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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> भवानीशंकरौ वन्दे

भवानीशंकरौ वन्दे

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :448
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4357
आईएसबीएन :0000

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प्रस्तुत है शिव-चरित....

Bhavanishankarau Vande Manas Chintan-2 a hindi book by Sriramkinkar Ji Maharaj - भवानीशंकरौ वन्दे मानस चिंतन-2 - श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।।श्रीराम: शरणं मम।।

निवेदन

सारा भारतीय वाङ्मय भगवान शिव की महिमा से ओतप्रोत है। संस्कृत में ही नहीं तमिल भाषा में भी शिव भक्त आल्वारों की एक महान परम्परा है; जिन्होंने अपनी भावनामयी रचनाओं के द्वारा महादेव की वाङ्मयी अर्चना की है। उत्तर और दक्षिण में वे समान रूप से वंदनीय हैं तथा भारत के अतिरिक्त भी विश्व के अनेकानेक स्थलों में भगवान् रूद्ध की पूजा के प्रमाण प्राप्त होते हैं। देवता और जैत्य दोनों ही समान रूप से जिसके भक्त हैं, वे तो केवल भूत भावन शंकर ही हैं !
श्रीरामचरितमानस में गोस्वामीजी ने भगवान शंकर के अनेक रूपों की ओर संकेत किया है; जो बड़े ही सांकेतिक, प्रेरक और कल्याणकारी हैं। भले ही रामचरितमानस के रचियता के रूप में गोस्वामी तुलसीदास के नाम का प्रयोग किया जाता है, पर इसे स्वयं तुलसीदास जी नहीं स्वीकार करते। उनकी स्पष्ट घोषणा है कि इसकी रचना भगवान शिव के द्वारा की गई। प्रारम्भ में ही-

रचि महेस निज मानस राखा।
(बा.का./34/11)

कहकर वे उसकी स्पष्ट स्वीकृति देते हैं। और समापन में भी इसी का स्मरण दिलाते हुए वे घोषित करते हैं-

यत्पूर्वं प्रभुणा कृतं सुकविना भी शम्भुना दुर्गमं
उ.का.अंतिम श्लोक 1/1

वस्तुत: राम साहित्य के अनेकों अध्येताओं की यह धारणा है, कि भगवान राम के संबंध में जो साहित्य प्राप्त है, उसका आदि स्रोत्र आदि कवि महर्षि वाल्मीकि की ‘रामायण’ है। किन्तु स्वयं गोस्वामीजी इस धारणा को स्वीकार नहीं करते। उनका दृढ़ विश्वास है, कि भले ही महर्षि वाल्मीकि आदि कवि हों, किन्तु तात्विक दृष्टि से इसके रचयिता भगवान शिव ही हैं। महर्षि वाल्मीकि की रचना ग्रन्थ के रूप में, लेखनी के माध्यम से प्रगट हुई, किन्तु भगवान शिव के अन्तर्हृदय में यह रचना अनादि काल से रेखांकित थी। उसकी बाह्य अभिव्यक्ति का कारण भगवती उमा बनीं-

रचि महेस निज मानस राखा।
पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा।। (बा.का./34/11)

महर्षि वाल्मीकि की रचना इतिहासपरक है। किन्तु भगवान् शिव ब्रह्म के रूप में श्रीराम का परिचय देना चाहते हैं। वाल्मीकि आदि कवि हैं और श्रीराम अनादि हैं। अनादि राम का प्रतिपादन तो अनादि शिव के द्वार ही सम्भव है। महर्षि वाल्मीकि साधना के द्वारा सिद्धि हैं, ईश्वर हैं ! ईश्वर को छोड़कर ईश्वर का मर्म दूसरा कौन जान सकता है ? इसीलिए गोस्वामी जी उनकी वन्दना आध्यात्मिक रूप में ही करते हैं। प्रारंभ में वन्दना के श्लोकों में इसका संकेत प्राप्त होता है।

भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्त: स्थमीश्वरम्।।

(बा.का.-वन्दना-2)

