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धर्म एवं दर्शन >> प्रेरणा के पुष्प

प्रेरणा के पुष्प

स्वामी अवधेशानन्द गिरि

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4388
आईएसबीएन :81-310-0312-4

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जीवन को नई दिशा देने वाली कथाएं

Prerna Ke Pushp

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दिव्य कथाओं का अनुपम संग्रह

लक्ष्य को स्पष्ट करना और साधनों का सही चुनाव जहाँ सद्गुरु की विशेषता होती है, वहीं वह प्रेरणा के मंत्र से शिष्य के आत्मविश्वास को डिगने नहीं देता। अर्जुन के लिए कृष्ण द्वारा विभिन्न स्थानों पर किए गये अलग-अलग संबोधन इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं शिष्य के मन में पैदा होने वाली हीन भावना को गुरु के वाक्य जो बल प्रदान करते हैं, उन्हीं के परिणाम स्वरूप तरह-तरह के विचारों से संत्रस्त वह निर्दोष और निर्विचार होकर निर्भय और निर्द्वन्द्व हो स्वामियों का स्वामी अर्थात् पूर्ण स्वतंत्र शहंशाह बन जाता है।

परमश्रद्धेय स्वामी अवधेशानंद जी महाराज के प्रवचनों का एक-एक वाक्य प्रेरणादायक है। उनके उपदेश में शास्त्र और अनुभव का अनूठा समन्वय है। वे आधुनिक विकास का जब विश्लेषण करते हैं, तो उससे उन शाश्वत मूल्यों की पुष्टि होती है, जिनका व्याख्यान उपनिषद् के ऋषियों ने किया है।

जिन साधकों को अध्यात्म की शब्दावली को समझ पाना कठिन मालूम पड़ता है उनके लिए स्वामी जी का साहित्य अत्यंत उपयोगी है-विशेषकर कथा-साहित्य। साधकों के लिए भी लाभकारी है यह। इसे पढ़ते समय ऐसा महसूस होता है मानो आपके सद्गुरु अंतर्यात्रा में सदैव आपका हाथ थामे चल रहे हों। वे आपको तब तक चलते रहने के लिए कहते हैं, आपका हाथ नहीं छोड़ते, जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।

आप-अपने जीवन की यात्रा में संपूर्णता और स्वतंत्रा का अनुभव करते हुए परमशांति को प्राप्त हों, यही हमारी कामना है-
मा कश्चिद्दुख भाग्भवेत्, कभी किसी को दुख का लेश न हो।

प्रकाशक


अपना काम समेटने के बाद जब चर्मकार जल से अपने हाथ-मुंह धोने लगा, तो नारद ने सोचा, अब शायद यह मंदिर जाए। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। चर्मकार ने गंदे कपड़े से ही अपने हाथ-पांव पोंछे और बैठ गया वहीं, घुटनों के बल, हाथ जोड़कर। वह भावविभोर होकर कह रहा था-‘‘प्रभो ! मुझे क्षमा कीजिएगा। मैं अनपढ़ व्यक्ति आपकी पूजा अर्चना का ढंग नहीं जानता। मेरी आप से यही विनती है कि कल भी मुझे ऐसी सुमति दीजिएगा कि आज की तरह ही आपके द्वारा दी गई जिम्मेदारी को ईमानदारी के साथ पूर्ण कर सकूँ।’’

भगवान विष्णु अदृश्य रहते हुए ही नारद के कानों में बुदबुदाए, ‘‘अब समझ में आया मुनिराज कि इस भक्त की उपासना श्रेष्ठ क्यों हैं ?’’
अब नारद भी देह की सुध भूले भक्त चर्मकार को निहार रहे थे।


