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पोली इमारत

पाण्डेय बेचन शर्मा

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 1993
पृष्ठ :169
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4544
आईएसबीएन :0000

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सामाजिक तथा पारिवारिक कहानियाँ...

Poli Imarar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रकाशकीय


पाण्डेय बेचेन शर्मा ‘उग्र’ हिन्दी के पुरानी पीढ़ी के विशिष्ट लेखक और प्रमुखतम शैलीकार हैं। आलोचकों का मत है, कथा कहने की विविध शैलियों और रूपों में अकेले ‘उग्र’ ने जितनी विभिन्न और विवादास्पद, मनोरंजक और उत्तेजनापूर्ण रचनाएँ दी हैं, वे साहित्य के इस अंग को सम्पूर्ण बनाने में समर्थ हैं। संसमरण, जीवन-अनुभव, स्कैच, यात्रा- विवरण, चरित्रांकन, भाव-कथा, प्रतीक-कथा, फैटेंसी, कथा शिल्प के समस्त रूपों का प्रयोग-उपयोग ‘उग्र’ ने अपने विशाल कथा-साहित्य में किया है। व्यंजनों-लक्षणाओं और वक्रोक्तियों से समृद्ध और भाषा के धनी ‘उग्र’ ने अरसा पहले कहानी को एक नई शैली दी थी, जिसे आदर पूर्वक ‘उग्र’-शैली’ कहा जाता है।

‘रेशमी’, ‘व्यक्तिगत’, ‘सनकी अमीर’, ‘चिनगारियाँ’, ‘पंजाब की महरानी’, ‘जब सारा आलम सोता है’, ‘दोजख़ की आग’, ‘‘उग्र’ का हास्य’, ‘निर्लज्जा’, ‘बलात्कार’, ‘चाकलेट’, ‘इन्द्रधनुष’, ‘कला का पुरस्कार’ इत्यादि ‘‘उग्र’ के अनेक कहानी-संग्रह समय-समय पर प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें से अधिकांश अब उपलब्ध नहीं हैं। ‘उग्र’ की कितनी ही रचानाएँ ब्रिटिश सरकार द्वारा ज़ब्त कर ली गयी थीं। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद कुछ रचनाएँ पुनः प्रकाशित भी हुईं, लेकिन ‘उग्र’ का सम्पूर्ण कथा-साहित्य एक साथ संकलित नहीं है। ‘उग्र’ के साहित्य और इसके साथ-साथ हिन्दी कथा-साहित्य के विकास को समझने के लिए ‘उग्र’ की सारी कहानियों का एक  साथ प्रकाशन अनिवर्य रूप से आवश्यक है।

 इसी उद्देश्य से छः भागों में ‘उग्र’ का सम्पूर्ण कथा-साहित्य प्रकाशित किया जा रहा है। ‘उग्र’ की कहानियों के प्रधान स्वरों के अनुसार क्रमशः सामाजिक-पारिवारिक, हास्य-व्यंग्य, प्रेम और आदर्श, ऐतिहासिक, राष्ट्रीय, प्रतीक-कथा और भाव-कथा खण्डों में ‘उग्र’ की कहानियों को वर्गीकृत किया गया है।

हमें आशा है, ‘उग्र’-साहित्य के प्रेमियों को हमारा यह सहप्रयास प्रीतिकर होगा और कथा-साहित्य के विद्यार्थियों और पाठको के लिए उपयोगी होगा।


