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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> दंडक बनु

दंडक बनु

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :135
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4370
आईएसबीएन :00000

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दण्डक वन में श्रीराम, एक दृष्टि

Dandak Banu Prabhu Keenh Suhavana

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।। श्री रामः शरणं मम ।।

प्राक्कथन

‘बिरला अकादमी आफ आर्ट एण्ड कल्चर’ द्वारा सुनियोजित मानस प्रवचन अनुष्ठान विगत अनेक वर्षों से दिल्ली के भक्त और जिज्ञासु जन-समुदाय की भावना एवं श्रद्धा का केन्द्र रहा है। इस आयोजन में नित्य संध्या प्रवचन से पूर्व बिरला दम्पत्ति श्री बसन्त कुमार बिरला एवं सौजन्यमयी सरलाजी बिरला का खड़े रहकर सभी श्रोताओं का स्वागत करना और श्रोताओं का अपार उत्साह देखते ही बनता है।

प्रवचन के इस आयोजन और प्रकाशन के मूल में इन्हीं बिरला दम्पत्ति की श्रद्धा-भावना रहती है। श्रीबसंत कुमार जी एवं सरलाजी की आस्था की जड़ें और संस्कारों के श्रोत बड़े गहरे हैं। मैं दोनों को हार्दिक आशीर्वाद देता हूँ।
दण्डकारण्य के पात्रों में जितनी विविधता दिखाई देती है उतनी और किसी काण्ड में नहीं। इसमें यदि सुतीक्ष्ण और मुनि शरभंग जैसे भक्त पात्रों का मधुर संस्मरण प्रस्तुत किया गया है तो दूसरी ओर सूर्पनखा, खर-दूषण-त्रिसरा जैसे पात्र भी अरण्यकाण्ड में प्रस्तुत किए गए हैं।

एक ओर यदि इसमें वासना की घनीभूत रूप सूर्पनखा है तो दूसरी ओर भक्ति स्वरूपा शबरी जी हैं। पिछले वर्ष इनमें से कुछ पात्रों के विषय में कुछ चर्चा करने की चेष्टा की गई थी, पर इस काण्ड की महनीय वंदनीय भावनामयी शबरी हैं।
सूर्पनखा जनकनंदनी और प्रभु के वियोग का कारण बनती है, प्रभु श्री रामभद्र इन्हें पाने के लिए शबरी से ही प्रश्न करते हैं। और इस तरह इस काण्ड में सूर्पनखा और शबरी के माध्यम से अविद्या और भक्ति तत्व की व्याख्या की जाती है।
पिछले वर्ष इस प्रसंग को स्पर्श करने की चेष्टा की गई थी। प्रस्तुत पुस्तक में इसी विषय पर चर्चा की गई है। टेप से लिपिबद्ध कर संपादन आदि का श्रद्धापूर्ण कार्य श्री नंदकिशोर स्वर्णकार द्वारा होता है। श्री टी.सी.चौरड़िया इसके प्रकाशन में आशीर्वाद के पात्र हैं।

रामकिंकर

।। श्री रामः शरणं मम ।।


एहि बिधि गए कछुक दिन बीती।
कहत बिराग ग्यान गुन नीती।।
3/16/2

अनंत वात्सल्यमई जगज्जननी श्री सीताजी और परम् करुणामय श्री रामभद्र की महती अनुकंपा से पुन: इस वर्ष यह सुअवसर मिला है कि जब भगवान लक्ष्मीनारायण के इस पावन प्रांगण में प्रभु और उनके भक्तों के चरित्र की चर्चा की जा सके। यह हमारे बिरला दंपत्ति सौजन्यमई श्रीमती सरलाजी बिरला तथा श्री बसंतकुमारजी बिरला की श्रद्धा-भावना का परिणाम है कि विगत अनेक वर्षों से यह कथाक्रम निर्बाध रूप से संपन्न हो रहा है। प्रभु ने अपने इस कार्य के लिए उन्हें निमित्त बनाकर जो धन्यता प्रदान की है इसके लिए वे प्रशंसा के पात्र हैं।

