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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> रामायण के पात्र

रामायण के पात्र

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :32
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4380
आईएसबीएन :0000

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रामायण के पात्रों का उल्लेख

Ramayan Ke Patra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

संयोजकीय

रामकथा शिरोमणि सद्गुरुदेव परमपूज्य श्री रामकिंकर जी महाराज की वाणी और लेखनी दोनों में यह निर्णय कर पाना कठिन है कि अधिक हृदयस्पर्शी या तात्विक कौन है। वे विषयवस्तु का समय, समाज एवं व्यक्ति की पात्रता को आँकते हुए ऐसा विलक्षण प्रतिपादन करते हैं कि ज्ञानी, भक्त या कर्मपराण सभी प्रकार के जिज्ञासुओं को उनकी मान्यता के अनुसार श्रेय और प्रेय दोनों की प्राप्ति हो जाती है।

हमारे यहाँ विस्तार और संक्षेप, व्यास और समास दोनों ही विधाओं के समयानुकूल उपयोग की परम्परा रही है। घटाकाश और मटाकाश दोनों ही चिंतन और प्रतिपादन के केन्द्र रहे हैं। प्रवचनों के प्रस्तुत छोटे अंक घटाकाश के रूप में हैं, उनमें सब कुछ है पर संक्षेप में है। पाठकों की कई बार ऐसी राय बनी कि थोड़ा साहित्य छोटे रूप में भी हो ताकि प्रारम्भिक रूप में या फिर यात्रा आदि में लोग किसी एक विषय का अध्ययन करने के लिए उसे साथ लेकर चल सकें। इस मनोधारणा से यह कार्य श्रेयस्कर है।

रायपुर (छत्तीसगढ़) के श्री अनिल गुप्ता एवं समस्त परिवार का आर्थिक सहयोग इसमें सन्निहित है। उन्हें महाराजश्री का आशीर्वाद !

मैथिलीशरण

कृतज्ञता ज्ञापन


श्रीसद्गुरवै नमः

हमारे परिवार के आध्यात्मिक-प्रेरणास्रोत पूज्य पिताश्री नारायण प्रसाद गुप्तजी (आरंग वाले) दिनांक 13-11-96 को अपने दिव्य धाम के लिए प्रस्थान कर गये। उन्हीं धार्मिक विचारों से प्रेरित परिवार को इस कार्य द्वारा माता सरस्वती के मन्दिर में एक दिव्य सुमनांजलि समर्पित करने का पुण्य अवसर मिला। इस सबके पीछे सद्गुरु महाराजजी की कृपा एवं ईश्वरेच्छा ही मूल कारण है। उस परम शक्तिमान के प्रति हम सदैव श्रद्धानत हैं।

यहाँ पर भाई मैथिलीशरणजी एवं परम विदुषी दीदी मंदाकिनीजी जो श्री सद्गुरुदेव के अत्यन्त प्रेमी एवं निकट हैं तथा उन सभी श्रद्धालुओं के प्रति हार्दिक धन्यवाद देना हमारा परम कर्त्तव्य है जिनका इस पुस्तक-माला में, श्रीगुरुदेव के प्रवचनों के संयोजन में, विशेष सहयोग रहा है। वे इसलिए भी धन्यवाद के पात्र हैं क्योंकि उन्हीं के सहयोग और श्रद्धाभावना से श्री सद्गुरुदेव महाराज जी के ज्ञान, आनन्द, श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, दया, मैत्री, सरलता, साधुता, समता, सत्य, क्षमा आदि दैवी गुणों के विपुल भण्डार से समय-समय पर ग्रन्थ रूप में ज्ञान-राशि प्राप्त होती रहती है।

श्रीराम में हमारी अखण्ड भक्ति बनी रहे,
श्रीसद्गुरुदेव की कृपा सब पर वर्षित हो।


रामायण के पात्र



‘श्रीरामचरितमानस’ के पात्रों पर यदि हम दृष्टि डालें तो सबसे पहले यह जिज्ञासा उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि रामायण’ में जिन पात्रों का वर्णन किया गया है वे पात्र ऐतिहासिक पात्र हैं कि केवल श्रद्धा से निर्मित किये गये हैं ? इसका बड़ा ही विलक्षण उत्तर ‘श्रीराम-रामचरितमानस’ में दिया गया और यदि उस दृष्टि से हम मानस के पात्रों को देखें, उन पर विचार करें, तो शायद वे पात्र हमको और आपको अपने जीवन के अत्यधिक निकट दिखायी दें।