।। अपनी बात ।।



अध्यात्म के रहस्यों का व्याख्यान करते समय शब्द अक्सर बौने पड़ जाते हैं। इसलिए वेदों ने ‘नेति नेति’ कहा, तो कवियों-ऋषियों ने ‘तदपि तव गुणानामीश पारं न याति’ कह कर सत्य को शब्दों में बांध पाने में अपनी असमर्थता प्रकट कर दी। इसी से पुराण साहित्य का विकास हुआ। अमूर्त तत्व को समझाने के लिए ऐसे प्रतीकों और उदाहरणों का सहारा ऋषियों को लेना पड़ा, जिससे जिज्ञासु को परोक्षरूप से सत्य की झलक मिल सके। वे अपने इस लक्ष्य में सफल भी हुए। दर्शन शास्त्र में इस युक्ति को ‘चंद्रशाखा न्याय’ का नाम दिया गया है। जिस तरह द्वितीया की सूक्ष्म चंद्ररेखा को देखने के लिए व्यवहार में वृक्ष, शाखा, पत्ती आदि का सहारा लेना पड़ता है, जबकि उनसे चंद्ररेखा का दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं होता, इसी प्रकार परम तत्व को जानने-समझने के लिए संसार और प्रकृति में घटित हो रही घटनाओं का आश्रय लेना आवश्यक हो जाता है। ये सांसारिक घटनाएं, जिन्हें महापुरुष अपने आख्यानों-व्याख्यानों में व्यक्त करते हैं, परमतत्व की ओर स्पष्ट रूप से संकेत करती हैं। इसी मायने में ये विशिष्ट हैं।

परमपूज्य स्वामी अवेधशानंद जी महाराज के प्रवचनों की पांडित्यपूर्ण शैली भाषा की दृष्टि से इतनी सुरुचि पूर्ण है कि उसके कथ्य-तथ्य को एक साधारण जिज्ञासु भी जान समझ सकता है। संस्कृत में एक उक्ति है-हितं मनोहारी च दुर्लभं वच:-ऐसा वचन जो मधुर हों और हितकारी भी अत्यंत दुर्लभ हुआ करते हैं। जिसकी औषधि रोग हर हो और मीठी भी उस वैद्य के पास जाने की इच्छा तो बच्चे से लेकर बूढ़े तक सभी को होगी। यही कारण है कि जहां भी महाराजश्री के प्रवचनों का आयोजन होता है, वहां जिज्ञासुओं का जमघट लग जाता है।
यह ऐसे ही सत्संगों, कथाओं और आयोजनों का साररूप ग्रंथ है यह। इसे पढ़कर उन्हें जीवन की दिशा मिलेगी जो अभी तक अज्ञान और मोह के अंधकार में भटक रहे हैं, और वे भी स्वयं में उत्साह की ऊर्जा को महससू करेंगे, जिनके कदम अंतर्द्वन्द्व की थकान से लड़खडा रहे हैं।
मुझे विश्वास है, यह पुस्तक आप सभी अध्यात्म जिज्ञासुओं लिए अत्यंत लाभकारी सिद्ध होगी।

-गंगा प्रसाद शर्मा


सत्य के मार्ग पर चलना कठिन है। कारण स्पष्ट है-पानी को नीचे की ओर बहने के लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। लेकिन उसे ऊपर ले जाने के लिए सामान्य नहीं विशेष प्रयास की आवश्यकता होती है। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि कितनी ऊंचाई को पानी छूना चाहता है।
यदि आप ऊंचाइयों का सफर करना चाहते हैं तो एक विशेष प्रकार के संकल्प की आपको आवश्यकता होगी, जिसके मूल में होगी एक क्रांतिकारी प्रेरणा। यह आपको गतिशील ही नहीं बनाएगी, उसे एक सुनिश्चित स्थिरता भी प्रदान करेगी।
इस पुस्तक की प्रत्येक प्रेरक कथा की यही तो विशेषता है।


