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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> शिव तत्त्व

शिव तत्त्व

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4356
आईएसबीएन :0000

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शिव-तत्त्व का उड़िया अनुवाद....

Shiv Tatva Manas Manthan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शुभकामनाएँ

रामायणम् ट्रस्ट के द्वारा इन दिनों सत्साहित्य के प्रकाशन में प्रशंसनीय कार्य किया गया है। उसी का प्रतिफल है ‘शिव तत्व’ की पंचम आवृत्ति का यह प्रकाशन। इन लोगों की धारणा है कि तुलसी साहित्य पर मेरे द्वारा जो कार्य किया गया है उसे वे पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करें। दूर देशों के पत्र जब ये लोग मुझे आकर दिखाते हैं। तो मुझे आश्चर्यमिश्रित हर्ष होता है कि इन पुस्तकों को वहाँ तक कौन ले जाता है। पर इसमें भी प्रभु की लीला होगी। न जाने कितने लोग ऐसे हैं जिन्होंने मुधे देखा भी नहीं है पर वे लोग जब अपनी भावना पत्र में लिख कर भेजते हैं तो इस प्रकाशन के कार्य के प्रति ट्रस्ट की निष्ठा का दृढ़ होना स्वाभाविक है।

मैं अपने जीवन की ओर जब दृष्टि डालता हूँ तो मुझे कोई ऐसा कारण समझ में नहीं आता कि मेरी किस योग्यता के फलस्वरूप मुझ पर इतनी कृपा हुई।
जिन लोगों ने इस प्रकाशन में अपनी सेवाएँ दी हैं वे वैसे तो अनेकों लोग हैं, पर प्रमुख रूप से बेटी मन्दाकिनी हैं जो इस कार्य में अपना पूरा समय लगाकर इस साहित्य सेवा को सम्पन्न करती हैं। इस कार्य में श्री रंगनाथ जी काबरा, श्री डी.आर. रैयाणी तथा श्री जयनारायण अग्रवाल का योगदान भी सराहनीय है। इन सभी को मेरी आशीर्वाद।

रामकिंकर

श्री गणेशाय नमः
‘‘श्री रामः शरणं मम’’

सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा


जैसे ‘शिव ताण्डव’ की मंगलकारी वेला में, डमरू के नाद से व्याकरण के चौदह सूत्रों का सृजन हुआ, जैसे विष्णु पार्षद श्री गरुड़जी महाराज के पंखों से सामवेद की ऋचाएं प्रस्फुटित होती हैं, वैसे ही यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि रामभक्ति में तदाकार, उनके सगुण सरोवर में चिरन्तन में हुए ‘‘परम पूज्य श्री रामकिंकर जी महाराज’’ के श्रीमुख से भगवत्कथा के दिव्य शब्दमय विग्रह का अवतरण होता है। जैसे वेदवाणी सनातन है, वैसे ही परम पूज्य रामकिंकर जी महाराज के द्वारा व्याख्यायित मानस का प्रत्येक सूत्र, ‘‘मन्त्र’’ रूप ग्रहण कर, तत्व, दर्शन, सिद्धान्त, शास्त्रों की कोशिकाओं को अनन्तकाल तक अनुप्राणित करता रहेगा, यह भी सनातन सत्य है।
श्री रामचरितमानस तथा परम पूज्य महाराज श्री रामकिंकर जी एक दूसरे के पर्यायवाची बन चुके है। उनके ही शब्दों में—

‘‘मानस तो मेरा श्वास है।’’

