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अभ्युदय - भाग 1 (सजिल्द)

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :740
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4550
आईएसबीएन :81-8143-191-x

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रामकथा पर आधृत उपन्यास

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Abhyudaya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘अभ्युदय’ रामकथा पर आधारित हिन्दी का पहला और महत्वपूर्ण उपन्यास है। ‘दीक्षा’, ‘अवसर’, ‘संघर्ष की ओर’ तथा ‘युद्ध’ अनेक सजिल्द, अजिल्द तथा पॉकेटबुक संस्करण प्रकाशित होकर अपनी महत्ता एवं लोकप्रियता प्रमाणित कर चुके हैं। महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में इसका धारावाहिक प्रकाशन हुआ है। उड़िया, कन्नड़, मलयालम, नेपाली, मराठी तथा अंग्रेजी से इसके विभिन्न खण्डों के अनुवाद प्रकाशित होकर प्रशंसा पा चुके हैं। इसके विभिन्न प्रसंगो के नाट्य रूपान्तर मंच पर अपनी क्षमता प्रदर्शित कर चुके हैं तथा परम्परागत रामलीला मण्डलियाँ इसकी ओर से आकृष्ट हो रही हैं। यह प्राचीनता तथा नवीनता का अद्भुत संगम है। इसे पढ़कर आप अनुभव करेंगे कि आप पहली बार ऐसी रामकथा पढ़ रहे हैं, जो सामयिक, लौकिक, तर्कसंगत तथा प्रासंगिक है। यह किसी अपरिचित और अद्भुत देश तथा काल की कथा नहीं है। यह इसी लोक और काल की, आपके जीवन से सम्बन्धित समस्याओं पर केन्द्रित एक ऐसी कथा है, जो सर्वकालिक और शाश्वत है और प्रत्येक युग के व्यक्ति का इसके साथ पूर्ण तादाम्य होता है। ‘अभ्युदय’ प्रख्यात कथा पर आधृत अवश्य है ; किन्तु यह सर्वथा मौलिक उपन्यास है, जिसमें न कुछ अलौकिक है, न अतिप्राकृतिक। यह आपके जीवन और समाज का दर्पण है। पिछले पच्चीस वर्षों में इस कृति ने भारतीय साहित्य में अपना जो स्थान बनाया है, हमें पूर्ण विश्वास है कि वह क्रमशः स्फीत होता जायगा, और बहुत शीघ्र ही ‘अभ्युदय’ कालजयी क्लासिक के रूप में अपना वास्तविक महत्व तथा गौरव प्राप्त कर लेगा।

दीक्षा
(1)

समाचार सुना और विश्वामित्र एकदम क्षुब्ध हो उठे। उनकी आँखें, ललाट-क्षोभ में लाल हो गए। क्षणभर समाचार लाने वाले शिष्य पुनर्वसु को बेध्याने घूरते रहे; और सहसा उनके नेत्र झुककर पृथ्वी पर टिक गए। अस्फुट-से स्वर में उन्होंने कहा, ‘‘असह्य!’’

शब्द के अच्चारण के साथ ही उनका शरीर सक्रिय हो उठा। झटके से उठकर वे खड़े हो गए, ‘‘मार्ग दिखाओ, वत्स !’’
पुरर्वसु पहले ही स्तंभित था, गुरु की प्रतिक्रिया देखकर जड़ हो चुका था; सहसा यह आज्ञा सुनकर जैसे जाग पड़ा और अटपटी-सी चाल चलता हुआ, गुरु के आगे-आगे कुटिया से बाहर निकल गया।

विश्वामित्र झपटते हुए-से पुनर्वसु के पीछे चल पड़े।
मार्ग में जहाँ-तहाँ आश्रमवासियों के त्रस्त चेहरे देखकर विश्वामित्र का उद्वेग बढ़ता गया। आश्रमवासी गुरु को आते देख, मार्ग से एक ओर हट, नतमस्तक खड़े हो जाते थे। और उनका इस प्रकार निरीह-कतार होना, गुरु को और अधिक पीड़ित कर जाता था: ‘ये सब लोग मेरे आश्रित हैं। ये मुझ पर विश्वास कर यहाँ आए हैं। इनकी व्यवस्था और रक्षा मेरा कर्त्तव्य है। और मैंने इन सब लोगों को इतना असुरक्षित रख छोड़ा है। इनकी सुरक्षा का प्रबंध...’
आश्रमवासियों की भीड़ में दरार पैदा हो गई। उस मार्ग से प्रविष्ट हो, विश्वामित्र वृत्त के केंद्र के पास पहुँच गए। उनके उस कठोर शुष्क चेहरे पर भी दया, करुणा, पीड़ा, उद्वेग, क्षोभ, क्रोध, विवशता जैसे अनेक भाव पुँजीभूत हो, कुंडली मारकर बैठ गए थे।