1
अंतरात्मा की आवाज


एक वृद्धा स्त्री अपने सिर पर एक भारी गठरी रखे चली जा रही थी। अपने ग्राम से किसी दूसरे ग्राम की ओर। चलते-चलते वह थक गई। तभी उसने एक व्यक्ति को देखा जो घोड़े पर बैठा बड़े वेग से चला आ रहा था। उसे देखकर वृद्धा ने आवाज दी-‘‘अरे, ओ बच्चा ! ओ घोड़े वाले ! एक बात तो सुन !’’
घुड़सवार ने घोड़ा रोककर कहा-‘‘क्या बात है माई ?’’
वृद्धा ने कहा-‘‘पुत्र ! मुझे अमुक ग्राम में जाना है। थक गई हूं। यह गठरी मुझसे उठाई नहीं जाती। तू उधर जा रहा है। यदि तू यह गठरी घोड़े पर रख ले तो मुझे सरलता हो जाए।’’
घुड़सवार ने कहा, ‘‘माई ! तू पैदल, मैं घोड़े पर। वह ग्राम काफी दूर है। पता नहीं, तू कब तक वहां पहुँचे। मैं तो पांच मिनट में वहां पहुँच जाऊंगा। तब क्या वहां तेरी प्रतीक्षा करता रहूँगा।’’

यह कहकर घुड़सवार चला गया। परंतु अभी दो ही फर्लांग गया था कि उसके मन ने कहा-‘वह वृद्धा स्त्री तुझे गठरी दे रही थी। गठरी में बहुमूल्य वस्तु भी हो सकती है। उसे लेकर तू भाग जा। चल वापस, उससे गठरी ले ले।’
घुड़सवार वापस वृद्धा के पास पहुंचकर बोला-‘‘माई ! ला, दे दे अपनी गठरी मैं ले चलता हूँ। उस ग्राम में पहुंचकर तेरी प्रतीक्षा करूंगा।’’
वृद्धा ने कहा-‘‘न बच्चा ! अब तू जा। मुझे गठरी नहीं देनी है।’’
घुड़सवार ने कहा-‘‘अरे ! अभी तो तू कह रही थी कि गठरी ले चल। अब मैं तैयार हुआ तो कहती है गठरी नहीं देनी। यह उल्टी बात तुझे किसने समझाई ?’’
वृद्धा मुस्कराकर बोली-‘‘उसी ने समझाई है जिसने तुझे यह समझाया कि माई की गठरी ले ले। जो तेरे भीतर बैठा है, वही मेरे भीतर भी है। तुझसे उसने कहा कि गठरी ले ले और भाग जा। उसी ने मुझे समझाया कि गठरी मत देना, नहीं तो वह भाग जाएगा। अत: तू जा बच्चा ! मैं अपनी गठरी स्वयं ले जाऊँगी।’’


2
सबसे ऊंचा पद



राजा एलैग्जेंडर अकसर अपने देश की आंतरिक दशा जानने के लिए वेश बदलकर पैदल घूमने जाया करते थे। एक दिन घूमते-घूमते वे एक नगर के निकट जा पहुंचे। वहां का रास्ता उन्हें मालूम नहीं था। वे रास्ता पूछने के लिए किसी व्यक्ति की तलाश में आगे बढ़े।

उन्होंने एक हवलदार को सरकारी वर्दी पहने हुए देखा। राजा ने उसके पास जाकर पूछा, ‘‘महाशय ! अमुक स्थान पर जाने का रास्ता बता दीजिए।’’
हवलदार ने अकड़कर कहा-‘‘मूर्ख ! तू देखता नहीं, मैं सरकारी हाकिम हूं। मेरा काम रास्ता बताना नहीं है। चल हट, दूसरे से पूछ।’’

राजा ने नम्रता से पूछा-‘महोदय ! यदि सरकारी आदमी भी किसी यात्री को रास्ता बता दे तो कोई हर्ज नहीं है। खैर, मैं किसी दूसरे से पूछ लूंगा। लेकिन इतना तो बता दीजिए कि आप किस पद पर काम करते हैं ?’’
हवलदार ने ऐंठते हुए कहा, ‘‘अंधा है क्या ? मेरी वर्दी को देखकर पहचानता नहीं कि मैं कौन हूँ ?’’
राजा एलैग्जेंडर ने कहा-‘‘शायद आप पुलिस के सिपाही हैं।’’
हवलदार बोला-‘नहीं, उससे ऊंचा।’’
राजा ने कहा-‘तब क्या नायक है ?’’
हवलदार बोला-‘‘उससे भी ऊंचा।’’
राजा ने कहा-‘‘हवलदार हैं ?’’

