लोगों की राय

आचार्य श्रीराम किंकर जी >> सुन्दरकाण्ड

सुन्दरकाण्ड

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :24
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4374
आईएसबीएन :0000

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

20 पाठक हैं

सुन्दरकाण्ड की महिमा....

Sundarkand

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

संयोजकीय

रामकथा शिरोमणि सद्गुरुदेव परमपूज्य श्री रामकिंकर जी महाराज की वाणी और लेखनी दोनों में यह निर्णय कर पाना कठिन है कि अधिक हृदयस्पर्शी या तात्त्विक कौन है। वे विषयवस्तु का समय, समाज एवं व्यक्ति की पात्रता को आँकते हुए ऐसा विलक्षण प्रतिपादन करते हैं कि ज्ञानी, भक्त या कर्मपराण सभी प्रकार के जिज्ञासुओं को उनकी मान्यता के अनुसार श्रेय और प्रेय दोनों की प्राप्ति हो जाती है।

हमारे यहाँ विस्तार और संक्षेप, व्यास और समास दोनों ही विधाओं के समयानुकूल उपयोग की परम्परा रही है। घटाकाश और मटाकाश दोनों ही चिंतन और प्रतिपादन के केन्द्र रहे हैं। प्रवचनों के प्रस्तुत छोटे अंक घटाकाश के रूप में हैं, उनमें सब कुछ है पर संक्षेप में है। पाठकों की कई बार ऐसी राय बनी कि थोड़ा साहित्य छोटे रूप में भी हो ताकि प्रारम्भिक रूप में या फिर यात्री आदि में लोग किसी एक विषय का अध्ययन करने के लिए उसे साथ लेकर चल सकें। इस मनोधारणा से यह कार्य श्रेयस्कर है।

मैथिलीशरण

सुन्दरकाण्ड


‘श्रीरामचरितमानस’ में छः काण्डों का जो नामकरण किया गया है, उसका कारण स्पष्ट दिखाई देता है। प्रथम काण्ड को बालकाण्ड कहते हैं तो उसमें भगवान् की बाल-लीला का विस्तार है। अयोध्या में जो घटनाएँ घटित हुईं उनका अयोध्यापुरी से घनिष्ठ सम्बन्ध है, इसलिए देख की प्रधानता से उसे अयोध्याकाण्ड कहा गया; अरण्यकाण्ड अरण्यभूमि की लीला से तथा किष्किन्धाकाण्ड भी किष्किन्धा की भूमि से जुड़ा हकुआ है, लंकाकाण्ड भी लंका के युद्ध से सम्बन्धित है और उत्तरकाण्ड में समस्त प्रश्नों का और ‘श्रीरामचरितमानस’ का भी समापन किया गया है, इसीलिए उत्तरकाण्ड नाम दिया गया, पर इस पर किष्किन्धा और लंका के बीच में एक काण्ड का बड़ा विचित्र नाम रख दिया गया है, जिस नाम का तात्पर्य स्पष्ट नहीं हो पाता, उस काण्ड का नाम है—सुन्दरकाण्ड।

सुन्दरकाण्ड को भक्तों में अध्यधिक महत्त्व प्राप्त है। वैसे थो भक्तदगण समग्र ‘रामचरितमानस’ का पाठ करते हैं, परन्तु ऐसे भी अगणित लोग हैं जो कि पूरा पाठ नहीं कर सकते तो वे केवल सुन्दरकाण्ड का पाठ कर लेते हैं। वस्तुतः बहिरंग दृष्टि से देखने पर इस नामकरण का रहस्य प्रकट नहीं होता है, पर यदि इसके अन्तरंग तात्पर्य पर विचार करें तो उसका रहस्य सामने आ सकता है। सुन्दरकाण्ड का मुख्य विषय क्या है ? श्रीजनकनन्दिनी सीताजी का अन्वेषण। सुन्दरकाण्ड में सुन्दरता के दो पक्षों को दो रूपों में प्रस्तुत किया गया है। एक ओर लंका नगरी है, बहरिरंग दृष्टि से वह लंका नगरी बहुत सुन्दर नगरी थी। गोस्वामीजी ने लंका का वर्णन करते हुए भी ‘सुन्दर’ शब्द का प्रयोग किया है—


कनक कोटि विचित्र मनि कृत सुन्दरायातना घना। 5/2/छं-1


लंका नगरनिर्माण की दृष्टि से बड़ी सुन्दर नगरी थी और लंका में नारी सौन्दर्य भी अद्भुत था, जिसका ओर संकेत करते हुए गोस्वामीजी कहते हैं—


नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं। 5/2/छं-2


लंका स्वयं एक सुन्दर पुरी है और वहाँ ऐसा सौन्दर्य है कि जिसे देखकर मुनियों के अन्तःकरण में भी राग का उदय होता है। एक ओर लंका नगरी जो बहिरंग दृष्टि से अत्यन्त सुन्दर प्रतीत होती है और दूसरी ओर जनकनन्दिनी सीता, जिन्हें लंका में बन्दिनी बनाकर रखा गया है। वे कौन हैं ? उनका भी परिचय ‘रामचरितमानस’ में दिया गया है। सौन्दर्य की जो खोज है वही इस काण्ड में हमारे और आपके समक्ष आती है। सौन्दर्य का एक रूप वह है जो संसार की बाहरी वस्तुओं में दिखाई गेता है और सौन्दर्य का दूसरा रूप वह है कि जिसकी केन्द्रीय शक्ति है जनकनन्दिनी सीता। अगर आप इन दोनों प्रसंगों की तुलना करके दृष्टि डालें तो सौन्दर्य के दो लक्षणों की ओर हमारी दृष्टि जाती है।