उनके पैरों के पास, भूमि पर नक्षत्र का मृत शरीर चित पड़ा था। इस समय यह पहचानना कठिन था कि शरीर किसका है। शरीर के विभिन्न मांसल अंगों की त्वचा फाड़कर मांस नोच लिया गया था, जैसे रजाई फाड़कर गूदड़ नोच लिया गया हो। कहीं केवल घायल त्वचा थी, कहीं त्वचा के भीतर से नंगा मांस झाँक रहा था, जिस पर रक्त जमकर ठण्डा और काला हो चुका था; और कहीं-कहीं मांस इतना अधिक नोच लिया गया था कि मांस के मध्य की हड्डी की श्वेतता मांस की ललाई के भीतर से भासित हो रही थी। शरीर की विभिन्न मांसपेशियाँ टूटी हुई रस्सियों के समान जहाँ-तहाँ उलझी हुई थीं। चेहरा जगह-जगह से इतना नोचा-खसोटा गया था कि कोई भी अंग पहचान पाना कठिन था।

विश्वामित्र का मन हुआ कि वे अपनी आँखें फेर लें। पर आँखें थीं कि नक्षत्र के क्षत-विक्षत चेहरे से चिपक गई थीं और नक्षत्र की भयविदीर्ण मृत पुतलियाँ कहीं उनके मन में जलती लौह शलाकाऔं के समान चुभ गई थीं, अब वे न अपनी आँखें फेर सकेंगे और न उन्हें मूँद ही सकेंगे। बहुत दिनों तक उन्होंने अपनी आँखें मूँदे रखीं थीं-अब वे और अधिक उपेक्षा नहीं कर सकते। कोई-न-कोई व्यवस्था उन्हें करनी पड़ेगी...
‘‘यह कैसे हुआ, वत्स ?’’ उन्होंने पुनर्वसु से पूछा।
‘‘गुरुदेव ! पूरी सूचना तो सुकंठ से ही मिल सकेगी। सुकंठ नक्षत्र के साथ था।’’
‘‘मुझे सुकंठ के पास ले चलो।’’

जाने से पहले विश्वामित्र आश्रमवासियों की भीड़ की ओर उन्मुख हुए, ‘‘व्याकुल मत होओ, तपस्वीगण। राक्षसों को उचित उचित दण्ड देने की व्यवस्था मैं शीघ्र करूँगा। नक्षत्र के शब का उचित प्रबंध कर मुझे सूचना दो।’’
वे पुनर्वसु के पीछे चले जा रहे थे, ‘‘जब कभी भी मैं किसी नए प्रयोग के लिए यज्ञ आरंभ करता हूं, ये राक्षस मेरे आश्रम के साथ इसी प्रकार रक्त और मांस का खेल खेलते हैं। रक्त-मांस की इस वर्षा में कोई भी यज्ञ कैसे संपन्न हो सकता है...!’’
पुनर्वसु चिकित्सा-कुटीर के मार्ग पर चल पड़ा था। विश्वामित्र उसके पीछे-पीछे मुड़ गए,‘‘क्या अपनी शांति के लिए, अपने आश्रमवासियों की रक्षा के लिए, राक्षसों से समझौता कर लूँ ? क्या उनकी बात मान लूँ ? क्या अपना शस्त्र-ज्ञान उन्हें समर्पित कर मैं एक और शुक्राचार्य बन जाऊँ ? भृगुओं और भरतों का समस्त शस्त्र, औषध तथा अश्वपालन संबंदी ज्ञान देकर इन्हें और भी शक्तिशाली बना दूँ ? क्या मैं भी उनमें से ही एक हो जाऊं ? राक्षसी वृत्तियों को निर्बाध पनपने दूँ ? अपने आश्रम से आर्य-संस्कृति को निष्कासित कर, इसे राक्षस-संस्कृति का गढ़ बन जाने दँ ?’’
पुनर्वसु चिकित्सा-कुटीर के द्वार पर जाकर रुक गया। उसने एक ओर हटकर गुरु को मार्ग दे दिया।

विश्वामित्र भीतर प्रविष्ट हुए।
चिकित्साचार्य ने अपनी शिष्य मण्डली को एक ओर कर, आश्रम के कुलपति के लिए मार्ग बना दिया। विश्वामित्र सुकंठ की शैय्या से लगकर खड़े हो गए। सुकंठ का चेहरा और शरीर तरह-तरह की पट्टियों से बँधा हुआ था, किंतु उसकी आँखें खुली हुई थीं और वह पूरी तरह चैतन्य था। गुरु को देखकर उसने शैय्या से उठने का प्रयत्न किया।
विश्वामित्र ने उसके कंधे पर अपना हाथ रख तनिक-से दबाव के साथ उसे लेटे रहने का संकेत किया।
‘‘मुझे बताओ, वत्स ! यह सब कैसे हुआ ?’’
सुकंठ की भोली आँखें में एक त्रास तैर गया और उसका चेहरा अपना स्वाभाविक रंग छोड़, कुछ पीला हो गया; जैसे वह चिकित्सालय से उठाकर फिर से उन्हीं त्रासद क्षणों में पटक दिया गया था।

