गम्भीर-वाणी-माधुर्य द्वारा भक्ति-रसाभिलाषी-चातकों को, जनसाधारण एवं बुद्धिजीवियों को, नानापुराण- निगमागम, षट्शास्त्र, वेदों का दिव्य रसपान कराकर रससिक्त करते हुए, प्रतिपल निज व्यक्तित्व व चरित्र में रामचरित मानस के ब्रह्मराम की कृपामयी विभूति एवं दिव्यलीला का भावात्मक साक्षात्कार कराने वाले पूज्य महाराजश्री, आधुनिक युग के परम तेजस्वी मनीषी, मनस के अद्भुद शिल्पकार, रामकथा के अद्वितीय अधिकारी व्याख्याकार हैं।

भक्त-हृदय, रामानुरागी पूज्य महाराजश्री ने अपने अनवरत अध्यवसाय से श्रीरामचरितमानस की मर्मस्पर्शी भावभागीरथी बहाकर अखिल विश्व को अनुप्राणित कर दिया है। आपने शास्त्रदर्शन, मानस के अध्ययन के लिए जो नवीन दृष्टि और दिशा प्रदान की है वह इस युग की तरफ की एक दुर्लभ अद्वितीय उपलब्धि है-


सर्वपन्थाः गावः सन्तु, दोग्धा तुलसीदासनन्दन।
दिव्यराम-कथा दुग्धः, प्रस्तोता रामकिंकरः।।


जैसे  पूज्य महाराजश्री का अनूठा भाव दर्शन है, वैसे ही उनका जीवन-दर्शन अपने आपमें एक सम्पूर्ण काव्य है। आपके नामकरण में ही श्रीहनुमानजी की प्रतिच्छाया दर्शित होती है। वैसे ही आपके जन्म की गाथा में ईश्वर कारण प्रकट होता है। आपका जन्म 1 नवम्बर सन् 1924 को जबलपुर (मध्यप्रदेश) में हुआ। आपके पूर्वज मिर्जापुर के बरैनी नामक गाँव के निवासी थे। आपकी माता परमभक्तिमयी श्रीधनेसरा देवी एवं पिता पूज्य श्री शिवनायक उपाध्यायजी रामायण के सुविज्ञ व्याख्याकार एवं हनुमानजी महाराज के परम भक्त थे। ऐसी मान्यता है कि श्री हनुमानजी के प्रति उनके सम्पूर्ण एवं अविचल भक्तिभाव के कारण उनकी बढ़ती अवस्था में श्री हनुमन्तयंती के ठीक सातवें दिन उन्हें एक विलक्षण प्रतिभायुक्त पुत्ररत्न की प्राप्ति दैवीकृपा से हुई। इसलिए उनका नाम ‘रामकिंकर’ अथवा राम सेवक रखा गया।
 
जन्म से होनहार व प्रखर बुद्धि के आप स्वामी रहे हैं। आपकी शिक्षा-दीक्षा जबलपुर व काशी में हुई। स्वभाव से ही अत्यन्त संकोची एवं शान्त प्रकृति के बालक रामकिंकर अपने उम्र के बच्चों की अपेक्षा अधिक गम्भीर थे। एकान्तप्रिय, चिन्तनरत, विलक्षण प्रतिभा वाले सरल बालक अपनी शाला में अध्यापकों के भी अत्यन्त प्रिय पात्र थे। बाल्यावस्था से ही आपकी मेधाशक्ति इतनी विकसित थी कि क्लिष्ट एवं गम्भीर लेखन, देश-विदेश का विशद साहित्य अल्पकालीन अध्ययन में ही आपके स्मृति पटल पर अमिट रूप से अंकित हो जाता था। प्रारम्भ से ही पृष्ठभूमि के रूप में माता-पिता के धार्मिक विचार एवं संस्कारों का प्रभाव आप पर पड़ा, परन्तु परम्परानुसार पिता के अनुगामी वक्ता बनने का न तो कोई संकल्प था, न कोई अभिरुचि।

