लोगों की राय

इतिहास और राजनीति >> हमारी न्यायपालिका

हमारी न्यायपालिका

बालमुकुन्द अग्रवाल

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :185
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4451
आईएसबीएन :81-237-1680-x

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

281 पाठक हैं

भारत की न्यायपालिका का वर्णन...

Avan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारत में न्याय का प्रदुर्भाव कैसे हुआ ? किस न्यायालय में कौन से मामलों की सुनवाई होती है ? हाल ही के वर्षों में स्थापित विभिन्न आयोगों तथा न्यायाधिकरणों का न्यायिक क्षेत्र क्या है ? पंचायतें कैसे अस्तित्व में आईं ? स्पष्ट एवं संक्षिप्त रूप से लिखी गई इस पुस्तक में ऐसे सभी तथा अन्य बहुत से प्रश्नों के बारे में जानकारी मिलती है। इस पुस्तक के लेखक न्यायालयों का अनुभव रखने वाले जाने माने न्यायविद् थे।

उन्होंने इसमें प्राचीन से अर्वाचीन काल तक, भारत की न्यायपालिका के विकास का वर्णन किया है। लेखक ने सरल व सहज भाषा में देश की न्यायिक प्रणाली के विभिन्न स्तरों की जानकारी दी है। साथ ही लोगों को न्यायालय में अपील करने सम्बन्धी उनके अधिकारों की भी चर्चा की है। पुस्तक के पहले भाग में न्याय व्यवस्था के इतिहास तथा दूसरे में विभिन्न न्यायालयों, आयोगों और न्यायाधिकरणों की विस्तृत जानकारी दी गयी है। ‘हमारी न्यायपालिका’ विशेषज्ञों तथा आम पाठक के लिए सुलभ संदर्भ पुस्तक है।

प्राक्कथन

विधायिका तथा कार्यपालिका के साथ, न्यायपालिका राज्य के तीन आधारभूत अंगों में से एक है। राज्य के कार्य संचालन में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। यह बात विधि के शासन पर आधारित लोकतंत्र पर और भी अधिक लागू होती है। अत्यंत प्राचीन काल से, विधि और न्यायपालिका ने भारत की राज्य व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हमारे प्राचीन धर्मग्रंथों में इसके महत्त्व को स्वीकार किया गया है। हमारे संविधान में विधायी तथा प्रशासनिक कार्रवाई की न्यायिक समीक्षा करने की शक्ति न्यायपालिका को प्रदान की गई है। संविधान में प्रत्याभूत मूल अधिकारों के प्रवर्तन का कार्य न्यायपालिका को सौंप कर न्यायपालिका को एक गौरवपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है।

संविधान द्वारा परिकल्पित सामाजिक कल्याणकारी राज्य में, राज्य को जनता के कल्याण के लिए अनेक दायित्वों का निर्वाह करना होता है। राज्य की भूमिका के इस विस्तार के कारण विविध क्षेत्रों में विधान बनाने की आवश्यकता पड़ी है जिससे न्यायपालिका की भूमिका में भी तदनुरूप वृद्धि हो गई है। आज न्यायपालिका केवल नागरिकों के आपसी विवाद ही नहीं अपितु नागरिक और राज्य के बीच के विवादों का भी निपटारा करती है। जिन विवादों का निर्णय करना अपेक्षित है, उनके बदलते स्वरूप के कारण ही विशेष न्यायालयों और अधिकरणों की स्थापना करनी पड़ी है। आज पारिवारिक विवाद, कराधान दुर्घटनाजन्य दावे, श्रम विवाद, सरकारी कर्मचारी, उपभोक्ता संरक्षण एकाधिकार और अवरोधक व्यवहार आदि से संबंधित प्रश्नों के लिए देश में कई ऐसे विशेष न्यायालय एवं अधिकरण कार्यरत हैं।