विश्वामित्र उसकी ओर कुछ और अधिक झुक गए। उनका स्वर बहुत ही कोमल हो आया था, ‘बताने में विशेष कष्ट हो तो अभी रहने दो, वत्स !’’
सुकंठ के चेहरे पर क्षणभर के लिए एक पीड़ित मुस्कान झलकी, ‘‘नहीं, गुरुदेव ! जो देखा है, उससे अधिक कष्ट बताने में नहीं है।’ उसने एक निःश्वास छोड़ा, ‘‘मैं तथा नक्षत्र उधर से जा रहे थे, तो हमने वहाँ दो राक्षसों को बैठे हुए देखा। वे लोग डील-डौल में हमसे बहुत बड़े और शारीरिक शक्ति में हमसे बहुत अधिक थे। उनके वस्त्र भड़कीले, मूल्यवान एवं भद्दे थे। शरीर पर विभिन्न प्रकार के मणि-माणिक्य एवं स्वर्ण-आभूषण इस विपुलता से पहने हुए थे कि वे आभूषण न लगकर कबाड़ का आभास दे रहे थे। आश्रम के भीतर हमें उनका यह भद्दा व्यक्तित्व अत्यंत आपत्तिजनक लग रहा था; पर शायद हम उन्हें कुछ भी नहीं कहते; क्योंकि मेरा ही नहीं, अनेक आश्रमवासियों का यह अनुभव है कि इन राक्षसों से कोई अच्छी बात भी कही जाएं, या उनके सार्वजनिक दूषित व्यवहार के लिए उन्हें टोका जाए, तो वे लोग तनिक भी लज्जित नहीं होते, उल्टे झगड़ा करने लगते हैं। उनके पास शारीरिक शक्ति है, शस्त्र-बल है, धन-बल है; और फिर कोई शासन उनका विरोध नहीं करता। इन राक्षसों से झगड़ा कर हम कभी भी जीत नहीं पाते। इसलिए उनके अनुचित व्यवहार को देखते हुए भी आश्रमवासी सामान्यतः आँखें मूँद लेते हैं...’’

विश्वामित्र के मन में कहीं कसक उठी, ‘‘क्या यह बालक मुझे उपालंभ दे रहा है ? क्या मैं इन राक्षसों की ओर से आँखें मूँदे हुए हूँ...?’’
सुकंठ कह रहा था,‘‘हम शायद उन्हें कुछ भी न कहते। पर तभी उधर से आश्रमवासियों आर्या अनुगता गुजरीं। और तब हमें ज्ञात हुआ कि वे दोनों राक्षस मदिरा पीकर धुत्त थे। उन्होंने आर्या अनुगता को पकड़ लिया और अनेक अशिष्ट बातें कहीं। तब हमारे लिए उनकी अपेक्षा कर पाना संभव नहीं रहा। सोच-विचार का समय नहीं था, आर्य ! और सच तो यह है कि हम लोग अपनी अच्छा से सोच-विचारकर, अपनी वीरता दिखाने भी नहीं गए थे। वह तो क्षण की माँग थी। यदि हम सोचते रह जाते तो वह राक्षस या तो आर्या अनुगता को मार डालते, या फिर उन्हें उठाकर ले जाते। हमने उन्हें ललकारा। उन दोनों ने खड्ग निकाल लिए। हम निःशस्त्र थे, परिणाम आपके सामने है..’’सुकंठ की वाणी रुँध गई, ‘‘मैंने संज्ञा-शून्य होने से पूर्व उन्हें नक्षत्र के जीवित शरीर को अपने नखों एवं दाँतों से उसी प्रकार नोचते हुए देखा था, जैसे गिद्ध किसी लोथ को नोचते हैं। वे लोग शायद मेरे साथ भी वही व्यवहार करते, किंतु उससे पूर्व ही आश्रमवासियों की भीड़ एकत्रित हो गई...’’

सुकंठ ने अपनी आँखें भींच लीं और उसके गालों पर से बहते हुए अश्रु कानों की ओर मुड़ गए।
‘‘तुमने बहुत कष्ट सहा है, वत्स !’’ विश्वामित्र बोले, ‘‘अब शांत होओ। लगता है कि यह मेरी ही उद्यमहीनता का फल है। मैं दूसरों को दोष देता, शांत बैठा रहा; पर अब मुझे कुछ-न-कुछ करना ही होगा, नहीं तो यह सिद्धाश्रम श्मशान बन जाएगा।’’
उन्होंने सुकंठ के सिर पर हाथ फेरा। उन्हें शब्द नहीं सूझ रहे थे-कैसे वे अपने मन की पीड़ा सुकंठ तक पहुँचाएँ। क्या उसके केशों पर फिरता उनका यह हाथ शब्दों से कुछ अधिक कह पाएगा ?’’
वे द्वार की ओर बढ़ चले।
चिकित्सा-कुटीर से बाहर निकलते हुए विश्वामित्र के चेहरे पर निर्णय की दृढ़ता थी। यह निर्णय कितनी बार उभर-उभरकर उनके मस्तिष्क की ऊपरी तहों पर आया था, उन्होंने हर बार उसे स्थगित कर दिया था। किंतु अब और शिथिलता नहीं दिखानी होगी...
चेहरे के साथ उनके पगों में भी दृढ़ता आ गई थी। उनके पग निश्चित आयाम के साथ अपनी कुटिया की ओर बढ़ रहे थे।
उनमें द्वंद्व नहीं था, अनिर्णय नहीं था, गंतव्यहीनता नहीं थी।

