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पाटलिपुत्र की धरोहर रामजी मिश्र मनोहर

श्रीरंजन सूरिदेव, राय प्रभाकर प्रसाद

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :441
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4554
आईएसबीएन :81-208-2633-7

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रामजी मिश्र का जीवन-परिचय....

Patliputra Ki Dharohar Ramji Mishra Manohar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई’’, सकल सुख, सकल मंगल, सकल लोकहित तथा सकल जन-रंजन की मंगल कामना करने वाले बिरले ही महापुरुष होते हैं। ऐसे ही व्यक्तित्व अभिनन्दनीय, आदरणीय, पूजनीय तथा अनुकरणीय हो जाते हैं। उनके कार्यकलाप भावी पीड़ी के प्रेरणास्रोत बन जाते हैं।

मनोहरजी ने कर्मपथ पर निरन्तर गतिशील रहकर ही अपने को अभिनन्दनीय बनाया है। ‘‘स्वावलम्बन’’ और ‘‘पुरुषार्थ’’ ही इनके सच्चे जीवन-सहचर रहे हैं। वस्तुतः इस अभिनन्दन-ग्रन्थ द्वारा उस विग्रहवान् पौरुष का अभिनन्दन किया गया है, जो कर्म को ही पूजा मानता है और कर्म ही उसके लिए धर्म है।

समत्व, समदृष्टि तथा सर्वधर्म समभाव के पालक मनोहरजी में अध्यात्मप्रवण विचारक, कुशल पत्रकार, संवेदनशील मानव, व्यवहारज्ञ सद्गृहस्थ, गवेषणापटु इतिहास प्रेमी, जनमंगल की भावना से ओतप्रोत जैसे व्यक्तित्व का सम्मिश्रण है।
वस्तुतः पत्रकार अपने समय का इतिहास-निर्माता होता है। समाचारपत्र की सार्थकता भी इसी में है कि उसमें जनता को विशुद्ध ऐतिहासिक सत्य से संवलित द्वेषमुक्त समाचार सुलभ करने की क्षमता हो।

पत्रकारिता के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर पं. रामजी मिश्र ‘मनोहर’ सर्वात्मना, सर्जनधर्मी तथा सूक्ष्मेक्षिका सम्पन्न बहुश्रुत पत्रकार हैं। इन्होंने पत्रकारिता को अभिनव आयाम प्रदान किया है। पत्रकारिता इनके जीवन का पर्याय बन गई है। इनके सारस्वत व्यक्तित्व को रेखांकित करने योग्य विशेषता यह है कि इन्होंने प्राचीन और नवीन के बीच सम्बन्ध-सेतु का निर्माण किया है। इनके जैसा बहिरन्तः समर्पित पत्रकार आज के पत्रकारिता-जगत् में अंगुलिगण्य ही है। यह पत्रकारों में अहर्निश गतिशील के आकांक्षी हैं। मनोहरजी साहित्यकार और पत्रकार दोनों के द्वैत के साथ अद्वैत बने हुए हैं।

प्रस्तुत अभिनन्दन-ग्रन्थ में मनोहरजी के गुण-वैशिष्ट्य का ही बहुकोणीय आकलन और आशंसन उपन्यस्त हुआ है, जिसमें इनके जीवन के आठवें दशक में ऋद्धिपूर्ण प्रवेश की मंगलबेला में इनके हितैषीयों, शुभानुध्यायियों, इष्ट-मित्रों, स्वजन-परिजन और बन्धु-बान्धवों ने इनकी सर्वतोभद्र उपलब्धियों की आक्षरिक प्रदक्षिणा की है। प्रस्तुत अभिनन्दन-ग्रन्थ इनकी इसी सारस्वत साधना के पर्यवेक्षण का मांगलिक अनुष्ठान है, साथ ही इनकी बहुपथीन कार्य-प्रक्रिया से आकीर्ण रचनात्मक जीवन की संघर्ष-कथा भी है।

अभिनन्दन-ग्रन्थ में सम्मिलित सभी कृतियों में मनोहरजी के जीवन की सार्थकता का आकलन उनके जीवन मूल्यों और स्वार्जित उपलब्धियों के आधार पर ही किया गया है। यह और बात है कि प्रत्येक लेखनी का मानदण्ड निकष भिन्न प्रकार का है। किन्तु लेखन समष्टि का यही स्वर निर्विवाद रूप से मुखरित हुआ है कि ‘‘मनोहरजी ऐसे पुरुष हैं, जो जीवन की सार्थकता की अनूभूति, समर्पित भाव से साहित्य और समाज की सेवा को जीवन-केन्द्र में रखकर करते और जीते हैं और इसी सेवायज्ञ में अपनी आहुति देते रहते हैं।’’

प्रस्तुत अभिनन्दन-ग्रन्थ एक पुरातत्त्वेतिहासप्रेमी पत्रकार पर केन्द्रित शोधभूयिष्ठ आलेख-सामग्री का ऐसा संकलन है, जो पत्रकारिता और रातत्त्व, विशेषतः पाटलिपुत्र या प्राचीन पटना के पुरातत्व से सन्दर्भित विषयों पर प्रामाणिक और विश्ववसनीय शोधोपजीव्य सिद्ध होगा।