भूमिका


पाण्डेय बेचेन शर्मा ‘उग्र’ ने उस ज़माने में कहानियाँ लिखना शुरु किया था, जब हिन्दी-साहित्य के सामने साहित्य की इस महत्त्वपूर्ण विधा का न तो कोई स्वरूप था, और न इसके मूल्यांकन का कोई सही मानदण्ड ! कांग्रेस और महात्मा गाँधी के नेतृत्व में स्वाधीनता के लिए आन्दोलन शुरू हो चुका था। सवादेखा आन्दोलन, सत्याग्रह आन्दोलन, असहयोग आन्दोलन और नई चेतना तथा नए जागरण की एक लहर-सी पूरे देश में फैलने लगी थी। शिवपूजन सहाय ‘निराला’ ‘उग्र’ मुंशी नवजादिकलाल, ईश्वरी प्रसाद शर्मा, महादेव प्रसाद सेठ आदि ‘मतवाला मण्डल के प्राण थे। ‘उग्र’ की  प्रतिभा इनके सम्पर्क में ‘आज’ (वाराणसी) और ‘आज’-सम्पादक पं. बाबूराव विष्णु पराडकर के सम्पर्क में परवान चढ़ी थी बनारस में रहते हुए (1921 में जेल से वापस आने के बाद) ही ‘उग्र’ ने सामाजिक और पारिवारिक रूढ़ियों और अंधविश्वावों के  खिलाफ़ लिखना शुरु कर दिया था। इनका परम्परा-विरोधी कहानियो के पढ़कर पुरातन-पंथी पंडित-समाज नाराज़ होने लगा था। ‘उग्र’ के ही शब्दों में --‘‘मेरी समाज सुधारक कहानियों पर काशी के कुछ गुण्डानुम पंडे सख़्त नाराज़ हुए, हाथ-पांव तोड़ देने की धमकियां मिलने लगीं !’’

लेकिन ‘उग्र’ तो शब्द के सच्चे अर्थों में क्रांतिकारी लेखक थे ! जब वह ब्रिटिश सरकार के दमन-चक्र से नहीं डरे, तो समाज के पण्डों-पुरोहितों से क्या डरते ! समाज के हर कुसंस्कार पर उन्होंने कुठाराघात किया; ‘आज’ दैनिक में ‘अष्टावक्र’ के उपनाम से उन्होंने   लम्बे अरसे तक व्यंग्य-विनोद पूर्ण स्तम्भ लिखे; ‘विधवा’, ‘हत्यारा समाज’, ‘मों चूनरी की साध’ जैसी मर्मबेधी कहानियां प्रकाशित कीं। और तब यह बात बड़ी हास्यास्पद लगती है कि जब ‘उग्र’ का कहानी संग्रह ‘चाकलेट’ (जिसकी प्रशंसा स्वयं महत्मा गाँधी ने भी की थी) छपा, तो हिन्दी के तथाकथित प्रौढ़ आलोचकों ने ‘उग्र’-साहित्य को ‘घासलेट-साहित्य’ की व्यंग्य-संज्ञा दी।

व्यक्तिगत जीवन में ही नहीं, इतनी यश-प्रतिष्ठा के बावज़ूद साहित्य में भी ‘उग्र’ को हमेशा विरोध और उपेक्षाओं का सामना करना पड़ा है। कारण यही था कि ‘उग्र’ ने व्यक्ति-विशेष अथवा समाज के मिथ्या चरित्र की तरफ़दारी कभी नहीं की ! कोई उनके साथ  नहीं चला, वह अपनी राह पर अकेले चलते रहे। लेकिन ‘उग्र’ के साहित्य का न्यायपूर्ण मूल्यांकन किया जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि अपनी पीढ़ी और बाद की कई पीढ़ियों के लेखकों पर ‘उग्र’ की  शैलीगत विशिष्टताओं और साहित्यिक मान्यताओं का  स्पष्ट प्रभाव है। हिन्दी कथा साहित्य ‘उग्र’ –युग से किसी भी प्रकार इन्कार नहीं किया जा सकता।

‘उग्र’ की रचनाएँ समाज-सुधार और जन-जागरण के आदर्श उद्देश्य से लिखी जाकर भी कला और शिल्प-स्थापत्य की दृष्टि से सुन्दर और  निर्दोष  है। ‘पोली इमारत’, ‘नौ हज़ार नौ सौ निन्नानवे’, ‘ऊरूज़’, जल्लाद’ और ‘वीभत्स’ जैसी सामाजिक यथार्थ की ज्वालामय कहानियाँ ‘उग्र’-साहित्य को ‘क्लासिक्स’ बनाती हैं।