पर अपनी कुटिया में आकर, अपने आसन पर बैठते ही उनके भीतर का चिंतन जागरूक हो उठा। कर्मण्य विश्वामित्र फिर कहीं सो गया और चिंतक विश्वामित्र चेतावनी देने लगा-‘ठीक से सोच ले, विश्वामित्र ! यह न हो कि गलत निर्णय के कारण अपमानित होना पड़े। सोच, अच्छी तरह सोच...’’
विश्वामित्र के मन में कर्म का आवेश, फेन के समान बैठ गया। शीघ्रता विश्वामित्र के लिए नहीं है। वे जो कुछ करेंगे, सोच-समझकर करेंगे। एक बार कार्य आरंभ कर पीछे नहीं हटना है। अतः काम ऊपर से आरंभ करने के स्थान पर नीचे से ही आरंभ करना चाहिए। जब सूई से ही कार्य हो सकता, तो खड्ग का उपयोग क्यों किया जाए ? स्थानीय। जब सूई से ही कार्य हो सकता है, तो खड्ग का उपोयग क्यों किया जाए ? स्थानीय शक्तियों से ही कार्य हो जाए, तो क्या आवश्यकता है कि वे सम्राटों के पास जाएँ...
‘‘पुनर्वसु !’’
‘‘गुरुदेव !’’
‘‘पुत्र। मुनि आजानुबाहु को बुला लाओ। कहना, आवश्यक कार्य है।’’ पुनर्वसु चला गया और विश्वामित्र अत्यंत अद्विग्नता से मुनि आजानुबाहु की प्रतीक्षा करते रहे...विश्वामित्र का मन कभी-कभी ही ऐसा उद्विग्न हुआ था...
मुनि ने आने में अधिक देर नहीं लगाई।
‘‘आर्य कुलपति !’’
‘‘मुनि आजानुबाहु !’’ विश्वामित्र ने कोमल आकृति वाले उस अधेड़ तपस्वी की ओर देखा, ‘‘आपके व्यवस्था-कौशल, आपके परिश्रमी स्वभाव तथा आपके मधुर व्यवहार को दृष्टि में रखते हुए एक अत्यंत गंभीर कार्य आपको सौंप रहा हूँ।’’
‘‘कुलपति, आज्ञा करें।’’ मुनि ने सिर को तनिक झुकाते हुए कहा।

‘‘जो कुछ आश्रम में घटित हुआ, उसे आपने देखा है। आश्रम के तपस्वियों के लिए राक्षसों से लड़ना संभव नहीं है। न तो उनके पास शस्त्र-बल है और न मनोबल। इसलिए हमें सहायता की आवश्यकता है। आप कुछ शिष्यों को साथ लेकर, आश्रम से लगते हुए, सभी ग्रामों में घूम जाएँ-ग्राम चाहे आर्यों के हों, निषादों के हों, शबरों के हों अथवा भीलों के हों। सभी ग्राम-प्रमुखों को इस घटना की सूचना दें। उनसे कहें कि वे लोग आश्रमवासियों की सुरक्षा का प्रबंध करें और..’’ विश्वामित्र का स्वर कुछ आवेशमय हो उठा, ‘‘और यदि वे लोग कुछ आनाकानी करें तो किसी राज्य व्यवस्था का अवलंब लेना पड़ेगा। मलद और करुश के राजवंशों का नाश हो जाने के कारण यह क्षेत्र उसकी सीमा में नहीं है, किंतु सीमांत की भूमि शत्रु के लिए इस प्रकार असुरक्षित नहीं छोड़ देनी चाहिए। सीमांत पर होने वाली ऐसी घटनाओं का दमन उसका कर्त्तव्य है, नहीं तो ये ही घटनाएं उसकी सीमा के भीतर होने लगेंगी।’’
मुनि ने एक बार पूरी दृष्टि से विश्वामित्र को देखा और सिर झुका दिया, ‘‘आपकी आज्ञा का अक्षरशः पालन होगा।’’
प्रणाम कर वे जाने के लिए मुड़ गए।

