लोगों की राय

संस्कृति >> गणित शास्त्र के विकास की भारतीय परम्परा

गणित शास्त्र के विकास की भारतीय परम्परा

सुद्युम्न आचार्य

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :410
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4545
आईएसबीएन :81-208-3170-5

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

346 पाठक हैं

यह ग्रंथ वेद तथा शुल्ब सूत्रों से प्रारम्भ करके लगभग 3 हजार वर्षों के भारतीय गणितीय चिन्तन का कालक्रमानुसार विवरण प्रस्तुत किया गया है...

Ganit-Shas

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यह ग्रन्थ वेद तथा शुल्ब सूत्रों से प्रारम्भ करके लगभग 3 हजार वर्षों के भारतीय गणतीय चिन्तन का कालक्रमानुसार विवरण प्रस्तुत करता है। भारत की वे गणतीय उपलब्धियाँ, जो सम्पूर्ण विश्व की गणतीय मनीषा का अंग बनीं; उन्हें सम्पूर्ण प्रमाणों के साथ दिखाया गया है। भारत के अनेक बहुमूल्य गणतीय सिद्धान्त जो प्रचार के अभाव में भारतीय आविष्कर्ता के साथ नहीं जोड़े जा सके, उन्हें यथावसर विवृत किया गया है। भारतीय गणित की वे संक्रियाएँ, जिनमें आधुनिक प्रचलित अनेक सिद्धान्त अन्तर्निहित हैं, उन्हें स्पष्ट रूप से उजागर किया गया है। प्राचीन गणित की ऐसी अनेक संक्रियाएँ, जिनका उपपत्तियों के अभाव में पर्याप्त मूल प्रदान नहीं किया जा सका, उन उपपत्तियों को खोजा गया है। ऐसे अनेक प्रमेय जो मूलतः विदेशों से आयातित हैं, ऐसा कहा जाता है, उनकी मौलिकता को पूरी सफलता के साथ विस्तारपूर्वक प्रस्तुत किया गया है। 
संक्षेप्ततः, भारत की गणितीय मौलिक विशेषताओं को विश्व में प्रचारित करने हेतु यह सार्थक एवं बहुमूल्य प्रयास है।


भूमिका

इस विश्व में गणित शास्त्र का उद्भव तथा विकास उतना ही प्रचीन है, जितना मानव सभ्यता का इतिहास है। मानव जाति के उस काल से ही उसकी गणितीय मनीषा के संकेत प्राप्त होते हैं। प्रत्येक युग में इसे सम्मानित स्थान प्रदान किया गया। अत एव उच्चतम अवबोध के लिये ‘संख्या’ का तथा इसके प्रतिपादक शास्त्र के लिये ‘सांख्य’ का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। इस क्रम में किसी भी विद्वान के लिये संख्यावान का प्रयोग प्रचलित हुआ1। इस वैदुष्य से ऐसे विलक्षण गणित-शास्त्र का विकास हो सका जो सर्वथा अमूर्त संख्याओं से विश्व के मूर्त पदार्थों को अंकित करने का उपक्रम करता है।
विश्व के पुस्तकालय के प्राचीनतम ग्रन्थ वेद संहिताओं से गणित तथा ज्योतिष को अलग-अलग शास्त्रों के रूप में मान्यता प्राप्त हो चुकी थी। यजुर्वेद में खगोलशास्त्र (ज्योतिष) के विद्वान् के लिये ‘नक्षत्रदर्श’ का प्रयोग किया है तथा यह सलाह दी है कि उत्तम प्रतिभा प्राप्त करने के लिये उसके पास जाना चाहिये2। वेद में शास्त्र के रूप में ‘गणित’ शब्द का नामतः उल्लेख तो नहीं किया है पर यह कहा है कि जल के विविध रूपों का लेखा-जोखा रखने के लिये ‘गणक’ की सहायता ली जानी चाहिये3। इससे इस शास्त्र में निष्णात विद्वानों की सूचना प्राप्त होती है।