परम प्रकाश प्रभु समस्त प्राणियों के अन्त:करण में विद्यमान है; किन्तु व्यक्ति इसका अनुभव कहां कर पाता है ? परम प्रकाश को भी प्रकाशित करना यही भगवान शिव की अद्भुत भूमिका है ? अखण्ड ज्ञान घन श्रीराम का साक्षात्कार श्रद्धा और विश्वास के माध्यम से ही संभव है। इसीलिए गोस्वामी जी दावे से यह कह सकते हैं कि साधारण व्यक्ति की तो बात ही क्या, सिद्ध जन भी श्रद्धा, विश्वास के अभाव में ईश्वर का साक्षात्कार नहीं कर सकते। मानो किसी वस्तु को देखने के लिए प्रकाश के साथ दृष्टि की आवश्यकता भी अनिवार्य है। अन्धे व्यक्ति को प्रकाशवान सूर्य की वस्तु दिखाने में अक्षम है। यह दृष्टि श्रद्धा और विश्वास के माध्यम से ही प्राप्त होती है।

इसीलिए महर्षि याज्ञवल्कय, राम कथा के पहले महर्षि भरद्वाज को शिव चरित्र सुनाते हैं। मानों वे राम के दर्शन के लिए, जिस दृष्टि की अपेक्षा है, उसे भरद्वाज को प्रदान करते हैं।
मानस चिन्तन के प्रथम खण्ड में भगवान् राम की महिमा और चरित्र के विश्लेषण की चेष्टा की गई। किन्तु बाद में मुझे यह लगा कि यह तो क्रम विपर्यय है, और तब प्रभु की प्रेरणा से इसके परिमार्जन के लिए मानस चिन्तन के द्वितीय खण्ड में भगवान शिव के दिव्य स्वरूप को समझाने का प्रयास किया गया और यह ग्रन्थ सुधि जनों को आकृष्ट कर पाया, इसका मुझे हार्दिक संतोष एवं प्रसन्नता है। यह ग्रन्थ अप्राप्य था। चतुर्थ संस्करण के रूप में इस अभाव की पूर्ति का प्रयास किया जा रहा है।

रामकिंकर

।।श्रीराम: शरणं मम।।

पंचम संस्करण


‘भवानीशंकरौ वन्दे’ (मानस चिन्तन भाग-2) का यह पाँचवाँ संस्करण है। महाराजश्री के साहित्य में जीवन के साथ-साथ अमृतत्व और दिव्य औषध का ऐसा अद्भुत सामंजस्य है कि जो हमारे स्वार्थ और परमार्थ दोनों को एक साथ सार्थक करता है।

भगवान् शिव और पार्वती को गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने जिस रूप में जिस क्रम में मानस में प्रस्तुत किया है इस ग्रंथ में पूज्य महाराजश्री रामकिंकर जी ने उसी क्रम से उनके स्वरूपों को व्याख्यायित किया है।
श्री शिवतत्त्व के तात्त्विक जिज्ञासुओं के लिए यह प्रकाशन उपादेय सिद्ध होगा। मूल्य की दृष्टि से लोगों को यह सुगम हो, इस चेष्टा को ध्यान में रखते हुए इस पुस्तक को छोटे-छोटे आठ खण्डों में भी प्रस्तुत किया जायेगा। संभवत: रामायणम् ट्रस्ट के इस निर्णय से पाठकों को अपनी सामर्थ्य के अनुसार इसका लाभ उठाने में सुविधा होगी।

-प्रकाशक



महाराजश्री : एक परिचय



प्रभु की कृपा और प्रभु की वाणी का यदि कोई सार्थक पर्यायवाची शब्द ढूँढ़ा जाय, तो वह हैं- प्रज्ञापुरुष, भक्तितत्त्व द्रष्टा, सन्त प्रवर, ‘परमपूज्य महाराजश्री रामकिंकर उपाध्याय’। अपनी अमृतमयी, धीर, गम्भीर-वाणी-माधुर्य द्वारा भक्ति-रसाभिलाषी-चातकों को, जनसाधारण एवं बुद्धिजीवियों को, नानापुराण- निगमागम, षट्शास्त्र, वेदों का दिव्य रसपान कराकर रससिक्त करते हुए, प्रतिपल निज व्यक्तित्व व चरित्र में रामचरित मानस के ब्रह्मराम की कृपामयी विभूति एवं दिव्यलीला का भावात्मक साक्षात्कार कराने वाले पूज्य महाराजश्री, आधुनिक युग के परम तेजस्वी मनीषी, मनस के अद्भुद शिल्पकार, रामकथा के अद्वितीय अधिकारी व्याख्याकार हैं।

