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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> श्रीराम नाम

श्रीराम नाम

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :24
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4373
आईएसबीएन :0000

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राम नाम का महत्व....

Sriram Nam

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

संयोजकीय

रामकथा शिरोमणि सद्गुरुदेव परमपूज्य श्री रामकिंकर जी महाराज की वाणी और लेखनी दोनों में यह निर्णय कर पाना कठिन है कि अधिक हृदयस्पर्शी या तात्त्विक कौन है। वे विषयवस्तु का समय, समाज एवं व्यक्ति की पात्रता का आँकते हुए ऐसा विलक्षण प्रतिपादन करते हैं कि ज्ञानी, भक्त या कर्मपरायण सभी प्रकार के जिज्ञासुओं को उनकी मान्यता के अनुसार श्रेय और प्रेय दोनों की प्राप्ति हो जाती है।

हमारे यहाँ विस्तार और संक्षेप, व्यास और समास दोनों ही विधाओं के समयानुकूल उपयोग की परम्परा रही है। घटाकाश और मटाकाश दोनों ही चिंतन और प्रतिपादन के केन्द्र रहे हैं। प्रवचनों के प्रस्तुत छोटे अंक घटाकाश के रूप में हैं, उनमें सब कुछ है पर संक्षेप में है। पाठकों की कई बार ऐसी राय बनी कि थोड़ा साहित्य छोटे रूप में भी हो ताकि प्रारम्भिक रूप में या फिर यात्री आदि में लोग किसी एक विषय का अध्ययन करने के लिए उसे साथ लेकर चल सकें। इस मनोधारणा से यह कार्य श्रेयस्कर है।
छतरपुर-नौगाँव के श्री जयनारायणजी अग्रवाल महाराजश्री के शिष्य हैं, वे मौन रहकर अनेक सेवाकार्य देखते हैं। उनका तथा बुन्देलखण्ड परिवार का इस पुस्तक में आर्थिक सहयोग रहा। उनको महाराजश्री का आशीर्वाद !

मैथिलीशरण

।। श्रीराम: शरण मम ।।

श्रीराम नाम



‘श्रीरामचरितमानस’ एक ऐसा समन्वयात्मक ग्रन्थ है जिसमें साधना पक्ष में या किसी मान्यता में आग्रह की वृत्ति नहीं है। प्रायः दो प्रकार की परम्पराएँ प्रचलित हैं। एकपरम्परा तो वह है जिसमें किसी विशेष मत के लिए आग्रह है और अन्य मान्यताओं का खण्डन है या किसी एक साधन को स्वीकार किया जाता है और अन्य साधनों को अस्वीकार कर दिया जाता है, उनका निराकरण किया जाता है। पर दूसरी विशिष्ट परम्परा में जहाँ तक गोस्वामीजी का सम्बन्ध है, ‘श्रीरामचरितमानस’ में और ‘विनय-पत्रिका’ में उन्होंने बार-बार यह घोषित किया है कि वस्तुतः इस विवाद में पड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है कि कौन-सी मान्यता सत्य है या सर्वश्रेष्ठ है। इसके स्थान पर यदि हम यह निर्णय करें कि हमारे लिए कौन-सी पद्धति उत्तम है तो यह अधिक उपयुक्त होगा।

यदि आप किसी औषधालय में जाकर पूछें कि आपके पास जितनी दवाएँ हैं, उनमें सर्वश्रेष्ठ दवा कौन-सी है ? तो वैद्य इसका यही उत्तर देगा कि यहाँ तो सभी दवाएँ श्रेष्ठ हैं, आप यह बताइए कि आपको कौन-सा रोग है और कौन-सी दवा आपको चाहिए ? हम इस सत्य को समझ लें कि प्रत्येक व्यक्ति के अन्तःकरण में भिन्नता है, संस्कार में भी भिन्नता है और रोग में भी भिन्नता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए न तो एक ही प्रकार की साधना उपयोगी हो सकती है और न तो इस पर आग्रह किया जा सकता है। गोस्वामीजी के समक्ष विनय पत्रिका में यह प्रश्न था कि आपकी दृष्टि में क्या ठीक है ? तो गोस्वामीजी ने सूत्र देते हुए कहा कि-


प्रीति-प्रतीति जहाँ जाकी, तहँ ताको काज सरो।
-विनय पत्रिका, 226/5


व्यक्ति के अन्त:करण में प्रेम और विश्वास जिस साधन पर है, उस व्यक्ति का कल्याण उसी साधन के द्वारा होता है। यही सूत्र ‘मानस’ में भी है। वे यह स्वीकार करते हैं कि वस्तुतः यह तो अपनी प्रीति और विश्वास की बात है कि हम किस मान्यता के द्वारा स्वयं अपने अन्त:करण की समस्याओं का समाधान ढूँढ़ते हैं। यह जो कर्म, ज्ञान और भक्ति की परम्परा है, उसमें जो सृष्टि की अनगिनत समस्याएँ हैं, उनका समाधान करने की चेष्टा इन तीनों के द्वारा की गयी। इसे मैं यों कहूँगा कि कर्म की परम्परा का अभिप्राय यह है कि हम सृष्टि में कैसे कर्म करें ? कर्म करते हुए भी सृष्टि में जो बन्धन हैं, जो समस्याएँ हैं, उनसे हम कैसे मुक्त हो जायँ ?