लोगों में अपने अधिकारों के प्रति बढ़ती जागरूकता के कारण मुकदमों की संख्या में काफी वृद्धि हो गई है और उसके फलस्वरूप न्यायालयों द्वारा न्याय प्रदान करने में विलंब होता है। इसने विवादों के त्वरित अधिनिर्णयन के लिए वैकल्पिक साधन ढूंढ़ने की आवश्यकता को जन्म दिया है। ऐसा ही एक साधन लोक अदालकों का है जिसमें विवादी पक्ष न्यायालयों में लंबित मामलों को परस्पर सहमति से सुलझा सकते हैं। यह साधन काफी सफल सिद्ध हुआ है।

यह पाया गया कि बहुत बार, निर्धनता निरक्षरता अथवा सामाजिक एवं आर्थिक विपन्नता के कारण अनेक लोग विधिक अनुतोष के लिए न्यायालयों तक नहीं पहुंच पाते थे। ऐसे लोगों को राहत प्रदान करने के विचार से न्यायालयों ने प्रक्रिया के सामान्य नियमों को शिथिल करके स्वैच्छिक संगठनों या सामाजिक कार्रवाई समूहों या व्यक्तिगत सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी इन लोगों की ओर से न्यायालय में गुहार करने और उन्हें राहत दिलाने की अनुमति प्रदान की है। वाद की यह शाखा, जिसे लोक हित वाद कहा जाता है, समाज के दुर्बल असंगिठत, एवं शोषित वर्गों को न्याय दिलाने में विशेष रूप से सहायक सिद्ध हुई है।

‘‘हमारी न्यायपालिका’’ नामक इस पुस्तक में लेखक श्री बालमुकुंद अग्रवाल ने प्राचीन भारत, मुगल काल और अंग्रेजी राज में न्यायपालिका के संगठन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर दृष्टिपात करने के बाद, देश की वर्तमान न्यायिक प्रणाली के कार्यकरण पर प्रकाश डाला है। पुस्तक में सिविल और दांडिक न्यायालयों और साथ ही, उच्च न्यायालयों तथा उच्चतम न्यायालय एवं न्यायिक और न्यायिक-कल्प कार्य करने वाले विविध अधिकरणों तथा आयोगों के सोपान क्रम और प्रक्रिया का विशद वर्णन है। लेखक ने माध्यस्थम्, लोक न्यायालय, पंचायत आदि विवाद अधिनियम के अन्य मंचों और हमारे देश में लोकहित वाद की सक्रिय भूमिका पर भी प्रकाश डाला है। पुस्तक में जिन विषयों की चर्चा है, उन्हें सामान्य पाठक को सरल भाषा में समझाने के लिए लेखक ने इस क्षेत्र में अपनी विद्वता एवं अनुभव का भली प्रकार उपयोग किया है।

यह पुस्तक हमारी जानकारी बढ़ाती है और साथ ही हमें शिक्षित भी करती है। यह पाठक को हमारे देश की न्यायिक प्रणाली के कार्यकरण के विषय में यथातथ्य जानकारी देने की दिशा में बड़ी उपयोगी सिद्ध होगी। इसका प्रकाशन करके नेशनल बुक ट्रस्ट ने सराहनीय कार्य किया है। दुर्भाग्यवश श्री बालमुकुंद अग्रवाल के दुःखद एवं असामयिक निधन के कारण यह पुस्तक मरणोपरांत प्रकाशित हो रही है। इसका प्रकाशन विद्वान लेखक की स्मृति के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगा।