-----------------------------------------------------------------
1.    विद्वान् विपश्चिद् दोषज्ञः संख्यावान् पण्डितो जनः—अमरकोश।
2.    प्रज्ञानाय नक्षत्रदर्शम्—यजुर्वेद 30.10।
3. यादसे शाबल्यां ग्रामण्यं गणकम्, यजुर्वेद 30.20। निघण्टु 1.12 में यादस् शब्द जलवाचक है तथा समुद्रेण सिन्धवो यादमानाः ऋ. 3.36.7 में याद् धातु के बहने अर्थ में प्रयोग प्राप्त है।

शास्त्र के रूप में ‘गणित’ का प्राचीनतम प्रयोग लगध ऋषि द्वारा प्रोक्त वेदांग-ज्योतिष नामक ग्रन्थ के एक श्लोक में माना जाता है1 पर इससे भी पूर्व छान्दोग्य उपनिषद् में सनत्कुमार के पूछने पर नारद ने जो 18 अधीत विद्याओं की सूची प्रस्तुत की है, उसमें ज्योतिष के लिये ‘नक्षत्र विद्या’ तथा गणित के लिये ‘राशि विद्या’ नाम प्रदान किया है2। इससे भी प्रकट है कि उस समय इन शास्त्रों की तथा इनके विद्वानों की अलग-अलग प्रसिद्धी हो चली थी।
आगे चलकर इस शास्त्र के लिये अनेक नाम विकसित होते रहे। सर्वप्रथम ब्रह्मगुप्त ने पाट या पाटी का प्रयोग किया। बाद में श्रीधराचार्य ने ‘पाटी गणित’ नाम से महनीय ग्रन्थ लिखा। तब से यह नाम लोकप्रिय हो गया। पाटी या तख्ती पर खड़िया द्वारा संक्रियाएँ करने से यह नाम समाज में चलने लगा। अरब में भी गणित की इस पद्धति को अपनाने से इस नाम के वजन पर ‘इल्म हिसाब अल तख्त’ नाम प्रचलित हुआ। भास्कराचार्य के समय इस नाम से प्रथित शास्त्र विद्वानों की बुद्धि का निकष था। उन्होंने एक स्थान पर कहा है कि मन्दमति लोगों की प्रतिभा को बढ़ाने के लिये सुन्दर बुद्धि वाले विद्वानों ने पाटी गणित शास्त्र को विकसित किया है—

एतद् यत् बहुधास्मदादिजडधी-धीवृद्धिबुद्ध्या बुधैर्।
विद्वच्चक्रचकोरचारुमतिभिः पाटीति तन्निर्मितम्।।
(सिद्धान्त शिरोमणि, प्रश्नाध्याय श्लोक 4)

पाटी पर धूल बिछा कर संक्रियाएँ करने से इसका ‘धूलि-कर्म’
—————————
1. यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।
तद्वत् वेदांग शास्त्राणां गणितं मूर्ध्नि वर्तते।। (वेदांग ज्योतिष)
2.     स होवाच—ऋग्वेदं भगवोऽध्येमि यजुर्वेदं सामवेदमार्थणं चतुर्थमितिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदं पित्र्यं राशिं दैवं निधिं वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्यां ब्रह्मविद्यां भूतविद्यां क्षत्रविद्यां नक्षत्रविद्यां सर्पदेवजनविद्यामेतद् भगवोऽध्येमि। (छान्दोग्य उपनिषद् 7.1.2) इसके शांकरभाष्य में ‘रशिम्’ का अर्थ ‘राशि-गणितम्’ किया है।

नाम भी प्रचलन में था। भास्कराचार्य ने इस विधि से गणना करते हुए चन्द्रमा की आदि को उपपन्न बताया है1।
इन नाम से सुपूजित होने से अरबी में इल्म अल गुबार तथा अंकों को ‘हरुल अल् गुबार’ के नाम से जाना गया। 15वीं शताब्दी में अबुलहसन अली आदि अरबी विद्वानों ने इस नाम से पुस्तकें लिखी थीं।

