लोगों की राय

सामाजिक >> शुद्धिपत्र

शुद्धिपत्र

नीलाक्षी सिंह

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4534
आईएसबीएन :81-263-1303-x

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

379 पाठक हैं

प्रस्तुत है एक श्रेष्ठतम उपन्यास....

Shudhipatra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


‘शुद्धिपत्र’-किसी किताब में रखा ऐसा पन्ना, जिस पर उसकी भारी अशुद्धियाँ चुन-चुन कर दर्ज हो ! और एक साधारण इंसान अपनी हठ और लगन से कब ज़िन्दगी को किसी इबारत में बदल लेने की ठान ले...कौन जाने ! युवा कथाकार नीलाक्षी सिंह का यह पहला उपन्यास। एक तरफ यह युवा पीढ़ी के संघर्षमय जीवन, उसके कैरियर और चाहना के परस्पर उलझे तार, वैयक्तिक और सार्वजनिक पहिचान के लिए हर मोर्चे पर उसकी अनथक भिड़न्त और उसके सपनों-आकांक्षाओं के विषम यथार्थ से मुठभेड़ का वृहद् आख्यान है, दूसरी तरफ यह तीन पीढ़ियों के अलग-अलग मूल्यबोध और उनके सपने होने के अहसास को काल्पनिक रेखाओं से अलगाता भी चलता है।

लेखिका वर्णनात्मकता से आगे जाकर इन युवाओं के तमाम अन्तर्द्वन्द्वों और दुविधाओं की गहरी तली तक पहुँचती हैं, जहाँ वे अपनी वजहों और निदानों के सुलझेपन में स्थित हैं।
नीलाक्षी सिंह के यहाँ भाषा का प्रयोग रवाँ दवाँ नहीं होता। सूक्तियों की तरह एक-एक शब्द को जतन से टाँकने का ढब है उनके पास। उनकी भाषा इस उपन्यास में खिलकर उद्भासित हुई है- मांस मज्जा पहिनकर, धड़कती हुई-सी और जीवन संवेगों से लबरेज। संवेदना की गहनता, अनुभवों की संश्लिष्टता तथा संवेदना और अनुभव का रचनात्मक पकाव अपनी उरुज पर।
निश्चित तौर पर ‘शुद्धिपत्र’ नीलाक्षी सिंह की रचनात्मकता का चमत्कृत कर देने वाला विकास है।

शुद्धिपत्र


मेरी उम्र पचपन साल की है। कभी-कभी जब आंखें बन्द करता हूँ तब ऐसा लगता है मानो जहाज में कोई सुराख है, ये बात पक्की है। मेरे ताबड़तोड़ स्टियरिंग दायें-बाये घुमाने के बावजूद जहाज डूबने की जिद पकड़ रहा है। मैं सहायक को अपने हाथ की चीज पकड़ा, दूसरे यात्रियों से कहने जाता हूँ कि घबराने की बात नहीं, मामूली मुश्किल है। स्थिति अभी सामान्य हुई जाती है....ऐसा...उनमें से कोई अनुभवी आँखों का मालिक मेरी आँखों में झांककर बोलता है, ‘‘तुम्हारी आवाज डूब रही है। और हम भी।’’....और मैं ऊचककर आँखें खोल देता हूँ।

मेरे तीन बच्चे है। बड़ा लड़का बहुत सुखी है। लड़की खुशमिजाज है। अक्सर अपने पति के साथ हमसे मिलने आती है। सबसे छोटे लड़के की बात करना चाहता हूँ। उसकी कुछ चीजें मुझे बिल्कुल भी पसन्द नहीं। मसलन बिना बात की गहराई बूझे उसमें कूद पड़ना या अपनी तरह के कमअक्ल दोस्तों की सोहबत में चौथाई-चौथाई दिन गुजार देना या पहनावा पोशाक, खासकर चलने का तरीका या बहुत मात्रा में, पर गतल-सलत अंग्रेजी का बोलना या किताबों में छुपाकर दूसरी किताबें पढ़ना या बालों का नक्शा वगैरह बावजूद इन सबके मैं अपनी भड़ास नहीं निकाल पाता, क्योंकि वह पढ़ने में बेहद होशियार है, वह भोला भी है और इज्जत भी देता है मुझे और बात को बर्दाश्त करने की गजब क्षमता है उसमें, और वह अक्सर कोशिश में रहता है कि कोई उससे दुःख न पाये।