पिछले वर्ष अरण्यकाण्ड का वह प्रसंग चल रहा था जिसमें भगवान राम श्री लक्ष्मणजी के द्वारा पूछे गए प्रश्नों का पहले संक्षेप में सारगर्भित उत्तर देते हैं, फिर उसके पश्चात् दृश्य परिवर्तित होता है और घटनाओं का एक अनोखा क्रम उपस्थित हो जाता है। ऐसा लगता है कि प्रभु ने अभी-अभी वाणी के द्वारा जो उपदेश दिया था उसे ही वे इस लीला के माध्यम से बड़े विस्तार से साकार रूप में प्रस्तुत कर देते हैं।

एक दिन लंकाधिपति रावण की बहन सूर्पणखा दण्डकारण्य के उस स्थल-पंचवटी में आती है जहां भगवान राम श्रीसीताजी और श्री लक्ष्मणजी के सहित निवास कर रहे थे। यही सूर्पणखा जनकनंदिनी श्रीसीता और भगवान राम के वियोग का कारण बनती है। इसी दण्डकारण्य में ही एक और नारी पात्र शबरीजी भी निवास करती हैं जो भगवान राम को वह उपाय बताती हैं जिससे भगवान राम और श्री सीताजी का पुन: मिलन होता है।

भगवान राम जब श्रीसीताजी की खोज में निकलते हैं तो इस क्रम में वे भक्तिमती शबरीजी के आश्रम में आते हैं और वे शबरी जी से प्रश्न करते हुए कहते हैं कि-

जनकसुता कइ सुधि भामिनी।
जानहि कहु करिबरगामिनी।।
3/35/10

क्या आप सीताजी की सुधि जानती हैं ? और यदि जानती हैं तो बताएँ कि उन्हें पाने का उपाय क्या है ? भगवान राम का प्रश्न सुनकर शबरीजी बड़े संकोच और विनम्रता से उन्हें जो उपाय बताती हैं, भगवान राम उसका पालन करते हैं और अंततोगत्वा सीताजी को पाने में सफल होते हैं। इस प्रसंग के माध्यम से जो संकेत-सूत्र हमें प्राप्त होते हैं वे बड़े महत्वपूर्ण हैं।
मनुष्य के सामने जो एक शाश्वत समस्या रही है, वह समस्या है दुख की। प्रत्येक व्यक्ति सुख ही सुख पाना चाहता है, पर न चाहने पर भी दुख आ ही जाते हैं। ऐसी स्थिति में ‘दुख के कारण क्या हैं तथा उसके निवारण के क्या उपाय हैं ?’ यह जानने की जिज्ञासा व्यक्ति के हृदय में स्वाभाविक रूप से होती है। ‘मानस’ में भगवान राम और लक्ष्मणजी के संवाद के माध्यम से इसी की ओर संकेत किया गया है।

समाज में एक बड़ा प्रचलित शब्द है-‘माया’ और यह माना जाता है कि माया ही दुख का कारण है। भगवान राम भी लक्ष्मणजी के प्रश्नों का उत्तर यही कहकर देते हैं कि माया का एक रूप ऐसा भी है जो दुख का मूल कारण है। वे कहते हैं कि-

एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा।
जा बस जीव परा भवकूपा।।
3/14/5

प्रत्येक व्यक्ति व्यवहार में बार-बार इस ‘माया’ शब्द का प्रयोग करता रहता है, पर सचमुच इसका स्वरूप क्या है ? क्या यह कोई ऐसी नारी है जो व्यक्ति को अपने बंधन में बाँधकर कष्ट दिया करती है ? कई बार उसे एक साकार रूप में भी आरोपित कर दिया जाता है। पर वस्तुतः भगवान राम लक्ष्मणजी से माया की जो व्याख्या करते हैं उसका पूरा का पूरा लक्षण सूर्पणखा के चरित्र में दिखाई देता है। इसी प्रकार भगवान राम ने जिस भक्ति को सुख का मूल बताया था, उसका साकार रूप शबरीजी के चरित्र में दिखाई देता है। इसका तात्पर्य है कि माया रूपी सूर्पणखा दुख का कारण बनती है और भक्तिरूपा शबरी वह उपाय बताती हैं कि जिससे दुखों को दूर करने वाली भक्ति की प्राप्ति होती है।