आजानुबाहु चले गए, किंतु विश्वामित्र उनकी आँखों का भाव नहीं भूल पाए। सदा यही होता है-हर बार यही होता है। आजानुबाहु की आँखें उन्हें उपालंभ देती हैं-जैसे कहती हों, ‘विश्वामित्र ! तुम बातों के ही धनी हो। कर्म तुम्हारे वश का नहीं है।’
ऋषि विश्वामित्र का अत्यंत संयमी मन दिन-भर किसी काम में नहीं लगा।
जैसे ही ध्यान किसी ओर लगाते, उनकी आँखों के सम्मुख नक्षत्र और सुकंठ के चेहरे फिरने लगते। और नक्षत्र का वह विकृत रूप-जगह-जगह पर उधड़ा हुआ मांस, टूटी हुई मांसपेशियाँ, लाल मांस में से झाँकती हुई सफेद हड्डियाँ-क्या करें विश्वामित्र ? कैसे उन चेहरों से पीछा छुड़ाएँ ?

फिर उनका ध्यान मुनि आजानुबाहु की ओर चला गया। उन्हें भेजा है, ग्राम-प्रमुखों के पास और सेनायक बहुलाश्व के पास भी। देखें, क्या उत्तर लाते हैं। क्या उत्तर हो सकता है ? मुनि आजानुबाहु सदा अपना कार्य पूरा करके आते हैं और फिर उनकी आँखों में वही भाव होता है-मैं तो कर आया, विश्वामित्र ! देखना है, तुम क्या करते हो।’ ओह ! उन आँखों का अविश्वास...
...पर विश्वामित्र स्वयं अपने ऊपर चकित थे। क्या हो गया है उन्हें ! अपनी युवावस्था में अनेक युद्ध लड़े हैं, सेनाओं का संचालन किया है। फिर राक्षसों के आक्रमण की भी यह कोई पहली घटना नहीं है...इतने विचलित तो वे कभी नहीं हुए। ये अत्यंत संयम और आत्म-नियंत्रण से अपना दैनिक कार्य करते रहे हैं, किंतु आज...क्या उनके सहने की भी सीमा आ गई है ?....
संध्या ढलने को थी, अंधकार होने में थोड़ा ही समय शेष था, जब मुनि आजानुबाहु ने उपस्थित हो, झुककर कुलपति को प्रणाम किया।
‘‘आसन ग्रहण करें, मुनिवर !’’
मुनि अत्यंत उदासीन भाव से बैठ गए। उनके मुख पर उल्लास की कोई भी रेखा नहीं थी। शरीर के अंग-संचालन में चपलता सर्वथा अनुपस्थित थी। विश्वामित्र की आँखें मुनि का निरीक्षण कर रही थीं-‘‘क्या समाचार लाए हैं, मुनि ?....’’
‘‘आपकी आज्ञा के अनुसार मैं सिद्धाश्रम के साथ लगते हुए दसों ग्रामों के मुखियों के पास हो आया हूँ।’’
‘‘आपने उन्हें इस दुर्घटना की सूचना दी ?’’
‘‘हाँ, आर्य कुलपति !’’
‘‘उन्होंने क्या उत्तर दिया ?’’
‘‘प्रभु ! वे उत्तर नहीं देते।’’ मुनि बहुत उदास थे, ‘‘मौन होकर सब कुछ सुन लेते हैं और दीर्घ निःश्वास छोड़कर शून्य में घूरने लगते हैं। उन्हें जब यह ज्ञात होता है कि यह राक्षसों का कृत्य है; और राक्षस ताड़का के सैनिक शिविर से संबद्ध हैं तो वे उनके विरुद्ध कुछ करने के स्थान पर उल्टे भयभीत हो जाते हैं।’’
‘‘जन-सामान्य का भीरू हो जाना अत्यंत शोचनीय है, मुनिवर !’’ विश्वामित्र का स्वर चिंतित था।

‘‘हाँ, आर्य कुलपति !’’ मुनि आजानुबाहु बोले, ‘‘यदि ऐसा न होता तो उन राक्षसों का इतना साहस ही न होता। ऋषिवर ! हमारे आश्रमवासियों में अभी भी थोड़ा-सा आत्मबल और तेज है, अतः आश्रम के भीतर हमें उतना अनुभव नहीं होता, अन्यथा आश्रम के बाहर तो स्थिति यह है कि सैकड़ों लोगों की उपस्थिति में राक्षस तथा उनके अनुयायी व्यक्ति का धन छीन लेते हैं, उसे पीट देते हैं, उसकी हत्या कर देते हैं। जनाकीर्ण हाट-बाजार में महिलाओं को परेशान किया जाता है, उन्हें अपमानित किया जाता है, उनका हरण किया जाता है-और जनसमुदाय खड़ा देखता रहता है। जनसमुदाय अब मानों नैतिक-सामाजिक भावनाओं से शून्य, हतवीर्य तथा कायर, जड़ वस्तु है। जिसके सिर पर पड़ती है, वह स्वयं भुगत लेता है-शेष प्रत्येक व्यक्ति इन घटनाओं से उदासीन, स्वयं को बचाता-सा निकल जाता है। इससे अधिक शोचनीय स्थिति और क्या होगी, आर्य कुलपति !’’