हवलदार बोला-‘‘हां, अब तू जान गया कि मैं कौन हूं। परंतु यह तो बता कि इतनी पूछताछ करने का तेरा क्या मतलब है और तू है कौन ?’’
राजा ने कहा-मैं भी सरकारी आदमी हूँ।’’
हवलदार की ऐंठ कुछ कम हुई। उसने पूछा-‘‘क्या तुम नायक हो ?’’
राजा ने कहा-‘‘नहीं, उससे ऊंचा।’’
हवलदार बोला-‘‘तब क्या हवलदार हो ?’’
राजा ने कहा-‘‘उससे भी ऊंचा।’’
हवलदार बोला-‘‘दरोगा ?’’
राजा ने कहा-‘‘उससे भी ऊंचा।’’

हवलदार बोला-‘‘कप्तान ?’’
राजा ने कहा-‘‘उससे भी ऊंचा।’’
हवलदार बोला-‘‘सूबेदार !’’
राजा ने कहा-‘‘उससे भी ऊंचा।’’
अब तो हवलदार घबराने लगा। उसने पूछा-‘‘तब आप मंत्री जी हैं ?’’
राजा ने कहा-‘‘भाई ! बस एक सीढ़ी और बाकी रह गई है।’’
अब हवलदार ने गौर से देखा तो उसे ज्ञात हुआ कि सादी पोशाक में राजा एलैग्जेंडर उसके सामने खड़े हैं। उसके होश उड़ गए। वह गिड़गिड़ाता हुआ राजा के पैरों पर गिर पड़ा और बड़ी दीनता से अपने अपराध की क्षमा माँगने लगा।
राजा एलैग्जेंडर ने मीठी वाणी में कहा-‘‘भाई ! तुम पद की दृष्टि से कुछ भी हो परंतु व्यवहार की कसौटी पर बहुत नीचे हो। जो जितना नीचे होता है, उसमें उतना ही अहंकार होता है और वह उतना ही अकड़ता है। यदि ऊंचा बनना चाहते हो तो पहले मनुष्य बनो। सहनशील और नम्र बनो। अपनी ऐंठ कम करो। तुम जनता के सेवक हो इसलिए तुम्हारी यह विशेष जिम्मेदारी है।’’

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कुम्हार और हांडी


ऋषि अष्टाचक्र का शरीर कई जगह से टेढ़ा-मेढ़ा था इसलिए वे बहुत कुरूप दिखते थे। एक दिन जब वे राजा जनक की सभा में पहुंचे तो वहां पहले से कई ऋषि-मुनि पधारे हुए थे। उन्हें देखते ही सभी सभासद हंस पड़े। अष्टावक्र उन्हें हंसता देख वापस लौटने लगे। यह देखकर राजा जनक ने ऋषि अष्टावक्र से पूछा-‘‘भगवन ! आप वापस क्यों लौटे जा रहे हैं ?’’
अष्टावक्र ने उत्तर दिया-‘‘मैं मूर्खों की सभा में नहीं बैठता।’’

उनकी बात सुनकर सभी सभासद नाराज हो गए। एक सभासद ने क्रोध में पूछ ही लिया-‘‘हम मूर्ख क्यों हुए ?’’
तब अष्टावक्र ने उत्तर दिया-‘‘तुम लोगों को यही नहीं मालूम कि तुम मुझ पर नहीं, सर्वशक्तिमान ईश्वर पर हंस रहे हो। मनुष्य का शरीर तो हांडी की तरह है जिसे ईश्वर रूपी कुम्हार ने बनाया है। हांडी की हंसी उड़ाना क्या कुम्हार की हंसी उड़ाना नहीं हुआ ?’’ अष्टावक्र का तर्क सुनकर सभी सभासद लज्जित हो गए।

3
वचन की लाज



मारवाड़ में कालू क्षेत्र के किलेदार थे-पाबूजी राठौर। उनका विवाह उमरकोट के सोढ़ा सामंत सूरजमल की बेटी से तय हुआ था। जब बारात कूच करने को हुई तो नाते-रिश्तेदारों तथा भिक्षुओं को नेग एवं दान दिए जाने लगे। सभी प्रसन्न थे किंतु बारहठ परिवार की चारणी केवल उदास होकर रोने लगी। उसने नेग या दान नहीं लिया। पाबूजी ने उससे कहा-‘‘तुम रोती क्यों हो ? इस शुभ बेला में जो इच्छा या कष्ट हो, बताओ।’’