कर्मशास्त्र के द्वारा कर्म करने की वह पद्धति बतायी जाती है जिसके द्वारा समाज की, सृष्टि की व्यवस्थाओं का ठीक-ठीक पालन होता है, साथ-साथ हमारा अन्त:करण विकारों से शून्य हो सके, इस बात पर भी बल दिया जाता है। ज्ञानमार्ग की परम्परा यह है कि यह सृष्टि जब तक बनी रहेगी, तब तक इसकी समस्याओं का समाधान कभी होगा ही नहीं। इसलिए वे कहते हैं कि सृष्टि को ज्ञानबल से मिटा डालो। इसका अर्थ है कि सृष्टि के मिथ्यात्व पर ज्ञानमार्ग का बल है। सृष्टि को सत्य मानने पर ही सारी समस्याएँ आती हैं, इसलिए यदि हम सृष्टि को मिटा दें अर्थात् सृष्टि को मिथ्या मान लें तो इसका परिणाम होगा कि उसके द्वारा उत्पन्न होने वाली समस्याओं से हम मुक्त हो जायेंगे। कर्म की परम्परा वाला व्यक्ति सृष्टि में व्यवहार चलाता है और ज्ञानी सृष्टि मिटाता है। भक्ति की परम्परा क्या है ?

भक्त कहते हैं कि यह सृष्टि तो बड़ी दुःखदायिनी है, एक नयी भाव सृष्टि का निर्माण कर लो और उसमें प्रवेश करने पर, सृष्टि के दुःख सुख हमें व्याप्त नहीं होते। भक्त नयी सृष्टि का निर्माण करता है। यह नयी सृष्टि क्या है ? जैसे गोस्वामीजी जब श्रीराम के चरित्र का वर्णन करते हैं तो उसका आनन्द यह नहीं है कि उन्होंने एक इतिहास का वर्णन किया। उसमें विलक्षणता यह है कि जब वे रामराज्य का वर्णन करते हैं तो इस दृष्टि से नहीं करते कि हम रामराज्य की याद करें कि आज से लाखों वर्ष पूर्व रामराज्य हुआ था। अगर हुआ था तो उस समय के लोग बड़े दुखी रहे होंगे। उस समय के लोगों की समस्याओं का समाधान हो गया होगा, पर रामराज्य इतना अच्छा था, रामराज्य में इतना सुख था, इतनी शान्ति थी, इस वर्णन से तो कोई तृप्ति नहीं हो सकती।

गोस्वामीजी भौतिक दृष्टि से जिस समय धरती पर थे, उस समय अकबर का राज्य था। साधारण दृष्टि से देखें तो गोस्वामीजी अकबर के राज्य की प्रजा हैं, लेकिन गोस्वामीजी ने कभी भूलकर भी अकबर का नाम नहीं लिया, अकबर की चर्चा नहीं की। बल्कि उन्होंने जो बात कही, वह बड़े महत्त्व की है। उनसे कहा गया कि अकबर तो बड़ा गुणग्राही है, सन्तों का भी सम्मान करता है और उनकी इच्छा है कि आप उनकी राजसत्ता में आयें तब उन्होंने तुरन्त कहा कि अब दो राजाओं की सभा में एक साथ जाना कैसे होगा ? गोस्वामीजी से पूछा गया कि आप किस राजा की सभा में जाते हैं ? तो उन्होंने कहा कि-


हम चाकर रघुबीर के


महाराजाधिराज जो हमारे प्रभु श्रीराम हैं, मैं तो उनकी सभा का सदस्य हूँ तो फिर अकबर की सभा में नहीं जा सकते क्या ? तो कहा कि हमारी समस्या यह है कि-


