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कुर्रतुल ऐन हैदर की श्रेष्ठ कहानियाँ

शाहीना तबस्सुम

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4435
आईएसबीएन :81-237-2133-1

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भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास एवं संस्कृति की कहानियाँ....

Qurratual-Ain-Haider Ki Shreshtha Kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त उर्दू की प्रख्यात लेखिका क़ुर्रतुल-एन-हैदर की चुनी हुई कहानियों का यह संकलन लेखिका के कला-कौशल एवं चिंतन-शैली का श्रेष्ठ उदाहरण है। आम तौर पर इनकी कहानियों के विस्तृत फलक में भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास एवं संस्कृति पृष्ठभूमि निहित रहती है।

क़ुर्रतुल-एन-हैदर न केवल उर्दू के साहित्य बल्कि संपूर्ण भारतीय साहित्य धारा में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। इनके समृद्ध लेखन में उर्दू साहित्य की आधुनिक धारा को एक दिशा दी है। सन् 1947 में प्रकाशित इनके पहिले कहानी-संग्रह ‘सितारों से आगे’ को उर्दू की नई कहानी का प्रस्थान-बिन्दु समझा जाता है। ‘मेरे भी सनमख़ाने’, ‘साफिनाए-ग़मे दिल’, ‘आग का दरिया’, ‘कारे जहाँ दराज़ है’, ‘आख़िरे शब के हमसफर’, ‘गर्दिशे रंगे चमन’, ‘चांदनी बेगम’ आदि इनके कुछ महत्त्वपूर्ण प्रकाशनों में से हैं। इनकी समर्पित साहित्य-सेवा के लिए इन्हें कई पुरुस्कारों से सम्मानित किया गया है।

कलंदर


गाजीपुर के गवर्नमेंट हाई स्कूल की फुटबाल टीम एक दूसरे स्कूल में मैच खेलने गई थी। वहां खेल से पहले लड़कों में किसी छोटी-सी बात पर झगड़ा हुआ और मारपीट शुरू हो गई। झगड़ा चूँकि खेल के ही किसी प्वाइंट पर शुरू हुआ था इसलिए दर्शकों और स्टाफ ने भी भाग लिया। जिन लड़कों ने बीच-बचाव करने की चेष्टा की उन्हें भी चोटें आईं और उनमें मेरे भाई भी थे जो गवर्नमेंट हाई स्कूल की नवीं कक्षा में पढ़ते थे। उनके माथे में चोट लगी और नाक से खून बहने लगा। अब हंगामा सारे मैदान में फैल गया। भगदड़ मच गई। जो लड़के जख्मी हुए थे इस हड़बोंग में उनकी सुध किसी ने न ली।

इस पिछड़े हुए जिले में टेलीफोन पर्याप्त नहीं थे। सारे शहर में केवल छह मोटरें थी और अस्पताल, एंबुलेंस का तो प्रश्न ही नहीं होता था। रविवार का दिन था। हवा में पीले पत्ते उड़ते फिर रहे थे। मैं बड़े-से पिछले  बरामदे में चुपचाप बैठी गुड़िया खेल रही थी—इतने में एक इक्का ठक-ठक बरामदे की डेवढ़ी की ऊँची सतह से लगकर खड़ा हो गया। और सत्रह-अठारह वर्ष के एक अजनबी लड़के ने मेरे भाई को सहारा देकर नीचे उतारा। भाई के माथे से खून बहता देखकर मैं डर के मारे तुरन्त खंभे के पीछे छुप गई। सारे घर में कोलाहल मच गया। अम्मां व्याकुल होकर बाहर निकलीं। अजनबी लड़के ने बड़ी नम्रता से उन्हें सम्बोधित किया—‘‘अरे ! अरे ! देखिए, घबराइए नहीं—घबराइए नहीं—मैं कहता हूँ...।’’ फिर वह मेरी ओर मुड़ा और कहने लगा—‘‘मुन्नी ! जरा दौड़कर एक गिलास पानी तो ले आ भैया के लिए।’’

इस पर कई नौकर पानी के जग और गिलास लेकर चारों तरफ आ खड़े हुए और लड़के ने उनसे प्रश्न किया—‘‘साहब किधर हैं...?’’
‘‘साहब बाहर गए हुए हैं।’’ किसी ने जवाब दिया।
‘‘नहीं...नहीं..दफ्तर में बैठे हैं। दूसरे ने कहा।