चारणी की ‘केसर’ नामक एक घोड़ी थी जिसे उसने  बारात में ले जाने के लिए पाबूजी को दे दिया था। वही घोड़ी चारणी के गायों की रक्षा करती थी। खतरा था-गायों के अपहरणकर्ता जिंदराज खींची से। वह चारणी की गायों को लूटना चाहता था। अत: चारणी बोली-‘‘पाबूजी ! आप तो दूर जा रहे हैं, अब मेरी गायें जिंदराज से कौन बचाएगा ?’’
पाबूजी बोले-‘‘अगर जिंदराज खींची तुम्हारी गायें लूटने के लिए आए और उमरकोट तक मेरे पास यह खबर पहुंच जाए तो भोजन करते-करते भी मैं थाली छोड़कर दौड़ा चला आऊँगा। कुल्ला तुम्हारे द्वार पर ही आकर करूंगा।’’
बारात उमरकोट पहुंची। भांवरें पड़ने जा रही थीं तभी चारणी की घोड़ी केसर हिनहिना उठी और अपने पैरों में बंधी रस्सी तुड़ाने लगी। चारणी ने पाबूजी को बताया था कि जब मेरी केसर व्याकुल होकर हिनहिनाए तो समझ लेना कि मेरी गायें लूटने के लिए जिंदराज आ गया है।

ऐसी स्थिति में केसर का रंग-ढंग देखते ही पाबूजी विवाह-मंडप छोड़कर बाहर निकल पड़े। तभी उनकी होने वाली ब्याहता सोढ़ीजी ने उनका पल्लू थामकर पूछा-‘‘आपने मुझमें क्या दोष देखा कि मुझे अध ब्याही छोड़कर चले जा रहे हैं ?’’
पाबूजी ने कहा-‘‘सोढ़ी जी ! तुम निर्दोष हो परंतु चारणी की गायें लूटने के लिए वहां जिंदराज आ गया है इसलिए मुझे विदा दो।’’
सोढ़ी जी वीर पुत्री थीं। वे पाबूजी का पल्ला छोड़कर बोलीं-‘‘यदि यह बात है तो हे रणवीर ! आप तत्काल गायों की रक्षार्थ कूच करें। परंतु मुझे कोई स्मृति-चिह्न तो देते जाएं।’’
पाबूजी केसर पर उछलकर सवार होते हुए बोले-‘‘सोढ़ीजी ! यदि जिंदा रहे तो फिर आकर मिलेंगे। यदि जीवित न रहा तो मेरा सांडिया (ऊंट-सवार) आकर तुम्हें मेरी पगड़ी अवश्य दे जाएगा।’’ यह कहकर वह वीर युवक वचन की लाज रखने के लिए ब्याह की रस्म अधूरी छोड़कर गायों की रक्षार्थ चल पड़ा।


रेशमी कुरता-पायजामा



एक व्यक्ति अपने मित्रों से मिलने जाने वाला था तभी अचानक उसके बचपन का मित्र आ गया। जाना जरूरी था लेकिन बरसों बाद मिले मित्र से भी ढेरों बातें करनी थीं। इसलिए तय हुआ कि दोनों साथ चलेंगे और रास्तें में बातें भी कर लेंगे। लेकिन उस बचपन के मित्र के कपड़े धूल से अटे थे। व्यक्ति की अलमारी में एक बिलकुल नया रेशमी कुरता-पायजामा रखा था परंतु वह उसे देना नहीं चाहता था। मजबूरी में वही देना पड़ा लेकिन उसका मलाल मन से नहीं निकला।
पहली जगह जहां वह व्यक्ति मिलने गया, वहां उसने आंगुतक मित्र का परिचय इस प्रकार कराया-‘‘ये मेरे बचपन के मित्र हैं, वर्षों बाद मिले हैं। मैं आपसे मिलने को निकल ही रहा था कि ये आ गए। इनके कपड़े बहुत ही गंदे थे अतएव यह रेशमी कुरता पायजामा मेरा पहन रखा है।’’