जैसे वायु का स्पन्दन ही मनुष्य को जीवनी शक्ति प्रदान करता है, चाहे कोई भी अवस्था हो, जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति या तुरीय, परम पूज्य महाराज श्री के रोम-रोम को राम चरित मानस अनुप्राणित करता है वैसे तो मानस का गायन हमारे देश की प्राचीन परम्परा रही है, पर इस वाचिक परम्परा में परम पूज्य महाराज श्री का विशिष्ट योगदान है, वह है उनकी मौलिक आध्यात्मिक दृष्टि, मानों वे इस आध्यात्मिक सम्पदा के ‘‘कुबेर’’ हैं। मानस की मधुर चौपाई और सरल प्रतीत होने वाले छन्दों के अन्तराल में छिपे हुए गूढ़ रहस्य, निहित आध्यात्मिक सूत्र एवं गंभीर सिद्धान्तों की खोजपूर्ण व्याख्या, इस युग में मात्र आप ही की देन है।

उन मन्त्रदृष्टा ऋषि मुनियों की तरह, जो अपनी निर्विकल्प समाधि में अवस्थित होकर उस अपौरुषेय शब्द ब्रह्म का साक्षात्कार करते थे, जब परम पूज्य महाराज श्री व्यास आसन पर विराजमान होकर, उस विराट से एकाकार हो जाते हैं तो उनकी ‘‘ऋतम्भरा प्रज्ञा’’ में वह निर्गुण निराकार अपरिच्छि्न्न ब्रह्म, अन्यन्त सुन्दर साकार रूप ग्रहण कर प्रगट हो जाता है, जिसकी शब्दमयी झांकी, मात्र उन्हीं का नहीं बल्कि सम्पूर्ण श्रोता समाज को एक साथ कृतकृत्य बना देती है। परम पूज्य महाराज जी की जिव्हा पर विराजमान सरस्वती मानो उस दिव्य ‘‘कथावतरण’’ की बेला में गद्गद होकर, नृत्य करने लगती हैं, अपनी नित्य नई नृत्य कला से उपस्थित जिज्ञासुओं को अपने प्रेम-पाश में बांध लेती हैं।

उनकी अनुभूति—प्रसूत वाणी से जब शास्त्र और सिद्धान्त का प्रतिपादन होता है, तब बड़े-से-बड़े सन्त, साहित्यकार एवं विद्वान चकित हो जाते हैं। उनके चिंतन में तत्व की गंभीरता और भाव की सरसता का अद्भुत सम्मिश्रण दृष्टिगोचर होता है। क्लिष्टतम विषय का प्रतिपादन वे इतनी सरलता एवं रोचकतापूर्ण शैली में करते हैं, मानो ईश्वर की उन्हें यह विशिष्ट देन है। जहाँ अन्य कथावाचक तत्व का स्पर्श करके कथा का विस्तार करते हैं, वहीं परम पूज्य महाराज श्री, कथा का माध्यम बनाकर तत्व का विस्तार करते हैं। निर्विवाद रूप से सबको चमत्कृत करने वाली उनकी इस अनूठी कथन शैली के कारण ही एक महानतम विरक्त सन्त ने आपके लिए यह भावोद्गार प्रकट किए—‘‘पण्डितजी तो रामायण बन गए’’।
निश्चित रूप से इससे अधिक उपयुक्त एवं प्रामाणिक व्याख्या परमपूज्य महाराज श्री की और कोई भी नहीं हो सकती।
श्री दोहावली रामायण के एक दोहे में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं—

‘‘लहै बड़ाई देवता इष्टदेव जब होय।।’’

अर्थात् भगवान् तो वही है, पर जिसका भक्त जितना बड़ा होता है, अपने ईष्ट की उतनी ही बड़ी महिमा वह संसार के समक्ष उजागर करता है। मन्दिरों में भी इसी सत्य का दर्शन होता है। प्रत्येक देवस्थान में विग्रह तो भगवान का ही होता है, जो किसी प्रस्तर खण्ड से निर्मित शिल्पी की कल्पना का साकार रूप है। परन्तु प्रत्येक मूर्ति में समान रूप से आकर्षण की प्रतीत नहीं होती। कहीं जाकर ऐसा लगता है कि मूर्ति का देवता सुषुप्त है और किसी स्थान पर पहुंचकर अन्तःकरण में एक ऐसे अनायास खिंचाव की अनुभूति होता है, जिसका बुद्धि से स्पष्टीकरण नहीं दिया जा सकता। सभी मूर्तियां आस्था का केन्द्र तो होती हैं, परंतु कबीर के शब्दों में—