लड़का और कुछ सुने बिना आगे बढ़ा और गैलरी से होता हुआ इधर-उधर देखता अब्बाजान के आफिस में जा पहुंचा। अब्बाजान दरवाजे बंद किए किसी विशेष मुकदमे का फैसला लिखने में व्यस्त थे। लड़के ने दस्तक दी। आफिस के अंदर प्रवेश किया और मेज के सामने जाकर पूर्ण विश्वास के साथ गंभीरता से बोला—

‘‘साहब, आपके बेटे हमारे स्कूल में मैच खेलने आए थे। उनको थोड़ी-सी चोट लग गई है। खेल-खेल में दंगा हो गया था। मेरा नाम इक़बाल बख़्त है। मैं मुंशी खुशबख़्त राय सक्सेना का बेटा हूं जो सिटी-कोर्ट के मुख़्तार हैं। आपसे मेरी विनती है कि हमारा स्कूल बंद करने की आज्ञा न दें और लड़कों पर जुर्माना भी न करें, क्योंकि एक तो हमारी परीक्षा होने वाली है और दूसरे, हमारे लड़के बहुत गरीब हैं...।’’

अब्बाजान ने सर उठाकर उसे देखा और उसका तर्कसंगत एवं विश्वासपूर्ण भाषण सुनकर प्रभावित हुए। उन्होंने उसे बड़े स्नेह से अपने पास बिठाया।
इस तरह से इक़बाल मियां का हमारे यहां आना-जाना शुरू हुआ। भाई से उनकी पक्की दोस्ती हो गई। मगर वे अधिकतर घर की महिलाओं के पास बैठते थे। घरेलू कामों के बारे में सलाह देते थे। बाजार-भाव और दुनियाभर की खबरों पर रोशनी डालते या चुटकुले सुनाते। जब वे दूसरी बार हमारे यहाँ आए थे तब मैंने भाई को आवाज़ दी थी—‘‘इक़बाल मियां आए हैं।’’ वे तुरंत बड़ी शान से चलते हुए मेरे पास आए और डपटकर बोले—‘‘देखो मुन्नी, मैं तुमसे बहुत बड़ा हूं। मुझे इक़बाल भाई कहो...क्या कहोगी ?’’
‘‘इक़बाल भाई’’—मैंने जरा डरकर उत्तर दिया।

इक़बाल भाई सदा मुझे ‘मुन्नी’ ही पुकारते रहे। मुझे उनके दिए हुए इस नाम से बहुत चिढ़ थी मगर हिम्मत न पड़ती कि उनसे कहूं कि मेरा असली नाम लिया करें। अब वे सारे घर के लिए इक़बाल भाई’ और ‘इक़बाल भैया’ बन चुके थे। बगल के लान पर अमलताश का घना पेड़ हमारे लिए बड़ा महत्त्व रखता था। इसकी छाया में खाट बिछाकर खाली समय में बैठक होती थी। इसका अध्यक्षता ड्राइवर साहब करते थे। इक़बाल भाई अपने आप उपाध्यक्ष बन गए। इस बैठक के दूसरे सदस्य उस्ताद युसुफ खां, जमना पांडे, महाराज चपरासी, अब्दुल, हीरा और भाई थे। मैं बिना बुलाए मेहमान की तरह इधर-उधर डोलती रहती थी। उस्ताद युसुफ खां के कमरे का संबंध अंदर के कमरों से नहीं था उसका दरवाजा इसी लान पर खुलता था।

उस्ताद पुराने स्कूल में अच्छे और सभ्य संगीतकार थे। रामपुर दरबार से उनका संबंध रह चुका था। शायरी भी करते थे और दिनभर नवल किशोर प्रेस से प्रकाशित कीट खाए उपन्यास पढ़ा करते थे। बूढ़े आदमी थे। आंखों में सुर्मा लगाते थे और नुकीली मूँछें रखते थे। दोनों वक्त का खाना-नाश्ता और चाय विशेष प्रकार से एक ट्रे में सजाकर उनके कमरे में पहुँचा दी जाती थी। तीसरे पहर वे अंदर आकर अम्मां को भैरवी और भीमपलासी आदि राग सिखलाते थे और अम्मां बैठी सितार पर ‘टिन-टिन’ किया करती थीं। इक़बाल भाई उस्ताद के विशेष मित्र बन गए थे और ‘आराइशे-महफिल’1, ‘तिलिस्मे-होशरूबा’2, ‘असरारे-लंदन’3 और शरर4 के उपन्यासों का लेन-देन दोनों के बीच चलता रहता था। इक़बाल भाई इस साल इंट्रेन्स की परीक्षा देने वाले थे।