गणित के विकास का कण्टकाकीर्ण कान्तार-पथ

इन शब्दों से प्रकट है कि किन अनेक कठिनाइयों के मध्य देश-विदेश के विद्वानों ने गणित-शास्त्र का विकास किया है। आज बढ़िया कागज पर कलम से लिखने वाले हम लोग जल्दी यह सोच भी नहीं सकते कि प्राचीन विद्वानों ने धूल पर संक्रियाएँ करके चन्द्रमा की त्रिज्या आदि के जानने के लिये गणित के बहुमूल्य सूत्रों का विकास किया था।
विदेशों में भी इस प्रकार की अनेक बाधाओं के बीच गणितीय सिद्धान्त विकसित किये गए। वहां चिड़ियों के पर से संक्रियाएँ करते हुए गणितीय प्रश्न हल किये जाते रहे है। अतः इंग्लिश का पर अर्थ वाला Feather  शब्द इससे लेखन के लिये भी प्रसिद्ध रहा है। विद्वानों ने इस स्थिति का सजीव वर्णन करते हुए माना है कि आज हम जिस गणितीय और खगोल-विज्ञान से लाभान्वित हो रहे हैं, उसकी नीव कैपलर और न्यूटन ने चिड़ियों के परों से मोमबत्तियों की रोशनी में डाली थी2 !!

गणित का उद्भव तथा विकास-वेदों से

इस तथ्य के सुपुष्ट प्रमाण है कि गणित-शास्त्र के विकास के लिये मूल प्रेरणाएँ वेदों से प्राप्त हुई हैं। वेद में निरूपित संख्या-शब्द, उनके क्रम सम्पूर्ण विश्व में प्रचारित हुए। वैदिक संख्याओं के नामों की एशिया तथा यूरोप की भाषाओं के शब्दों से स्पष्ट समानता देखते हुए विश्व के भाषा वैज्ञानिकों ने इन्हें भारोपीय घोषित किया है। महर्षि यास्क पाणिनि आदि कृत व्युत्पत्तियों से स्पष्ट है कि एकादश, द्वादश आदि ‘दशैकादिगुणयोगोत्तर पद्धति’ से

———————
1.    उपपत्तिः....अत्र धूलिकर्मणा प्रत्यक्ष-प्रतीतिः
(सिद्धान्तशिरोमणि, चन्द्रग्रहणाधिकार श्लोक 4 पर स्वोपज्ञ वासना भाष्य)
2.    तारे, मनुष्य और परमाणु, हींज हैबर, भाग 1, पृ.63।

विकसित हैं। जबकि शत, सहस्र आदि संख्याएँ दश-गुणोत्तर पद्धति’ से सञ्चालित हुई हैं1। यह कितना सुखद है कि वेद के इस क्रम तथा पद्धति को सम्पूर्ण विश्व ने स्वीकार किया है। इसका वस्तृत निरूपण इस ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय में किया गया है।
इसके अलावा वेद में गणितीय संक्रियाओं के अलग से अनेक उदाहरण दिये गए प्रतीत होते हैं। यजुर्वेद के एक मन्त्र में 1 से लेकर 12 तक की संख्याओं को 4 से गुणित करने पर गुणनफल का क्रमशः उल्लेख किया गया है2। एक अन्य मन्त्र से 1 से लेकर 33 तक क्रमशः विषम संख्याओं का वर्णन प्राप्त होता है3। वर्णन की विशिष्ट पद्धति से यह संकेत मिलता है कि 1 से लेकर क्रमशः विषम संख्याओं का योगफल अवश्य ही किसी संख्या का वर्ग बनाता है। वेद में भाग की संक्रिया से निर्मित अनेक स्थापित शब्दों का उल्लेख भी प्राप्त है। उदाहरणतः ½ के लिये ‘अर्ध’ तथा ¾ के लिये ‘त्रिपाद’ का प्रयोग किया गया है। पशु के चार पैरों में से 1 पाद या पैर के आधार पर किसी भी ¼ वस्तु के लिये लाक्षणिक रूप से पाद का प्रयोग प्राप्त है4। गाय, बैल के प्रत्येक पैर में 2 शफ या खुर होने से कुल 8 शफ होते हैं। इसी प्रकार 1 शफ कुल शपों का 1/8 होने से भी वस्तु के 1/8 भाग को प्रकट करने के लिये ‘शफशः’ जैसे लाक्षणिक प्रयोग भी उपलब्ध हुए हैं5।