‘‘बलिहारी वह घट की जा घट परगट होय।’’

धन्य है वह, जिसके अन्तःकरण में विराजमान ब्रह्म सक्रिय होकर जीवन की बागडोर संभालता है। परंपूज्य महाराज श्री, उस असंख्य जन समूह के मध्य में जब प्रभु की शब्दमयी झांकी प्रगट करते हैं तो कर्ता और कर्म का भेद मिट जाता है।

उन पूर्ण आत्म-विस्मरण के क्षणों में श्रोता समाज उस अनन्त परम सत्य के साक्षात्कार में लीन हो जाता है। यह वैयक्तिक आनन्द के क्षण नहीं, बल्कि प्रत्येक की सामूहिक प्रतीति है। मंचासिन वक्ता के नए-नए रूप देखकर भाव की अनेकानेक तरंगे हृदय में हिलोरें लेती हैं मानो लगता है क्या यह मन्दिर की मूर्ति के शिल्पकार हैं या द्रवित हृदय वाले भक्ताग्रगण्य, सन्त प्रवर हैं ? या कोई मन्त्रदृष्टा ऋषि मुनि हैं ? नहीं, नहीं—यह तो साक्षात चलता-फिरता तीर्थ है, जिनका लघुतम कृपा प्रसाद, जीवन के त्रिताप और वितिम को नष्ट कर, धन्यता प्रदान कर सकता है।

अनेक श्रोताओं के भावोद्गार जब मैं सुनती हूँ, तो अनुभूतियों की समानता से अत्यधिक प्रसन्नता होती है। किसी को लगता है कि श्री हनुमानजी महाराज स्वयं आकर उनमें विराजमान हो जाते हैं तो किसी को त्रिभुवन गुरु भगवान शिव का दर्शन उनमें होता है। और किन्हीं को साक्षात् श्रीरामभद्र की प्रतिच्छाया उनके नेत्र एवं भावभंगिमा में दृष्टिगोचर होती है। ऐसे अवतार पुरुष का परिचय देना क्या किसी के लिए संभव है ? इतिहास और घटनाक्रम की दृष्टि से कुछ संकेतों द्वारा उनके जीवन पर प्रकाश डालने की बाल-चेष्टा, मैंने इससे पूर्व एक लेख में की थी। परन्तु परम पूज्य महाराज श्री के जीवन के नए-नए रूप, उनके स्वभाव के विभिन्न पक्ष, उनके ज्ञान की ऊँचाई और हृदय की अगाधता, जैसी अनेकानेक भिन्नताएं मेरे समक्ष प्रगट होती हैं, तो लगता है कि शास्त्र की वह उक्ति जो ब्रह्म के सन्दर्भ में लिखी गई है—‘‘अखिल विरूद्ध धर्माश्रय’’ उसे परम पूज्य महाराज श्री ने अपनी जीवन लीला द्वारा चरितार्थ करके मुझे समझा दिया।
परम पूज्य महाराज श्री का प्रभाव तो जग विदित है, पर उनके स्वभाव का परिचय तो उन्हीं सौभाग्यशाली को प्राप्त होता है, जिन्हें उन्होंने जनाना चाहा—

सोइ जानई जेहि देहु जनाई।
(2-126-2)