एक रोज मुझे एक पेड़ की डाली से लटकता देखकर उन्होंने अम्मां से कहा—‘‘मुन्नी पढ़ती-लिखती बिल्कुल नहीं, हर समय डंडे बजाया करती है।’’
‘‘यहां कोई स्कूल तो है नहीं, पढ़े कहां ?’’ अम्मां ने उत्तर दिया। पिछले दिनों में एक बुआजी के बेटे ने मुझे गणित सिखलाने की हर संभव कोशिश कर देखी थी नाकाम हो चुके थे। अब इक़बाल भाई तुरंत वालेंटियर बन गए।
‘‘परीक्षा के बाद मैं इसे पढ़ा दिया करूंगा।’’

अगले रविवार को इक़बाल भाई ने मेरा इंण्टरव्यू लिया।’’ अंग्रेजी तो इसे थोड़ी-सी आ गई है। उर्दू-फारसी में बिल्कुल कोरी है।’’ उन्होंने अम्मां को रिपोर्ट दी। इसके बाद उन्होंने हर दिन मुझे पढ़ाना शुरू कर दिया। उनकी तनख्वाह दस रुपया महीना तय की गई। रोज शाम चार बजे उनका इक्का दूर फाटक में प्रवेश करते देख मेरी जान निकल जाती। गर्मी शुरू हो चुकी थी। इक़बाल भाई ने हुक्म दिया—‘‘हम बाग में बैठकर तुझे पढ़ाएंगे। तेरा दिमाग, जिसमें भूंसा भरा हुआ है, ठंडी हवा से हरा-ताजा होगा।’’ अतः पिछले बाग में फालसे के पेड़ के नीचे मेरी छोटी-सी लकड़ी की कुर्सी और इक़बाल भाई की कुर्सी-मेज रखी जाती थी। जिस रोज मैं अच्छे मूड में होती, माली से बाग का बड़ा झाड़ू मांग लेती और फालसे के नीचे इक़बाल भाई की कुर्सी पर खूब झाड़ू देती। यूं भी पढ़ाई के मुकाबले मुझे बाग में झाडू देना कहीं ज्यादा अच्छा लगता था।
इक़बाल भाई जोड़-घटाव पर सर खपाने के बाद हुक्म देते—‘‘तख्ती लाओ।’’ तख्ती पर वे बहुत सुंदर अक्षरों में लिखते—


कलम गोयद कि मन शाहे जहानम
कलम कश रा बदौलत मी रसानम5

अपने टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में मैं इस शेर को कई बार लिखती, यहां तक कि मेरी उंगलियां दुखने लगतीं और मैं दुआ मांगती—‘‘अल्लाह करे इक़बाल भाई मर जाएं—अल्लाह करे...।’’
एक बार मैं पाठ सुनाने के बदले कुर्सी पर खड़ी होकर एक टांग पर नाच रही थी कि इक़बाल भाई अचानक बहुत क्रोधित हो गए। उन्होंने मेरे कान इतने जोर से ऐंठें कि मेरा मुंह लाल हो गया और मैं चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगी। लेकिन इसके बाद मैंने  
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1, 2, 3—उर्दू के सुप्रसिद्ध उपन्यास, 4. उर्दू के उपन्यासकार,5. कलम ने कहा कि मैं दुनिया का बादशाह हूं—अर्थात मैं कलम पकड़ने वाले को दौलत तक पहुंचाता हूं।

शरारत कम कर दी थी।
इक़बाल भाई अभी मुझे पांच-छह महीने ही पढ़ा पाए होंगे कि अब्बाजान का ट्रांसफर गाजीपुर से इटावा हो गया।
अगले दो-तीन साल तक अम्मां के पास कभी-कभार इक़बाल भाई के पत्र आते रहे—‘‘अब हमने एफ.ए. करने का विचार भी छोड़ दिया। इंट्रेन्स में थर्ड डिवीजन मिला। इस कारण हमारा दिल टूट गया है। बस अब हम भी मुंसरिम, पेशकार, कानून-गो या कुर्क अमीन बनकर जीवन बिता देंगे या अधिक-से-अधिक पिता की तरह मुख़्तार बन जाएँगे। इसलिए कभी सोचते हैं। कानून की परीक्षा दे डालें। और यहां रहकर भी क्या कर सकते हैं...।’
फिर उनके पत्र आने बंद हो गए।