वेदों में उल्लिखित अनेक प्रकार की विशिष्ट यज्ञवेदियों की रचना को समझाने के लिये ई.पू.1000 से ई.पू. 500 के बीच शुल्व गणित या रेखा गणित का विकास हुआ। यह तथ्य अपने आप में बहुत महत्त्वपूर्ण है कि भारत में रेखा-गणित का विकास मूलतः अनेक विशिष्ट आकृतियों वाली वेदियों के निर्माण के लिये हुआ था।

—————————
1.    दो तथा दस का योग (2+10) की स्थिति में पाणिनि के ‘द्वौ च दश च’ इस विग्रह अनुसार ‘द्वादश’ तथा इनका गुणन (2×10) होने पर ‘द्विर्दश’ इस विग्रह अनुसार ‘द्विदशाः’ बनता है। (शतं दश दशतः-निरुक्त 3.10)
2. यजुर्वेद 18.25।    3. यजुर्वेद 18.24।
4. पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि—ऋग्वेद 10.90.3।
5. शफशः—पञ्चविश ब्राह्मण 15.1.8।

गणित की इन विशिष्ट रचनाओं से प्रेरित होकर ई.पू. 500 से ईसवी वर्ष तक जैन, बौद्ध विद्वानों ने गणित पर अत्यन्त प्रशंसनीय कार्य किया। उन्होंने गणितीय विशिष्ट नाम प्रदान करने के अलावा महत्त्वपूर्ण गणितीय संक्रियाएँ विकसित की। इस युग में निर्मित प्रमुख जैन ग्रन्थों में सूर्य प्रज्ञप्ति, स्थानांग सूत्र भगवती सूत्र, अनुयोग-द्वारा सूत्र इत्यादि हैं। इसके साथ ही ललितविस्तर, चर्यापिटक आदि जैसे बौद्ध ग्रन्थों में संख्याओं के विशिष्ट नामों का विकास किया गया है जो आगे चलकर बहुत लोकप्रिय हुए।


युग प्रवर्तक आर्यभट तथा पश्चाद्वर्ती प्रगति


इस युग के पश्चात भारत की गणित तथा खगोल विज्ञान की लम्बी परम्परा में ‘आर्यभट्ट’ नामक महान् वैज्ञानिक शीर्ष पद पर प्रतिष्ठित हुए। उनका जन्म महाराष्ट्र के अश्मक देश में 476 ई. में हुआ था। उनके वैज्ञानिक कार्यों का समादर राजधानी में ही हो सकता था। अतः उन्होंने लम्बी यात्रा करके आधुनिक पटना के समीप कुसुमपुर में अवस्थित होकर राजसान्निध्य में अपनी रचनाएँ पूर्ण की। उन्होंने अपने आर्यभट्टीय नामक ग्रन्थ में कुल 3 पृष्ठों के समा सकने वाले 33 श्लोकों में गणितविषयक सिद्धान्त तथा 5 पृष्ठों में 75 श्लोकों में खगोल-विज्ञान विषयक सिद्धान्त तथा इसके लिये यन्त्रों का भी निरूपण किया।
आर्यभट्ट ने अपने इस छोटे से ग्रन्थ में अपने से पूर्ववर्ती तथा पश्चाद्वर्ती देश के तथा विदेश के सिद्धान्तों के लिये भी क्रान्तिकारी अवधारणाएँ उपस्थित की। उन्होंने एक ओर गणित में पूर्ववर्ती आर्किमिडीज़ से भी  अधिक सही तथा सुनिश्चित  के मान को निरूपित किया1 तो दूसरी ओर खगोलविज्ञान में सबसे पहली बार उदाहरण के साथ यह घोषित किया गया कि स्वयं पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है2।
———————————
1. चतुरधिकं शतमष्टगुणं द्वाषष्टिस्तथा सहस्राणाम।
अयुतद्वयविष्कम्भस्यासन्नो वृत्त-परिणाहः।। (आर्यभटीय, गणितपाद, श्लोक 10)
2.    अनुलोमगतिर्नौस्थः पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत्।
अचलानि भानि तद्वत् समपश्चिमगानि लंकायाम्।।(आर्यभटीय, गोलपाद, श्लोक 9)