पर कालान्तर में विद्यार्थी जीवन में पूज्य महाराजश्री के साथ एक ऐसी चामत्कारिक घटना हुई जिसके फलस्वरूप आपके जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। 18 वर्ष की अल्पआयु में जब पूज्य महाराजश्री अध्ययनरत थे, तब अपने कुल देवता श्री हनुमानजी महाराज का आपको अलौकिक स्वप्न दर्शन हुआ जिसमें उन्होंने आपको वट वृक्ष के नीचे शुभासीन करके दिव्य तिलक का आशीर्वाद देकर कथा सुनाने का आदेश दिया। स्थूल रुप में इस समय आप विलासपुर में अपने पूज्य पिता के साथ छुट्टियां मना रहे थे। जहाँ पिताश्री की कथा चल रही थी। ईश्वर संकल्पानुसार परिस्थिति भी अचानक कुछ ऐसी बन गयी कि अनायास ही पूज्य महाराजश्री के श्रीमुख से भी पिताजी के स्थान पर कथा कहने का प्रस्ताव एकाएक निकल गया।

आपके द्वारा श्रोता समाज के सम्मुख यह प्रथम भाव-प्रस्तुति थी, किन्तु कथन व शैली वैचारिक श्रृंखला कुछ ऐसी मनोहर बनी कि श्रोतासमाज विमुग्ध होकर, तन-मन व सुध-बुध खोकर उनमें अनायास ही बँध गया। आप तो रामरस की भावमाधुरी की बानगी बनाकर, वाणी का जादू करके मौन थे, किन्तु श्रोतासमाज आनन्दमयी होने पर भी अतृप्त था। इस प्रकार प्रथम प्रवचन से ही मानस प्रेमियों के अन्तर में गहरे पैठकर आपने अभिन्नता स्थापित कर ली।

ऐसा भी कहा जाता है कि बीस वर्ष की अल्पायु में आपने एक और स्वप्न देखा, जिसकी प्रेरणा से गोस्वामी तुलसीदास के ग्रन्थों के प्राचार एवं उनकी खोजपूर्ण व्याख्या में ही अपना समस्त जीवन समर्पित कर देने का दृढ़ संकल्प कर लिया। यह बात अकाट्य है कि प्रभु की प्रेरणा और संकल्प से जिस कार्य का शुभारम्भ होता है, वह मानवीय स्तर से कुछ अलग ही गति-प्रगति वाला होता है। शैली की नवीनता व चिन्तनप्रधान विचारधारा के फलस्वरूप आप शीघ्र ही विशिष्टतः आध्यात्मिक जगत् में अत्यधिक लोकप्रिय हो गये।

ज्ञान-विज्ञान के पथ में पूज्यपाद महाराजश्री की जितनी गहरी पैठ थी, उतना ही प्रबल पक्ष, भक्ति साधना का, उनके जीवन में दर्शित होता है। वैसे तो अपने संकोची स्वभाव के कारण उन्होंने अपने जीवन की दिव्य अनुभूतियों का रहस्योद्घाटन अपने श्रीमुख से बहुत आग्रह के बावजूद नहीं किया, पर कही-कहीं उनके जीवन के इस पक्ष की पुष्टि दूसरों के द्वारा जहाँ-तहाँ प्राप्त होती रही। उसी क्रम में उत्तराखण्ड की दिव्यभूमि ‘ऋषिकेश’ में श्रीहनुमाजी महाराज का प्रत्यक्ष साक्षात्कार, निष्काम भाव से किये गये एक छोटे से अनुष्ठान के फलस्वरूप हुआ !! वैसे ही श्री चित्रकूट धाम की दिव्यभूमि में अनेकानेक अलौकिक घटनाएँ परमपूज्य महाराजश्री के साथ घटित हुईं जिसका वर्णन महाराजश्री के निकटस्थ भक्तों के द्वारा सुनने को मिला !! परमपूज्य महाराजश्री अपने स्वभाव के अनुकूल ही इस विषय में सदैव मौन रहे।  