मैं आई. टी. कालेज, लखनऊ के प्रथम वर्ष में थी। उस दिन हमारे यहां कुछ अतिथि चाय पर आए हुए थे। सब लोग ड्राइंगरूप में बैठे हुए थे कि बाहर से आकर किसी ने आवाज दी—
‘‘अरे भाई कोई है...।’’
‘‘कौन है...’’ अम्मां ने कमरे में से पूछा।
‘‘हम आए हैं—इक़बाल बख़्त...।’’

अम्मां ने बहुत खुश होकर उन्हें अन्दर बुलाया। कमरे में लोगों का जमघट था। इक़बाल भाई चारों तरफ नजर डालकर जरा ठिठके परंतु दूसरे ही क्षण बड़ी शान के साथ अम्मां के करीब जाकर बैठ गए। फिर उनकी नजर मुझ पर पड़ी और उन्होंने खुशी से चिल्लाकर कहा—‘‘अरे मुन्नी...तू इतनी बड़ी हो गई !’’
मैं नई-नई कालेज में दाखिल हुई थी और अपने ‘कालेज स्टूडेंट’ होने का बड़ा गर्व था। इक़बाल भाई ने जब सब लोगों के सामने इस तरह ‘अरी मुन्नी’’—कहकर संबोधित किया तो मुझे बुरा लगा।
इक़बाल भाई मैला-सा पाजामा और घिसी हुई शेरवानी पहने थे। अर्थात् उनकी आर्थिक स्थिति खराब थी। मगर उन्होंने संक्षेप में इतना ही बताया कि कानपुर में नौकर हो गए हैं। और प्राइवेट एफ. टी. सी. टी. कर चुके हैं। फिर वे अब्बाजान के कमरे में गए और उनके पास बहुत देर तक बैठे रहे।

इसके बाद इक़बाल भाई फिर से गायब हो गए।
दस साल बाद...मुझे लंदन पहुंचे छह-सात दिन ही हुए थे। मैं बी. बी. सी. के उर्दू विभाग में बैठी हुई थी कि किसी ने आवाज़ दी—‘’अरे भाई सक्सेना साहब आ गए कि नहीं ?’’
‘‘आ गए’’—ये कहते हुए इक़बाल बख़्त सक्सेना पर्दा उठाकर कमरे में दाखिल हुए। घिसी हुई बरसाती ओढ़े अखबारों का पुलिंदा और एक मोटा-सा पोर्टफोलियो संभाले मेरे सामने से गुजरते हुए एक मेज की तरफ चले गए। फिर उन्होंने पलटकर मुझे देखा। पहले तो उन्होंने मुझे नहीं पहचाना। टिकटिकी बांधे कुछ क्षणों तक देखते रहे। ‘‘अरे मुन्नी...।’’ उनके मुंह से निकला फिर आवाज भर्रा उठी।

वे मेरे पास आकर बैठे और अब्बाजान की खैरियत पूछी। ‘‘अब्बाजान का तो कई वर्ष पूर्व देहांत हो गया इक़बाल भाई...।’’ मैंने कहा। यह सुनकर वे फूट-फूट कर रोने लगे।
उर्दू विभाग के सदस्यों ने उनको रोता देखकर चुपचाप अपने-अपने कागजातों पर सिर झुका लिए।
उन्होंने मुझे बताया कि कानपुर की नौकरी उसी साल छूट गई। फिर वे देश भर में जूतियां चटखाते फिरे। उसी बीच उनके माता-पिता की मृत्यु हो गई। छोटी बहन की किसी गांव में शादी हो चुकी थी। आजादी के बाद जब किस्मत आजमाने के लिए इंग्लिस्तान, कनाड़ा और अमरीका जाने की हवा चली तो वे भी एक दिन गाजीपुर गए। अपना पैतृक मकान बेच दिया और उसके रुपये से वे जहाज का टिकट खरीदकर लंदन आ पहुंचे। पिछले चार साल से वे लंदन में थे और वहां भी अनेक प्रकार के पापड़ बेल रहे थे।