सूर्पणखा और शबरी में एक अंतर और भी है। सूर्पणखा उस लंकाधिपति रावण की बहन है जो शक्तिशाली है, विद्वान है, तपस्वी है तथा जिसके जीवन में अनेकानेक विशेषताएँ और विलक्षणताएँ विद्यमान दिखाई देती हैं। पर शबरीजी के बारे में ऐसी किसी विशेषता का उल्लेख नहीं मिलता। ‘उनके पिता कौन थे, उनकी कौन-सी जाति थी, तथा उनके सबंधी कौन थे’ इसका भी वर्णन नहीं मिलता। यहाँ तक कि उनका नाम भी ठीक से ज्ञात नहीं है। जंगल में आभीर, जमन, किरात, खस व स्वपच आदि की तरह शबर नाम की भी एक जाति थी, इस नाते उन्हें ‘शबरी’ नाम प्राप्त हो गया। ‘मानस में यही कहा गया है कि-

जातिहीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि।

शबरीजी के जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं है, व्यक्ति जिसका गौरवपूर्वक उल्लेख करना चाहता है।
प्रभु जनकनंदिनी सीता तथा लक्ष्मणजी के साथ चित्रकूट में आनंदपूर्वक निवास कर रहे थे। वे यदि चाहते तो वनवास की पूरी अवधि चित्रकूट में ही रहकर आनंदपूर्वक व्यतीत कर सकते थे। कैकेईजी ने भी उन्हें वन में निवास करने के लिए ही कहा था, अत: किसी भी वन में प्रभु रह लेते तो उनकी आज्ञा का पालन हो जाता। पर प्रभु स्वयं चित्रकूट की प्रेम और आनंदमई भूमि को छोड़कर आगे दण्डकारण्य की ओर प्रस्थान करने का निर्णय करते हैं।

गोस्वामीजी ने प्रभु के चित्रकूट निवास की अवधि के आनंद का वर्णन ‘मानस’ में किया है। गोस्वामी जी मानो जानते थे कि लोगों के मन में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठ सकता है कि ‘सीताजी राजमहल में पली-बढ़ी थीं, जहाँ दिव्य कोमल शय्या आदि सुख-सुविधा के सभी साधन उपलब्ध थे, अत: वन में उन्हें बड़े कष्ट उठाने पड़े होंगे ?’ इसीलिए गोस्वामीजी कहते हैं कि-

सिय मनु राम चरम अनुरागा।
अवध सहस सम बनु प्रिय लागा।।
2/139/4

चित्रकूट की यह भूमि सीताजी के लिए हजारों अयोध्या से भी अधिक सुख देने वाली थी। गोस्वामीजी यह भी कहते हैं कि-


सोइ रघुनाथ करहिं सोइ कहहीं।।
2/140/1

भगवान प्रतिदिन यही प्रयास करते हैं कि जिससे श्रीसीताजी व लक्ष्मणजी को सुख मिले और वे प्रसन्न रहें। इस प्रकार जब ईश्वर ही निरंतर सुख देने के लिए व्यग्र हो जाए, तो फिर उस सुख और आनंद का कौन वर्णन कर सकता है ?
गोस्वामीजी ने चित्रकूट की बड़ी प्रशंसा की है। किसी ने उनसे पूछ दिया कि आप चित्रकूट की इतनी प्रशंसा क्यों करते हैं ? उसमें ऐसी क्या विशेषता है ? गोस्वामीजी ने कहा कि-

क्यों कहौं चित्रकूट-गिरि, संपत्ति,
महिमा-मोद-मनोहरताई।
तुलसी जहँ बसि लखन राम सिय
आनँद-अवधि अवध बिसराई।

(गीतावली-2/46/9)