प्रारम्भ में भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाभूमि वृन्दावन धाम के परमपूज्य महाराज, ब्रह्मलीन स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज के आदेश पर आप कहाँ कथा सुनाने गए। वहाँ एक सप्ताह तक रहने का संकल्प था। पर यहाँ के भक्त एवं साधु-सन्त समाज में आप इतने लोकप्रिय हुए कि उस तीर्थधाम ने आपको ग्यारह माह तक रोक लिया। उन्हीं दिनों मैं आपको वहाँ के महान सन्त अवधूत श्री उड़िया बाबाजी महाराज भक्त शिरोमणि श्रीहरिबाबाजी महाराज, स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज को भी कथा सुनाने का सौभाग्य मिला। कहा जाता है कि अवधूत पूज्य श्रीउड़िया बाबा, इस होनबार बालक के श्री मुख से निःसृत, विस्मित कर देने वाली वाणी से इतने अधिक प्रभावित थे कि यह मानते थे कि यह किसी पुरुषार्थ या प्रतिभा का परिणाम न होकर के शुद्ध भगत्वकृपा का प्रसाद है। उनके शब्दों में- ‘‘क्या तुम समझते हो, कि यह बालक बोल रहा है ? इसके माध्यम से तो साक्षात् ईश्वरीय वाणी का अवतरण हुआ है।’’

इसी बीच अवधूत श्रीउड़िया बाबा से संन्यास दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प आपके हृदय में उदित और परमपूज्य बाबा के समाज के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट करने पर बाबा के द्वारा लोक एवं समाज के कल्याण हेतु शुद्ध संन्यास वृत्ति से जनमानस सेवा की आज्ञा मिली।

सन्त आदेशानुसार एवं ईश्वरीय संकल्पानुसार मानस प्रचार-प्रसार की सेवा दिन-प्रतिदिन चारों दिशाओं में व्यापक होती गई। उसी बीच काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आपका सम्पर्क हुआ। काशी में प्रवचन चल रहा था। उस गोष्ठी में एक दिन भारतीय पुरातत्त्व और साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान एवं चिन्तन श्री वासुदेव शरण अग्रवाल आपकी कथा सुनने के लिए आए और आपकी विलक्षण एवं नवीन चिन्तन शैली से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने काशी हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति श्री वेणीशंकर झा एवं रजिस्ट्रार श्री शिवनन्दनजी दर से Prodigious (विलक्षण प्रतिभायुक्त) प्रवक्ता के प्रवचन का आयोजन विश्वविद्यालय प्रांगण में रखने का आग्रह किया। आपकी विद्वत्ता इन विद्वानों के मनोमस्तिष्क को ऐसे उद्वेलित कर गई कि आपको अगले वर्ष से ‘विजिटिंग  प्रोफेसर’ के नाते काशी हिन्दू विश्वविद्यलय व्याख्यान देने के लिए निमंत्रित किया गया। इसी प्रकार काशी में आपका अनेक सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैसे श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी, श्री महादेवी वर्मा से साक्षात्कार हुआ एवं शीर्षस्थ सन्तप्रवर का सन्निध्य प्राप्त हुआ।

अतः पूज्य महाराजश्री परम्परागत कथावाचक नहीं हैं, क्योंकि कथा उनका साध्य नहीं, साधना है। उनका उद्देश्य है भारतीय जीवन पद्धति की समग्र खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त मस्तिष्क से, विशाल परिकल्पना से श्री रामचरितमानस के अन्तर्रहस्यों का उद्घाटन किया है। आपने जो अभूतपूर्व एवं अनूठी दिव्य दृष्टि प्रदान की है, जो भक्ति-ज्ञान का विश्लेषण तथा समन्वय, शब्द ब्रह्म के माध्यम से विश्व के सम्मुख रखा है, उस प्रकाश स्तम्भ के दिग्दर्शन में आज सारे इष्ट मार्ग आलोकित हो रहे हैं ! आपके अनुपम शास्त्रीय पाण्डित्य द्वारा, न केवल आस्तिकों का ही ज्ञानवर्धन होता है अपितु नयी पीढ़ी के शंकालु युवकों में भी धर्म और कर्म का भाव संचित हो  जाता है।