यह सब तो ठीक है पर दुनियादारी से उसका वास्ता नहीं और ऐसी खुशखयाली में जीता है कि तेज चिढ़ होने लगती है। अभी की ही बात है जब 1999 खत्म होने को था और नयी सहस्राब्दी आने की खबर सबसे अहम बनकर छायी थी हर तरफ, तब की उसकी योजना थी कि जितने भी नाते वाले है, मित्र हैं- जो भी हैं पहचान के, सबकों पत्र लिखा जाए, शुभकामनाएँ दी जाएँ। यहाँ तक तो ठीक था। इसके आगे कि सबसे आग्रह किया जाए कि 21वीं सदी में हम अपने रिश्तों का पुनर्मूल्यांकन करें और अब तक के उतार-चढ़ाव को भूलकर एक नया अध्याय शुरू करें। नये रूप में, नये मुखौटे में। हालाँकि उसका मतलब था कि पुराने मुखौटे उतारकर।

पर ऐसा भी कभी हुआ है क्या ? इतनी नाटकीयता जीवन में होती है कि आप कुछ रहे और चन्द सेकंड गुजर जाने के बाद दूसरी सदी शुरू होते ही कुछ और बन जाएँ ! एक वक्त गुजर जाने के बाद केलेण्डर बदल सकता है, तारीखें उधर-उधर हो सकती हैं पर इन्सान का अन्दर और बाहर दोनों इतनी जल्दी बदल सकता है क्या ! अच्छा हुआ कि इस खयाल को अन्जाम देने से पहले यह विचार मुझ तक लाया गया। हाँ, इसे भी मैं खूँबियों में गिनता हूँ कि अभी तक (कल का पता नहीं) और कोई काम करने से पहले अपनी माँ को अक्सर सूचना देता है उसकी उथली मां से उछलकर बात, घटने से पहले मुझ तक पहुँच ही जाती है। तभी तो मैं उसे रोक पाया। वरना रिश्तेदारों में मेरी भद्द पिट जाती कि अपनी देखरेख में उसे कितने बेवकूफ लड़के में परिणित कर दिया है मैंने।

बहरहाल, इधर उसने बहुत सुरीली किस्म की दाढ़ी बढ़ा ली है। मुझे अक्सर लगता कि सुकुमार हथेलियों वाली उसकी माँ उसे दुलराने जाएगी तो अपनी हथेलियों को आहात कर बैठेगी। सम्भव है वह उसमें मेरा साम्य तलाश बैठे....उन दाढियों में, जिसकी शिकायत वह अक्सर मेरी जवानी वाले दिनों में मुझसे किया करती थी। वह खयाल मुझमें हल्की-हल्की थरथरहाट भर देता। थरथराहट उत्तेजना से पैदा हुई या थरथराहट से पैदा हुई उत्तेजना। मैं शिद्दत से चाहने लगता कि यह लड़का अपने भाई की तरह या खुद की तरह-जैसा वह पहले था-क्यों नहीं बन जाता ! अपनी माँ की हथेलियों की शक्ल वाले गाल। बेटा ढीठ था और शायद यह भाँप चुका था इसीलिए हास्टल में होने पर नहीं, बल्कि वहाँ से लौटने के बाद ही उसे दाढ़ी के नाम पर चेहरे के साथ प्रयोग करने की सनक सवार होती। मैं अपनी खुन्नस उसकी मां पर निकालता। वह बेटे के पक्ष में जुबान का इस्तेमाल करने लगती। यह बात मुझे आक्रामक बना देती और मैं अनर्गल के स्तर पर उतर आता। वह तनी रहती। सवाल बेटे का था।