आर्यभट के पश्चात उनसे आगे बढ़ने तथा पीछे हटने का इतिहास प्रारम्भ होता है। गणित में आर्यभट से देश विदेश में विद्वानों को वर्ग समीकरण के सूत्र की कुंजी प्राप्त हुई। आगे चलकर श्रीधराचार्य ने सार्वत्रिक सूत्र रूप में कुंजी को सुगठित एवं व्यापक रूप प्रदान किया है। आज श्रीधराचार्य के साथ इस सूत्र को जोड़ा जाता है पर यह नहीं भूलना चाहिये कि मूलतः आर्यभट इसके जन्मदाता हैं1। श्रीधर इसके प्रतिष्ठापक हैं। खगोल-विज्ञान में आर्यभट ने पृथिवी को गोलाकार निरूपित किया2। आगे सभी विद्वानों ने अनेक उदाहरणों से इसकी स्थापना की।
आर्यभट से पीछे हटने के क्रम में आर्यभट के पश्चादवर्ती प्रायः सभी विद्वान जैन गणित का अनुसरण करते हुए  का मान 10 स्वीकार करते रहे। खगोल-विज्ञान में आर्यभट के बाद लगभग 1000 वर्ष तक ब्रह्मगुप्त, लल्ल, श्रीपति आदि ने अपनी मनीषा का उपयोग यह सिद्ध करने में किया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर नहीं घूमती है। इसके पश्चात् एशिया को छोड़कर यूरोप में कोपर्निकस को भूभ्रमण सिद्ध करने के लिये आगे आना पड़ा।
फिर भी इन कुछ अपवादों को छोड़ दें तो यह कहना समुचित है कि आर्यभट से प्रेरणा प्राप्त करके ब्रह्मगुप्त, श्रीधर, महावीर, भास्कराचार्य आदि अनेक विद्वानों ने गणित के क्षेत्र में अपार प्रगति की। आधुनिक गणित शास्त्र को इनसे बहुमूल्य प्रेरणाएँ प्राप्त हुईं।
प्रायः यह मान लिया जाता है कि भारत में गणित के क्षेत्र में भास्कराचार्य के पश्चात् कोई विशेष प्रगति नहीं हुई। पर यह कहना अधिक समीचीन प्रतीत होता है कि इनके पश्चात गणित के कार्यों को प्रचारित करने या संरक्षण करने के प्रति कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया। आधुनिक युग में भी स्थित यह है कि मध्यकाल में विचरित तन्त्रसंग्रह तथा उसका भाष्य युक्तिभाषा, क्रियाकर्मकरी जैसे बहुमूल्य ग्रन्थ केवल हस्तलिखित रूप में

—————————————
1. गच्छोऽष्टोत्तरगुणितात् द्विगुणाद्युत्तरविशेषवर्गयुतात्।
मूलं द्विगुणाद्यूनं स्वोत्तरभाजितं सरूपार्धम्।। (आर्यभटीय, गणितपाद, श्लोक 20)
2 वृत्तभपञ्जरमध्ये कक्ष्यापरिवेष्टितः खमध्यगतः।
मृज्जलशिखिवायुमयो भूगोलः सर्वतो वृत्तः।। (वही, गोलपाद, श्लोक 6)
उपलब्ध हैं। नीलकण्ठ सोमसुत्वन् के भाष्य के अभाव में आर्यभटीय को समझने में बहुत कठिनाइयाँ होती हैं। लीलावती पर गणेश, परमेश्वर, सूर्यदास जैसे विद्वानों के भाष्यों के अभाव में उनके सूत्रों पर प्राचीन उपपत्तियों पर शोधकार्य प्रायः नहीं हो पाता है।