अपने प्रभु का शील और संकोच, उनकी उदारता और विशालता परम पूज्य महाराज श्री को मानो विरासत में मिली है। छोटे-से-छोटे व्यक्ति की भावना एवं सम्मान की रक्षा के लिए वे सदा तत्पर रहते हैं। उनकी कथनी और करनी में मैंने कभी कोई अन्तर नहीं पाया। जो मंच का सत्य है, व्यासपीठ से जो उपदेश दिया गया, वही व्यवहार में सर्वदा चरितार्थ होता रहा। उनके जीवन का उद्देश्य चमत्कार प्रदर्शन कभी नहीं रहा, क्योंकि दंभ और कपट उनसे कोसों दूर रहे। उनके हृदय की सरलता, शुचिता एवं कोमलता उनके सनतत्व का प्रमाण है। ‘‘साधुता’’ किसी वेश—भूषा या आश्रम का नाम नहीं, वह तो एक वृत्ति है जो परम पूज्य महाराज श्री के व्यक्तित्व में सहज है। बहिरंग जगत में समस्त भोग वैभव की सामग्रियों से घिरे प्रतीत होने पर भी, अन्तःकरण से एक योगी की भांति वे इतने निर्लिप्त हैं, जिसकी तुलना ‘गीता’ के उस ‘स्थितप्रज्ञ पुरुष से की जा सकती है—

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समु्द्रामापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।  (श्रीमद्भगवद्गीता 3-60)

अर्थ के महत्व से भली प्रकार अवगत होते हुए विशेषकर वर्तमान समय में, परम पूज्य महाराज श्री जिस मुक्त हस्त से उसे लुटाते हैं, यह तो उनकी फकीराना प्रवृत्ति का द्योतक है। जिस आशा से जो भी व्यक्ति उनके पास आया, चाहे लौकिक हो अथवा पारलौकिक, परम पूज्य श्री महाराज जी ने उसकी पूर्ति की। उनके दरबार से कभी कोई निराश नहीं लौटा। परम पूज्य श्री महाराजश्री की कृपालुता एवं क्षमाशीलता का ध्यान, जब भी मुझे एकांत के क्षणों में आ जाता है, तो आंखों में अश्रु छलक आते हैं। विनय पत्रिका की वह पंक्ति—

ऐसो को उदार जग माहीं।
बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर, राम सरिस कोउ नाहीं।। (162)

मुझे पूज्य महाराज श्री में पूर्णरूप से साकार होती हुई दृष्टिगोचक होती है। मुझ जैसे अकिन्चन को अपनी शरण में लेना, उनकी अपार करुणा व महानतम कृपा का प्रमाण है। मेरी असंख्य त्रुटियों एवं कमियों को धैर्यपूर्वक सुधारना, उनकी सहृदयता एवं संवेदनशीलता को व्यक्त करता है।

गुरु कुम्हार सिख कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढ़ै खोट।
भीतर से अवलम्ब दै, ऊपर मारै चोट।।

ऐसे स्वयं सिद्ध सद्गुरु का संरक्षण एवं छत्र छाया जिसे एक बार प्राप्त हो जाय, उसके जीवन में कोई विपत्ति या संकट कभी भी भयभीत नहीं कर सकते।

संसार में ऐसे अनेकानेक गुणवान व्यक्ति हैं, जिन्हें हम महान् कहते हैं, परन्तु यह आवश्यक नहीं कि वे समाज में सबके लिए आदर्श हों। उनके व्यक्तित्व में कई विशेषताएं होते हुए भी वे लोक कल्याण के लिए उपादेय हों, यह जरूरी नहीं।
परमपूज्य महाराज श्री का जीवन एक ऐसा आदर्श उदाहरण है, जिसमें ‘प्रवृत्ति’ एवं ‘निवृत्ति’ दोनों ही परम्पराओं का सांगोपांग निर्वाह दिखाई देता है। बहते युग प्रवाह में, वे एक आदर्श ‘‘युग पुरुष’’ की भांति, समाज में दिग्भ्रमित को दिशाबोध कराते हैं और अपनी अनुभूति प्रसूत वाणी से नास्तिकों के अन्तःकरण में भी विश्वास की लौ जगा देते हैं। अमृत बांटने के उद्देश्य से इस धराधाम पर पधारे हुए श्रीराम के अनन्य सेवक, समाज के वैचारिक एवं भावनात्मक परिवर्तन लाने में निरन्तर प्रयत्नरत है।