‘कीरति भनिति भूति भलि सोई’.....के अनुरूप ही आपने ज्ञान की सुरसरि अपने उदार व्यक्तित्व से प्रबुद्ध और साधारण सभी प्रकार के लोगों में प्रवाहित करके ‘बुध विश्राम’ के साथ-साथ सकल जन रंजनी बनाने में आप यज्ञरत हैं। मानस सागर मैं बिखरे हुए विभिन्न रत्नों को सँजोकर आपने अनेक आभूषण रूपी ग्रन्थों की सृष्टि की है। मानस-मन्थन, मानस-चिन्तन, मानस-दर्पण, मानस-मुक्तावली, मानस-चरितावली जैसी आपकी अनेकानेक अमृतमयी अमर कृतियां हैं जो दिग्दिगन्तर तक प्रचलित रहेंगी। आज भी वह लाखों लोगों को रामकथा का अनुपम पीयूष वितरण कर रही हैं और भविष्य में भी अनुप्राणित एवं प्रेरित करती रहेंगी। तदुपरान्त अन्तर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन नामक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के भी आप अध्यक्ष रहे।

निष्कर्षतः आप अपने प्रवचन, लेखन और शिष्य परम्परा द्वारा जिस रामकथा पीयषू का मुक्तहस्त से वितरण कर रहे हैं, वह जन-जन के तप्त एवं शुष्क मानस में नवशक्ति का सिंचन कर रही है, शान्ति प्रदान कर समाज में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक चेतना जाग्रत् कर रही है।

अतः परमपूज्य महाराजश्री का स्वर उसी वंशी में भगवान का स्वर ही गूंजता है। उसका कोई अपना स्वर नहीं होता। परमपूज्य महाराजश्री भी एक ऐसी वंशी हैं, जिसमें भगवान् के स्वर का स्पन्दन होता है। साथ-साथ उनकी वाणी के तरकश से निकले, वे तीक्ष्ण विवेक के बाण अज्ञान-मोह-जन्य पीड़ित जीवों की भ्रांतियों, दुर्वृत्तियों एवं दोषों का संहार करते हैं। यों आप श्रद्धा और भक्ति की निर्मल मन्दाकिनी प्रवाहित करते हुए महान् लोक-कल्याण कारी कार्य सम्पन्न कर रहे हैं।

प्रभु की शरण में
मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी


।। श्री शरणं मम ।।

प्रथम प्रवचन



भगवान् श्रीरामभद्र की महती अनुकम्पा से पुन: इस वर्ष यह संयोग मिला है, संगीत कला मन्दिर ट्रस्ट और संगीत कला मन्दिर के तत्त्वाधान में भगवान श्रीराम की मंगलमयी गाथा की कुछ चर्चा की जा सके। यह परम्परा उन्तीस वर्षों से चलती आ रही है और आज तीसवें वर्ष में प्रवेश कर रही है। सचमुच कथा की यह अनवरत चलनेवाली परम्परा प्रभु की कृपा और आप सबकी श्रद्धा -भावना के संयोग के बिना संभव नहीं थी। इस संदर्भ में मुझे पचीसवें वर्ष की भी विस्मृति नहीं होती है। उस समय ब्रह्मलीन श्रीघनश्यामदासजी बिरला यहाँ आए थे और उन्होंने बड़े भावपूर्ण उद्गार श्रीरामकथा के सन्दर्भ में व्यक्त किए थे और आज हम तीसवें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं तो कथा के प्रति उनके उद्गारों की स्मृति आना स्वाभाविक है। इससे बढ़ करके कोई प्रसन्नता और सन्तोष की बात नहीं हो सकती कि उनके द्वारा प्रारम्भ की गयी परम्परा को उनके सुपुत्र श्रीबसन्तकुमारीजी बिरला और सौभाग्यवती सरलाजी के द्वारा आगे बढ़ाया जा रहा है। और अब आइए ! प्रभु के प्रति नमन करते हुए इस बार जो कथा प्रसंग चुना गया है उस पर एक दृष्टि डालने की चेष्टा करें। इस बार कथा के प्रसंग में आन्तरिक चित्रकूट के निर्माण के सूत्र दिए गये हैं। मानस के प्रारम्भ में गोस्वामी जी ने यह कहा कि-