और, सबसे बड़ी बात तो यह है कि भाषा, कथा-चमत्कार और स्थापत्य की दृष्टि से ‘उग्र’ अपने समकालीन सभी लेखकों से सौ कदम आगे हैं। इसलिए आज भी उग्र की कहानियाँ पुरानी नहीं लगतीं, नई कहानियाँ लगती हैं। जीवन के प्रति  उचित और उदार दृष्टिकोण, भविष्य के प्रति सही आस्था, मानवता के प्रति अटूट स्नेह-सहानुभूति-किसी भी महान रचनाकार के सारे गुण ‘उग्र’ की कहानियों में सहज रूप से प्राप्य हैं।


राजकमल चौधरी    

मों को चूनरी की साध


ब्रिटिश उपन्यासकार थॉमस हार्डी की रचनाओं में विधि-विधान की निर्ममता का जैसा करुण-चित्रण मिलता है, वही चित्र सुहागरात के ही दिन विधवा हो जाने वाली लड़की, तुलसा के दुर्भाग्य की इस सूक्ष्म सांकेतिक कहानी में मिलता है। बीसवीं सदी के तीसरे –चौथे दशक में जैसी हिन्दी कहानियाँ लिखी जा रही थीं, उसका यह एक सुन्दर उदाहरण है।

अजीब लड़की थी वह। उसकी मनमोहिनी चंचलता, उसका आकर्षक लड़कपन देखने वाले आँखे फाड़-फाड़ कर देखते थे। उसका नाम तुलसा था।  
वह तुलसा के ब्याह का दूसरा दिन था। अभी उसके घर में मेहमानों और हित-नाते के लोग-लुगाइयों की भीड़ लगी ही थी। आँगन में फूल का पुष्पाछादित मण्डप देवी-देवताओं की पूजन-सामग्रियों के साथ खड़ा मुस्करा रहा था। तुलसा एकत्र महिलाओं को अपनी लाल चूनरी दिखा-दिखाकर मारे प्रसन्नता के फूटी पड़ रही थी।

हाथों में लाला-लाल मंगलमयी चूड़ियाँ पहने, माथे पर सिन्दूर धारण किए, आग-सी तेजोमयी तुलसा जब एक बूढ़ी पड़ोसिन को अपनी चूनरी दिखाने लगी, तो उसने उसकी माता से पूछा, ‘‘कै बरस की तुलसा हुई, बहन ?’’
‘‘आठवाँ पूरा हो गया, तभी तो कन्यादान दे दिया गया है। पगली जब छः साल की रही, तभी अपने बाप से चूनरी पहनने के लिए लड़ा-झगड़ा करती थी। कहती थी, ‘मुझे आज ही ब्याह दो, मगर चूनरी ज़रूर मँगा दो।’ देखो न, इसे चूनरी क्या मिल गयी, मानो संसार का राज्य मिल गया हो।’’
बूढ़ी ने तुलसा की ठुड्ढी पकड़कर हिलाते हुए कहा, ‘‘मैं ऐसे देखूँगी री। तू एक बार नाचकर और वही परसालवाला गीत गाकर दिखा, तो देखूँ।’’
तुलसा से बड़ी-छोटी दूसरी लड़कियाँ खिलखिला कर हँस पड़ीं। मगर वह झेंपी नहीं, बल्कि अपने नन्हे-नन्हे लाल-लाल महावर-मंडित पैरों को चमकाती हुई नाचने और गाने लगी।


मों को चूनरी की साध !
मों को चूनरी की साध !