जिस वन में रहकर भगवान राम आनंद की भूमि अयोध्या को भूल गए, उस चित्रकूट की महिमा का वर्णन भला मैं क्या कर सकता हूँ ? पर ऐसी दिव्य और आनंदमई चित्रकूट-भूमि का परित्याग कर भगवान राम ने दण्डकारण्य में जाने का निर्णय क्यों किया ? इसका एकमात्र कारण यही है कि संसार में मनुष्य-जीवन से जुड़े जो विविध पक्ष हैं उन सबको भगवान राम अपने लीला-चरित्र के द्वारा दिखलाना चाहते हैं। और इनसे जुड़ी हुई जो समस्याएँ हैं उन सबका क्या समाधान होता है, इसे भी बताना चाहते हैं।
भगवान राम लक्ष्मणजी को उपदेश देते हुए, जब माया की व्याख्या करते हैं तो यही कहते हैं कि-

तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ।
बिद्या अपर अबिद्या दोऊ।।
3/14/4

माया के दो रूप हैं-विद्या माया और अविद्या माया। फिर दोनों में क्या अन्तर है, यह बताते हुए प्रभु कहते हैं कि-

एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा।
जा बस जीव परा भवकूपा।।
3/14/5

अविद्या माया दुख देने वाली है तथा इसी के कारण जीव इस संसार-कूप में पड़ा हुआ है।
इस संसार का परिचय समुद्र और नदी के रूप में भी दिया जाता है। पर गोस्वामीजी यहाँ इसे समुद्र या नदी न कहकर ‘कूप’ (कुआँ) कहते हैं। इसके पीछे भी एक सुंदर संकेत है। गोस्वामीजी मानो बताना चाहते हैं कि नदी और समुद्र के संदर्भ में व्यक्ति का पुरुषार्थ, भले ही एक सीमा तक ही हो, पर चल सकता है। वह अपने हाथ-पाँव चलाकर तैरने की चेष्टा कर सकता है, नाव की सहायता लेकर उसे खेकर पार जाने का यत्न कर सकता है। पर कुएँ में गिरे हुए व्यक्ति को कोई दूसरा निकालने वाला हो, तभी वह बच पाएगा। ठीक इसी प्रकार माया के कूप में पड़ा हुआ व्यक्ति एकमात्र भगवान की कृपा से ही बाहर आ सकता है। इसका अर्थ यही है कि अविद्या माया अत्यन्त दुखदाई है।
फिर प्रभु विद्या माया की व्याख्या करते हैं और बताते हैं कि-

एक रचइ जग गुन बस जाकें।
प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें।।
3/14/6

विद्या माया संसार का निर्माण करती है, पर यह निर्माण कार्य वह अपने बल पर नहीं, अपितु ईश्वर की प्रेरणा और शक्ति से करती है, ‘मानस’ में श्रीसीताजी के लिए भी ‘माया’ शब्द का प्रयोग किया गया है। मनु और शतरूपा की प्रार्थना पर जब भगवान श्रीसीताजी के साथ उनके सामने प्रगट होते हैं उस समय वे उनसे श्रीसीताजी का परिचय देते हुए कहते हैं कि-

आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया।
सोउ अवतरिहि मोरि यह माया।।
1/151/4

यही वह आदिशक्ति माया हैं जो संसार का सृजन करती हैं।
इसका अभिप्राय है कि जहाँ एक ओर माया के द्वारा संसार का निर्माण होता है वहीं दूसरी ओर व्यक्ति को दुख भी माया के द्वारा ही प्राप्त होता है। पर दोनों में अंतर यही है कि एक यदि विद्या माया हैं तो दूसरी ओर अविद्या माया कहा गया है। श्रीसीताजी व लक्ष्मीजी विद्या माया हैं तथा सूर्पणखा अविद्या माया का रूप है।

