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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> प्रसाद

प्रसाद

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :20
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4378
आईएसबीएन :00000

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प्रसाद का महत्व...

Prasad

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

संयोजकीय

रामकथा शिरोमणि सद्गुरुदेव परमपूज्य श्री रामकिंकर जी महाराज की वाणी और लेखनी दोनों में यह निर्णय कर पाना कठिन है कि अधिक हृदयस्पर्शी या तात्त्विक कौन है। वे विषयवस्तु का समय, समाज एवं व्यक्ति की पात्रता का आँकते हुए ऐसा विलक्षण प्रतिपादन करते हैं कि ज्ञानी, भक्त या कर्मपरायण सभी प्रकार के जिज्ञासुओं को उनकी मान्यता के अनुसार श्रेय और प्रेय दोनों की प्राप्ति हो जाती है।

हमारे यहाँ विस्तार और संक्षेप, व्यास और समास दोनों ही विधाओं के समयानुकूल उपयोग की परम्परा रही है। घटाकाश और मटाकाश दोनों ही चिंतन और प्रतिपादन के केन्द्र रहे हैं। प्रवचनों के प्रस्तुत छोटे अंक घटाकाश के रूप में हैं, उनमें सब कुछ है पर संक्षेप में है। पाठकों की कई बार ऐसी राय बनी कि थोड़ा साहित्य छोटे रूप में भी हो ताकि प्रारम्भिक रूप में या फिर यात्री आदि में लोग किसी एक विषय का अध्ययन करने के लिए उसे साथ लेकर चल सकें। इस मनोधारणा से यह कार्य श्रेयस्कर है।

छतरपुर-नौगाँव के श्री जयनारायणजी अग्रवाल महाराजश्री के शिष्य हैं, वे मौन रहकर अनेक सेवाकार्य देखते हैं। उनका तथा बुन्देलखण्ड परिवार का इस पुस्तक में आर्थिक सहयोग रहा। उनको महाराजश्री का आशीर्वाद !

मैथिलीशरण

प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा।
सादर जासु लहइ नित नासा।।
तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं।
प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं।।2/128/1-2


प्रसाद



‘प्रसाद’ शब्द बहुप्रचलित और बहुचर्चित है। कथा आदि के आयोजनों में अधिकांश व्यक्तियों की दृष्टि प्रसाद की ओर ही होती है। प्रसाद शब्द के साथ एक संस्कार जुड़ा हुआ है कि प्रसाद में कुछ मिष्ठान्न  वितरण होगा। प्रसाद लेने वाले को भी लेने में संकोच नहीं होता। प्रसाद थोड़ा-सा ही होना चाहिए, बहुधा ऐसा मानते हैं। ‘गीता’ में और ‘श्रीरामचरितमानस’ में भी प्रसाद की बड़ी ही तात्त्विक एवं भावानात्मक व्याख्या की गयी है। ‘गीता’ में प्रसाद के विषय में यह कहा गया कि-


प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।। -गीता,2/65

अर्थात् अन्तःकरण की प्रसन्नता अथवा स्वच्छता के होने पर जीव के सम्पूर्ण दुःखों की हानि हो जाती है, प्रसन्नचित्त व्यक्ति की बुद्धि शीघ्र ही स्थिर हो जाती है।

‘श्रीरामचरितमानस’ में भी अनेक प्रसंगों में प्रसाद शब्द का प्रयोग किया गया है। कुछ प्रसंग बड़े सांकेतिक हैं। श्रीभरतजी ने चित्रकूट से अयोध्या की ओर प्रस्थान करने के पहले प्रभु से प्रार्थना की कि-
 

सो अवलंब देव मोहि देई। अवधि पारु पावौं जेहि सेई।। 2/306/8


प्रभो ! आप कृपा करके वह प्रसाद मुझे दीजिए कि जिसके द्वारा मैं इस चौदह वर्ष की अवधि को भली प्रकार से व्यतीत कर सकूँ और तब भगवान् श्रीराम ने अपनी पादुकाएँ दीं और उन पादुकाओं को श्रीभरत ने प्रसाद के रूप में मस्तक पर धारण किया। एक दूसरा बड़ा सांकेतिक प्रसंग आता है वह- केवट प्रसंग। गंगा पार उतारने के बाद सीताजी की मणि की मुँदरी को जब श्रीराम केवट को देने लगे तो यही कहा कि-