भक्त-हृदय, रामानुरागी पूज्य महाराजश्री ने अपने अनवरत अध्यवसाय से श्रीरामचरितमानस की मर्मस्पर्शी भावभागीरथी बहाकर अखिल विश्व को अनुप्राणित कर दिया है। आपने शास्त्रदर्शन, मानस के अध्ययन के लिए जो नवीन दृष्टि और दिशा प्रदान की है वह इस युग की तरफ की एक दुर्लभ अद्वितीय उपलब्धि है-


धेनवः सन्तु पन्थानः दोग्धा हुलसिनन्दनः
दिव्यराम-कथा दुग्धं प्रस्तोता रामकिंकरः।।


जैसे पूज्य महाराजश्री का अनूठा भाव दर्शन है, वैसे ही उनका जीवन-दर्शन अपने आपमें एक सम्पूर्ण काव्य है। आपके नामकरण में ही श्रीहनुमानजी की प्रतिच्छाया दर्शित होती है। वैसे ही आपके जन्म की गाथा में ईश्वर कारण प्रकट होता है। आपका जन्म 1 नवम्बर सन् 1924 को जबलपुर (मध्यप्रदेश) में हुआ। आपके पूर्वज मिर्जापुर के बरैनी नामक गाँव के निवासी थे। आपकी माता परमभक्तिमयी श्रीधनेसरा देवी एवं पिता पूज्य श्री शिवनायक उपाध्यायजी रामायण के सुविज्ञ व्याख्याकार एवं हनुमानजी महाराज के परम भक्त थे। ऐसी मान्यता है कि श्री हनुमानजी के प्रति उनके सम्पूर्ण एवं अविचल भक्तिभाव के कारण उनकी बढ़ती अवस्था में श्री हनुमन्तयंती के ठीक सातवें दिन उन्हें एक विलक्षण प्रतिभायुक्त पुत्ररत्न की प्राप्ति दैवीकृपा से हुई। इसलिए उनका नाम ‘रामकिंकर’ अथवा राम सेवक रखा गया।

जन्म से होनहार व प्रखर बुद्धि के आप स्वामी रहे हैं। आपकी शिक्षा-दीक्षा जबलपुर व काशी में हुई। स्वभाव से ही अत्यन्त संकोची एवं शान्त प्रकृति के बालक रामकिंकर अपने उम्र के बच्चों की अपेक्षा अधिक गम्भीर थे। एकान्तप्रिय, चिन्तनरत, विलक्षण प्रतिभा वाले सरल बालक अपनी शाला में अध्यापकों के भी अत्यन्त प्रिय पात्र थे। बाल्यावस्था से ही आपकी मेधाशक्ति इतनी विकसित थी कि क्लिष्ट एवं गम्भीर लेखन, देश-विदेश का विशद साहित्य अल्पकालीन अध्ययन में ही आपके स्मृति पटल पर अमिट रूप से अंकित हो जाता था। प्रारम्भ से ही पृष्ठभूमि के रूप में माता-पिता के धार्मिक विचार एवं संस्कारों का प्रभाव आप पर पड़ा, परन्तु परम्परानुसार पिता के अनुगामी वक्ता बनने का न तो कोई संकल्प था, न कोई अभिरुचि।