सारे पुराणों में ‘वन’ को बड़ा महत्व दिया गया है। रामचरितमानस में भी वन को महत्वपूर्ण माना गया है। एक ओर वन में जहाँ बड़े-बड़े महामुनि निवास करते हैं, वहीं दूसरी ओर राक्षस तथा दुष्ट प्रवृत्ति वाले भी वन में निवास करते हैं। भगवान राम और भगवान कृष्ण की लीला में वन को बड़ा महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। भगवान कृष्ण ‘वृन्दावन’ के रूप में वन के महत्व को प्रगट करते हैं। भगवान राम की लीला में भी ‘चित्रकूट’ और ‘दण्डकारण्य’ इन दोनों वनों का बड़ा महत्व है।
चित्रकूट के वन में आनंद ही आनंद है और दण्डकारण्य में समस्याएँ ही समस्याएँ हैं। व्यक्ति वन में किसी मुनि के आश्रम में पहुँच जाए तो वन में भी जाकर उसे प्रसन्नता की अनुभूति होती है, पर व्यक्ति वन में यदि अकेला हो और भटक जाए, उसे कोई मार्ग समझ में न आए, तो ऐसी स्थिति में वन उसके लिए आनंद के स्थान पर दुख की ही सृष्टि करेगा। वन की ये दोनों स्थितियाँ मनुष्य के भी भीतर विद्यमान होती हैं गोस्वामीजी यही कहते हैं कि-

रामकथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारू।
1/31

चित्रकूट चित्त की भूमि है। दण्डकारण्य के लिए वे कहते हैं कि-

दंडक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन।
जन मन अमित नाम किए पावन।।
1/23/7

दण्डकारण्य मन की भूमि है। चित्त की स्थिति में पहुँच जाने पर एक शुद्ध आनंद का साक्षात्कार होता है और व्यक्ति जब मन के धरातल पर होता है तो दुखों से अछूता नहीं रह सकता।

यह अनुभव किया जा सकता है कि एकान्त अथवा पूजास्थल में बैठकर ध्यान करने से एक अलग प्रकार का आनंद प्राप्त होता है। पर, व्यक्ति चौबीसों घंटे ध्यान में ही तो नहीं बैठे रह सकता। उसकी एक सीमा होती है। उसके बाद व्यक्ति जब बाहर आता है तब उसके सामने मन और व्यवहार की समस्या होती है। यद्यपि यह बात कही जाती है कि परमार्थ बड़ा कठिन है और स्वार्थ तो संसार का व्यवहार होने से बड़ा सहज और सरल है। पर विचार करने पर यह बात भिन्न दिखाई देती है, उल्टी दिखाई देती है। ध्यान में बैठने में आनंद का अनुभव करने के बाद जब व्यक्ति बाहर निकलता है तो उसके सामने परिवार की समस्या, समाज की समस्या और न जाने कितनी समस्याएँ आ जाती हैं। बहुत सी ऐसी बातें भी होती हैं जिन्हें पढ़ या सुनकर ही व्यक्ति बेचैन हो जाता है।

प्रसंग आता है कि प्रभु रामचन्द्र जब लंका-विजय के बाद अयोध्या पधारे तो उनके साथ मुख्य-मुख्य वानर गण भी आए हुए थे। वे सब राज्याभिषेक के बाद भी प्रभु के साथ छ: माह तक रहे और उस दिव्य स्थिति में घर-परिवार आदि सब कुछ भूल गए।

बिसरे गृह सपनेहुँ सुधि नाहीं।
7/15/1

गोस्वामीजी कहते हैं कि तब प्रभु ने एक निर्णय लिया कि ‘अब इन बंदरों को यहाँ से बिदा करना चाहिए।’ उस समय उन्होंने बंदरों से जो शब्द कहे वे बड़े अनोखे हैं।

भगवान राम बंदरों से यदि यह कहते कि ‘बहुत दिनों तक आपने मेरी सेवा की अब कुछ दिन जाकर घर-परिवार की भी चिन्ता कीजिए।’ तो लगता की यह ठीक बात है। क्योंकि यह एक व्यवहारिक भाषा है। पर वे ऐसा नहीं कहते। प्रभु ने कहा कि-

अब गृह जाहु सखा सब,

‘मित्रों ! तुम सब अब अपने-अपने घरों को जाओ ! पर घर जाकर घर के कामकाज करने मत लगना, अपितु-