एक ओर ‘मानस’ में गोस्वामीजी आग्रहपूर्वक यह कहते हैं कि ‘श्रीरामचरितमानस’ इतिहास है। इसका अभिप्राय है कि यह केवल कल्पना ही नहीं है, केवल मान्यताओं के प्रतीक मात्र ही ये पात्र नहीं हैं, बल्कि ये पात्र सचमुच विश्व में अवतरित हुए हैं, विश्व में आये हैं, और जिन घटनाओं का वर्णन ‘रामायण’ में किया गया है, वे घटनाएँ वस्तुतः किसी समय इस देश में हुई थीं, किन्तु उसके साथ वे एक शब्द और भी जोड़ देते हैं, और वह शब्द बड़े ही महत्त्व का है और वहीं पर इतिहास और भक्ति के सामंजस्य का एक नया दृष्टिकोण हमारे-आपके सामने आता है। उन्होंने ‘मानस’ के उत्तरकाण्ड में यह कहा कि-

कहेउँ परम पुनीत इतिहासा।7/125/1

मैंने परमपवित्र इतिहास कहा। इतिहास के साथ परमपुनीत शब्द जोड़ करके इतिहास की अपेक्षा कुछ विलक्षणता ‘मानस’ में बतलायी गयी। इतिहास की दृष्टि और भक्ति की दृष्टि में यही एक मुख्य अन्तर है। ‘रामचरितमानस’ को पढ़ते समय आपकी दृष्टि इस ओर जानी चाहिए कि इतिहास के पात्रों के साथ यह समस्या जुड़ी हुई है कि किसी एक काल के पात्र होते हैं और इतिहास में जो पात्र कभी आ चुके हैं, उन्हें हम आज देखनें में असमर्थ हैं, आज नहीं हैं। इतिहास शब्द का अर्थ यदि किया जाय तो-
इति ह आस।
अर्थात् ऐसा वस्तुतः हुआ था। तो प्रश्न यह है कि ‘रामायण’ को यदि केवल इतिहास मानें तो उसके साथ-साथ हमको यह भी मानना पड़ेगा कि ‘रामायण’ के जिन पात्रों का वर्णन किया गया है वे पात्र पहले कभी संसार में भले ही रहे हों, लेकिन अब वे भूतकाल में जा चुके हैं, वर्तमान में उन्हें अब देख पाना हमारे लिए सम्भव नहीं है, लेकिन तब गोस्वामीजी एक नयी बात कहते हैं।

वे बार-बार श्रीराम का वर्णन एक ऐतिहासिक व्यक्ति के रूप में करते हैं, परन्तु ऐसा करते हुए वे इस बात पर भी अत्यधिक बल देते हैं कि श्रीराम मनुष्य नहीं हैं, ईश्वर हैं। श्रीराम के ईश्वरत्व पर उनका जो इतना आग्रह है, वह कभी-कभी साहित्य की दृष्टि से ‘मानस’ को पढ़ने वालों को बड़ा अटपटा लगता है। आपको ऐसा लगेगा कि भगवान् श्री राम के चरित्र का कोई भी प्रसंग हो, जिसका गोस्वामीजी वर्णन कर रहे हों  और ठीक उस समय जब पाठक या श्रोता उस प्रसंग में तन्मय हो रहा हो, उसी समय गोस्वामीजी एक बात उस वर्णन में जोड़ देते हैं कि श्रीराम ईश्वर हैं। जैसे यदि श्रीराम लक्ष्मण के लिए विलाप कर रहे हैं या सीताजी के लिए विलाप कर रहे हैं। और उसको सुनकर व्यक्ति का हृदय द्रवित होता है तो उसी समय भगवान् शंकर पार्वतीजी से यह कहते हुए दिखायी देते हैं।

उमा एक अखंड रघुराई ।
नर गति भारत कृपाल देखाई।। 6/60/18

श्रीराम तो साक्षात् हैं, उन्होंने तो मनुष्य जैसी एक लीला दिखायी। जो लोग ‘रामायण’ केवल साहित्यिक दृष्टि से पढ़ते हैं, उनको बड़ा विचित्र-सा लगता है। उनको ऐसा लगता है कि जब नाटक में पूरा परिपाक हो रहा होता है, उसी समय गोस्वामीजी इस बात की सूचना दे करके रसोत्पत्ति में बाधक बनते हैं। यह बात उनको इतनी बार दोहराने की आवश्यकता नहीं थी। फिर ऐसे समय जब पाठक या श्रोता या वक्ता तन्मय हो रहा है तभी वे यह याद दिला दें कि राम तो ईश्वर हैं। आप गोस्वामीजी की दृष्टि को देखें। कि उनका श्रीराम के ईश्वरत्तव पर इतना आग्रह क्यों है ?