अन्य शास्त्रों में गणित की विवेचना


भारत में अन्य शास्त्रों के विद्वान भी गणित की भावना से ओत-प्रोत रहे प्रतीत होते हैं। उन शास्त्रों में प्रसंगवश गणित विषयक जानकारियाँ बिखरी पड़ी हैं। महान् वैयाकरण पाणिनि ने गणित के अनेक शब्दों की सूक्ष्म विवेचना की है। उन्होंने उस समय की आवश्यकतानुसार प्रतिशत के स्थान पर मास में देय ब्याज के लिये एक ‘प्रतिदश’ अनुपात का उल्लेख किया है1। चक्रवृद्धि व्याज द्वारा सर्वाधिक बढ़ी हुई रकम को ‘महाप्रवृद्ध’ बताया है। तोल, माप, सिक्के, पण्य द्रव्य के सैकड़ो शब्दों के वर्णन के अन्तर्गत त्रैराशिक नियम की सूचना दी है। शुल्व सूत्रों के रेखागणित नियमानुसार विविध आकृतियों की वेदियों को द्विगुणित या त्रिगुणित करने पर उनके लिये विशिष्ट नाम बताए हैं2। उन नियमों से बनने वाले द्रोणचित् (चतुष्कोण) रथचक्रचित् (वृत्ताकार) प्रउगचित् (त्रिभुजाकार) उभयतः प्रउगचित् (डमरू के आकार) वाली वेदियों का उल्लेख किया है3। चतुष्कोण वर्ग की विशेषता को प्रकट करने के लिये अलग शब्द बताया है4।
दर्शनशास्त्र में वेदान्त में अध्यारोप अपवाद के सिद्धान्त बीजगणितय समीकरण या अंकगणित के ‘इष्टकर्म’ के समकक्ष हैं। इसके अन्य सिद्धान्त यूक्लिड के स्वयं सिद्ध से तुलनीय हैं5। न्याय शास्त्र की अनुमान या तर्कविद्या सर्वथा गणितीय नियमों से संचालित है। उस शास्त्र

————————————
1. कुसीददशैकादशात् ष्ठन्ष्ठचौ (पा.सा. 4.4.31)।
2.द्विस्तावा त्रिस्तावा वेदिः (पा.सू. 5.4.84)। विग्रह में द्विः तावती वेदिः।
3.कर्मण्यञ्न्याख्यायाम् (पा. सू. 3.2.92)।
4. सुप्रातसुश्वसुदिव. (पा. सू. 5.4.120) में ‘चतुरश्र’ शब्द।
5. ‘तदभिन्नाभिन्नस्य तदभिन्नत्वनियमः’ यह यूक्लिड के ज्यामिति प्रमेय के प्रथम स्वयंसिद्ध से तुलनीय है।
की अणुतर, अणुतम आदि की संकल्पना गणित की ऋणात्मक संख्याओं से तुलनीय है1।

ई. पू. दूसरी शती में विरचित पिंगल छन्द में छन्दों के विभेद को वर्णित करने वाला ‘मेरुप्रस्तार’ पास्कल (Blaise Pascal 1623-1662)  के त्रिभुज से तुलनीय बनता है। वेदों के क्रमपाठ घनपाठ आदि में गणित के श्रेणी-व्यवहार के तत्त्व वर्तमान हैं।