भजहु मोहि दृढ़ नेम।

वहाँ जाकर मेरा भजन करना। पूछा जा सकता है कि ‘यदि भजन ही करना है तो यहाँ आपके पास रहकर करना चाहिए ! आप तो घर भेज रहे हैं, वहाँ भजन कैसे होगा ?’ इसका एक व्यवहारिक अर्थ है। एक विद्यार्थी साल भर अध्ययन करता है, पाठ याद करता है, पर जो कुछ सालभर में उसने पढ़ा या याद किया है, उसका पता तो परीक्षा के दिन ही चलता है।
संस्कृत के एक श्लोक में वर्णन आता है कि एक विद्यार्थी को परीक्षा में कुछ न करते देखकर परीक्षक ने जब यह पूछा कि ‘तुम पाठशाला में खूब ध्यान से बैठकर संस्कृत के श्लोकों और व्याकरण के सूत्रों को पढ़ा करते थे, पर आज क्या हो गया ? तो उत्तर में उस विद्यार्थी ने कहा-‘‘क्या करूँ ? गुरु-दक्षिणा में कुछ न कुछ दिया जाता है, मेरे पास देने के लिए कुछ और तो था नहीं, इसलिए जो कुछ गुरुजी से पढ़ा था, वही उन्हें वापस कर दिया।

यत्पठिंत तद् गुरुदेव निवेदितं।

भगवान राम मानो बंदरों को यह संकेत देना चाहते थे कि ‘इस छ; महीने की अवधि में यहाँ रहकर तुम लोग जो शिक्षा प्राप्त करते रहे उसकी परीक्षा तो घर जाकर ही होगी !’
व्यक्ति के परमार्थ की परीक्षा परमार्थ में नहीं, स्वार्थ में है। भगवान राम यह बताना चाहते हैं कि ‘मित्रों ! यहाँ मेरे पास रहकर भजन करना तो बड़ा सरल है, पर तुम्हारे भजन के दृढ़ता की परीक्षा तो घर में जाकर ही होगी। इसलिए भगवान ने जो शब्द चुना वह बहुत महत्वपूर्ण है। वे कहते हैं कि-

अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम।

यह स्वाभाविक है कि हम ध्यान की स्थिति में, परमार्थ की स्थिति में बुराइयों से दूर रहें, पर जब हम स्वार्थ-साधन के लिए बाहर निकलेंगे तो उस समय असली समस्या सामने आएगी। भगवान राम बंदरों को यही संकेत देना चाहते हैं कि ‘यदि तुम लोग यह मानते हो कि अयोध्या में रहकर, मेरे निकट रहकर मेरा भजन करना, मेरी सेवा करना ही मेरी भक्ति है, तो यह एक अधूरी दृष्टि है। क्योंकि अब तक तुम मुझे यहाँ अयोध्या में निवास करता हुआ देखते थे, मुझे मुझमें देखते थे। पर तुम लोग कितने दिनों तक अयोध्या में रहोगे ? मैं भी कितने दिनों तक यहाँ रहकर लीला करूंगा ? समय की एक सीमा होती है अत: तुम सब अपने-अपने घरों में जाकर मेरा भजन करो और-

सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम।
7/16

यदि समाज के सब लोगों में, घर-परिवार के सभी संबंधियों में मैं दिखाई देने लगूँ और तुम उनकी सेवा इसी भावना से करो, तब इसका अर्थ होगा कि तुम सचमुच मुझे पहिचान गए हो और तुम्हारी भक्ति दृढ़ है।’ भगवान राम यह बताना चाहते हैं कि वे सब काल में हैं, सब देश में है और प्रत्येक व्यक्ति में हैं। यह बड़े महत्व का सूत्र है। इस प्रकार स्वार्थ और परमार्थ दोनों ही स्थितियों में सर्वत्र ईश्वर की अनुभूति कर उससे प्रेम करना ही दृढ़ भक्ति है।

भगवान राम चित्रकूट को छोड़कर दण्डकारण्य में जाते हैं, उसके द्वारा वे यही बताना चाहते हैं कि व्यक्ति जब चित्त की भूमि से मन की भूमि पर जाता है तो व्यवहार की सब जटिलताएँ सामने आती दिखाई देती हैं। पर उस समय भी मन में केवल विकृत वृत्तियाँ ही नहीं, अनेक श्रेष्ठ व कल्याणमई वृत्तियाँ भी विद्यमान होती हैं। सूर्पणखा विकृत वृत्ति का एक रूप है।
‘सूर्पणखा’ का अर्थ होता है कि जिसके नाखून सूप के समान हो।
 




 

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