एकान्त में बेटे के सामने झुककर वह मेरा पक्ष रखने लगती। सवाल पति का था। लड़का माँ का राजा बेटा है। वह शाम तक गालों को चिकना करवाकर माँ की हथेली से खेलने लगता और उसकी माँ गुर्राकर मुझे देखती। उस समय मेरे भीतर उस खुशी का नामोनिशान तक नहीं रहता, जो–जो मैं चाहता था वही हुआ-वाली स्थिति में स्वाभाविक थी। उलटे मुझे पत्नी से भयानक जलन होती। उसने मेरा बच्चा हथिया लिया था उलटे-सीधे हथकंडों से। इसके सामान्तर का एक दृश्य कौंध जाता, जिसमें पत्नी बड़ी बहू के आने पर आँखों लोर टपकाती इस बात से व्यथित हो रही होती कि बहू ने उसका अपना बेटा छीन लिया। पत्नी की व्यथा उस स्थिति की कल्पना से और बेबाध छलकने लगती जब छोटे बेटे का घर बस चुकने पर वह भी उनका नहीं रह जाएगा। जब ऐसा दृश्य घट रहा होता तब मुझे सास-बहू के इस खानदानी ड्रामे पर बहुत कोफ्त होती, पर अब उस घटना की स्मृति बहुत भली लग रही थी। इस वक्त मैं तहेदिल से अपनी बड़ी बहू और भावी छोटी बहू का शुक्रगुजार होता। पत्नी ने मुझसे मेरे बच्चे छीने और बहुओं ने उससे उसके बच्चे छीने। हिसाब बराबर हुआ।

कुछ लोगों का कहना था कि बेटा मुझ पर गया है हू-ब-हू और उन्हीं में से कुछ लोग एक जमाने में, जब मैंने नया-नया फुलपैंट पहनना शुरू किया था, कहते है कि डिट्टो अपने पिता पर गया था। इसका मतलब था मेरे हिसाब से कि मेरे पिता और मेरे इस बेटे को भी साम्यता होनी चाहिए। पर दोनों का चरित्र तो एकदम उलटा दिखता है ! मेरे पिता क्रोधी, कपटी, कड़ुवे और पुत्र शान्त, सरल, सीधा। यह बात और है कि विपरीत स्वभाव का होने के बाद भी इन दोनों में खूब छनती है और मैं इन दोनों की मौजूदगी में अपने आप को कटा-कटा-सा पाता हूँ।

मैं बात से भटक गया। इस बारे में कहना चाह रहा था कि इस मासूम और छल-कपट से दीन-हीन लड़के से मुझे भय लगता है। या यह कहे कि भय होता है इसके बारे में। वह घर से बाहर होता है और गहरे शाम के वक्त फोन की घंटी कड़कड़ाने लगती है तब मैं लपककर रिसीवर उठाने चलता। तभी अचानक मेरी उँगलियाँ फड़कने लगतीं और मुझे लगता फोन उठाने पर कोई अनजानी आवाज (अकसर यह अनजानी आवाज पुसिल की होती) मुझे यह सूचना न दे दे कि आपका छोटा बेटा किसी आतंकवादी संगठन के लिए काम करता है या कि ड्रग्स की स्मगलिंग करता पकड़ा गया या कि उसके दफतर में हुए बड़े गबन में उसका हाथ है....या कि कुछ भी ...। जब भी भारी आवाज के साथ कोई गाड़ी घर के सटे पड़ोस में रुकतीं बिना चप्पलों के ही दौड़कर भड़ाक से अपना दरवाजा खोल देता....इस आशंका में कि कहीं मेरे उसी बेटे की थमी हुई देह लेकर तो लोग नहीं आ गये ! बाद में इसी आशंका को याद कर मेरें होठों के चारों तरफ पसीना उग आता। कभी खुद को चीरते हुए मैं यह पूछ बैठता कि यह आशंका है या इन्तजार !! कहीं मुझे इन्तजार तो नहीं इस घड़ी का ! छी-छी ! अपने ठीक तरह से जवान भी न हुए लड़के के बारे में कोई सगा बाप ऐसा सोचता है क्या !