यदि यह जानना हो कि समाज में 56 प्रकार के व्यंजन का प्रयोग किस प्रकार प्रचलित है, तो इसके लिये वैद्यकशास्त्र में वर्णित गणित के ‘अंक-पाश’ के अन्तर्गत ‘संचय’ (Combination) के नियमों के आधार पर कुल 6 रसों के द्वारा 63 तथा अन्ततः 56 विभेदों की संकल्पना का अध्ययन अपेक्षित होगा2।
साहित्य-शास्त्र में भी गणित के आधार पर मनोरम रचनाएँ प्राप्त होती हैं। वहां पाणिनीय व्याकरण के एक प्रमुख उदाहरण ‘लाकृति’ के आधार पर सुख-दुख में एक समान रहने वाले सज्जन तथा 9 संख्या की मनोहारी समानता बताई गई है3। महाकवि श्रीहर्ष ने बताया है कि दमयन्ती के कान आखिर क्यों तथा किस प्रकार सर्वथा नए रचे गए। उन्होंने माना कि उपनिषदों में वर्णित 18 विद्याओं में से 9-9 विद्याओं का अनुप्रवेश दमयन्ती के कानों के अन्दर तक हुआ था। ये नव अंक ही कानों में पहुँच कर शब्दसाम्य से ‘नव’ बन गए—

अस्या यदष्टादश संविभज्य विद्याः श्रुतीः दध्रतुरर्धमर्धम्। कर्णान्तरुत्कीर्णगभीररेखः किं तस्य संख्यैव नवा नवांकः।। (नैषध, 7.63)

——————————————
1.    परिमाणस्य स्वसमानजातीयोत्कृष्टपरिमाणजनकत्वनियमात्—मुक्तावली, गुणनिरूपण, कारिका 111 पर।
2.    इति त्रिषष्टिर्द्रव्याणां निर्दिष्टा रससंख्यया—चरक सूत्र स्थान 26वाँ अध्याय।
3. महतां प्रकृतिः सैव वर्धितानां परैरपि।
न जहाति निजं भावम् अंकेषु लाकृतिर्यथा।।
खगोल-विज्ञान के साथ तो गणित का अन्योन्य सम्बन्ध माना गया है। भास्कराचार्य का कहना है कि खगोल तथा गणित में एक दूसरे से अनभिज्ञ पुरुष उसी प्रकार महत्त्वहीन है, जैसे घृत के बिना व्यंजन, राजा के बिना राज्य तथा अच्छे वक्ता के बिना सभा होती है—

भोज्यं यता सर्वरसं विनाज्यं राज्यं यथा राजविवर्जितं च।
सभा न भातीव सुवक्तृहीना गोलानभिज्ञो गणकस्तथात्र।। (सिद्धान्तशिरोमणि, गोलाध्याय, श्लोक 4)

गणित विषयक सूचनाओं का आदान-प्रदान


गणित शास्त्र के इतिहास से विदित है कि इसके विद्वान् सदा एक दूसरे के सम्पर्क में रहते थे। मित्रतापूर्ण वाद-विवाद करते थे तथा एक दूसरे सिद्धान्तों को अपने ग्रन्थों में स्थान प्रदान करते थे। गणित के विकास में कभी जाति, धर्म, देश या भाषा की दूरी बाधक नहीं हुई। गणित के विद्वानों ने वैदिक संख्याओं को स्वीकार किया तथा आवश्यकता पड़ने पर ‘लक्ष’ आदि बौद्ध संख्याओं तथा क्रम को भी स्थान प्रदान किया। उन्होंने उत्तर भारत के वैदिक विद्वानों के शुल्व या रेखा गणित का विकास किया। साथ ही उस समय के जैन विद्वानों के उपलब्धियों तथा नामों को अपनाने में भी पीछे नहीं रहे। यद्यपि गणित के ग्रन्थ प्रायः संस्कृत में लिखे जाते रहे। फिर भी जनभाषा के गणित के विद्वानों के ‘श्रेढी’ तथा ‘गच्छ’ जैसे प्राकृत शब्दों को लेने में भी कोई संकोच नहीं किया। संस्कृत में ‘गच्छ’ शब्द क्रियावाचक है, संज्ञा नहीं। पर भारतीय गणित में प्रकृत प्रभाव से संज्ञारूप में ‘गच्छः’ का प्रयोग पर्याप्त उपलब्ध है।

