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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> साधुचरित

साधुचरित

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4365
आईएसबीएन :00000

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साधु जीवन का चरित्र-चित्रण.....

Sadhu Charith

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


जब कोई व्यक्ति मानस के सन्दर्भ में मेरे गम्भीर अध्ययन और परिश्रम की प्रशंसा करता है, तब मुझे हँसी आये बिना नहीं रहती क्योंकि वस्तु स्थिति यह है कि राम कथा मेरे लिए उतनी ही सहज है जितनी सहज साँस लेना है। जब कोई व्यक्ति साँस लेने की क्रिया का कोई अहंकार थोड़े ही करता है कि मैं कितनी सावधान हूँ कि रात-दिन साँस लेता हूँ।

साधु चरित शुभ चरित कपासू।
निरस बिसद गुनमय फल जासू।।
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा।
बन्दनीय जेहिं जग जस पावा।।


वंदौ तुलसी के चरण...



जीवन जिया था पिया दुख के हलाहल को आपने पिलाया प्रेम अमिय सुबानी से चारों ओर छाई थी निराशा की अँधेरी रात आपने जलाई ज्योति ज्ञान की सुबानी से नीति प्रीति स्वार्थ परमार्थ का समन्वय हो ऐसी अनहोनी सिखलाई दिव्य वाणी से ज्ञानी कहूँ या भक्त कहूँ या कि कर्मयोगी कहूँ किंकर कृतार्थ हुआ आपकी सुबानी से

रामकिंकर

आशीर्वचन


प्रिय कामता प्रसाद देवांगन और उनका परिवार जब से सम्पर्क में आया है, उनकी धर्मनिष्ठा और भक्तिभावना का अवलोकन करता रहा हूँ । समस्त परिवार ही संस्कारित तथा धर्मपरायण है। साधु-सन्त, विद्वान तथा समाज के प्रत्येक वर्ग और व्यक्ति के प्रति सेवा-भाव रखते हुए, अपने क्षेत्र की धार्मिक संस्थाओं के क्रिया-कलापों में यथा-शक्ति सहयोग देना इनका स्वभावगत गुण है।

‘साधुचरित’ के प्रकाशन द्वारा लाखों पाठकों की ज्ञान पिपासा ही शान्त नहीं होगी अपितु मानव-जीवन को सार्थक बनाने की दिशा भी मिलेगी इसके लिए वे साधुवाद के पात्र हैं।
अन्त में मैं उनकी सद्भावना की पूर्ति हेतु प्रभु से प्रार्थना करते हुए, उनके समस्त परिवार को भक्ति-पथ पर बढ़ते जाने का आशीर्वाद देता हूँ।

रामकिंकर

दो शब्द


परमपूज्य गुरुदेव युगतुलसी महाराज श्री रामकिंकर जी के श्री चरणों में मेरा कोटि-कोटि प्रणाम। गुरुदेव की असीम कृपा से यह प्रकाशन सम्भव हो सका है, मैं अपने जीवन का यह सबसे सुखद क्षण अनुभव कर रहा हूँ। और भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि जब-जब मेरा जन्म हो परमपूज्य महाराज श्री रामकिंकर जी मुझे गुरु  रूप में प्राप्त हों।
 धन्यवाद

कामता प्रसाद देवांगन

श्री रामः शरणं मम।।


मनसि वचसि काये साधनोऽह्लादयन्ति,
प्रतिदिवसमनोज्ञां रामगाथां वदन्ति।
विचरति भुवि मध्ये साधवो तोषणार्थं
जयतु जयतु देवो किंकरोराम धन्यः।।1।।

जीवनं यस्य साधूनामर्पितः किल सर्वदा।
तं नमामि गुरुं साक्षात् रामकिंकर स्वरूपिणम्।।2।।

वाणी सदा सुख कारी किल तात्त्विकाऽस्ति,
यस्या कथा सतत मंगलदायिनी च।
स्वाभाविकं चरितसाधुसमस्तयुक्तां
तं रामकिंकर गुरुं सततं स्मरामि।।3।।

अपरः तुलसीकोऽयं सदा कथ्यन्ति पण्डिता।
सर्वभूतरताः नित्यं तं भजामि गुरुं परम्।।4।।

चरिंतं साधुसन्तानां सन्ति ग्रन्था अनेकशः।
परं तु साधुचरितोऽयं सर्वस्वं साधुदर्शनम्।।5।।

श्री चरणानुरागी

डॉ. गिरिजाशंकर शास्त्री

प्रथम प्रवचन


साधु चरित शुभ चरित कपासू।
निरस बिसद गुनमय फल जासू।।
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा।
बन्दनीय जेहिं जग जस पावा।। 1/1/5,6