और खाते वक्त उसका मोबाइल बज उठता और वह कुर्सी से उठकर अलग बतियाने चला जाता तब मैं आँखों से उसकी बाते सुनने के लिए सारा दम झोंक देता। जरा-सा, बस कहीं से सुराग मिल जाता गुप्त योजना का.....उसके दराज को चोरी-छिपे उल्ट-पलट कर सिगरेट आदि कि तलाश अभियान से भी मैं बाज नहीं आया। कभी-कभी वह घर लौटता और उसके चेहरे पर हँसी नहीं होती तब मैं बड़ी मुश्किल से अपने को रोक पाता, उसकी पीठ हाथ रखकर घबराए स्वर में यह पूछने से कि ‘‘क्या हुआ ....नौकरी छूट गयी !....

ऐसा ....इस तरह का....मेरे साथ सिर्फ इस बेटे के लिए ही होता था। छोटे बेटे को हटा दें तो बाकी मेरी जिन्दगी में सबकुछ व्यवस्थित और खुशहाल था। शक, घबराहट, आशंका जैसे तत्त्व उसी मात्रा में भी व्यक्तित्व में मौजूद थे, जितने एक सामान्य व्यक्ति में होने चाहिए। मैं हर छोटे-बड़े हर किस्म के ख्वाब देखता था। मैंने पाँच-छह साल बाद-रिटायर हो चुकने पर-दूर समुन्दर में जाकर कुछ दिन वहीं गुजारने की योजना भी बना ली थी। पैसे जमा करना शुरू कर चुका था। जगह अभी निश्चित नहीं थी। लक्षद्वीप और अडंमान दोनों में फिफ्टी-फिफ्टी था। मैं पेट को भीतर की तरफ खींच, साँस को भरपूर फेफड़ें में भरकर, थोडी देर रोककर रखने के बाद, किसिम-किसिम से उन्हें वापस बाहर छोड़ने वाले आसन भी रोज करता था। हर शाम मैं पौधों को आत्मा भर पानी पिलाया करता था और चाँक से खाना भूख से तीन चौथाई ही खाता था। अभी चार महीने हुए मैंने दफ्तर के एक सहकर्मी की बेटी को एक यूनिट (इकाई) खून दिया और मुझे जरा भी कमजोरी महसूस नहीं हुई। स्कूटर है तो क्या हुआ। रोज शाम को लौटकर फिर से जाता हूँ सब्जी लेने पैदल-पैदल। आना-जाना मिलाकर हुए तीन किलोमीटर।

प्रॉविडेंट फंड मुटा चुका है। रिटायर होऊँगा तो कम पैसे नहीं मिलेंगे मुझे। उस लिहाज से तो बिल्कुल नहीं जितनी जिम्मेवारियाँ बचीं हैं अब मेरे ऊपर। पिता हैं तो उनकी जिन्दगी कितने दिन ! पत्नी है तो उसकी जरूरत कितनी ! दो बड़े बच्चे हैं तो उनकी मुझसे अपेक्षाएँ कितनी ! छोटा बेटा है तो वह भी खाता-कमाता है। जिम्मेवारियाँ कुछ खास नहीं पर सुई यहीं आकर अटकती है। भगवान से माँगने बैठ जाता हूँ कि जब तक मेरी जिन्दगी है, तब तक इसके पाँव पहकाने मत देना.....इसे सम्भालकर रखना ! अपना मन ही अपने आप को गालियाँ देने लगता है। जब तक मैं हूँ का मतलब ! मैं न रहूँ तो बेटा जाए भाड़ में ! ऐसा क्या ! तुरन्त प्रार्थना में आवश्यकतानुसार सुधार करता हूँ...बच्चे की हमेशा हिफाजत करना....।