हम पाते हैं कि अश्मकाचार्य आर्यभट ने पटना में जिस गणित का विकास किया, उसे गुजरात के ब्रह्मगुप्त  ने सर्वथा आत्मसात् करते हुए आगे बढ़ाया। महाराष्ट्र के सह्य पर्वत या सह्याद्रि क्षेत्र के निवासी भास्कराचार्य ने सबको समीकृत करते हुए भाषा तथा भाव को अलंकृत स्वरूप प्रदान किया। इनके पश्चात केरल के विद्वानों ने युक्तिभाषा आदि ग्रन्थों के रूप में इस कार्य को आगे बढ़ाया।
गणित के विकास के लिये भारत का विदेशों से भी निरन्तर  सम्पर्क बना रहा। भारत ने गणित की संख्याओं को विश्व में सर्वत्र प्रसारित किया। अरबी विद्वानों ने अंकों को ‘हिन्दसाँ’ नाम देकर इसे स्पष्ट रूप से स्वीकृत किया। भारत ने अरब तथा यूरोप के लिये ‘जीवा’ जैसे अनेकानेक शब्द प्रदान किये। साथ ही यूरोप में ग्रीस को विकसित Kentron शब्द को संस्कृत रूप बना कर सर्वप्रथम वराहमिहिर ने ‘केन्द्र’ के रूप में ग्रहण भी किया1। इस शब्द की कोई व्युत्पत्ति नहीं तथा यह अमरकोश तक में उपलब्ध नहीं है। भारत के वराहमिहिर ने 505 ई. के ग्रन्थ पञ्चसिंद्धान्तिका में ‘रोमक-सिद्धान्त’, ‘पौलिश-सिद्धान्त’ जैसे विदेशी सिद्धान्तों के नाम लेकर स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं किया।

भारतीय गणित-शास्त्र की मौलिकता

गणित के अनेक सिद्धान्तों के आदान प्रदान के विषय में स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में आग्रहपूर्ण अभिमत देखने में आते हैं। किसी सिद्धान्त की प्राचीनता को तथा किसी सूत्र की विशिष्टता को कम करके देखने की प्रवृत्ति पाई जाती है। इस स्थिति में यह स्पष्ट विवेचन अतीव आवश्यक है कि अमुक सिद्धान्त अन्य देशों में प्राप्त सिद्धान्तों से कितना प्रचीन है अथवा यह कि अन्य देशों द्वारा अविष्कृत सूत्रों पर भारत ने कितनी मौलिकता या विशिष्टता प्रदान की है। इसे कुछ उदाहरणों से प्रकट करते हैं।

शुल्व प्रमेय या पाइथागोरस प्रमेय

समकोण त्रिभुज की भुजाओं की लम्बाई में मध्य निश्चित सम्बन्ध प्रकट करने वाले सूत्र को 572-501 ई.पू. के गणित के नाम पर पाइथागोरस प्रमेय (Pythagoras theorem) के नाम से जाना जाता है। पर इससे बहुत पहले ई.पू. 7-8वीं शताब्दी में बौधायन आपस्तम्ब शुल्व सूत्रकारों ने किसी आयत पर खींचे गए विकर्ण पर बने वर्ग तथा उस आयत की असमान भुजाओं पर बने वर्ग के बीच निश्चित सम्बन्ध के माध्यम से इस सूत्र को प्रकट किया था। अतः स्वदेश के अनेक विद्वान्
——————————
1. शेषं केन्द्रपदं तस्माद् भुजज्या कोटिरेव च। (सूर्य-सिद्धान्त, 2.29)
तथा डॉ. थीबो जैसे विदेशी विद्वान् भी यह अभिमत रखते हैं कि इसे शुल्व-प्रमेय कहना अधिक समुचित है।

प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book