जाने क्यों विश्वामित्र को मुनि का प्रत्येक वाक्य अपने लिए ही उच्चारित होता लगता था। क्या आजानुबाहु जान-बूझकर ऐसे वाक्यों का प्रयोग कर रहे है, या विश्वामित्र का अपना ही मन उन्हें धिक्कार रहा है..पर धिक्कार से क्या होगा, अब कर्म का समय है।
विश्वामित्र अपने चिंतन को नियंत्रित करते हुए बोले, ‘‘न्याय-पक्ष दुर्बल और भीरू तथा अन्याय-पक्ष दुस्साहसी एवं शक्तिशाली हो गया है। यह स्थिति अत्यंत अहितकर है।...आप शासन-प्रतिनिधि सेनानायक बहुलाश्व के पास भी गए थे ?’’
‘‘आर्य ! गया था।’’ मुनि का स्वर और अधिक शुष्क और उदासीन हो गया।
‘‘उससे क्या बातचीत हुई ? उसने अपराधियों को बंदी करने के लिए सैनिक भेजे ?’’
‘‘उससे बात बातचीत तो बहुत हुई।’’ मुनि ने उत्तर दिया। उनके स्वर में फिर वही भाव था। विश्वामित्र साफ-साफ सुन पा रहे थे। आजानुबाहु ने कुलपति की आज्ञा का पालन अवश्य किया था, किंतु उन्हें इन कार्यों की सार्थकता पर विश्वास नहीं। ‘‘किंतु उसने सैनिकों को कोई आदेश नहीं दिया। कदाचित् वह कोई आदेश देगा भी नहीं।’’
‘‘क्यों ?’’ विश्वामित्र की भृकुटी वक्र हो उठी !

‘‘सेनानायक बहुलाश्व को आज बहुत से उपहार प्राप्त हुए हैं, आर्य कुलपति ! उसे एक बहुमूल्य रथ मिला है। उसकी पत्नी को शुद्ध स्वर्णँ के आभूषण मिले हैं। मदिरा का एक दीर्घाकार भाँड मिला है; और कहते हैं कि एक अत्यंत सुंदरी दासी भी दिए जाने का वचन है।’’
‘‘ये उपहार किसने दिए हैं, मुनिवर ?’’
‘‘राक्षस शिविर ने, आर्य ! राक्षस बिना युद्ध किए भी विपक्षी सैनिकों को पूर्णतः पराजित कर देते हैं।’’
विश्वामित्र के मन में सीमातीत क्षोभ हिल्लोलित हो उठा। शांतिपूर्वक बैठे रहना असंभव हो गया। वे उठ खड़े हुए और अत्यंत व्याकुलता की स्थिति में, अपनी कुटिया में एक कोने से दूसरे कोने तक टहलने लगे। मुनि आजानुबाहु ने उन्हें ऐसी क्षुब्धावस्था में कभी नहीं देखा़ था...
विश्वामित्र जैसे वाचिक चिंतन करते हुए बोले, ‘‘इसका अर्थ यह हुआ कि शासन, शासन-प्रतिनिधि, सेना-सब के होते हुए भी, जो कोई चाहे, मनमाना अपराध कर ले और उसके प्रतिकार के लिए शासन-प्रतिकार के पास उपहार भेज दे-उसके अपराध का परिमार्जन हो जाएगा। यह कैसा मानव-समाज है ? हम किन परिस्थितियों में जी रहे हैं ! यह कैसा शासन है ? यह तो सभ्यता-संस्कृति से दूर हिंस्र पशुओं से भरे किसी गहन विपिन में जीना है....’’
‘‘इतना ही नहीं, आर्य कुलपति !’’ मुनि के स्वर में व्यंग्य से अधिक पीड़ा थी, ‘‘मैंने तो सुना है कि अनेक बार ये राक्षस तथा उनके मित्र शासन-प्रतिनिधि को पहले से ही सूचित कर देते हैं कि वे लोग किसी विशिष्ट समय पर, विशिष्ट स्थान पर, कोई अत्याचार करने जा रहे हैं-शासन-प्रतिनिधि को चाहिए कि वह उस समय अपने सैनिकों को उधर जाने से रोक ले; और शासन-प्रतिनिधि वही करता है...इस कृपा के लिए शासन-प्रतिनिधि को पूर्ण पुरस्कार दिया जाता है...’’
‘‘असहनीय ! पूर्णतः अमानवीय ! राक्षसी..राक्षसी...’’ विश्वामित्र विक्षिप्त-से इधर से उधर चक्कर लगा रहे थे।