प्रसंग के रूप में जो पंक्तियाँ अभी आपके सामने पढ़ी गई हैं, गोस्वामीजी ‘मानस’ के प्रारम्भ में उन पंक्तियों में सन्तों की महिमा का वर्णन करते हुए बताते हैं कि ‘साधु का क्या लक्षण है’ साथ ही वे यह भी संकेत करते हैं कति ‘साधुता कितनी कठिन है।’ यहाँ जो ‘साधु’ शब्द आया है, उसके सन्दर्भ में मुझे महात्मा से यह बात सुनने को मिली, जिसमें उन्होंने बताया कि ‘वे व्यक्ति धन्य हैं जिन्हें भगवान की कृपा प्राप्त होती है।’ कृपा की उपलब्धि निःसन्देह अद्भुत है, पर उसमें और साधुता में अन्तर है। भगवान की कृपा केवल साधु या सन्त पर ही हो सकती हो, ऐसा कोई नियम नहीं है। प्रभु की कृपा क्यों और कैसे और किस पर होती है, यह समझ पाना असम्भव-सा प्रतीत होता है।

गोस्वामीजी बार-बार यही कहते हैं कि ‘प्रभु’ ! मैं आज तक यह समझ नहीं पाया कि आपकी कृपा किसी पर क्यों होती है। मुझे यदि यह ज्ञात हो जाता कि किस आचरण अथवा साधना वाले व्यक्ति पर आप कृपा करते हैं तो मैं भी अपने जीवन में उसी प्रकार के आचरण और साधना को अपनाने की चेष्टा करता। पर मेरी दृष्टि उन सबकी ओर जाती है जिन पर आपने कृपा की है तो मैं कुछ समझ नहीं पाता। क्योंकि मुझे तो उन पात्रों के चरित्र में, जीवन में परस्पर बड़ी भिन्नता दिखाई देती है। उनमें से किसी का चरित्र बहुत उत्कृष्ट दिखाई देता है तो दूसरे के चरित्र में ऐसी कोई ऊँचाई अथवा विशेषता बिलकुल भी दिखाई नहीं देती। ऐसी स्थिति में तो यह कहा जा सकता है कि ‘साधना’ और ‘कृपा’ में भिन्नता है। साधना में आप यत्किंचित स्वतन्त्र हैं, अपना लक्ष्य निर्धारित कर सकते हैं और उसे पाने के लिए कौन-सा साधन करना चाहिए इसका चुनाव कर सकते हैं। इसका अभिप्राय है कि साधक को अपने विवेक से निश्चय करने की तथा उसके लिए साधन-पथ चुनकर उस पर चलने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। पर कृपा में ऐसी कोई स्वतन्त्रता नहीं है। व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि ‘मैं ऐसा करूंगा तो प्रभु कृपा करेंगे ही।’ यहां तो बड़ी विचित्र स्थिति है।
‘मानस’ में जिन पर प्रभु की कृपा हुई उन पर दृष्टि डालने से यह बात स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। ‘मानस’ में यह वर्णन किया गया है कि कैवल्य परमपद, मुक्ति बड़ी दुर्लभ है—


अति दुर्लभ कैवल्य परम पद।
सन्त पुरान निगम आगम बद।। 7/118/3


अतः किसी जिज्ञासु को, साधक को साधना के बाद यदि इस तत्वज्ञान की उपलब्धि हो, तो यह स्वाभाविक है। पर जब हम पढ़ते हैं कि वह मुक्ति राक्षसों को भी मिल गई तो आश्चर्य होता है। क्योंकि उन राक्षसों के अन्तःकरण में न तो श्रद्धा ही थी और न कोई जिज्ञासा की वृत्ति ही थी। जो षड् सम्पत्ति कही जाती है, उनमें उसका सर्वथा अभाव था।
लंकाकाण्ड में वर्णन आता है कि जब युद्ध समाप्त हो गया तो देवराज इन्द्र ने आकर प्रभु के चरणों में प्रणाम किया और उनसे प्रार्थना की कि ‘आप मेरे लिए कोई सेवा बताएँ।’ प्रभु तो बड़े उदार हैं। उन्होंने इन्द्र से कहा कि ‘तुम तो बड़े सुजान हो। तुम अमृत की वर्षा करके, मेरे लिए जिन्होंने अपने प्राण-त्याग दिए हैं उन सबको जीवित कर दो।’ प्रभु से अपने लिए ‘सुजान’ की उपाधि सुनकर इन्द्र को बड़ी प्रसन्नता हुई। भगवान राम इन्द्र से कहते हैं कि—

मम हित लागि तजे इन्ह प्राना।
सकल जिआऊ सुरेस सुजाना।। 6/113/2

ऐसी उपाधि इन्द्र को अन्यत्र कहीं नहीं मिली, अपितु कहीं तो यहाँ तक कह दिया गया है कि—


सरिस स्वान मघवान जुबानू।

और इस प्रकार इन्द्र और श्वान की तुलना कर दी गई। एक और प्रसंग में ऐसी ही बात कही गई—

सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज।।1/125






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