किसी को उनके बारे में ठीक से जानकारी न थी कि वे क्या करते हैं। मुझसे भी उन्होंने एक बार गोल-मोल शब्दों में केवल इतना ही कहा—‘‘रीजेंट स्ट्रीट पोलीटेकनिक में इकनामिक्स पढ़ रहा हूं।’’ जिस संस्था का नाम उन्होंने लिया मैं उसकी वास्तविकता अच्छी तरह जानती थी। जब लोग इसी अस्पष्टता से यह कहते कि वे रीजेंट स्ट्रीट पोलीटेकनिक में जर्नलिज्म पढ़ रहे हैं या इकनामिक्स पढ़ रहे हैं या मूर्तिकला, फोटोग्राफी सीख रहे हैं तो और अधिक किसी शंका की आवश्यकता नहीं हो सकती थी।

लेकिन बहुत जल्दी ही मुझे यह मालूम हो गया कि इक़बाल भाई लंदन के हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी छात्रों की कम्युनिटी के प्रमुख स्तंभ हैं। कोई हंगामा, जलसा, जुलूस, झगड़ा, दंगा-फसाद, इलेक्शन, तीज-त्योहार उनके बिना पूरा नहीं हो सकता था। चित्र-प्रदर्शनी है तो वे हॉल सजा रहे हैं। नाच-गाने ,का कार्यक्रम है तो माइक्रोफोन लगा रहे हैं। नाटक है तो रिहर्सल के लिए लोगों को पकड़ते फिर रहे हैं। डिनर है तो डाइनिंग हॉल में तैयार खड़े हैं। कभी-कभी वे अचानक गायब हो जाते और सूचना मिलती की रविवार के दिन पेटीकोट लेन की मंडी में लोगों को भविष्य का हाल बताते पाए गए। या ग्लास्गो के किसी बाजार में हिंदुस्तानी जड़ी-बूटियाँ बेचते नजर आए। एक बार सूचना मिली की शहर के एक फैशनेबल मुहल्ले के एक फ्लैट में विराजमान हैं। कभी वे बढ़िया रेस्तरां में नजर आते। कभी मजदूरों के चायखानों में दिखलाई पड़ते। इक़बाल भाई शायरी भी करते हैं। आस्ट्रेलिया और एम. सी. सी. के ऐतिहासित मैच के दिनों में उन्होंने एक शोकगीत लिखा—

हर ताजा विकेट पर हमातन1 कांप रहा है,
बॉलर है बड़ा सख्त हिटन कांप रहा है।
किस शेर की आमद2 है कि रन3 कांप रहा है।

इक़बाल भाई संगीतकला, ज्योतिष विज्ञान, हस्तरेखा ज्ञान, होम्योपैथी, तिब्बे-यूनानी और आयुर्वेदिक से लेकर पोल्ट्रीफार्मिंग, कश्तकारी और बागवानी तक हर चीज में निपुण थे और हल्क-ए-ज़ौक4 की महफिलों में नियमित रूप से भाग लेते थे। हम दो-तीन लोगों ने मिलकर एक फिल्म सोसायटी बनाई जिसमें हम बंबई से फिल्में मंगवाकर हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी पब्लिक को दिखाते थे। उस दिन इक़बाल भाई मानो बारात के दूल्हा बने हों—टिकट बेच रहे हैं—मेहमानों को ला-लाकर बिठा रहे हैं। फिल्म शुरू होने से पहले स्टेज पर जाकर मिस मेहताब या मिस नसीम या मिस निम्मी को गुलदस्ता भेंट कर रहे हैं। उस जमाने में उन्होंने यह भी तय कर लिया कि बंबई जाकर एक यादगार फिल्म बनाएंगे जिसकी कहानी, संवाद औऱ गीत स्वयं लिखेंगे। डायरेक्ट भी स्वयं करेंगे और हीरो के बड़े भाई या हीरोइन के बाप की भूमिका भी स्वयं निभाएंगे और कुल मिलाकर सारी फिल्म इंडस्ट्री पर रोलर फेर देंगे।