जब वे वहां से मिलकर आगे बढ़े तो मित्र बड़ा नाराज हुआ। वह बोला-‘‘भला यह बताने की क्या जरूरत थी कि कुरता-पायजामा तुम्हारा है।’’
उस व्यक्ति ने मांफी मांगी और कहा-‘‘आगे से ध्यान रखूंगा।’’
जब वे अगले मिलने वाले के यहां गए तो परिचय देते हुए वह व्यक्ति बोला-‘‘बचपन के मित्र हैं। वर्षों बाद आज अचानक आ गए। और हां, जो कुरता-पायजामा इन्होंने पहन रखा है, वह इन्हीं का है।’’
वहां से लौटने पर मित्र दोबारा नाराज हुआ। वह बोला-‘‘तुमने कुरते-पायजामे का जिक्र छेड़ा ही क्यों जबकि उसकी वहां कोई बात नहीं थी।’’

उस व्यक्ति ने एक बार फिर क्षमा माँगी और कहा-‘‘आगे से पूरी तौर पर ध्यान रखूंगा कि ऐसी भूल न हो।’’
इस बार जहां वे मिलने गए, परिचय के समय उस व्यक्ति ने कहा-‘‘मेरे वर्षों पुराने मित्र हैं, बड़े भले हैं। रही बात कुरते-पायजामे की तो उसकी जिक्र ही नहीं करना है।’’ मित्र ने अपना माथा पकड़ लिया।
अपनी कई क्षुद्रताएं हम ऊपरी व्यवहार में तो छुपा लेते हैं लेकिन अचेतन में वे बसी रहती हैं जो किसी-किसी बहाने से निकलती हैं।


4
दृढ़ संकल्प



यह घटना सन् 1875 की है जब मुंबई में जरमन से हर्मिस्टन नामक एक बड़ी सर्कस कंपनी आई हुई थी। उस समय तक भारतवासियों को यह पता नहीं था कि सर्कस होता क्या है ? मुंबई के धोबी तालाब के मैदान में कंपनी ने अपने सर्कस के प्रदर्शन की व्यवस्था कराई थी।
सर्कस का केल खत्म होने को था-केवल एक कार्यक्रम बचा था तभी सर्कस का व्यवस्थापक घेरे में आया और दर्शकों के प्रति आभार व्यक्त करता हुआ बोला-‘‘इस प्रकार का उत्कृष्ट खेल केवल यूरोपीय लोग ही दिखा सकते हैं। हिंदुस्तानियों के लिए ऐसा खेल दिखा पाना संभव ही नहीं है।’’

व्यवस्थापक के ये शब्द सुनते ही प्रो. छत्रे बिजली की गति से अपनी कुर्सी से उछल पड़े। सर्कस के घेरे में जाकर उन्होंने कड़कती आवाज में कहा-‘‘यह भारतीयों का अपमान है। मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि यदि एक वर्ष के भीतर मैंने हिंदुस्तानी सर्कस बनाकर नहीं दिखाया तो मेरा नाम विष्णु पंत छत्रे नहीं।’’
इसके बाद प्रो. छत्रे ने सर्कस के व्यवस्थापक से अपने शब्द वापस लेने को कहा। दर्शकों को भी यह बात चुभ गई थी। उन्होंने भी शोर मचाना शुरू कर दिया। यह देखकर व्यवस्थापक घबरा गया और उसने सार्वजनिक रूप से क्षमा मांगते हुए अपने शब्द वापस ले लिए।
इस घटना के पश्चात् प्रो. छत्रे ने अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। फिर उन्होंने बुध गांव के महाराज कुसंद वाडकर और सांगली के महाराज की सहायता से सन् 1878 में दशहरे के दिन से अपनी सर्कस कंपनी शुरू की। उसका नाम रखा गया-‘प्रो. छत्रे ग्रैंड सर्कस।’ यही पहला भारतीय सर्कस था।