‘‘आपने सेनानायक को बताया था कि आप सिद्धाश्रम से आए हैं आपको मैंने भेजा है ?’’ सहसा विश्वामित्र ने रूककर पूछा।
‘‘हाँ, आर्य !’’ मुनि ने कहा।
‘‘उसका कोई प्रभाव नहीं हुआ ?’’
मुनि के मुखमण्डल पर फिर व्यंग्य आ बैठा, ‘‘आप सब कुछ जानते हुए भी पूछते हैं, ऋषिवर ! राक्षसों ने कभी भी आश्रमों तथा ऋषियों को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा। उनकी ही देखा-देखी अनेक आर्यों ने भी ऋषियों को उपहास की, तुच्छ एवं नग्रण्य वस्तु मान लिया है। सेनानायक बहुलाश्व ने मुझे ऐसा ही सम्मान दिया।...हम उनके लिए क्या हैं ? निरीह, कोमल जीव-जो उन्हें डंक नहीं मार सकते; और वे जब चाहें, हमें मसल सकते हैं।’’
विश्वामित्र का ध्यान मुनि के व्यंग्यात्मक स्वर की ओर नहीं गया। उनका क्रोध बढ़ता जा रहा था-लगता था, वे किसी भी क्षण फट पड़ेंगे; उन्होंने स्वयं को किसी प्रकार नियंत्रित किया। बोले, ‘‘अच्छा, मुनिवर ! आप विश्राम करें, मैं कोई-न-कोई व्यवस्था करूँगा। यह क्रम बहुत दिन नहीं चलेगा।’’

मुनि आजानुबाहु उठे नहीं, वैसे ही बैठे-बैठे तनिक-सा सिर झुकाकर बोले, ‘‘यदि अनुमति हो तो एक और सूचना देना चाहता हूँ। घटना तनिक विस्तार से बताने की है।’’
विश्वामित्र का क्रोध बार-बार उन्हें खींचकर किसी और लोक में ले जाता था, और वे बार-बार स्वयं को घसीटकर सिद्धाश्रम में ला रहे थे। कैसा समय है कि जिन विश्वामित्र के सम्मुख आर्य सम्राट् सिर झुकाते थे-आज एक तुच्छ सेनानायक उनकी उपेक्षा कर रहा था; केवल इसलिए कि उन्होंने अपनी इच्छा से राजसिक सत्ता, सैन्य बल, अस्त्र-शस्त्र तथा भोग की भौतिक सामगियों का त्याग कर समाज के कल्याण के लिए तपस्या का यह कठिन मार्ग स्वीकार किया था। जिन गुणों के लिए उनकी पूजा होनी चाहिए थी, उन्हें उनका दोष मान लिया गया है...
मुनि की बात सुनकर बोले, ‘‘कहिए, मुनिवर ! मैं सुन रहा हूँ।’’
‘‘आर्य कुलपति !’’ आजानुबाहु बोले, ‘‘सेनानायक बहुलाश्व के सैनिक शिविर के समीप, सम्राट् दशरथ के राज्य की सीमा के भीतर ही एक ग्राम है। ग्राम के निवासी जाति के निषाद हैं। पुरुष अधिकांशतः नौकाएँ चलाते हैं और स्त्रियाँ मछलियाँ पकड़ती हैं...’’
‘‘शायद मैं उस ग्राम से परिचित हूँ।’’ विश्वामित्र बोले।

‘‘उसी ग्राम में गहन नामक एक व्यक्ति रहता है। कुल दिन पूर्व आर्य युवकों का एक दल गहन की कुटिया पर गया था। युवकों ने मदिरा इतनी अधिक पी रखी थी कि उन्हें उचित-अनुचित का बोध नहीं था। उन्होंने सीधे स्वयं गहन के पास जाकर माँग की कि वह अपने परिवार की स्त्रियाँ उनकी सेवा में भेज दे। ऐसी अशिष्ट माँग सुनकर गहन क्रुद्ध हो उठा। उसके आह्वान पर ग्राम के अनेक युवक वहाँ एकत्रित हो गए। किंतु आर्य युवक अपनी माँग से टले नहीं। उनका तर्क था कि वे लोग धनी-मानी सवर्ण आर्य हैं और कंगाल गहन के परिवार की स्त्रियाँ नीच जाति की तुच्छ स्त्रियाँ हैं। नीच जाति की स्त्रियों की भी कोई मर्यादा होती है क्या ? वे होती ही किसलिए हैं ? सवर्ण आर्यों के भोग के लिए ही तो !’’
‘‘वे लोग न केवल अपनी दुष्टता पर लज्जित नहीं हुए, वरन् अपनी हठ मनवाने के लिए झगड़ा भी करने लगे। उस झगड़े में उन्हें कुछ चोंटे। अंततः वे लोग यह धमकी देते हुए चले गए कि वे नीत जाति को उसकी उच्छृंखलता के लिए ऐसा दण्ड दिलाएँगे, जो आज तक न किसी ने देखा होगा, न सुना होगा।’’
‘‘फिर ?’’ विश्वामित्र तम्मय होकर सुन रहे थे।