इक़बाल शराब को हाथ नहीं लगाते थे और मंगलवार को मांस नहीं खाते थे। एक दिन वे मुझे एक सड़क पर नजर आए। इस हालत में कि हाथ में बहुत कीमती फूलों का गुच्छा है और लपके हुए चले जाते हैं। मुझे देखकर बोले—‘‘आओ-आओ—मैं जरा एक मित्र को देखने अस्पताल जा रहा हूँ।’’ मैं उनके साथ हो ली।
अस्पताल में एक इस्लामी देश के राजदूत की बेगम साहिबा दाखिल थीं। इक़बाल ने उनके कमरे में प्रवेश कर गुलदस्ता मेज पर रख दिया और बड़े धैर्य से उनकी तबीयत का हाल पूछने में व्यस्त हो गए। इतने में राजदूत की बेटी अंदर आई और बहुत गर्मजोशी से उनसे मिली। मैं आश्चर्य से यह सब देखती रही।
बाहर जाकर कहने लगी—‘‘भई ये लोग हमारे दोस्त हैं। बहुत अच्छे लोग हैं बेचारे।’’

‘‘साहबजादी से आपकी मुलाकात किस तरह हुई ?’’
‘‘लंबी कहानी है, फिर कभी बताएंगे।’’
उस लड़की का व्यवहार बहुत बुरा था। यूनिवर्सिटी में पढ़ती थी और हद से ज्यादा ‘ऐंटी इंडियन’ के रूप में मशहूर थी। उस वक्त भी उसने अस्पताल के कमरे में कोई नापसंद राजनीतिक बात छेड़ दी थी। ‘‘भई अगर हिंदुस्तानी को गालियां देकर उसका दिल ठंडा होता है’’—इक़बाल भाई  ने सीढ़ियां उतरते हुए मुझसे कहा—
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1.    पूरा शरीर,2. आगमन,3. रणभूमि,4. उर्दू लेखकों की सुप्रसिद्ध संस्था।

‘‘तो इसमें मेरा क्या जाता है ? उसको इसी तरह शांति मिलती है...।’’
इसके कुछ समय बाद ही एक शाम को अंडरग्राउंड में मिल गए। साथ ही वह लड़की और उसकी एक कजिन भी थी। लड़की ने मुझसे कहा—‘‘हम लोग एक ‘मज़लिस’ में जा रहे हैं। आप भी चलिए।’’
‘‘मैं तो न जा सकूँगी। मैंने थियेटर के टिकट खरीद लिए हैं।’’ मैंने क्षमा चाही।

इक़बाल भाई ने बड़े दुःखभरे अंदाज से मुझे देखा—‘‘मोहर्रम2 की सातवीं तारीख को थियेटर जा रही हो ?’’ मैं बहुत लज्जित हुई। ‘‘मुझे याद न रहा था’’—मैंने उत्तर दिया। ‘‘आप शिया3 हैं या सुन्नी4 ? ’’दूसरी लड़की ने प्रश्न किया।
‘‘मैं कादयानी5 ?’’ वह खामोश हो गई। कुछ मिनट बाद राजदूत की लड़की ने विचार व्यक्त किया—‘‘इक़बाल भाई, अब आप यह फ्राड भी करने लगे ! उन लड़कियों के सामने आपने स्वयं को मुसलमान जाहिर किया है ? न सिर्फ मुसलमान बल्कि शिया भी...।’’

उत्तर मिला—‘‘मुन्नी, दुनिया में इतना ज्यादा द्वेष और फूट है कि सब लोग एक-दूसरे की जान को आए हुए हैं। जब इस लड़की से मेरी मुलाकात हुई तो उसने मेरे नाम के कारण मुझे मुसलमान समझा और मेरे सामने हिंदुओं की और हिंदुस्तान की खूब-खूब बुराइयां कीं। इसके बाद अगर मैं उसे बता देता कि में हिंदू हूँ तो वह कितनी लज्जित होती ? और फिर इसमें मेरा नुकसान क्या है ? मेरे परिवार में सैकड़ों बरस से फारसी नाम रखे जाते हैं। इससे हिंदू धर्म पर कोई आंच नहीं आई तो—अब अगर मैंने स्वयं को मुसलमान बता दिया तो दुनिया पर कौन-सी कयामत आ जाएगी ? बताओ ? अरे वाह री मुन्नी—इतनी बड़ी अफ़लातून बनती हो मगर अक्ल में वही भूसा भरा है।’’