तुलसा की माँ आँचल में मुँह छिपा कर हँसने लगी; वह बूढ़ी आँखों में आँसू भरकर मुस्कराने लगी। तुलसा की सहेलियाँ अट्टहास करने लगीं; तमाम आँगन में हँसी की तरंगिनी लहराने लगी।


सन्नाटे में आकर तुलसा के पिता ने पूछा, ‘‘क्या हुआ ?’’    
किसी भीषण भावी भय से अभिभूत होकर उसकी माँ ने पूछा, ‘‘क्या हुआ ?’’
‘‘ग़ज़ब हो गया !’’  समाचार लाने वाले ने रोते-रोते कहा, ‘‘जनवासे में वर को करैत ने काट खाया। वह देखते देखते....’’
 समाचार क्या था, वज्रपात था ! घर में कोहराम मच गया। चारों ओर हाहाकार का क्रूर नृत्य होने लगा।
इस अचानक रोदन के आक्रमण से चकराई तुलसा  ने अपनी एक पड़ोसिन से पूछा, ‘‘क्या हुआ चाची ?’’
उसके मस्तक का सुन्दर सिनदूर बरबस पोंछती हुई चाची ने उत्तर दिया ‘‘अभागिन, तेरा करम फूट गया !’’
इतने पर भी कुछ न समझकर उस आठ वर्ष की बालिका ने अपनी माँ की शरण ली, ‘‘क्या हुआ, माँ ! तुम रोती क्यों हो ? क्या ब्याह में रोया भी जाता है ?’’
‘‘हाय, मेरी रानी ! उफ़्फ़ ! मेरी अभागिन बेटी, तू लुट गई-हम लुट गए-रो-रो-रो !’’
उसकी माँ ने देखते-देखते उसके हाथों को सूना कर दिया। सारी चूड़ियाँ फोड़ डाली गईं। इसके बाद चूनरी की बारी आई। एक मैली धोती उसे देती हुई माँ ने कहा, ‘‘उतार दे इसे ! तेरे भाग्य में चूनरी नहीं है। तू महा अभागिन है।’’

‘‘ना...ना...ना...! मेरी चूनरी न छीनो ! न छीनो ! नहीं तो मैं सिर पटककर फोड़ लूँगी, जान दे दूँगी।’’
वह माँ के पास से, हाथ छुड़ाकर, उसी तरह गाती हुई भागी-

मों को चूनरी की साध !
मों को चूनरी की साध !

मगर औरतें कब मानने वाली ! उन्होंने ज़बरदस्ती उसे पकड़कर उसकी चूनरी उतार ली, और उस पहनने के लिए पुरानी गंदी धोती दे दी।
अब तुलसा की हँसी गाय़ब हो गयी। चूनरी छिन जाने पर उसे ऐसा मालूम हुआ, मानो उसका सर्वस्व छिन गया। उसने वह गन्दी धोती नहीं पहनी। नंगी ही आँगन मे बैठकर रोने और चूनरी वापस माँगने लगी। लोगों ने प्यार से, दुलार से, मार से, उसे समझाने की चेष्टा की; मगर व्यर्थ। वह रोती और अपनी साध की चूनरी माँगती ही रही। लोग उसे उसी तरह छोड़कर शमशान की ओर चले गए।

एक सप्ताह तक तुलसा के शरीर पर ज्वर –भयानक ज्वर-का कब्ज़ा रहा। वह उसी तरह नंगी चारपाई पर पड़ी रही। रह-रहकर बेहोश हो जाती, और होश में आते ही आस-पास के लोगों से चिल्लाकर कहती, ‘‘मों को चूनरी की साध ! मगर लोग न पसीजे। पसीजते भी कैसे ? समाज का नियम जो टूट जाता। भला विधवा बालिका चूनरी पहनेगी।
वह अन्तिम साँस ले रही थी। उसकी माँ सिसकती हुई उसकी ओर ताक रही थी। एकाएक उसने आँख खोलकर माँ से कहा, ‘‘माँ, ‘‘मों को चूनरी की साध !
माता का हृदय हाहाकार कर उठा –मेरी बेटी चार गज़सूत की चूनरी के लिए मरी जा रही है। समाज और रिवाज़ उसे, विधवा होने के कारण, वह नहीं दे सकते । आग लगे इस समाज में ! वज्र पड़े ऐसे रिवाज़ पर !’’ मैं अपनी रानी की साध पूरी करूँगी। उसे चूनरी दूँगी।
पति ने कहा, ‘‘ना !’’
मुहल्लेवासियों ने कहा-‘‘ना !’’