प्रो. विष्णु पंत छत्रे मूल रूप से बीजापुर के रहने वाले थे। वे कोंकणस्थ ब्राह्मण थे। उनके पूर्वज रत्नागिरी जिले से बीजापुर में आकर बस गए थे। प्रो. छत्रे सांगली के महाराज के पास पुलिस विभाग में एक बड़े ओहदे पर थे। उनका रंग गोरा तथा व्यक्तित्व रोबदार था। उस समय की प्रथा के अनुसार वे जरी की टोपी, धोती, लंबा कोट और ‘पुणेरी’ जूते पहनते थे। वे प्रो. गणपतराव कालेकर के घनिष्ठ मित्र थे। उन दिनों गणपतराव कालेकर सांगली में रहा करते थे।

‘प्रो. छत्रे ग्रैंड सर्कस ने भारत और विदेशों में भी दौरा करके धन के साथ-साथ काफी नाम भी कमाया।
प्रो. विष्णु पंत छत्रे ने सन् 1878 में सर्कस शुरु किया था। उसके पांच वर्षों बाद सन् 1883 में उन्होंने सांगली में कालेकर ग्रैंड सर्कस की स्थापना की। उसे भी सांगली और बुध गांव के महाराज ने भरपूर सहायता प्रदान की। ‘कालेकर ग्रैंड सर्कस’ 60 वर्षों तक अपने पूरे वैभव के साथ चलता रहा। इसके बाद सन् 1943 में रंगून में जापानियों की बमवर्षा के कारण इस सर्कस का अंत हो गया।

स्वयंभू भगवान


पिछली सदी के पूर्वार्द्ध की बात है। उन दिनों देश में अपने को साक्षात् भगवान का अवतार बताने वालों की बाढ़ आई हुई थी। कोई साधु स्वयं को भगवान शंकर का अवतार घोषित करता था तो कोई हाथ में बांसुरी लेकर कृष्ण का अवतार बनकर भोले-भाले लोगों को ठगने में लगा रहता था। कुछ धार्मिक व्यक्ति इससे बहुत दुखी थे। उन्होंने इन कलियुगी ‘अवतारों’ का भडांफोड़ करना जरूरी समझा।
भक्त रामशरणदास ने ऐसे अवतारों के पास जाकर उन्हें कई बार चुनौती दी। इस उपाय की सफलता से करपात्री जी आदि भी बहुत उत्साहित हए।

उन्हीं दिनों प्रयाग में कुंभ का मेला लगा। करपात्री जी, कृष्ण बोधाश्रम जी और भक्त रामशरणदास जी ने विचार किया कि वहां ये फर्जी अवतार जरूर पहुंचेंगे। तब उनका भंडाभोड़ करने का अच्छा अवसर मिलेगा। इसलिए करपात्री जी ने भक्त रामशरणदास जी से कहा-‘‘आप मेले में घूम-घूमकर ऐसे अवतारी लोगों का पता लगाएं और उन्हें किसी तरह से धर्मसंघ के पंडाल में आमंत्रित करके ले आएं। वहीं उनका भंडाफोड़ करके लोगों को उनके बारे में बताया जाएगा।’’
भक्त रामशरणदास जी ने कुंभ क्षेत्र में भ्रमण करके दो नकली अवतारों को जा घेर। उनमें से एक ने शंकर का रूप धरा था और दूसरे ने कृष्ण का स्वांग बनाया था। भक्त रामशरणदास जी उन्हें धर्मसंघ के पंडाल में ले आए।

सभा में मंच पर अनेक धर्माचार्य पहले से विराजमान थे। अपने को भगवान शंकर का अवतार घोषित करने वाले जटा-जूटधारी और शरीर पर भस्म लगाए हुए साधु से भक्त रामशरणदास जी ने कहा-‘‘शंकरजी ने विषपान किया था। वे गले में विषधर लपेटे रहते थे। क्या आप उनकी तरह विषपान करने को तत्पर हैं ?’’
एक सपेरा वहां पहले से मौजूद था। संकेत पाते ही उसने एक सांप कलियुगी शंकर के गले में डालना चाहा कि वह रोना लगा। नकली शंकर की यह दशा देखकर अपने को कृष्ण बताने वाला साधु जल्दी से खिसक गया।


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