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नवधा भक्ति प्रथम भाग

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4355
आईएसबीएन :0000

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भगवान राम द्वारा शबरी को उपदेश.....

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Navdha Bhakti Bhag -1

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

प्रभु श्रीरामभद्र एवं करुणामयी श्री किशोरीजी की महती अनुकम्पा से ‘‘नवधा भक्ति’’ का प्रथम भाग आपके हाथ में है। बिरला अकादमी ऑफ आर्ट एण्ड कल्चर’ द्वारा आयोजित ये प्रवचन भगवान लक्ष्मीनारायण मंदिर (बिड़ला मंदिर) दिल्ली के पवित्र प्रांगण में वर्ष 2001 में दिये गये।

इस आयोजन के यजमान बिरला दम्पत्ति श्री बसंत कुमारजी बिरला एवं सौजन्यमयी डॉ.श्रीमती बिरला ने विगत वर्ष यह प्रसंग चुना और इसको पूरा करने का आग्रह भी किया, किन्तु मेरी प्रकृति ऐसी है कि विषय को पूरा करना मेरे हाथ की बात नहीं होती, जब जैसा और जितना प्रभु कहलवा देते हैं मैं कह देता हूँ। इस पुस्तक में नवधा भक्ति की प्रथम पंक्ति जिसमें भगवान श्रीरामचन्द्र भक्तिमती शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश देते हैं, उनमें से ‘‘प्रथम भगति संतन्ह कर संगा’’ पर प्रकाश डाला गया है, साथ ही दूसरी भक्ति ‘‘दूसरि रति मम कथा प्रसंगा’’ को भी स्पर्श किया है। जब प्रभु चाहेंगे तब यह प्रसंग पूरा होगा।
इस आयोजन और प्रकाशन के पीछे श्री बसंतकुमारजी बिरला और डॉ. श्रीमती सरलाजी बिरला की श्रद्धा भावना रही है। इनकी यह हार्दिक इच्छा रहती है कि इन प्रवचनों का लाभ अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाया जा सके। इसी सद्भावना का प्रतिफल है यह प्रकाशन। इन दोनों को मेरा हार्दिक आशीर्वाद।

श्री नन्दकिशोर स्वर्णकार का योगदान इस कार्य में विशेष महत्त्व का रहता है। ‘टेप’ से लिपिबद्ध कर सम्पादन तथा ‘प्रूफ रीडिंग’ का कार्य भी स्वयं कर ये पुस्तक को समय पर प्रकाशित करने की स्थिति तक ले आते हैं।

श्री टी.सी. चोरडिया की सेवाओं को याद करना आवश्यक है। समस्त व्यवहारिक एवं व्यवसायिक कार्यों को देखते हुये भी ये इसको स्वयं ध्यान से कराते हैं।
सभी को मेरा हार्दिक आशीर्वाद।

रामकिंकर

।।श्री रामः शरणं मम।।

1


ताहि देइ गति राम उदारा।
सबरी के आश्रम पगु धारा।।
सबरी देख राम गृह आए।
मुनि के बचन समुझि जियँ भाए।।
सरसिज लोचन बाहु बिसाला।
जटा मुकुट सिर उर बनमाला।।
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई।
सबरी परी चरन लपटाई।।
प्रेम मगन मुख बचन न आवा।
पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा।।
सादर जल लै चरन पखारे।
पुनि सुंदर आसन बैठारे।।
कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि।। 3/34


कोटि काम—कमनीय भगवान श्री रामभद्र और अनंत करुणामयी एवं वात्सल्यमयी मां सीताजी की असीम अनुकंपा से पुनः इस वर्ष भगवान श्री लक्ष्मीनारायण के इस पवित्र प्रांगण में बैठकर भगवत्चरित्र की चर्चा करने का यह सुअवसर प्राप्त हुआ है। विगत अनेकानेक वर्षों से अनवरत रूप में चलने वाला यह ज्ञानयज्ञ सौजन्यमयी भक्तिमती श्रीमती सरलाजी बिरला तथा बसंतकुमार बिरला की श्रद्धाभावना के फलस्वरूप प्रारंभ हुआ और निर्बाध रूप से संपन्न होता आ रहा है। यह क्रम निसंदेह प्रभु की अनंत कृपा का ही परिचायक है। दिल्ली के कथा-रसिक, भावुक और जिज्ञासु श्रोताओं के समक्ष भगवत्कथा कहने में मुझे भी बड़े आनंद की अनुभूति होती है।

इस वर्ष चर्चा के लिए उन भक्तिमती शबरीजी का प्रसंग चुना गया है जिनकी स्मृति प्रभु एक क्षण के लिए भी नहीं भुला पाते। युद्ध-विजय कर भगवान राम के अयोध्या लौट आने के पश्चात् गोस्वामीजी जो वर्णन करते हैं उसमें यह बात बार-बार सामने आती है।