प्रस्तुत तथ्य के कई महत्त्वपूर्ण कारण हैं और उनमें से पहला कारण वही है जिसके सन्दर्भ में मैंने अभी जो बात कही कि जब हम यह कहते हैं कि श्रीराम इतिहास में हुए, तब ऐसा लगता है कि श्रीराम पहले हुए थे, लेकिन अब नहीं हैं, परन्तु जब उसके साथ हम तुलसीदासजी की यह बात जोड़ देते हैं कि श्रीराम साक्षात् ईश्वर हैं, तब फिर उनके साथ ‘थे’ शब्द का प्रयोग कर पाना सम्भव नहीं होगा। क्योंकि ईश्वर तो सर्वदा होता है। ईश्वर के लिए भूतकालीन क्रिया का प्रयोग नहीं किया जाता है। इसका अभिप्राय यह  हुआ कि श्री राम को यदि केवल एक ऐतिहासिक व्यक्ति के रूप में स्वीकार करें तो फिर वे किसी विशेष काल में हुए थे, आज वे नहीं हैं, पर गोस्वामीजी उनके ईश्वरत्व पर अत्यधिक बल देते हैं।

इस सन्दर्भ में मुझे एक बात नहीं भूलती, जो मुम्बई से सम्बधित है, बल्कि कहना यह चाहिए कि वह मेरी मुम्बई की प्रथम यात्रा का अनुभव था। वहाँ श्रीनिकेतन वाटिका में रामायण सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसमें एक केन्द्रीय मन्त्री उद्घाटन करने के लिए बुलाये गये थे। उन्होंने उद्घाटन करते हुए एक प्रश्न हमारे सामने रखा। उन्होंने कहा कि ‘वाल्मीकिरामायण’ में और ‘श्रीरामचरितमानस’ में अन्तर यह है कि वाल्मीकि ने श्रीराम  के मनुष्य रूप पर, उनकी मानवता पर बल दिया है और तुलसीदास ने श्रीराम के ईश्वरतत्व पर। इसके साथ-साथ उन्होंने अपनी सम्मति जोड़ दी कि मेरी दृष्टि में वाल्मीकि का दृष्टिकोण लोक के लिए अधिक उपादेय है, अधिक कल्याणकारी है। तुलसीदासजी का ग्रन्थ महान् होते हुए भी जब हम रामकथा को इस दृष्टि से पढते या सुनते हैं कि श्रीराम ईश्वर हैं तो हम उनसे कुछ सीख नहीं सकेंगे। इसलिए लोककल्याण के लिए उन्हें मनुष्य स्वीकार करना अधिक अच्छा है।

मुझे भी कुछ बोलना था और भई ! अपना तो एक पक्ष है तथा उसे मैंने स्पष्ट किया, तब मैंने एक प्रश्न उस समय उनको निमित्त बनाकर सभी लोगों के सामने रखा कि हमारे इतिहास में उठाकर देखें तो न जाने कितने इतिहासपुरुष हमारे इतिहास में मिलेंगे। जैसे-मनु, इक्ष्वाकु, दिलीप, रघु, अज, भरत। ये सबके सब जो पात्र है, ये इतिहास-पुरुष हैं और इनका वर्णन जो पुराणों ने किया है, वह मनुष्य के रूप में ही किया है। पुराण ग्रन्थों में ऐसा ही लिखा गया है कि ये मनुष्य हैं और श्रोताओं को और उन मन्त्री महोदय को भी स्मरण दिलाया कि हम दूर क्यों जाएँ ? वर्तमान युग में ही महात्मा गाँधी हुए और उनको भी हम लोगों ने मनुष्य के रूप में ही स्वीकार किया। मैंने पूछा कि मनु-इक्ष्वाकु से लेकर महात्मा गाँधी पर्यन्त जितने भी महान मनुष्य हुए, उनमें से आपने किसी से नहीं सीखा और एक राम ही मनुष्य हो जाते तो आप सब सीख लेते ! इतनी बड़ी बुद्धिमत्ता तो ठीक नहीं। सीखने के लिए इतने मनुष्यों का चरित्र कम है क्या ? कि इसके लिए यह कह दिया जाय कि राम के मनुष्यत्व के बिना हमारे लिए चरित्र का अभाव हो गया है और चरित्र के उदाहरण के लिए पात्र नहीं रहे, वस्तुतः ऐसा नहीं हैं।   


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