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मुक्ति के मार्ग पर

बिन्देश्वर पाठक

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :281
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4538
आईएसबीएन :81-208-2177-7

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भारत में गंदगी ढोने की प्रथा के उन्मूलन का समाजशास्त्रीय अध्ययन...

Mukti ke marg par

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यह पुस्तक लेखक के 20 वर्षों से अधिक के गहन अध्ययन एवं शोध का परिणाम है। लेखक गाँधीवादी है। सफाई कर्मियों के जीवन पर यह एक अनूठी कृति है जिसमें उनकी समस्या के आधार, इतिहास एवं क्षेत्रीय फैलाव का अध्ययन किया गया है।
समाज में व्याप्त छुआछूत की भावना ने डॉ. बिन्देश्वर पाठक के ध्यान को आकर्षित किया। अपनी शिक्षा-समाप्ति पर सफाईकर्मियों को मैला ढोने से मुक्ति दिलाने के लिए वे गाँधी-आंदोलन में सम्मिलित हुए। 2,500 से अधिक लोगों को मुक्ति दिलाने एवं उनका पुनर्वास कराने पर उन्हें जो व्यक्तिगत अनुभव हुआ उसके आधार पर उन्होंने कई सुझाव दिये।
इस पुस्तक के आधार सामग्री उनका व्यक्तिगत अनुभव एवं गहन अध्ययन है।

‘मुक्ति के मार्ग पर’ सफाईकर्मियों की समस्या को पूर्णरूप से समाप्त करने की ओर एक कदम है। लेखक नई प्रणाली जो सस्ती है तथा अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के द्वारा स्वीकृत है-इन लोगों को एक नया जीवन देना चाहता है। इस समस्या को सदैव के लिए समाप्त कर देना चाहता है। यही उसकी मनोकामना है।
‘सुलभ’ आन्दोलन के द्वारा डॉ. बिन्देश्वर पाठक 20 वर्षों से सफाईकर्मियों के उद्धार हेतु कार्य कर रहे हैं। यह आन्दोलन नई प्रणाली और नये आदर्श से प्रेरित होने के कारण दूसरों से भिन्न है। इन वर्षों में सफाईकर्मियों के जीवन में काफी परिवर्तन आया। ‘सुलभ’ विचारधारा और इस प्रणाली को मान्यता प्राप्त हो गई है। वह शहरों में मैला ढोने की मंहगी एवं अमाननीय प्रथा के मुकाबले सस्ती भी है। काफी संख्या में सफाईकर्मियों को इससे मुक्ति दिला दी गयी है और वे अन्य रोजगारों में लगा दिये गये हैं। फिर भी, पाठक जी के मतानुसार, आन्दोलन तो अभी शुरू हुआ है।

प्राक्कथन


सामान्यत: किसी पुस्तक की भूमिका लिखना औपचारिकता का निर्वाह मात्र समझा जाता है। परन्तु कभी-कभी ऐसे अवसर भी आते हैं जब यही कार्य गौरवशाली बन जाता है। इस पुस्तक का प्राक्कथन भी मेरे लिए एक ऐसा ही सुअवसर है।
यह कृति ‘बिहार में कम लागत की सफाई-प्रणाली के माध्यम से सफाईकर्मियों की मुक्ति’ (लिबरेशन आफ स्कैवेन्जर्स थ्रू लो कास्ट सेनिटेशन इन बिहार) विषय पर डाक्टर बिन्देश्वर पाठक द्वारा 1985 में पटना विश्वविद्यालय में डाक्टरेट की उपाधि के लिए प्रस्तुत शोध-प्रबंध का अद्यतन और संशोधिक संस्करण है। अध्यापक और निदेशक के रूप में, मैं लम्बे समय तक इस शोध-प्रबंधन से जुड़ा रहा हूँ। इसलिए इसे एक पुस्तक के रूप में देखकर मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई है।