सामान्यता जब कोई व्यक्ति विदेश-यात्रा से लौटता है तो लोग जिज्ञासावश उससे यह पूछते ही हैं कि ‘आपने कहाँ क्या-क्या देखा, किन-किन लोगों से मिले तथा आपको कौन-कौन से विशिष्ट अनुभव हुए ?’ भगवान् राम तो चौदह वर्षों की लंबी अवधि के बाद अयोध्या लौटे थे। भगवान की सहृदयता के कारण अयोध्या में उनके अनगिनत मित्र थे। वे सब भगवान राम से जब इसी तरह के प्रश्न करते थे और भगवान राम जो उत्तर देते थे, उसे सुनकर उन सबको बड़ा आश्चर्य होता था। क्योंकि भगवान राम बार-बार एक ही बात दोहराते रहते थे। इस संदर्भ में ‘गीतावली’ और कवितावली’ में बड़ा अद्भुत वर्णन पढ़ने को मिलता है।

भगवान राम की इस यात्रा में उनकी भेंट उस समय के विश्व के अग्रणी और महान् ऋषि-मुनियों से होती है। इस यात्रा में वे पहले महर्षि भरद्वाज के आश्रम में जाते हैं, फिर आगे चलकर महर्षि वाल्मीकि से उनका मिलन होता है। इसके पश्चात जब प्रभु चित्रकूट में निवास करते हैं तो महर्षि अत्रि से उनकी भेंट होता है और दोनों के बीच एक बड़ा भाव और रसमय संवाद भी होता है। भगवान राम इस यात्राक्रम में महर्षि अगस्त्य जैसे एक ऐसे विशिष्ट महापुरुष से मिलते हैं जो सृष्टितत्व के रहस्यों के ज्ञाता हैं और समुद्र को पी लेने में भी सक्षम हैं।

प्रभु यदि चाहते तो बड़े विस्तार से इन सब महापुरुषों से मिलने की घटनाओं का वर्णन कर सकते थे। पर गोस्वामीजी कहते हैं कि मित्रों के बार-बार पूछने पर भी प्रभु दंडकवन और चित्रकूट में इन महात्माओं के साथ अपने मिलने और संवाद की चर्चा भूलकर भी नहीं करते, अपितु दो ही पात्रों की चर्चा वे बार-बार करते हैं। गोस्वामीजी लिखते हैं कि-


मिलि मुनिबृंद फिरत दंडक बन, सो चरचौ न चलाई।
बारहि बार गीध सबरी की बरनत प्रीति सुहाई।।
(विनयपत्रिका /165/3)


प्रभु कहते हैं कि एक तो गीधराज मिले और दूसरी शबरीजी मिलीं। भगवान गीधराज के वात्सल्य और भक्तिमती शबरीजी के फलों के स्वाद और रस को एक क्षण के लिए भी नहीं भूल पाते।

गीधराज के संबंध में विदित ही है कि जब रावण सीताजी का अपहरण कर अपने साथ ले जा रहा था, उस समय उन्होंने रावण को चुनौती दी और उससे यु्द्ध किया। प्रारंभ में गीधराज ने रावण को कुछ समय के लिए मूर्च्छित भी कर दिया। पर अंत में रावण के द्वारा उनके पंख काट दिए जाने पर वे घायल होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। इसके पश्चात् प्रभु स्वयं गीधराज के पास पहुँचे और उन्हें अपनी गोद में उठा लिया। गीधराज ने सीताजी की रक्षा के प्रयास में अपना शरीर अर्पित कर दिया और धन्य हो गए। भगवान राम ने गीधराज को अपना धाम प्रदान किया और गीधराज से बोले कि ‘यदि आप मेरे धाम में जा रहे हैं तो यह मेरी किसी कृपा या उदारता के कारण नहीं, अपितु-


तात कर्म निज तें गति पाई।3/30/8


आपने जो महानतम कार्य किया है उस कर्म का ही परिणाम है।’

गीधराजजी से भगवान राम की भेंट पहले भी हो चुकी थी जब प्रभु गोदावरी के निकट पंचवटी में श्रीसीताजी एवं लक्ष्मणजी के साथ पर्णकुटी में निवास करते थे। गीधराजजी भगवान राम के पास आते रहते थे और इस प्रकार उन्होंने सीताजी को अपहरण से पहले भी देखा था। पर शबरीजी ने सीताजी को कभी देखा ही नहीं था। क्योंकि भगवान राम लक्ष्मणजी के साथ शबरीजी के आश्रम में सीताजी के वियोग होने के बाद पधारते हैं।

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