प्रस्तावना


न्यायालय और उनकी प्रक्रिया जन साधारण के लिए आकर्षण का विषय होते हैं। समाज की बढ़ती जटिलता के कारण, हममें से अधिकांश लोगों को अपने जीवन में कभी न कभी न्यायालयों की शरण में जाना ही पड़ता है। आज न्याय प्रशासन पारंपरिक सिविल और दांडिक न्यायालयों तक ही सीमित नहीं है। गत-पचासेक वर्षों के दौरान काफी बड़ी संख्या में अधिकरण, आयोग आदि अस्तित्व में आ गए हैं जो विभिन्न प्रकार के विवादों में न्याय प्रदान करते हैं और उस तरह की राहत देते हैं जो पारंपरिक न्यायालयों में उपलब्ध नहीं होती। एकाधिकार, आयोग, उपभोक्ता, न्यायालय आदि इसी तरह के न्यायालय हैं। न्याय के मंदिर तक पहुंचने के लिए अब वकीलों के माध्यम का प्रयोग अनिवार्य नहीं रह गया है, यद्यपि आज भी उनकी भूमिका बड़ी महत्त्वपूर्ण है। किंतु बहुत से लोग नहीं जानते कि ‘वैकल्पिक’ न्यायालय और अधिकरण विद्यमान हैं और इसलिए उनका लाभ नहीं उठा पाते।

इस पुस्तक का मुख्य उद्देश्य सरल भाषा में आम लोगों को हमारी वर्तमान न्यायिक प्रणाली और उसके इतिहास से अवगत कराना और उन्हें सिविल, दांडिक तथा अन्य न्यायालयों एवं अधिकरणों का परिचय देना है। मैंने यहां भारतीय न्यायपालिका का एक चित्र प्रस्तुत करने का प्रयास किया है-उसका विकास, उसका वर्तमान स्वरूप और उसके विविध कार्य। इस पुस्तक में सिविल या दांडिक विधि अथवा प्रक्रिया के विकास पर प्रकाश नहीं डाला गया है, बल्कि, प्राचीन से अर्वाचीन काल तक, भारत की न्यायपालिका के विकास पर दृष्टि डाली गई है। मैंने विभिन्न न्यायालयों और अधिकरणों की अधिकारिता, उनमें उपलब्ध उपचार, उनके अनुक्रम तथा अपीली प्रणाली को समझाने का प्रयत्न किया है।

इन दिनों विभिन्न न्यायालयों के कामकाज, वहां होने वाले असाधारण विलंब मुकदमे के भारी खर्च, न्यायाधीशों, वकीलों और न्यायालय अधिकारियों, कर्मचारियों की ईमानदारी तथा सत्यनिष्ठा और साथ ही, न्यायिक प्रक्रिया में राजनीतिक हस्तक्षेप को लेकर बड़ी आलोचना की जाती है। मैंने इस सामूहिक स्वर में अपना स्वर मिलाने से स्वयं को रोका है-बस, पुस्तक के अंतिम अध्याय में इस तरह की शिकायतों का निरूपण कर दिया है।

सभ्य समाज का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण यह है कि उसके निवासी अपने विवाद किस प्रकार शांतिपूर्ण ढंग से निपटाते हैं। जहां शांति है, वहीं प्रगति है। यदि लोगों को न्याय मिलेगा तो वे संतुष्ट रहेंगे। यदि उन्हें न्याय नहीं मिलेगा तो वे विद्रोह करेंगे। न्यायालय और अधिकरण ऐसे स्थान हैं जिनमें व्यक्ति को सबल-दुर्बल और धनी-निर्धन के भेदभाव के बिना न्याय मिलना चाहिए। जैसा कि मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्र ने कहा, ‘‘मैं नहीं मानता कि हमारी न्यायिक प्रणाली पुरानी पड़ चुकी या ध्वस्त हो गई है अथवा ध्वस्त हो रही है। मेरा विचार है कि हमें विरासत में समय की कसौटी पर खरी उतरी हुई एक न्यायिक प्रणाली मिली है और हमने इसे सबको उपलब्ध कराने के लिए इसका और विकास किया है। हां, मैं यह कहूंगा कि इसे ‘सुर’ में लाने की जरूरत है।’’