बहिरंग जगत् में भले ही रामराज्य की स्थापना वर्तमान युग में संभव नहीं, परन्तु आन्तरिक जगत में यह महानतम लक्ष्य साकार हो, मोहरूपी रावण की सत्ता समाप्त हो कर श्रीराम का अखण्ड प्रेमराज्य स्थापित हो, प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में दुख-दोष एवं संशय दूर हो, सुख एवं शान्ति का साम्राज्य हो, यह उनका सतत यज्ञ प्रयास रहा है। किन्तु उन्होंने इसे कभी भी अपने वैयक्तिक उपलब्धि के रूप में नहीं देखा, चाहे वे अन्तरंग साक्षात्कार के क्षण हों या व्यासासन के भावोद्गार हों। यह उनकी विनम्रता की पराकाष्ठा है या निजानुभूति की सत्य स्वीकृति है ? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसके निष्कर्ष तक कोई नहीं पहुँच पाया। अपने ईष्ट के प्रति ऐसी अनन्यता और निष्ठा जैसे परम पूज्य महाराज श्री में दृष्टिगोचर होती है वैसी अविचल श्रद्धा, मुझे अपने जीवन में आज तक अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिली।

युग पुरुष, अभिनव तुलसी, महान तत्ववेत्ता, मानस मर्मज्ञ, दार्शनिक साहित्यकार, कवि हृदय, अनूठे समीक्षक, भक्त शिरोमणि, सन्त प्रवर, धर्मसेतु जैसी नाना उपाधियों का संगम जिस विराट व्यक्तित्व सिन्धु में होता है—वे परम पूज्य श्री रामकिंकर जी महाराज। ऐसे अवतार पुरुष जहां भी जाते हैं, वहीं ‘कुम्भ’ का महानतम पर्व मनाया जाता है। इस धराधाम को धन्य करने वाले, मानस के निज किंकर आपके श्री चरणों की इस मंदाकिनी का बारम्बरा वंदन स्वीकार करो।

सन्त सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सुनेहु।
बाल विनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु।।
(1-3-ख)

मंदाकिनी

।।श्री रामः शरणं मम।।

मानस में शिवतत्त्व
विविधता में एकता


एक ही तत्त्व को विविध देवताओं के रूप में स्वीकार करना हिन्दू उपासना पद्धति की एक विशिष्टता है। वाह्य दृष्टि से यह बड़ी ही अटपटी पद्धति है जिसे समझना विदेशी विद्वानों के लिए कठिन हो जाता है। भारत में भी इस पद्धति का जो परिणाम बहुधा देखने को मिला वह भी दुर्भाग्यवश उनकी धारणाओं का समर्थन करने वाला है। प्रत्येक वर्ग के एक विशिष्ट भगवान् और अन्य वर्गों के भगवान् से तुलना करते हुए अपने भगवान् की श्रेष्ठता का दावा, संघर्ष तथा एक दूसरे की निन्दा जैसे फलितार्थों को देख कर बहुतों की उसमें अरुचि हो जाना स्वाभाविक है।

तो फिर क्या हिन्दू उपासना पद्धति एक भ्रामक, रूढ़िग्रस्त और अविवेक युक्त वस्तु है ? विचारपूर्वक भारतीय वाङ्मय का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इस उपासना पद्धति के पीछे गम्भीर दर्शन है। स्वयं में उसका उद्देश्य महान् है। भले ही विविध कारणों से अधिकांश लोगों ने उसके तात्त्विक रूप को न समझा हो और उपासना के माध्यम से ही उन्होंने अपने अहं को तुष्टि की हो और उसे संघर्ष का कारण बना लिया हो।
फिर भी समय-समय पर ऐसे महापुरुष हुए जिन्होंने अनेकता में छिपी हुई एकता और अनेकता का तात्त्विक उद्देश्य समाज के समक्ष रख कर उसका उद्बोधन करना चाहा।


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