पर कालान्तर में विद्यार्थी जीवन में पूज्य महाराजश्री के साथ एक ऐसी चामत्कारिक घटना हुई जिसके फलस्वरूप आपके जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। 18 वर्ष की अल्पआयु में जब पूज्य महाराजश्री अध्ययनरत थे, तब अपने कुल देवता श्री हनुमानजी महाराज का आपको अलौकिक स्वप्न दर्शन हुआ जिसमें उन्होंने आपको वट वृक्ष के नीचे शुभासीन करके दिव्य तिलक का आशीर्वाद देकर कथा सुनाने का आदेश दिया। स्थूल रुप में इस समय आप विलासपुर में अपने पूज्य पिता के साथ छुट्टियां मना रहे थे। जहाँ पिताश्री की कथा चल रही थी। ईश्वर संकल्पानुसार परिस्थिति भी अचानक कुछ ऐसी बन गयी कि अनायास ही पूज्य महाराजश्री के श्रीमुख से भी पिताजी के स्थान पर कथा कहने का प्रस्ताव एकाएक निकल गया।

आपके द्वारा श्रोता समाज के सम्मुख यह प्रथम भाव-प्रस्तुति थी, किन्तु कथन व शैली वैचारिक श्रृंखला कुछ ऐसी मनोहर बनी कि श्रोतासमाज विमुग्ध होकर, तन-मन व सुध-बुध खोकर उनमें अनायास ही बँध गया। आप तो रामरस की भावमाधुरी की बानगी बनाकर, वाणी का जादू करके मौन थे, किन्तु श्रोतासमाज आनन्दमयी होने पर भी अतृप्त था। इस प्रकार प्रथम प्रवचन से ही मानस प्रेमियों के अन्तर में गहरे पैठकर आपने अभिन्नता स्थापित कर ली।

ऐसा भी कहा जाता है कि बीस वर्ष की अल्पायु में आपने एक और स्वप्न देखा, जिसकी प्रेरणा से गोस्वामी तुलसीदास के ग्रन्थों के प्राचार एवं उनकी खोजपूर्ण व्याख्या में ही अपना समस्त जीवन समर्पित कर देने का दृढ़ संकल्प कर लिया। यह बात अकाट्य है कि प्रभु की प्रेरणा और संकल्प से जिस कार्य का शुभारम्भ होता है, वह मानवीय स्तर से कुछ अलग ही गति-प्रगति वाला होता है। शैली की नवीनता व चिन्तनप्रधान विचारधारा के फलस्वरूप आप शीघ्र ही विशिष्टतः आध्यात्मिक जगत् में अत्यधिक लोकप्रिय हो गये।

ज्ञान-विज्ञान के पथ में पूज्यपाद महाराजश्री की जितनी गहरी पैठ थी, उतना ही प्रबल पक्ष, भक्ति साधना का, उनके जीवन में दर्शित होता है। वैसे तो अपने संकोची स्वभाव के कारण उन्होंने अपने जीवन की दिव्य अनुभूतियों का रहस्योद्घाटन अपने श्रीमुख से बहुत आग्रह के बावजूद नहीं किया, पर कही-कहीं उनके जीवन के इस पक्ष की पुष्टि दूसरों के द्वारा जहाँ-तहाँ प्राप्त होती रही। उसी क्रम में उत्तराखण्ड की दिव्यभूमि ‘ऋषिकेश’ में श्रीहनुमाजी महाराज का प्रत्यक्ष साक्षात्कार, निष्काम भाव से किये गये एक छोटे से अनुष्ठान के फलस्वरूप हुआ !! वैसे ही श्री चित्रकूट धाम की दिव्यभूमि में अनेकानेक अलौकिक घटनाएँ परमपूज्य महाराजश्री के साथ घटित हुईं जिसका वर्णन महाराजश्री के निकटस्थ भक्तों के द्वारा सुनने को मिला !! परमपूज्य महाराजश्री अपने स्वभाव के अनुकूल ही इस विषय में सदैव मौन रहे।