रामकथा मन्दाकिनी चित्रकूट चित चारु।
तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु।। 1/31/0

सबसे पहले इस दोहे के सरल अर्थ पर एक बार दृष्टि डाल लें तथा उसके पश्चात् क्रमश: उसके शब्दों पर विचार करें। इस दोहे में रामकथा की तुलना मन्दाकिनी और चित्त की श्रीचित्रकूट के वन से की गयी है। इसमें गोस्वामीजी जी कहते हैं कि भगवान श्रीराम की कथा ही मन्दाकिनी है और हमारा जो अचल चित्त है वही चित्रकूट है। या यों कह लीजिए कि जिस समय हमारा चित्त अचल होता है उस समय हमारे अन्त:करण में चित्रकूट की सृष्टि हो जाती है और जैसे चित्रकूट में वन है इसी प्रकार से भगवत्प्रेम ही वन है। पहले कथा शब्द में मैं आपका ध्यान आकृष्ट करूँगा। कथा शब्द का सरल-सा अर्थ है जो ‘कही जाय’,- वह कथा है। पर कथा शब्द जितने विस्तार से और जितने रूपों में श्रीरामचरितमानस में दृष्टि डाली गयी है अगर उसको दृष्टिगत रखकर हम विचार करें तो कथा शब्द की गहराई तथा महानता पर हमारा ध्यान जाएगा। पहला सूत्र तो यह है कि कथा सेतु है। जैसे नदी के दो किनारों के बीच में यदि सेतु हो तो दोनों किनारे थोड़ी दूर रहकर भी मिले हुए होते हैं। इसी तरह से भूतकाल तथा वर्तमान काल में भी एक दूरी है। यद्यपि व्यक्ति में वर्तमान में होते हुए भी भूतकाल से जुड़ा हुआ है, किन्तु वह प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता। इस प्रकार व्यक्ति के सामने यदि एक कालगत दूरी है तो दूसरी देशगत और तीसरी दूरी है व्यक्तिगत।

जब आप इतिहास की घटना पढ़ते हैं तो वह घटना किसी एक काल में घटित हुई है और वह भूतकाल था, किन्तु हम वर्तमान में हैं। और घटना जब घटित होती है तो भूगोल में किसी एक स्थान-विशेष में घटित होती है और हम जहाँ बैठे हुए हैं उसमें देशगत दूरी भी है। इसका अभिप्राय यह है कि हम भले ही श्रीअवध की चर्चा करें; किन्तु हम तो शरीर से बैठे हैं कलकत्ता में और कलकत्ता तथा अयोध्या के बीच देशगत एक दूरी है। इसी प्रकार से जब हम त्रेतायुग की घटनाओं का अथवा पुरानी किसी घटना का वर्णन करते हैं तो मानो कालगत दूरी होती है। जब इतिहास के पात्रों का वर्णन किया जाता है तो ऐसा लगता है कि ये व्यक्ति कभी थे और आज नहीं हैं। इस तरह से ये तीनों दूरियाँ सर्वदा विद्यमान रहती हैं। किन्तु भई ! समाज में आवश्यकता देश, काल और व्यक्ति की इस दूरी को मिटाने की है।