यह पुस्तक जिस शोध-प्रबन्ध पर आधारित है, वह डाक्टरेट की उपाधि के लिए आमतौर पर लिखे जानेवाले शोध-प्रबन्धों से मूलत: भिन्न है। सामान्यतयः पी-एच-डी. का छात्र शोध के दो तरीके अपनाता है :
(i)    वह कोई विषय चुन लेता है, लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों की पुस्तकें और तद्विषयक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेख पढ़ता है। इस प्रकार एकत्र की गई सूचना का संश्लेषण एवं विश्लेषण करता है, और अपना शोध-प्रबन्ध लिखता है।
(ii)    वह क्षेत्र में जाकर कार्य करता है, अनुसंधान के अलग-अलग साधनों तथा तकनीकों का उपयोग कर आधार सामग्री एकत्र करता है, आकड़ों को सारणीबद्ध करता है तथा उनकी व्याख्या करता है, और तब अपना शोध-प्रबन्ध लिखता है। प्रस्तुत शोध-कार्य अनुसंधान की इन दोनों ही श्रेणियों से पूर्णत: भिन्न है। यह सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में क्रियानिष्ठ अनुसंधान का एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, इसलिए एक पथ-प्रदर्शक की भूमिका निभाता है।

डॉ. पाठक ने आँकड़े (तथ्य) एकत्र किये हैं, लेकिन ये केवल भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन की ऐतिहासिक प्रक्रियाओं की वस्तु के रूप में नहीं किए हैं, बल्कि लेखक एक अवधारणा का विकास करता है, एक क्रियात्मक समाजशास्त्र के विद्वान के रूप में इसे पूरे ब्यौरे के साथ तैयार करता है, एक  सुविचारित परिवर्तन लाने का प्रयास करता है, और अपनी कार्य-योजना के परणामों का मूल्यांकन भी करता है। संक्षेप में, यह पुस्तक सामाजिक समस्या पर ऐसे व्यक्ति की समीक्षात्मक मूल्यांकनपरक कृति है जिसने अपने ढंग से सामाजिक परिवर्तन लाने का प्रयास किया है।

एक क्रियात्मक समाजशास्त्रविद् की कार्यशैली के अनुरूप ही डाक्टर पाठक भारतीय समाज की एक बहुत पुरानी सामाजिक समस्या-सफाईकर्मियों द्वारा कमाऊ शौचालय साफ करने तथा सिर पर मैला ढोने की अवमनावीय प्रथा का गहन अध्ययन करते हैं। वे इस समस्या पर चिंतन करते हैं और एक कार्य नीति तैयार करते हैं। वे एक कार्य-योजना बनाते हैं और इसे जड़ से समाप्त करने के लिए पहल करते हैं। इस योजना के तहत सफाईकर्मियों द्वारा मैला साफ करने वाले परम्परागत कमाऊ शौचालयों के स्थान पर कम लागत वाले फ्लश शौचालयों की स्थापना करना अंतर्निहित है। डॉ. पाठक ने कम लागत वाले फेंककर मैला बहाने वाले फ्लश शौचालयों की एक ऐसी तकनीक विकसित की है जो सरल और कम खर्चीली है। इसके अलावा, यह अलग-अलग भौगोलिक तथा प्राकृतिक वातावरण में रहने वालों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के बहुत अनुकूल है।
डॉ. पाठक ने 1974 में बिहार में सुलभ इण्टरनेशनल (जो मूलत: सुलभ शौचालय संस्थान के रूप में जाना जाता रहा है) के नाम से एक स्वयंसेवी और लाभ निरपेक्षी संस्था की आधारशिला रखी। इसमें अनेक समर्पित कार्यकर्त्ता थे। इस संस्था ने डॉ. पाठक के सुयोग्य नेतृत्व में कमाऊ शौचालयों को कम लागत वाले फ्लश शौचालयों अर्थात् ‘सुलभ शौचालयों’ में बदलने का एक क्रान्तिकारी अभियान शुरू किया। परम्परागत कमाऊ शौचालय पर्यावरण को प्रदूषित करते थे और दुर्गन्ध फैलाते थे। साथ ही, उन्हें साफ करने के लिए सफाईकर्मियों की आवश्यकता पड़ती थी। कम लागत वाले सुलभ शौचालय उपयोग की दृष्टि से व्यावहारिक हैं, स्वास्थ्यकर हैं और इन्हें साफ करने के लिए सफाईकर्मियों की आवश्यकता नहीं पड़ती है। इस प्रकार यह एक व्यवहार्य विकल्प है जो इसका उपयोग करनेवालों के साथ ही सफाईकर्मियों के लिए भी वरदान सिद्ध हुआ है।