किसी के साथ अपनी मनोस्थिति शेयर नहीं कर सकता। बाँटना तो दूर, कभी मेरी हरकतों से मेरे भीतर की असुरक्षा उघड़ जाती है, पत्नी भी घुड़क देती है। कोई भी सुनेगा तो क्या कहेगा कि बेटे की राह  सही है, कोई कमी नहीं फिर उसे लेकर अशुभ की आशंका...आस की हद तक, क्यों ! दरअसल मैं डरता हूँ उसकी निश्छलता से। दो बातें हैं, जो भय को उकसाती हैं। पहली यह जमाने की कुटिलता के बीच वह इतना सीधा-भोला है कि बड़ी आसानी से कोई भी इसे बेलीक कर सकता है और दूसरी यह कि कहीं ऐसा तो नहीं कि सीधेपन का दरअसल एक मुखौटा हो जिसे पहन-भर लिया हो और उसके इस मुखौटे के पीछे का सच कभी भी मेरे सामने आ जाएगा और मेरी चीख निकल जाएगी। बस यहीं तक ...इसके आगे कल्पना साथ नहीं देती। इस घड़ी के बाद से मेरा दिमाग मेरी, चेतना सब मुझे हतप्रद छोड़कर खो जाते हैं। कहीं। अपने से मैं सवाल करने लगता हूँ कि कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने दो बच्चों की तुलना में मैं इस छोटे बच्चे को ज्यादा प्यार करता हूँ। ऐसा भेद करना किसी पिता के लिए स्वाभाविक नहीं है। सम्भव है इस अस्वाभाविक प्रेम ने ही मुझसे असुरक्षा भर दी हो ! इसे असमय खो देने का डर ठूँस दिया हो मेरे भीतर ....

ये जस-के-तस। गणेष बाबू की डायरी (?) के कुछ पन्ने जो आज घर के कूड़ेदान में पड़े हैं। गणेश बाबू का यह मानना है कि कोई दर्द आप किसी से बाँट नहीं सकते तो उसे पन्ने पर लिख डालना चाहिए। पर दर्द सारा जाता रहता है। गणेश बाबू होशियार है। उसके पीछे दर्द का सबूत तक नहीं छोड़ना चाहते हैं। इसलिए लिखा, फाड़ा और डाला कूड़ेदान में। इस  प्रकिया को वे पिछले कुछ सालों से आजमा रहे हैं इसलिए आज उनके पास कोई बासी पीड़ा नहीं है। जो भी है। जख्म ही सही, ताजा है।

गणेश बाबू की दिनचर्या मजेदार किस्म की है। वे सुबह-शाम खेतों में चिड़िया उड़ाते हैं। दफ्तर में टेबुल पर से मक्खियाँ उड़ाते हैं और लंच के वक्त सहकर्मियों के साथ बैठकर समाज, राजनीति और जमाने की खिल्ली उड़ाते हैं। जब वे कुछ नहीं उड़ा रहे होते हैं, तब या तो पूजा कर रहे होते हैं या सो रहे होते हैं या खा रहे होते हैं या समाचार सुन रहे होते हैं या पत्नी को उपदेश पिला रहे होते हैं या रफी का गाना गुनगुना रहे होते हैं या शेविंग करते वक्त ठुड्डी कट जाने पर हड़बड़ फिटकरी खोज रहे होते हैं या दफ्तर जाते वक्त किसी ऑटो वाले को ओवर-टेक कर रहे होते हैं या रात के खाने के बाद कालोनी के एक सिरे से दूसरे सिरे तक तीस बार-आने-जाने का फेरा पूरा कर रहे होते या अपने पिता का खाना-पखाना कर रहे होते। ये पिता वही, जिसका कि एक बार ऊपर तल्ख स्वर में गणेश बाबू जिक्र कर चुके हैं।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book