 मान लीजिए कोई भूतकाल आपको बड़ा प्रिय है, कोई स्थान आपको बहुत प्रिय है अथवा किसी व्यक्ति के प्रति आपको राग है, किन्तु यह सब होते हुए भी व्यावहारिक दूरी बनी ही रहेगी। परन्तु दो ही ऐसे उपाय हो सकते हैं जिनसे हम उस देश, काल, और व्यक्ति से अपने आपको जोड़ सकें जिसका वर्णन इतिहास में किया गया है। और वे उपाय हैं- कि या तो हम स्वयं देश, काल, व्यक्ति के पास पहुँच जाएँ या फिर उस देश, काल, व्यक्ति को हम अपने वर्तमान में ला सकें। इसका सीधा-सा अभिप्राय है कि जैसे नदी के दोनों किनारों पर यदि व्यक्ति खड़े हों तो इस किनारें का व्यक्ति अगर उस किनारे चला जाय अथवा उस किनारे का व्यक्ति इस किनारे आ जाय तो दूरी मिट जाएगी। इसी प्रकार या तो व्यक्ति भूत में चला जाय और फिर भूत को ही वर्तमान में ले आवे। वस्तुत: भूत में चले जाना यह इतिहास का अध्ययन है तथा भूत को वर्तमान में ले आना यह भक्ति शास्त्र है। जब आप इतिहास पढ़ते हैं तो उस समय तक अपने आपको उस देश, काल, व्यक्ति के तदाकार पाते हैं पर इतिहास पढ़ लेने के बाद आपको यह अनुभव होता है कि ये घटनाएँ कभी घटित हुई थीं और वे हमारे जीवन से दूर हैं। पर कथा की प्रक्रिया का तात्पर्य सर्वथा अनोखा है। इसे हम एक सरल दृष्टान्त के माध्यम से समझ सकते हैं।

यदि हमें किसी भूतकाल का वर्णन पढ़कर बड़ा अच्छा लग रहा है, किन्तु समस्या यह है कि वह भूत वर्तमान में तो नहीं आ सकता है। मान लीजिए त्रेतायुग में रामराज्य एक आदर्श राज्य था और रामराज्य का वर्णन पढ़कर व्यक्ति को स्वाभाविक रूप से प्रसन्नता होगी ही, किन्तु उनको पढ़ने मात्र से, व्यक्ति की समस्याओं का समाधान तो नहीं हो जाएगा। भूतकाल में रामराज्य की श्रेष्ठता को यदि हम वर्तमान में नहीं ला सकते तो हमारा आनन्द केवल बौद्धिक आनन्द है, उसकी परिणति व्यावहारिक रूप में नहीं है, उसका पूरा लाभ नहीं है। किन्तु इतिहास के द्वारा उत्पन्न की गयी जो देश, काल, वैयक्तिक दूरियाँ हैं उन्हें मिटाने का जो अद्भुत सेतु है उसी का नाम कथा है। आइए ! इस संदर्भ में अब श्रीरामचरितमानस के कई प्रसंगों पर दृष्टि डालें और उनका अन्तरंग तात्पर्य समझने की चेष्टा करें।

इस दोहे में चित्त की तुलना चित्रकूट से की गई, इसका अभिप्राय क्या है ? सर्वप्रथम इस पर विचार करें। आप रामकथा में यह पढ़ते अथवा सुनते हैं कि जब भगवान् श्रीराम ने अयोध्या के राज्य का परित्याग किया तब वे चित्रकूट में जाकर बसे और वहीं भगवान् श्रीराम तथा श्रीभरत का मिलन हुआ। लेकिन पढ़ने अथवा सुनने के बाद यह लगता है कि जो त्रेतायुग में था आज यदि उसका रूप है भी तो हमारे यहाँ से दूर है। और इसी प्रकार जब हम यह पढ़ते हैं कि त्रेतायुग में हुआ तो हमें लगता है कि हम तो कलियुग में बैठे हुए हैं और जब हमें यह सुनने को मिलता है कि श्रीभरत और भगवान् श्रीराम का मिलन होने पर श्रीभरत भाव में डूब गए, तो हमें लगता है कि जब श्रीभरत का मिलन हुआ तो उनको आनन्द की अनुभूति हुई होगी, हमें इससे क्या लाभ ? इसलिए गोस्वामीजी ने एक बड़ी मीठी बात कही- लंका विजय के पश्चात् जब भगवान् श्रीराम लौट करके अयोध्या आए और श्रीभरत से उनका मिलन हुआ हो उस मिलन की घटनाओं का वर्णन कथा के माध्यम से कर रहे हैं भगवान् शंकर और श्रोता हैं पार्वती। जब पार्वतीजी सुनती हैं कि –