कहेउ कृपाल लेहि उतराई। 2/101/4


प्रभु ने उतराई शब्द का प्रयोग किया। केवट ने कहा कि प्रभो ! मैं तो आपसे पहले ही कह चुका हूँ कि मैं उतराई नहीं चाहता-


न नाथ उतराई चहौं। 2/99 छं


प्रभु ने जब बहुत आग्रह किया तो केवट ने कहा कि इस समय तो मैं नहीं लूँगा लेकिन जब आप लौटकर आयेंगे तो उस समय भी अगर उतराई देंगे तो मैं नहीं लूँगा, लेकिन यदि प्रसाद’ देंगे तो मैं उसे सिर पर धारण करूँगा-


फिरती बार मोहि जो देबा।
सो प्रसादु मैं सिर धरि लेबा। 2/101/8


‘प्रसाद’ को मैं आदरपूर्वक ग्रहण करूँगा। श्रीभरत ने भी पादुकाओं को प्रभु का प्रसाद समझकर सिर पर धारण किया। केवट कहता है कि अभी नहीं लूँगा लेकिन लौटते समय ले लूँगा। दोनों में अन्तर क्या है ? अभी लेने और बाद में लेने में क्या अन्तर है ? केवट ने जो शब्द कहे थे वे यही थे कि मैं उताराई तो नहीं लूँगा, प्रसाद ले लूँगा। राम-वाल्मीकि संवाद में वाल्मीकिजी ने जो चौदह स्थान बताया उनमें कहा-


प्रभु प्रसाद सुचि सुभद सुबासा।
सादर जासु लहइ नित नासा।


जिस व्यक्ति की नासिका आपके प्रसाद की सुगन्ध का निरन्तर अनुभव करती है-


तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं।
 प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं। 2/128/2


यहाँ प्रसाद शब्द की पुनरावृत्ति की गयी है। जो भोजन प्रभु को अर्पित करके प्रसाद रूप ग्रहण करते हैं, जो वस्त्राभूषण भी प्रसाद के रूप में धारण करते हैं, आप उनके मन में निवास कीजिए। इस प्रसंग में भी प्रसाद शब्द का प्रयोग किया गया है। प्रसाद में जो मिठास है, उसमें भी उद्देश्य भावना का है। प्रसाद क्या है ? प्रसाद के पीछे भावना क्या है ? और प्रसाद के पीछे विचार क्या है ? जब मिष्ठान के रूप में या फल के रूप में आप प्रसाद ग्रहण करते हैं तो संभवतः उसमें आपको मिठास की अनुभूति होती है, तृप्ति का अनुभव होता है। यदि हम गम्भीरता से विचार करके देखें तो पायेंगे कि मनुष्य भूखा है। अशोकवाटिका में हनुमानजी ने यही कहा कि माँ ! मैं अत्यन्त भूखा हूँ। वाटिका में सुन्दर फल भी लगे हुए हैं। आप कृपाकर आज्ञा दीजिए कि मैं इन फलों को खाकर अपनी भूख मिटाऊँ। उत्तर में माँ ने जो वाक्य कहे, उनके अन्तरंग अर्थ पर विचार कीजिए। माँ ने कहा कि फलों के साथ-साथ वाटिका में जो रखवाले हैं वे तो बड़ी ही दुष्ट प्रकृति के हैं, वे तुम्हारे ऊपर प्रहार करेंगे। तब हनुमानजी ने कहा कि-


तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं।
जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं।। 5/16/9


और तब माँ ने भी एक सूत्र दे दिया कि-

रघुपति चरन हृदयँ धरि तात फल खाहु।


यद्यपि प्रसाद शब्द का प्रयोग यहाँ नहीं है, परन्तु भाव वही है कि तुम मधुर फल खाओ तथा उसके पहले उसको प्रभु का प्रसाद बनाओ। प्रभु के चरणों में प्रणाम करके वस्तु को निवेदित करना और तब ग्रहण करना प्रसाद है। यह सूत्र केवल हनुमानजी के लिए ही नहीं है, हम सबके लिए है। रावण की वाटिका के जो फल हैं।–रावण की वाटिका को आप चाहे जितने गहरे अर्थों में ले सकते हैं। इस संसार को भी आप वाटिका कह सकते हैं, वन भी कह सकते हैं। ‘विनय-पत्रिका’ में कहा है-


संसार-कांतार अति घोर, गंभीर,
घन, गहन तरुकर्मसंकुल, मुरारी। -विनय पत्रिका, 59/2

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