मगर माता का हृदय नहीं माना। वह झपटकर चूनरी ले आयी। तुलसा सफेद छींटे के उस लाल वस्त्र को देखकर कमल की तरह खिल उठी। चसककर बिछौने से उठ पड़ी, ओढ़ने के बाहर हुई और नंगी ही ज़मीन पर उतरकर उसने माँ के हाथ से चूनरी छीन ली। जल्दी-जल्दी शरीर पर उसे सजाती हुई वह एक बार फिर  गुनगुनाने लगी-

मों को चूनरी की साध !
मों को चूनरी की साध !

मगर वह बहुत कमज़ोर हो गई थी। उस खुशी का भार सँभाल न सकी। चूनरी पहनते-पहनते ज़मीन पर धम्म से गिर पड़ी। दो-तीन हिचकियाँ ली-और बस साध पूरी हो गई। शमशान ने तुलसा को उसकी चूनरी के साथ-साथ अपनी भयानक हँसी-चिता-की गोद में होकर उठा लिया।


चौड़ा छुरा


हिन्दू-मुस्लिम विरोध को विषय बनाकर लिखी गयी यह कहानी जब पहली बार प्रकाशित हुई थी तो इसके विषय-वस्तु और निष्कर्ष को लेकर काफी विवाद उठ खड़ा हुआ था जमालो का ‘चीनी तलवार-सा चौड़ा-लम्बा छुरा’ हिन्दू गोपाल और मुस्लिम मुहम्मद दोनों की जान ले लेता है। क्योंकि दरअसल सामप्रदायिकता ही यह छुरा है।
शहर बनारस की एक बाहरी सड़क पर बुढ़िया रहती है। उसका नाम है जमालो।
चीनी तलवार-सा चौड़ा-लम्बा छुरा है उसके पास एक, जिससे वह साग- भाजी काटा करती है। अपने मृत पति का चिह्न होने के कारण जमालो उस छुरे को जी-जान से चाहती है। उसका विश्वास है कि पास में रखने से छुरे के डर से शैतान, चुड़ैल और सांप-बिच्छू सदा दूर रहते हैं।

उस मुहल्ले के हिन्दू-मुसलमान नौजवानो ने अक्सर सोचा-ऐसे छुरे से साग काटना छुरे की बेइज़्ज़ती करना है। दोनों कौमों के नौजवान ने छुरे को माँगा भी.....
मगर भला वह कब देने वाली !
तब तक दंगा हो गया शहर बनारस में ।
दंगे की खबर पाते ही बूढ़ी जमालो ने मारे घबराहट के उस छुरे को झोंपड़ी के बाहर ही छोड़ टटरा बन्द कर लिया ।
और नौजवान हिन्दू गोपाल ने सोचा-बूढ़ी जमालो का छुरा हाथ लगे, तो दुश्मनों को मज़ा चखा दूँ।
नौजवान मुसलमान मुहम्मद ने भी उस चौड़े-लम्बे को दंगा होते ही हथियाना चाहा।
झपटा मुहम्मद। जब बूढ़ी की झोंपड़ी के पास आया, तो दूर ही से उसने देखा, गोपाल चौड़े छुरे को बग़ल में छिपाए कतराए जा रहा है।
क्षणभर बाद मुहम्मद और गोपाल एक-दूसरे के सामने-अड़ोसी-पड़ोसी। छुरे के लिए हाथा-बाहीं। मुहम्मद को गोपाल ने घायल किया।
उत्तेजित मुहम्मद ने दाँव-पेंच से बूढ़ी के उस छुरे को गोपाल के पेट में डाल दिया।
राम नाम सत्य है।
इसके बाद ही तो खून उतर आया उसकी आँखों में, जिसने खून किया था। ख़ून ! खून ! खून ! ताबड़तोड़ कई पड़ोसी हिन्दू मारे गए।
आखिर एक जीवट के नौजवान ने मुहम्मद को भी धर दबाया, और जमालो के छुरे ने ख़ूनी के खून का ज़ायक़ा लिया।
अब पुलिस-पलटन की दौड़ आई, और दोनों क़ौमों के दंगाई घरों में दुबक रहे।
अपने रास्ते लगने से पहले मुहम्मद को मारने वाले नौजवाने ने पुलिस के डर से उस छुरे को कूड़ाखाने की ओर फेंक दिया, और कूड़ाखाने के पास ही तो जमालो की झोंपड़ी है।
झोंपड़ी के बाहर भगदड़ सुनकर भय से जमालो को अपने बरकती छुरे की याद आयी। आह ! वह तो बाहर ही छूट गया।
झपाक से झोंपड़ी का टट्टर खोल बुढ़िया बाहर आ रही और रात के अँधेरे में छुरा तलाशने लगी। थोड़े श्रम के बाद अनायास ही वह चौड़ा छुरा बूढ़ी को मिल गया।
मारे प्रेम के बूढ़ी जमालो ने अंधकार ही में अपने प्यारे पति के पवित्र छुरे को चूम-चूम लिया।
हैं ! छुरे में गाढ़ी चीज़ क्या लगी है ? जमालों के होठों में गोंद-सा क्या सट गया ? खू़न ? पानी ?
इसी वक्त पुलिस-पलटन के अफ़सरों ने टार्चों के प्रकाश में कूड़ेखाने पर बूढ़ी जमालो को एक चौड़ा छुरा चूमते देखा।