गहे भरत पुनि प्रभु पद पकंज।
नमत जिन्हनि सुर मुनि संकर अज।।
परे भूमि नहिं उठत उठाये।
बर करि कृपासिंधु उर लाए।।
स्यामल गात रोम भर ठाढ़े।
नव राजीव नयन जल बाढ़े।। 7/4/6
राजीव लोचन स्रवत जल तन ललित पुलकावलि बनी।
अति प्रेम हृदयँ लगाइ अनुजहि मिले प्रभु त्रिभुअन धनी।।
प्रभु मिलन अनुजहि सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही।
जनु प्रेम और सिंगार तनु धरि मिले बर सुषमा लही।।


भगवान् श्रीराघवेन्द्र विमान से उतर चुके हैं पर श्रीभरत प्रभु से जान-बूझकर कुछ दूरी बनाए हुए हैं। क्योंकि भरत को चित्रकूट की याद भूली नहीं। चित्रकूट में हुआ यह था कि जब श्रीभरत सारे गुरुजनों और समाज को लेकर गये तो उन्होंने सारे अयोध्यावासियों को मन्दाकिनी के किनारे स्थापित किया कि आप लोग यहाँ विराजमान रहिए और मैं जाकर आश्रम में प्रभु के चरणों में साष्टांग प्रणाम करूँगा। वस्तुत: दैन्य के कारण श्रीभरत के मन में यह भय समाया हुआ था कि कहीं ऐसा न हो-

रामु लखन सिय सुनि मम नाऊँ।
उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ।। 2/232/8


पता नहीं प्रभु मुझसे कितना रुष्ट हैं, लक्ष्मण भाई को पता नहीं मुझ पर कितना क्रोध है ? और इतने बड़े समाज को सामने वह क्रोध प्रकट न हो इसलिए मैं अकेले ही जाकर प्रभु को प्रणाम कर लूँ, यह श्रीभरत की भावना थी।

जब श्रीभरत गये और भगवान् राम का मिलन हुआ तो श्रीराम अपने रामत्व को भूल गये और श्रीभरत अपने भरतत्व को भूल गए ! न तो भगवान् श्रीराम ने भरत से पूछा कि भरत ! मैंने सुना है कि तुम्हारे गुरुदेव आए हुए हैं, माताएँ आई हुई हैं और अयोध्या के नागरिक आए हुए हैं, किन्तु वे लोग कहाँ हैं ? और श्रीभरत भी मिलन के रस में ऐसे डूबे हुए कि वे भी प्रभु को स्मरण नहीं दिला पाए कि माताएँ मन्दाकिनी के तट पर प्रतीक्षा कर रही हैं, गुरुदेव प्रतीक्षा कर रहे हैं। किन्तु दोनों के द्वारा ऐसा कार्य कैसे हो गया; इस संबंध में गोस्वामीजी ने एक सुन्दर-सा सूत्र दे दिया। उनसे पूछा गया कि श्रीराम और श्रीभरत बोल क्यों नहीं रहे हैं ? श्रीराम भरत से यह क्यों नहीं पूछ रहे कि भरत तुम्हारी यात्रा कुशलतापूर्वक तो हुई ? श्रीभरत प्रभु से यह क्यों नहीं कह रहे हैं कि प्रभु और लोग भी आए हुए हैं ? और तब तुलसीदासजी ने उत्तर देते हुए कहा कि समस्या यह है कि-


कोउ कछु कहइ न कोउ कछु पूँछा।
प्रेम भरा मन निज गति छूँछा।। 2/341/7


वस्तुत: यहाँ पर तो मन परिपूर्ण रूप से प्रेमरस में डूब गया है। इस मिलन में न तो मन रह गया है, न बुद्धि ही रही, न ही चित्त रहा न अहंकार रह गया-


परम प्रेम पूरन दोउ भाई।
मन बुधि चित अहमिति बिसराई।। 2/240/2


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