सुलभ इण्टरनेशनल ने जनसाधारण की सुविधा के लिए व्यस्त और वाणिज्यिक क्षेत्रों में बहुत से सुलभ सामुदायिक परिसर भी स्थापित किए हैं ये लोगों को राहत पहुँचाने के साथ-साथ शहरों को प्रदूषण से बचाने में भी काफी हद तक सफल रहे हैं। पन्द्रह वर्षों की अल्प अवधि में ही सुलभ इण्टरनेशनल सामाजिक परिवर्तन के उत्प्रेरक और अभिकर्ता के रूप में उभरकर सामने आया है जिसने लाखों कमाऊ शौचालयों को सुलभ शौचालय़ों में परिवर्तित किया है। साथ ही देश भर में सैकड़ों सुलभ सामुदायिक परिसर बनाए गए हैं। परिणाम स्वरूप हजारों सफाईकर्मियों मुक्त कराये जा चुके हैं। सुलभ इण्टरनेशनल ने मुक्त हुए सफाईकर्मियों को अलग-अलग व्यवसाय सिखाने का उत्तरदायित्व भी लिया है ताकि उन्हें बेकारी का सामना न करना पडे़ और वे अपने पैरों पर खड़े हो सकें।

डॉ. पाठक ने अपनी पुस्तक में एक साधारण कार्यकर्त्ता से क्रियात्मक समाजशास्त्री और सुलभ इंटरनेशनल का संस्थापक तथा सलाहकार बनने तक की अपनी यात्रा का वृत्तान्त प्रस्तुत किया है। सुलभ इंटरनेशनल ने राज्य और केन्द्र सरकारों, देश-विदेश से स्वयंसेवी संस्थाओं और नगरपालिकाओं तथा नगरनिगमों का ध्यान आकर्षित किया है। इस पुस्तक में उन्होंने वैज्ञानिक तकनीकों और साधनों के सहारे, विशेषत: बिहार में सुलभ इंटरनेशनल तथा सुलभ शौचालयों के काम-काज का मूल्यांकन करने का प्रयास किया है। साथ ही, उन्होंने यह भी पता लगाने का प्रयास किया है कि सफाईकर्मियों को मुक्त कराने और उनके पुनर्वास का कार्य किस सीमा तक पूरा किया जा सका है, तथा अभी कितना और भी किया जाना शेष है।
इस पुस्तक का विषय मौलिक है, और यह वैज्ञानिक दृष्टि से रुचिकर है। यह जनसाधारण, विद्वानों, प्रशासकों, सामाजिक कार्यकर्त्ताओं और समाज विज्ञानियों के लिए अत्यन्त मूल्यवान है। सरल भाषा में लिखी यह पुस्तक पढ़ने के साथ ही संजोकर रखने योग्य भी है।
मैं डॉ. पाठक को उनकी इस अत्यन्त महत्वपूर्ण कृति के लिए बधाई देता हूँ। मुझे पूरा विश्वास है कि इससे अनेक लोगों को प्रेरणा मिलेगी। इस पुस्तक के माध्यम से समाज-सेवा में संलग्न सभी सामाजशास्त्रियों को समुदाय की सेवा में अधिकाधिक प्रयास करने का संदेश भी मिलता है।

