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महान व्यक्तित्व >> वे जो प्रेरणास्रोत हैं

वे जो प्रेरणास्रोत हैं

शम्भूनाथ पाण्डेय

प्रकाशक : अमरसत्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4412
आईएसबीएन :81-88466-47-6

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प्रेरणाप्रद कथाएँ....

Ve jo prenasrot hain

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय नारी-सरोजनी नायडू

सरोजनी नायडू को बचपन से ही कविताएँ लिखने का शौक था। इंग्लैंड में जब वे पढ़ाई कर रही थीं, तो साहित्य में अभिरुचि होने के कारण वे अंग्रेजी साहित्य की अनेक महान् विभूतियों के संपर्क में आईं।
उनमें प्रमुख थे— एडमंड विलियम गोसे, आर्थर सिमंस और डब्ल्यू.वी. इट्स।
एक बार उन्होंने अपनी कविताएँ गोसे को दिखाईं और उन्होंने गंभीरतापूर्वक पढ़ीं भी, पर उन्होंने जब राय जाननी चाही तो गोर्से ने कहा, ‘‘मेरे विचार से इन सारी कविताओं को रद्दी की टोकरी में डाल देना चाहिए।’

इस बात पर सरोजनी नायडू गंभीर हो गईं, तब गोसे बोले, क्योंकि तुम्हारी कविताएँ अंग्रेजी साहित्य की कविताओं जैसी हैं। इनमें ऐसी कोई बात नहीं है, जिससे कहा जा सके कि इसे भारतीय कवि ने लिखा है। तुम्हारी रचनाएँ तभी महान् होंगी, जब तुम इन्हें भारतीय दृष्टि से लिखोगी। भारत के गाँवों के दृश्य, भारतीय लोकजीवन की झलकियाँ और वहाँ जिंदगी से उठाए गए उदाहरण तुम्हारी कविताओं को विशिष्टता प्रदान करेंगे।’

इस प्रकार सरोजनी नायडू की कविताओं में एक नया मोड़ आया, जिसे सराहा गया।
अब की बार सरोजनी नायडू की कविताओं के बारे में उनके विचार सकारात्मक ही नहीं, वरन् प्रशंसा से भरे थे।
एडमंड गोसे ने कहा, ‘‘सरोजनी नायडू अपने व्यक्तित्व और रचनाओं में हर तरह से भारतीय हैं।’
आर्थर सिमंस ने कहा, ‘‘सरोजनी की तरह की परिकल्पना पश्चिम के साहित्यकारों में नहीं मिलती। एक भारतीय नारी होकर सरोजनी ने जो कुछ प्रस्तुत किया है, वह अनुकरणीय है।


न्यायपुजारी-गोपालकृष्ण गोखले



बात सन् 1885 की है। पूना के ‘न्यू इंग्लिश स्कूल’ में समारोह के दौरान मुख्य द्वार पर खड़े स्वयंसेवक को दायित्व दिया गया कि वह निमंत्रण-पत्र लेकर आने वाले अतिथियों व महानुभवों को ही अंदर आने की अनुमति दे और उन्हें नियत स्थान पर बैठाए। उस समारोह के मुख्य अतिथि थे—मूर्धन्य समाजसेवी, न्यायाधीश महादेव गोविंद रानाडे।
जैसे ही वे वहां पहुँचे, मुख्य द्वार पर नियुक्त स्वयंसेवक ने उनसे निमंत्रण-पत्र दिखाने के लिए कहा। ‘आयुष्मान ! मेरे पास निमंत्रण-पत्र तो नहीं है।’ रानाडे ने सकुचाते हुए स्वयंसेवक को उत्तर दिया। ‘तो श्रीमान, मुझे क्षमा करें आप अंदर नहीं जा सकते।’’ विनय पूर्वक दृढ़ स्वर में स्वयंसेवक ने कहा। तभी एकाएक आयोजकों व स्वागत समिति के लोगों ने रानाडे को देख लिया और अंदर मंच की ओर ले जाने लगे।

इस पर तमककर स्वयंसेवक ने कहा, ‘‘मैं अपने कार्य का निर्वाह कर रहा हूँ। अगर आप स्वागत समिति के लोग ही व्यवस्था में बाधा डालेंगे तो उचित नहीं होगा। नियम सबके लिए समान हैं। तदनुसार सबके पास निमंत्रण-पत्र होना अपेक्षित है। भेदभाव समीचीन नहीं।’
यही मनस्वी स्वयंसेवक आगे चलकर गोपालकृष्ण गोखले के नाम से प्रसिद्ध हुए, जिन्हें गांधी जी ने अपना गुरु माना।


चन्द्रशेखर आजाद का प्रण


चन्द्रशेखर नाम का एक 14 वर्षीय बालक 1921 में महात्मा गांधी के नेतृत्व में चलाए जा रहे असहयोग आंदोलन में सम्मिलित हुआ। सिर पर मोटी चोटी, अद्भुत व्यक्तित्व, अनोखी वेशभूषा व धार्मिक विचार वाले ऐसे छात्र को पकड़ा गया और उस पर मुकदमा चला। मजिस्ट्रेट ने पूछा, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है ?’ बालक ने कहा, ‘आजाद।’ मजिस्ट्रेट ने फिर पूछा, ‘तुम्हारे पिता का नाम क्या है ?’ बालक ने कहा, स्वतंत्र।’ ‘तुम्हारा निवास कहाँ है ?’ बालक ने कहा, ‘जेलखाना।’ इस प्रकार के अनपेक्षित जवाब पर बालक को 15 बेतों की सजा मिली। कोमल शरीर पर बेतों के प्रहार से लहूलुहान हो गया, पर प्रत्येक बेंत के साथ ये ही शब्द निकलते, ‘‘महात्मा गांधी की जय’, ‘वंदे मातरम्’।

जेल से निकल कर आजादी के इस दीवाने ने पढ़ाई छोड़ दी और पराधीनता के बेड़ियों को काटने के लिए क्रांतिकारी समितियों का गठन प्रारंभ कर दिया। हिंदुस्तान रिपब्लिकन के सदस्य बने। 1925 में ‘काकोरी’ के समीप चलती हुई ट्रेन को रोककर खजाना लूटने में आजाद का मुख्य हाथ था। अनेक क्रांतिकारी गिरफ्तार हुए, पर आजाद भाग निकले। उस मुकदमें में रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिड़ी, रोशन सिंह और अशफाक उल्ला खाँ को फाँसी की सजा मिली। दुखी आजाद फिर क्रांतिकारियों के गठन में जुट गए। 1928 में साइमन कमीशन का विरोध करते हुए लाला लाजपत राय ने प्राणों की आहुति दी। आजाद बौखला गए।

27 फरवरी, 1931 को जब आजाद इलाहाबाद के अलफ्रेड पार्क में अपने साथियों का इंतजार कर रहे थे, किसी मुखबिर की सूचना पर पुलिस ने उन्हें घेर लिया। गोलियाँ चलीं। अनेक पुलिसवाले भी घायल हुए। आजाद का प्रण था कि वे किसी भी हालत में अंग्रेजों के हाथ नहीं लगेंगे। अतः उन्होंने अपनी कनपटी पर खुद के रिवॉल्वर से गोली दाग ली। अंग्रेज सिपाही भौंचक्के रह गए और आजाद शहीद हो गए।


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