‘‘गहन कल से अस्वस्थ चल रहा था। आज जब सारा ग्राम अपने काम से नदी पर चल गया, गहन अपनी कुटिया में ही रह गया। गहन की देख-भाल के लिए उसकी पत्नी भी रह गई। अपनी सास की सहायता करने के विचार से गहन की दोनों पुत्रवधुएँ भी घर पर ही रहीं। गहन की दुहिता अकेली कहाँ जाती, अतः वह भी नदीं पर नहीं गई...’’
‘‘फिर ?’’ विश्वामित्र जैसे श्वास रोके हुए, सब कुछ सुन रहे थे।
‘‘अवसर देखकर आर्य युवकों का वही दल ग्राम में घुस आया।’’ मुनि आजानुबाहु ने बताया, ‘‘अकेला अस्वस्थ गहन क्या करता। उन्होंने उसे पकड़कर एक खंभे के साथ बाँध दिया। उसकी बृद्धा पत्नी, युवा पुत्रवधुओं तथा बाला दुहिता को पकड़कर, गहन के सम्मुख ही नग्न कर दिया। उन्होंने बृद्ध गहन की आँखों के सम्मुख बारी-बारी उन स्त्रियों का शील-भंग किया। फिर उन्होंने जीवित गहन को आग लगा दी; और जीवित जलते हुए गहन को उसक चिता में लौह शलाकाएँ गर्म कर-करके उन स्त्रियों के गुप्तागों पर उनकी जाति चिह्नित की...’’
‘‘असहनीय !’’ विश्वासमित्र ने पीड़ा से कराहते हुए कहा।
उन्होंने दोनों हथेलियों से अपने काम बंद कर, आँखें मींच ली थीं।

वृद्ध ऋषि की मानसिक पीड़ा देखकर मुनि आजानुबाहु चुप हो गए-ऋषि विश्वासमित्र से उच्च आर्यों की कौन-सी जाति है। भरतों में सर्वश्रेष्ठ विश्वामित्र ! वे विश्वामित्र उन निषाद स्त्रियों के साथ घटी घटना को सुन तक नहीं सकते-और कुलीनता का दंभ भरने वाली वे आर्य युवक ऐसे कृत्यों को अपना धर्म मानते हैं।...
आजानुबाहु को लगा, उनके मन में बैठा विश्वामित्र-द्रोही भाव विगलित हो उठा है और अब उनके मन में श्रद्धा ही है। उस वृद्धि ऋषि के लिए दूसरा भाव हो ही क्या सकता है। स्फाटिक जैसा उज्ज्वल मन होते हुए भी, परिस्थियों के सम्मुख कैसे असहाय हो गए हैं विश्वामित्र !

मुनि चुपचाप कुलपति की आकृति पर चिह्नित पीड़ा को आँखों से पीते रहे। कुछ नहीं बोले। और बोलकर ऋषि की पीड़ा में वृद्ध करना उचित होगा क्या ?...
‘‘इस घटना की सूचना सेनानायक बहुलाश्व को है ?’’ अंत में विश्वामित्र ने ही पूछा।
‘‘शासन-तंत्र के विभिन्न प्रतिनिधियों ने इस घटना की सूचना पाकर जब कुछ नहीं किया, तो गहन के पुत्र बहुलाश्व के पास भी गए थे। बहुलाश्व ने सारी घटना सुनकर कहा कि वह शोध करके देखेगा कि इस घटना में तथ्य कितना है।’’
‘‘इतनी बर्बरता हो रही है-अमानवीय, पैशाचिक, राक्षसी। और शासन का प्रतिनिधि कहता है, वह शोध करेगा।’’ विश्वामित्र असाधारण तेजपुंज हो रहे थे, ‘‘उन आर्य युवकों की जीवित त्वचा खींच ली जानी चाहिए। मैं घोषणा करता हूँ कि ये युवक आर्य नहीं हैं। वे लोग राक्षस हैं- पूर्ण राक्षस। रावण के वंशज।’’

‘‘आर्य कुलपति !’’ मुनि बोले, ‘‘गहन के पुत्र उन स्त्रियों के साथ मुझे मिले थे। मैं उन्हें अपने साथ सिद्धाश्रम में लेता आया हूँ। वे आश्रम के बाहर कहीं भी स्वयं को सुरक्षित नहीं पाते।’’
‘‘उन्हें बुलाओ !’’ विश्वामित्र उतावली से बोले।
मुनि बाहर गए और क्षणभर में ही लौट आए। उनके साथ एक भीड़ थी-चुपचाप, मौन। किंतु उनकी आकृतियों पर आक्रोश और विरोध चिपक-सा गया था। उन्होंने कंधों पर चारपाइयों उठा रखी थीं। चारपाइयॉ भूमि पर रखकर वे लोग हट गए। केवल दो पुरुष उन चारपाइयों के पास खड़े रह गए। कदाचित् ये दोनों ही गहन के पुत्र थे।

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