जेड. अहमद
आचार्य एवं विभागाध्यक्ष,
समाजशास्त्र विभाग,
पटना विश्वविद्यालय, पटना


आभार


यह पुस्तक डाक्टरेट की उपाधि के लिए लिखे गये मेरे शोध-प्रबन्ध पर आधारित है। यह शोध-प्रबन्ध मैंने पटना विश्वविद्यालय में 1985 में समाजशास्त्र में पी.एच.डी. के लिए प्रस्तुत किया था। इस शोध-प्रबन्ध की एक अनोखी बात यह है कि इसके विषय का आधार वह अवधारणा है जो लेखक द्वारा स्वयं विकसित की गयी थी। पटना विश्वविद्यालय में मूल्यांकन के लिए शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत करने के बाद बहुत से महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आये हैं। सफाई की कम लागत वाली प्रणाली द्वारा सफाईकर्मियों को मुक्त करवाने के कार्यक्रम ने देश की सीमाओं से परे भी एक अन्तर्राष्ट्रीय कार्यक्रम का रूप ग्रहण कर लिया है। परिणामस्वरूप इस पुस्तक को लिखते समय इसमें अद्यतन आँकड़ों का समावेश किया गया है। पुस्तक की उपयोगिता को ध्यान में रखकर मूल अध्यायों का क्रम विन्यास पुन: निर्धारित किया गया है। साथ ही अनुलग्नकों में सारणियों के रूप में सांख्यिकीय आँकड़े दिए गए हैं। सारणियों का विश्लेषण अध्याय VI और VIII में किया गया है।

मैं अपने शिक्षक और निर्देशक तथा पटना विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष, प्रोफेसर, जियाउद्दीन अहमद का अत्यन्त ऋणी हूँ क्योंकि उनकी सहायता और प्रोत्साहन के बिना मेरे लिए यह शोध-प्रबन्ध पूरा करना संभव न था। मैं डा.एस.डी.एन. सिंह, रीडर, समाजशास्त्र, पटना विश्वविद्यालय, डा. ए.के.लाल, ए.एन.सिन्हा रिसर्च इन्स्टीट्यूट, श्री ए.के. घोष तथा श्री जगन्नाथ शर्मा अपने मित्रों और सहयोगियों का भी आभारी हूँ, जिन्होंने अनुसंधान कार्य और शोध-प्रबन्ध लिखने में अपना सहयोग तथा परामर्श प्रदान किया। इस पुस्तक को पूरा करने में मैंने समय-समय पर डा. एस. मुंसीरजा, प्रोफेसर, समाजशास्त्र, पटना विश्वविद्यालय, और श्री आर.एल.दीवान, पूर्व निदेशक, सिंचाई अनुसंधान केन्द्र, का भी सहयोग प्राप्त किया। मैं उनकी सहायता और सलाह के लिए कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ।

सामान्यतया अतिव्यस्त कार्यपालकों की पत्नियाँ इस बात को लेकर प्राय: अप्रसन्न रहती है कि उनके पति गृहस्थी के काम में रुचि नहीं लेते और रविवार के दिन भी कोई पुस्तक या शोध-प्रबन्ध लिखने बैठ जाते हैं। मैं अपनी धर्मपत्नी का आभारी हूँ जिन्होंने मुझे न केवल यह शोध-प्रबन्ध पूरा करने की बल्कि इस पुस्तक को लिखने की अनुमति भी दी है।

मैं अपनी माता श्रीमती योगमाया देवी और पिता डा. रमाकांत पाठक जो अब परलोक सिधार चुके हैं, को श्रद्धापुष्प अर्पित करता हूँ। इन विभूतियों ने, पड़ोसियों, गाँववालों और संबंधियों के विरोध के बादजूद मेरी समाज-सेवा में जुटने के पहले उच्च शिक्षा प्राप्त करने की आकांक्षा पूरी करने के लिए अपनी सम्पत्ति भी बेंच दी। मैं आज जो कुछ भी हूँ, उन्हीं के त्याग आशीर्वाद और प्रोत्साहन का फल है। काश ! आज वे जीवित होते तो अपनी आखों से अपना सपना साकार होता देखते।


-बिन्देश्वर पाठक
 

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