एक शाम को मैं अपनी एक सहेली ज़ाहिदा के यहां गई। वह बहुत तन्ययता से पैकिंग में जुटी हुई थी और अपने सारे परिवार सहित अगले दिन सुबह-सवेरे छुट्टी पर कराची वापस जाने वाली थी। ज़ाहिदा के घर पर मुजे याद आया कि इक़बाल भाई ने आस्ट्रेलियन छात्रों के एक प्रोग्राम में आमंत्रित किया है—‘‘जरूर आना—आस्ट्रेलियन बेचारे यह समझते हैं कि उन्हें बहुत ही बेकार और बोरिंग कौम समझा जाता है। उनका दिल नहीं तोड़ना चाहिए।
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1.    मुसलमानों की एक धार्मिक सभा जो धार्मिक उत्सव के समय होती है।
2.    उर्दू मास-इस मास में पिक्चर नहीं देखते।
3.    4, 5—मुसलमानों के धार्मिक गुट।

कुछ दिन पूर्व मैं एक नया बैंडबैग खरीदकर ज़ाहिदा के यहाँ छोड़ गई थी। चलते वक़्त खयाल आया कि उसे लेती चलूं। बैग ज़ाहिदा की श्रृंगार मेज पर रखा था। वह दूसरे कमरे में सामान बाँध रही थी। मैंने जाते हुए उसे आवाज दी कि मैं बैग लिए जा रही हूं। ‘‘अच्छा’’—‘‘उसने जवाब दिया। मैं नीचे आ गई।
आस्ट्रेलियन छात्रों के यहां इक़बाल भाई हॉल के बीच खड़े आस्ट्रेलिया और हिंदुस्तान के दोस्ताना संबंधों पर धुआंधार भाषण दे रहे थे।
मैं बगल के कमरे में गई जहाँ बहुत-से लड़के-लड़कियों का जमघट था और चार-पांच वेटर चाय बना-बनाकर सबको दे रहे थे। मैंने नया हैंडबैग वहीं एक खिड़की में रख दिया—और चाय पीने के बाद हॉल में लौट आई। चलते वक़्त मुझे हैंडबैग का खयाल आया। मैं उसे अंदर से उठा लाई और इक़बाल भाई के हाथ में दे दिया—शायद उसका खटका खुल गया था। जीने से उतरते हुए उन्होंने खटका बंद किया और बोले, ‘‘इतने नोट ?’’

मैंने लापरवाही के साथ उनकी बात पूरी तरह नहीं सुनी और इधर-उधर की बातों में लगी रही। स्टेशन पर इक़बाल ने बैग मुझे थमा दिया। घर पहुँचकर मैंने देखा कि ज़ाहिदा की कार बाहर खड़ी है और दोनों मियां-बीवी बड़ी व्याकुलता के साथ लैंडलेडी मिसेज विंगफील्ड से कुछ पूछ रहे हैं—ज़ाहिदा मुझे देखकर हकलाने लगी—‘‘...वह बैग...वह बैग...।’’
‘‘हां....हां....मेरे पास है तो....क्यों ?’’

उसमें मैंने पूरे पाँच सौ पाउंड के नोट ठूंस दिए थे। तुम्हारे जाने के बाद—याद आया...और तुम्हारी भुलक्कड़ आदत का खयाल करके जान निकल गई—या अल्लाह, तेरा शुक्र...या अल्लाह...।’’
दूसरे रोज बी.बी.सी. में मैंने इक़बाल इक़बाल भाई को यह घटना सुनाई। वे धैर्य से बोले—‘‘वह तो मैंने बैग में पहले ही देख लिया था कि नोट ठुंसे हुए हैं।’’
‘‘आपने मुझे उसी वक़्त क्यों नहीं बताया ?’’

‘‘मैंने कहा तो था, तुमने सुना ही नहीं।’’
‘‘आपको यह खयाल भी न आया कि मेरे पास इतने रुपये कहां से आ गए, जिन्हें मैं आराम से अध-खुले बैग मैं लिए घूम रही हूं।’’
‘‘मैंने सोचा, कहीं से आ ही गया होगा। पूछने की क्या आवश्यकता थी।’’

‘‘और दो घंटे वह इसी तरह खिड़की पे रखा रहा। अगर इस वक़्त चोरी हो जाता तो मैं ज़ाहिदा को क्या मुँह दिखाती—या अल्लाह—या अल्लाह...’’
‘‘देख मुन्नी...होनी को कोई अनहोनी नहीं कर सकता। तेरी सहेली की किस्मत में था कि उसके रुपये उसे सही सलामत वापस मिल जाएं—अब तू क्यों फिक्र कर रही है—यह बता, तूने अच्छिम्मा के लिए बात की




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