प्रारम्भ में भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाभूमि वृन्दावन धाम के परमपूज्य महाराज, ब्रह्मलीन स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज के आदेश पर आप कहाँ कथा सुनाने गए। वहाँ एक सप्ताह तक रहने का संकल्प था। पर यहाँ के भक्त एवं साधु-सन्त समाज में आप इतने लोकप्रिय हुए कि उस तीर्थधाम ने आपको ग्यारह माह तक रोक लिया। उन्हीं दिनों मैं आपको वहाँ के महान सन्त अवधूत श्री उड़िया बाबाजी महाराज भक्त शिरोमणि श्रीहरिबाबाजी महाराज, स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज को भी कथा सुनाने का सौभाग्य मिला। कहा जाता है कि अवधूत पूज्य श्रीउड़िया बाबा, इस होनबार बालक के श्री मुख से निःसृत, विस्मित कर देने वाली वाणी से इतने अधिक प्रभावित थे कि यह मानते थे कि यह किसी पुरुषार्थ या प्रतिभा का परिणाम न होकर के शुद्ध भगत्वकृपा का प्रसाद है। उनके शब्दों में- ‘‘क्या तुम समझते हो, कि यह बालक बोल रहा है ? इसके माध्यम से तो साक्षात् ईश्वरीय वाणी का अवतरण हुआ है।’’

इसी बीच अवधूत श्रीउड़िया बाबा से संन्यास दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प आपके हृदय में उदित और परमपूज्य बाबा के समाज के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट करने पर बाबा के द्वारा लोक एवं समाज के कल्याण हेतु शुद्ध संन्यास वृत्ति से जनमानस सेवा की आज्ञा मिली।

सन्त आदेशानुसार एवं ईश्वरीय संकल्पानुसार मानस प्रचार-प्रसार की सेवा दिन-प्रतिदिन चारों दिशाओं में व्यापक होती गई। उसी बीच काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आपका सम्पर्क हुआ। काशी में प्रवचन चल रहा था। उस गोष्ठी में एक दिन भारतीय पुरातत्त्व और साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान एवं चिन्तन श्री वासुदेव शरण अग्रवाल आपकी कथा सुनने के लिए आए और आपकी विलक्षण एवं नवीन चिन्तन शैली से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने काशी हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति श्री वेणीशंकर झा एवं रजिस्ट्रार श्री शिवनन्दनजी दर से Prodigious (विलक्षण प्रतिभायुक्त) प्रवक्ता के प्रवचन का आयोजन विश्वविद्यालय प्रांगण में रखने का आग्रह किया। आपकी विद्वत्ता इन विद्वानों के मनोमस्तिष्क को ऐसे उद्वेलित कर गई कि आपको अगले वर्ष से ‘विजिटिंग प्रोफेसर’ के नाते काशी हिन्दू विश्वविद्यलय व्याख्यान देने के लिए निमंत्रित किया गया। इसी प्रकार काशी में आपका अनेक सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैसे श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी, श्री महादेवी वर्मा से साक्षात्कार हुआ एवं शीर्षस्थ सन्तप्रवर का सन्निध्य प्राप्त हुआ।

अतः पूज्य महाराजश्री परम्परागत कथावाचक नहीं हैं, क्योंकि कथा उनका साध्य नहीं, साधना है। उनका उद्देश्य है भारतीय जीवन पद्धति की समग्र खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त मस्तिष्क से, विशाल परिकल्पना से श्री रामचरितमानस के अन्तर्रहस्यों का उद्घाटन किया है। आपने जो अभूतपूर्व एवं अनूठी दिव्य दृष्टि प्रदान की है, जो भक्ति-ज्ञान का विश्लेषण तथा समन्वय, शब्द ब्रह्म के माध्यम से विश्व के सम्मुख रखा है, उस प्रकाश स्तम्भ के दिग्दर्शन में आज सारे इष्ट मार्ग आलोकित हो रहे हैं ! आपके अनुपम शास्त्रीय पाण्डित्य द्वारा, न केवल आस्तिकों का ही ज्ञानवर्धन होता है अपितु नयी पीढ़ी के शंकालु युवकों में भी धर्म और कर्म का भाव संचित हो जाता है। ‘कीरति भनिति भूति भलि सोई’.....के अनुरूप ही आपने ज्ञान की सुरसरि अपने उदार व्यक्तित्व से प्रबुद्ध और साधारण सभी प्रकार के लोगों में प्रवाहित करके ‘बुध विश्राम’ के साथ-साथ सकल जन रंजनी बनाने में आप यज्ञरत हैं। मानस सागर मैं बिखरे हुए विभिन्न रत्नों को सँजोकर आपने अनेक आभूषण रूपी ग्रन्थों की सृष्टि की है। मानस-मन्थन, मानस-चिन्तन, मानस-दर्पण, मानस-मुक्तावली, मानस-चरितावली जैसी आपकी अनेकानेक अमृतमयी अमर कृतियां हैं जो दिग्दिगन्तर तक प्रचलित रहेंगी। आज भी वह लाखों लोगों को रामकथा का अनुपम पीयूष वितरण कर रही हैं और भविष्य में भी अनुप्राणित एवं प्रेरित करती रहेंगी। तदुपरान्त अन्तर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन नामक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के भी आप अध्यक्ष रहे।