महान अमरीकी न्यायाधीश न्यायमूर्ति स्टोरी की अंत्येष्टि के समय बोलते हुए डी. वेब्सटर ने अविस्मरणीय शब्द कहे थे :
श्रीमान, इस धरती पर न्याय के प्रति मनुष्य की बड़ी रुचि है। यह वह तंतु है जो सभ्य जीवों और सभ्य राष्ट्रों को एक सूत्र में बांधता है। जहां भी न्याय का मंदिर, है वहां जब तक उसका विधिवत आदर किया जाता है, तब तक सामाजिक सुरक्षा, सामान्य सुख और हमारी जाति की उन्नति तथा प्रगति की नींव विद्यमान है। जो व्यक्ति इस भवन पर उपयोगी ढंग से और विशेष योग्यता के साथ श्रम करता है, इसकी नींव रखता है, स्तंभों को सुदृढ़ करता है, उनके ऊपर के शिल्प को अलंकृत करता है या इसके भव्य कलश को आकाश में और भी ऊंचा उठाता है, वह अपने नाम, प्रसिद्धि और चरित्र को उससे जोड़ता है जो उतनी ही स्थायी है और होनी चाहिए जितनी कि मानव समाज की स्वतंत्रता।’’

यह पुस्तक सामान्यजन के लिए है। मैंने इसमें समाविष्ट जानकारी को सरल और बोधगम्य भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है पर साथ ही उसकी प्रामाणिकता को बनाए रखा है। मैं चार दशक से भी अधिक समय से न्यायालयों के कामकाज से संबद्ध रहा हूं और इनमें से अधिकांश न्यायालयों को निकट से जाना है। पुस्तक में कुछ शास्त्रीय बातें तो अपरिहार्य थीं। पाठकों को पुस्तक में जो भी कमियां लगें, उनके लिए मैं पूर्णतया उत्तरदायी हूँ। मैंने इस पुस्तक को ज्ञानवर्द्धक और पठनीय बनाने का भरसक प्रयास किया है और मैं यह आशा करता हूं कि पाठकों को यह उपयोगी प्रतीत होगी।


प्राचीन भारत



न्यापालिका का संगठन



सामाजिक विज्ञान और विधिक इतिहास के विद्वानों का मत है कि आरंभिक समाजों में, विवादों के निपटारे की किसी संगठित प्रणाली का संकेत नहीं मिलता। न्याय की प्राप्ति एक निजी मामला होता था जिसका निर्णय युद्ध या शक्ति से होता था। आगे चलकर कुछ मामलों में न्याय समुदाय की सहायता से प्राप्त किया जाने लगा। जब समाज अस्तित्व में आया तभी से आचरण के कुछ नियम भी निर्धारित हुए। समाज के नियमों का अनादर करने का अर्थ था समाज का अनादर करना। विधि का भंग करने वालों के साथ कठोरता से निपटा जाता था और दंड सामूहिक तौर पर दिया जाता था।

न्याय प्रदान करने के मुख्य उद्देश्य दो हैं : सत्य का शोध और लोगों से विधिक नियमों का पालन कराना। विनोग्रेडोफ के अनुसार, प्राचीन काल में, सत्य की खोज की अपेक्षा समस्याओं के समाधान पर अधिक बल दिया जाता था। न्याय प्रदान करने का काम राजा का होता था और मनु नारद ने राजा की स्थिति की तुलना, एक शल्य चिकित्सक से की है। महाभारत का कथन है कि राजा को, जिसका काम न्याय करना भी है, सत्य के मार्ग से विचलित नहीं होना चाहिए और यह आवश्यक है कि वह बुद्धिमान तथा सुसंस्कृत हो।

नारदीय धर्मशास्त्र का कथन है :
न्यायिक प्रक्रिया की स्थापना मानव जाति के संरक्षण के लिए की गई है। यह विधि और व्यवस्था का रक्षोपाय है जो राजा को उसके राज्य में होने वाले अपराधों के उत्तरदायित्व से युक्त करता है। जब मानवजाति पूरी तरह सदाचारी और सत्यनिष्ठ थी तब झगड़े, घृणा और स्वार्थपरता का अभाव था।

 

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book