हम चाकर रघुबीर के पटो लिखो दरबार।


हमने पट्टा भी लिखा दिया है कि इस सभा को छोड़कर मैं अन्य कहीं जाऊँगा ही नहीं-


हम चाकर रघुबीर के पटो लिखो दरबार।
तुलसी अबका होहिंगे नर के मनसबदार।।


इसका अर्थ क्या हुआ ? गोस्वामीजी अगर यह मानते होते कि इस समय अकबर राजा हैं और श्रीराम नहीं हैं तो व्यवहार में यह स्वीकार कर लेते कि चलो भई ! इस समय का जो राजा है, वह अकबर है, पर वे कहते हैं कि हमारे तो प्रभु साक्षात् ईश्वर हैं। अन्य राजाओं का राज्य तो कभी रहता है और बाद में कभी न कभी समाप्त हो जाता है, पर हमारे प्रभु का जो राज्य है, वह तो कभी भी समाप्त होने वाला नहीं है। इस सृष्टि में चाहे कोई भी राजा हो, पर गोस्वामीजी को तो सर्वत्र और सर्वदा श्रीराम का ही राज्य दिखायी देता है और इसलिए वे अपने आपको उस सभा का सदस्य मानते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि स्थूल सृष्टि में तो अकबर का ही राज्य था, पर गोस्वामीजी का जो भावराज्य है, जो भावसृष्टि है, उसमें अकबर का प्रवेश नहीं है। गोस्वामीजी ने भगवान श्रीराम की बालक्रीडा का बड़ा सुन्दर वर्णन रामचरितमानस में किया। वैसा ही वर्णन कवितावली में भी जब करने लगे तो किसी ने कहा कि एक ही बात बार-बार दोहराने में क्या आनन्द है ? जब आप नया ग्रन्थ लिख रहे हैं तो मानो आप कोई नया चरित्र ले लेते, या किसी नई घटना का वर्णन करते ! आप फिर वही बालक्रीड़ा का वर्णन कर रहे हैं कि श्रीराम खेल रहे हैं, वही बालक्रीड़ा कर रहे हैं। गोस्वामीजी ने कहा कि नहीं, दोनों में एक अन्तर है। अयोध्या में श्रीराम कहाँ खेल रहे हैं ? दशरथ के आँगन में-


मंगल भवन अमंगल हारी।
द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी। 1/111/4


कवितावली में भी कह रहे हैं कि श्रीराम खेल रहे हैं, पर अन्तर यह है कि-
अवधेस के बालिक चारि सदा,

तुलसी-मन-मंदिर में बिहरैं।
कवितावली, 1/3

अभिप्राय यह है कि जब तक वे दशरथ के मन्दिर से हमारे हृदय के मन्दिर में नयी आ जाते तब तक हमें स्वयं सुखानूभूति नहीं हो सकती। भगवान् राम भले ही स्थूल सृष्टि में महाराज दशरथ के आँगन में खेल रहे हों, पर जब हम और आप अपने-अपने अन्त:करण या हृदय के प्रांगण में, जब हम उनकी क्रीड़ा का साक्षात्कार करेंगे तब रस में डूब जायेंगे। माताएँ जब श्रीराम का श्रृंगार देखती हैं तो गोस्वामीजी ने लिखा-


निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी।1/197/5


माताएँ तिनका तोड़कर श्रीराम को देखती हैं। माताओं को लगता है कि कहीं राम को मेरी दृष्टि की नजर न लग जाय, इसलिए पहले तिनके को देख लेती हैं कि जो कुछ टूटना है, वह तिनके में ही टूटे और श्रीराम पर कोई बाधा या विपत्ति न आये। गोस्वामीजी से पूछा गया कि माताएँ तो श्रीराम को देखकर तिनका तोड़ती हैं, आप श्रीराम को देखकर क्या करते हैं ? तो गोस्वामीजी तुरन्त कहते हैं कि-


नेवछावरि प्रान करै तुलसी,
बलि जाऊँ लला इन बोलन की।
कवितावली, 1/5


मैं तो श्रीराम की बोली पर अपने प्राण ही निछावर कर देता हूँ। तिनका क्या होगा ? इनका सौन्दर्य तो ऐसा है कि प्राण को ही तिनका बनाकर फेंक दें तभी उसकी सार्थकता है। इस तरह से भक्त अपनी बनायी हुई भावसृष्टि में, अपने अन्तर्राज्य में भगवान् की जिन लीलाओं का साक्षात्कार करता है, उससे वह बहिरंग सृष्टि में रहते हुए भी ईश्वरीय सृष्टि के आनन्द का अनुभव करता है, लीला का प्रत्यक्ष दर्शन करता है और स्वयं अपने आपको लीला का एक पात्र बना देता है। सचमुच ‘श्रीरामचरितमानस’ की सार्थकता भी यही है। यह प्रश्न करने से कैसे काम बनेगा कि ‘श्रीरामचरितमानस’ के पात्रों में कौन-सा पात्र श्रेष्ठ है ? चुनाव तो हमें यह करना है कि स्वयं अपने आपको भी ‘रामायण’ के उन पात्रों में से कोई पात्र बना लें। यह ‘श्रीरामचरितमानस’ में है, इसमें दिव्य भावसृष्टि भी है। लक्ष्मणजी निषादराज के समक्ष सृष्टि के निराकरण की बात भी कहते हैं-


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