निष्कर्षतः आप अपने प्रवचन, लेखन और शिष्य परम्परा द्वारा जिस रामकथा पीयषू का मुक्तहस्त से वितरण कर रहे हैं, वह जन-जन के तप्त एवं शुष्क मानस में नवशक्ति का सिंचन कर रही है, शान्ति प्रदान कर समाज में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक चेतना जाग्रत् कर रही है।

अतः परमपूज्य महाराजश्री का स्वर उसी वंशी में भगवान का स्वर ही गूंजता है। उसका कोई अपना स्वर नहीं होता। परमपूज्य महाराजश्री भी एक ऐसी वंशी हैं, जिसमें भगवान् के स्वर का स्पन्दन होता है। साथ-साथ उनकी वाणी के तरकश से निकले, वे तीक्ष्ण विवेक के बाण अज्ञान-मोह-जन्य पीड़ित जीवों की भ्रांतियों, दुर्वृत्तियों एवं दोषों का संहार करते हैं। यों आप श्रद्धा और भक्ति की निर्मल मन्दाकिनी प्रवाहित करते हुए महान् लोक-कल्याण कारी कार्य सम्पन्न कर रहे हैं।

रामायणम ट्रस्ट पूज्य महाराजश्री रामकिंकरजी द्वारा संस्थापित एक ऐसी संस्था है जो तुलसी साहित्य और उसके महत् उद्देश्यों को समर्पित है। मेरा मानना है कि परम पूज्य महाराजश्री की लेखनी से ही तुलसीदास जी को पढ़ा जा सकता है और उन्हीं की वाणी से उन्हें सुना भी जा सकता है। महाराजश्री के साहित्य और चिन्तन को समझे बिना तुलसीदास के हृदय को समझ पाना असम्भव है।

रामायणम् आश्रम अयोध्या जहाँ महाराजश्री ने 9 अगस्त सन् 2002 को समाधि ली वहाँ पर अनेकों मत-मतान्तरों वाले लोग साहित्य प्राप्त करने आते हैं, तो महाराजश्री के प्रति वे ऐसी भावनाएं उड़ेलती हैं मानों कि मन होता है कि महाराजश्री को इन्हीं की दृष्टि से देखना चाहिए। वे अपना सबकुछ न्यौछावर करना चाहते हैं उनके चिन्तन पर। महाराजश्री के चिन्तन ने रामचरित मानस के पूरे घटनाक्रम को और प्रत्येक पात्र की मानसिकता को जिस तरह से प्रस्तुत किया है उसको पढ़कर आपको ऐसा लगेगा कि आप उस युग के एक नागरिक हैं और घटनाएँ आपके जीवन का सत्य हैं। हम उन सभी श्रेष्ठ वक्ताओं के प्रति भी अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हैं तो महाराजश्री के चिन्तन को पढ़कर प्रवचन करते हैं और मंच से उनका नाम बोलकर उनकी भावनात्मक आरती उतारकर अपने बड़प्पन का परिचय देते हैं।

