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भारतीय गौरव की कहानियाँ - 3 भागों में

मनमोहन सरल

प्रकाशक : एम. एन. पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4507
आईएसबीएन :0000

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भारतीय गौरव की कहानियाँ

Bhartiya Gaurav Ki Kahaniyan 3 -A Hindi Book by Manmohan Saral - भारतीय गौरव की कहानियाँ भाग-3 - मनमोहन सरल

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शीशदान

कई सौ वर्ष पूर्व राजस्थान में घूम-घूमकर कोई बुढ़िया चित्र बेच रही थी। इनमें तरह-तरह के चित्र थे-राजा-महाराजाओं के, अमीर-उमरावों के, योद्धाओं-सरदारों के। कोई चित्र हाथीदाँत पर बना था और कोई काँच पर। घूमती फिरती बुढ़िया रूपनगर पहुँची। रूपनगर राजपूताना का एक छोटा-सा राज्य था। रूपनगर की प्रशंसा बहुत दूर-दूर कर फैली हुई थी।

रूपनगर की राजकुमारी चंचल ने भी इन चित्रों को देखा। बुढ़िया के प्रत्येक चित्र का परिचय देना प्रारम्भ किया-‘‘लो, राजकुमारीजी ! सबसे पहले तुम्हें सबसे अच्छा चित्र दिखाती हूँ, मेवाण के राणा राजसिंह का चित्र है यह, एक बार कोई देखे तो पलकें झपकाना भूल जाए, राजपूतों की शान और शक्ति के अवतार हैं। कहते हैं, राजकुमारीजी, कि इनकी एक-एक भुजा में एक-एक हाथी के बराबर बल है....’’

राजकुमारी ने भी महाराणा राजसिंह की वीरता और साहस की बहुत-सी कहानियाँ सुनी थीं, उनके चित्र को उसने मुँह-माँगा धन देकर खरीद लिया।
अब बुढ़िया का लालच बढ़ा, बोली-‘‘आपकी उम्र चाँद-सितारों तक पहुँचे, राजकुमारीजी ! एक चित्र और दिखाती हूँ आपको, हाथों में गुलाब का फूल लिये, धर्म से भी पाक, वीरों में श्रेष्ठ, बुद्धि के आगार, ये हैं दिल्ली के सुल्तान-शहंशाहे अजाम औरंगजेब...........’’

निर्बल के बल

एक बार पंजाब में भयानक अकाल पड़ा। पंजाब में अन्न की कभी कमी न रहती थी, लेकिन जब समय पर वर्षा न हुई तो सारी तैयार फसलें सूख गयीं। अन्न की कमी के कारण सब ओर हाहाकार मच गया। सब लोग व्याकुल हो गए और भूखों मरने की नौबत आ गई।

उन दिनों पंजाब के राजा रणजीतसिंह थे। महाराणा रणजीतसिंह अपनी प्रजा का बहुत ध्यान रखते थे। उनके कुशल राज्य-प्रबंध में किसी को कष्ट न होता था। महाराजा अपनी प्रजा को सन्तान की तरह मानते थे और इस बात का ध्यान रखते थे। कि उनके राज्य में कोई भूखा तो नहीं है। वह निर्धनों को वस्त्र और अन्न देते थे। इसी कारण प्रजा उन्हें बहुत प्यार करती थी। लेकिन अकाल के आगे वह भी क्या कर सकते थे ! यह तो प्रकृति का प्रकोप था जिस पर किसी का वश न था। जब अकाल का समाचार उन्हें मिला तो वे बड़े बेचैन हुए और प्रजा की रक्षा का उपाय सोचने लगे।

सबसे पहले उन्होंने अपने सब कोष से देश के हर कोने से जितना भी अनाज मिल सकता था खरीदकर मँगा लिया चाहे वह किसी भी मूल्य पर मिले। अन्न खरीदकर सस्ते अनाज की दुकानें खुलवा दी गईं। सरकारी खजानें से गरीबों को दान जिया जाने लगा। सस्ते अनाज की दुकानों पर अनाज की दर नाम-मात्र की थी। वह बहुत सस्ता होता था। महाराज ने अधिकारी वर्ग को आज्ञा दी कि वे देखें कि इन दुकानों पर अन्न ठीक तौर से बाँटा जा रहा है कि नहीं। अपनी राजधानी में तो वह स्वयं ही वेश बदलकर चक्कर लगा आते थे और लोगों का दु:ख-दर्द का पता रखते थे।...

दधीचि का त्याग

देवताओं और असुरों में सदा से लड़ाई होती आ रही है। सतयुग में वृत्रासुर नामक राक्षस ने देवताओं की नाक में दम कर रखा था। उसने एक बार कालकेय नामक अपने एक प्रबल साथी को देवताओं का नाश करने के लिए भेजा।

इधर देवताओं ने वृत्रासुर के उपद्रवों से तंग आकर अपने राजा इन्द्र की दुहाई दी। इन्द्र ने कालकेय को हराने का भरसक प्रयत्न किया, किन्तु उन्हें मुँह की खानी पड़ी। वह राक्षस बहुत शक्तिशाली निकला और वृत्रासुर तो इतना शक्तिशाली सिद्ध हुआ कि देवताओं को उससे बचने के लिए ब्रह्मा और विष्णु की शरण में जाकर सहायता माँगनी पड़ी।

देवताओं को भगवान् विष्णु ने परामर्श दिया कि वे तपस्वी महातपस्वी ऋषि दधीचि के पास जाकर उनसे उनकी हड्डियाँ माँग लाएँ। उन हड्डियों से एक वज्र बन सकता है जिससे वृत्रासुर को ही नहीं, सभी राक्षसों को सरलता से हराया जा सकता है।

देवतागण दधीचि ऋषि के आश्रम में गये और उन्हें सब हाल सुनाकर प्रार्थना की कि अपनी अस्थि दे दें तो उस वज्र से हम राक्षसों को आसानी से हरा सकते हैं और इस प्रकार अपनी रक्षा कर सकते हैं। देवताओं ने कहा कि भगवान विष्णु तक का यही खयाल है कि आपकी हड्डियों का वज्र इतना कठोर होगा कि उससे वृत्रासुर का वध किया जा सकेगा।....

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