उरूज़


व्यवसायियों-बनियों से हज़ारों-हज़ार रुपए घूस लेने वाले नेताओं और अधिकारियों पर गहरा व्यंग्य ! केवलचन्द एस. एल. ए. की माता ग्लानि की आग में जलती हुई मर जाती हैं, क्योंकि केवलचन्द ने ‘घीसालाल घनघोर लाल कम्पनी’ के मालिक से पचास हज़ार रूपए घूस लिए हैं। क्या केवलचन्द को इस बात का ज़रा भी दुख है ? कहानी वणिक-सभ्यता पर एक प्रभावोत्पादक व्यंग्य बन गयी है।

शहर के मशहूर एम. एल. ए. केवलचन्द की माता दयावती देवी के देहान्त के तेरहवें दिन की बात है। बात, दिन तो क्या, शाम की है और ज़रा प्राइवेट नेचर की है।
शाम को मातमपुर्सी के लिए मिलने को शहर का वह बनिया महाजन आया, खुर्राट लाला घीसालाल- घीसालाल घनघोर लाल फर्म का मशहूर मालिक। मशहूर यों की घीसालाल जिस तरह भी मिले, पैसे कमाने वाला। पैसे के लिए मक्कारी, बेईमानी, जालसाजी आदि को घीसालाल का बाप घनघोरलाल ब्रिटिश गवर्नमेंट के उन फ़ौलादी पंजों में पालिश लगाता रहा जिनसे भारतवर्ष का दम घोंटा जा रहा था। सन् 1944-47 तक घीसालाल भी अपने स्वर्गीय बाप की लीक पर ही चलता रहा फ़र्क़ इतना की घनघोरलाल अगर कच्छप की चाल चलता था, तो घीसालाल सांप की तरह। दोनों में बैलगाड़ी और  रेलगाड़ी का अन्तर। घनघोरलाल अंग्रेज़ को भ्रष्ट करता था, घीसालाल अंग्रेज़ के भगाने वालों को भ्रष्ट करने वाला। शहर में बड़ी अफ़वाह कि उसने एम. एल. ए. केवलचंद को भी ‘तर माल’ पहुँचाकर बहुत-से परमिट, लाईसेंस और ठेके प्राप्त किए हैं।
‘‘माताजी को कोई रोग नहीं, बीमारी नहीं,’’ एकान्त में केवलचन्द से बातें करते हुए खुशामदाना स्वर में घीसालाल ने पूछा, ‘‘मेरी समझ में नहीं आता कि यों अचानक, उनका वैकुण्ठ-गमन कैसे हो गया !’’
‘‘रोज़ यह एक ही प्रश्न आप करते हैं घीसालालजी ! और मैं मन मसोसकर चुप रह जाता हूँ।



                

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