रामायणम, ट्रस्ट के सचिव श्री मैथिलीशरण शर्मा ‘भाईजी’ विगत 29 वर्षों से महाराजश्री की साहित्यिक सेवा का प्रमुख कार्य देख रहे हैं। इतने वर्षों से मैं यही देखती हूँ कि वे प्रतिदिन यही सोचते रहते हैं कि किस तरह महाराजश्री के विचार अधिक लोगों तक पहुँचें। साथ ही उनके सहयोगी डा. चन्द्रशेखर तिवारी इस महत्कार्य को पूर्ण करने में अपना योगदान देते हैं, उनको भी मैं हार्दिक मंगलकामनाएं एवं आशीर्वाद प्रदान करती हूँ। रामायणम् भी मैं हार्दिक मंगलकामनाएं एवं आशीर्वाद प्रदान करती हूं। रामायणम् ट्रस्ट से सभी ट्रस्टीगण इस भावना से ओत-प्रोत हैं कि ट्रस्ट की सबसे प्रमुख सेवा यही होनी चाहिए कि वह एक स्वस्थ चिन्तन के प्रचार प्रसार-प्रसार में जनता को दिशा एवं दृष्टि दे और ऐसा सन्तुलित चिन्तन पूज्य श्रीरामकिंकरजी महाराज में प्रकाशित होता और प्रकाशित करता दिखता है। पाठकों के प्रति मेरी हार्दिक मंगलकामनाएं !


प्रभु की शरण में
मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी


भूमिका


भक्ति-शिरोमणि महाकवि तुलसीदास की अनेक विशेषताओं में से एक है, जीवन के प्रति उनकी व्यापक दृष्टि। आज के सामाजिक जीवन में द्वेष, संघर्ष और हिंसा की प्रवृत्तियाँ बढ़ती जा रही हैं, तब इस दृष्टिकोण का अधिकाधिक प्रचार और प्रसार आवश्यक है। प्रान्त, भाषा, धर्म और राजनीति को लेकर विभाजन की प्रवृत्तियाँ तीव्रता से पनपती जा रही हैं। उससे यह भय होना स्वाभाविक ही है कि कहीं हम टूटकर बिखर न जाएँ।

आज हम जिन प्रवृत्तियों से पीड़ित हैं, वे सर्वथा नई हों, ऐसा नहीं कहा जा सकता। सत्य तो यह है कि संघर्ष की यह प्रवृत्ति-मन में अनादि काल से विद्यमान है संघर्ष का यह मनोभाव सर्वथा अनपेक्षित भी नहीं है क्योंकि जिस व्यक्ति या समाज में संहर्ष की क्षमता समाप्त हो जाती है वह सर्वथा गतिशून्य हो जाता है।

ऐसी स्थिति में उसका विनाश अवश्यम्भावी है। किन्तु संघर्ष की यह प्रवृत्ति तभी तक कल्याणकारिणी रह पाती है जब तक उसका प्रयोग दीनता, अन्याय और अत्याचार को मिटाने में किया जाता है। हाँ, संघर्ष की इस वृत्ति का दुरुपयोग करने वालों की संख्या भी समाज में कम नहीं होती। यह वे लोग हैं, जो स्वार्थ और नेतृत्व की आकांक्षा से प्रेरित होकर जनसाधारण में ऐसी भावनाएँ भरने में सफल हो जाते हैं, जिससे वे अपनी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं को पूर्ण कर सकें। भले ही इसका दुष्परिणाम समाज और देश को क्यों न भुगतना पड़े।



प्रथम पृष्ठ

    अनुक्रम

  1. अनुवचन
  2. भाव-निवेदन
  3. निवेदन
  4. महाराजश्री : एक परिचय
  5. भूमिका
  6. एक और अनेक
  7. दक्ष और शिव
  8. दक्षकुमारी
  9. संशयात्मा विनश्यति
  10. यज्ञतत्त्व
  11. जब ते उमा शैलगृह आई
  12. तप
  13. रामप्रेम और संसार
  14. श्रद्धा की समग्रता
  15. जाकर मन रम जाहि सन
  16. प्रत्येक युग में तारकासुर
  17. मदन दहन
  18. शिव की तृतीय दृष्टि
  19. काम का पुनरूत्थान
  20. द्वापर और कृष्णावतार
  21. कोपेउ जबहिं बारिचर केतू
  22. निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु
  23. श्रद्धा और निष्कामता
  24. हर गिरिजा कर भयहु बिबाहू
  25. लागि दया कोमल चित सन्ता
  26. पावन परिणय
  27. समर्पण
  28. षडानन का जन्म
  29. मानस का प्राकट्य

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