सीता का प्राकट्य विदेहनगर में हुआ है। ‘रामायण’ में सौन्दर्य की सच्ची परिभाषा क्या है ? सौन्दर्य किसे कहते हैं ? इसकी परिभाषा विदेहनगर में ही सर्वोत्कृष्ट रूप में आपको मिलेगी। दूसरी ओर विदेहनगर की तुलना में लंका है, जो देहनगरी है। देहाभिमान देह को सन्तुष्ट करने की चेष्टा है। अतः देह की पूजा ही लंका का लक्ष्य है। एक ओर है देहनगर का सौन्दर्य और दूसरी ओर है विदेहनगर का सौन्दर्य। तात्त्विक दृष्टि से यों कहें कि देहनगर का सौन्दर्य स्थूल पदार्थों का सौन्दर्य है और विदेहनगर का सौन्दर्य आत्मिक है।

वस्तुतः बाह्य सौन्दर्य वह है जो हमारे अन्तःकरण में वासना और प्रलोभन की सृष्टि करता है और आकृष्ट करके हमें ऐसी दिशा में ले जाता है कि जहाँ जीवन में कभी परितृप्ति है ही नहीं। इसके संकेत सूत्र ‘रामायण’ में इस प्रकार जुड़ा है कि भगवान श्रीराम और रावण के युद्ध की जो भूमिका बनती है उसमें मुख्य पात्र है शूर्पणखा। यह शूर्पणखा की लंका ही वह पात्र है जिसने सबसे पहले श्रीराम और श्रीलक्ष्मण को देखा और उनकी सुन्दरता को देखकर उसके अन्तःकरण में व्याकुलता की उत्पत्ति हुई और इसके पश्चात् वह इस सौन्दर्य को पाने के लिए व्यग्र हो जाती है। उसको लगता है कि ये राजकुमार तो बड़े सुन्दर हैं, तो ये सुन्दर से ही प्रेम करेंगे। इसलिए लिखा हुआ है कि—

सूपनखा रावन कै बहिनी।
दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी।।
पंचवटी सो गई एक बारा।
देखि बिकल भइ जुगल कुमारा।।
रुचिर रूप धरि प्रभु पहिं जाई। 3/16/3,4,7


वह स्वयं अपनी बहिरंग कुरूपता को छिपा लेती है और अपने को परमसुन्दरी नारी के रूप में परिवर्तित करके सामने आती है। यह चित्र केवल त्रेता युग के एक पात्र शूर्पणखा का ही नहीं है, बल्कि शूर्पणखा प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में आती है और उसका स्वभाव यही है कि वह अपनी बाह्य कुरूपता को छिपाकर उसको सुन्दरता के आवरण में ढँक लेती है। रावण मूर्तिमान् मोह है और उसकी बहन शूर्पणखा मूर्तिमती वासना है। वासना के प्रति हमारे हृदय में जो इतना अधिक आकर्षण है उसका रहस्य यह है कि वासना अपनी भीतरी कुरूपता को छिपाकर उसे इतने सुन्दर रूप में प्रस्तुत करती है कि अगर श्रीराम और लक्ष्मण के पास दृष्टि न होती तो वे पहचान नहीं पाते। शूर्पणखा दोनों राजकुमारों को विवाह का निमन्त्रण देती है। वासना का निमन्त्रण व्यक्ति को जीवन में प्रतिक्षण मिल रहा है। शूर्पणखा ने जब विवाह का प्रस्ताव किया तो अपना परिचय देते हुए कहा कि—

तातें अब लगि रहिउँ कुमारी।3/16/10


मेरा विवाह नहीं हुआ है, मैं कुमारी ही हूँ। बड़ा विचित्र व्यंग्य है। कौन जानता है कि शूर्पणखा का विवाह हो चुका था। इसका अभिप्राय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति के अन्तःकरण में वह वृत्ति ही भ्रम उत्पन्न करती है कि मैं कुमारी हूँ। विवाहिता का अभिप्राय है कि जो मैं तुम्हें दे रही हूँ, केवल तुम्हीं इसके अधिकारी हो, केवल तुम्हीं इसके पात्र हो। वासना का निमन्त्रण तो इन्ही शब्दों में होता है। वासना अपनी तो अनगिनत युगों से नियन्त्रण देती रही है, दे रही है और देती रहेगी और उसके चक्कर में पड़कर न जाने कितने लोग उसे स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन इस समय संयोग ऐसा था कि वह पहुँच गई साक्षात् प्रभु के पास, सीता और लक्ष्मण के पास और अपना परिचय देते हुए कहती है—

मम अनुरूप पुरुष जग माहीं।
देखेऊँ खोजि लोक तिहु नाहीं।।3/16/9


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book