सम्पादकीय



जिसकी धमनियों में पत्रकारिता का लहू बह रहा है, उसके वन्दन में यह अभिनन्दन-ग्रन्थ है। पटना कॉलेज के स्थापना-वर्ष 1963 में ही नियुक्त संस्कृत एवं अर्थशास्त्र के प्राध्यापक पं. रामलाल मिश्र उनके परदादा थे, जो प्राध्यापकी छोड़कर महामना पं. मदनमोहन मालवी के सम्पादन में कालाकांकर से प्रकाशित दैनिक ‘हिन्दोस्थान’ के सहायक सम्पादक हो गए थे और वर्षों रहे थे। दादा पं. सत्यरूप मिश्र ने राजकीय हाइ स्कूल, पटनासिटी के प्राचार्य-पद पर तथा बाद में जिला

विद्यालय-निरीक्षक के पद पर रहने पर पारोक्ष रूप से ‘बिहार-बन्धु’ के प्रारम्भिक सम्पादक-प्रकाशक श्रीमदनमोहन भट्ट तथा श्रीकेशवराम भट्ट की मदद किया करते थे। उनके अनुज पं. विश्वरूप मिश्र ने पटना के टेम्पल मेडिकल स्कूल (पटना मेडिकल कॉलेज का पूर्ववर्त्ती रूप) से डॉक्टरी पढ़ने के बावजूद आगरा से प्रकाशित मासिक ‘वेदान्तकेशरी’ तथा मुम्बई से प्रकाशित ‘वेंकटेश्वर-समाचार’ में सहायक सम्पादन बनकर काम किया। राजेन्द्र बाबू द्वारा सन् 1920 ई. में संचालित

साप्ताहिक ‘प्रजाबन्धु’ के प्रबन्ध निदेशक उनके पिता डॉ. विश्वेश्वरदत्त मिश्र थे उनका कार्यालय डॉ. मिश्र के कालीस्थान, पटनासिटी-स्थिति पुश्तैनी मकान में था। ‘बिहार-बन्धु’ का सन् 1922 ई. में पुनः प्रकाशन होने पर डॉ. मिश्र उनके प्रकाशन तथा मनोहरजी के मामा पं. प्रमोदशरण पाठक सम्पादक बने थे। बाद में पाठकजी ने अपने सम्पादन में मासिक ‘भूदेव’ निकाला, जिसके प्रकाशक भी डॉ. मिश्र ही थे। साला-बहनोई का यह पत्र हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में खूब लोकप्रिय हुआ।

सामाग्री के संकलन से लेकर ग्रंन्थ के प्रकाशन तक वर्षों गुजर गये। इस बीच हमारे कई सहयोगी रचनाकार हमें छोड़कर चल बसे। कभी-कभी लगता था कि यज्ञ कहीं अधूरा न रह जाय। इस सम्पादन-यज्ञ के प्रथम ऋत्विक डॉ. आनन्दनारायण शर्मा तथा श्रीनारायण भक्त हैं। सामग्री के संकलन में उनका ही भागीरथ-यत्न है। मैं तो रिले दौड़ में अन्तिम धावक हूँ।
मैंने कभी पत्रकारिता नहीं की। वृत्ति की दृष्टि से मैं ऐसे क्षेत्र से जुड़ा हूँ, जो पत्रकारों के
प्रहार के लिए प्रिय विषय होता है। लेकिन अन्य सहस्त्रों व्यक्तियों की भाँति मैं भी मनोहार जी से परोक्ष रूप से आत्मीय भाव से पिछले तीन दशकों से जुडा रहा हूँ। बाद में मेरे ज्येष्ठ पुत्र के साथ पत्रकारिता-साहचर्य ने आत्मीयता को आगे बढ़ाया। उनके अन्य दो पुत्रों-पंकजकुमार मिश्र तथा नवीनकुमार मिश्र ने भी पत्रकारिता को ही वृत्ति के लिए चुना। संयोगवश, सन् 1988 ई, में पटनासिटी में मैं अनुमण्डल-पदाधिकारी के रूप में पदस्थापित हुआ, तो मनोहरजी को अत्यन्त निकट से जानने-समझने का अवसर मिला। जिन्हें मैंने सिर्फ पत्रकार समझ रखा था, वे विराट पुरुष निकले।
क्या ही अच्छा होता, यदि किसी पत्रकार-बन्धु ने इस ग्रन्थ का सम्पादन किया होता।

तब कोई उन्हें अजनबी नहीं कहता, जैसा कि वे कहते हैं।
अजीमाबाद को केन्द्र मानते हैं, तो मनोहरजी के केन्द्रापसारी वृत्तों में हिन्दीभाषी आर्यावर्त्त के उनके अनगिनत स्नेहीजन रहे हैं। उनमें से कइयों को मलाल रह गया है कि इस ग्रन्थ में स्थान पाने से रह गये। उनमें पत्रकार हैं, अध्यापक हैं, संस्कृतिकर्मी हैं, कलाकार हैं, समाजसेवी हैं, राजनीतिज्ञ हैं, चिकित्सक हैं, प्रशासक हैं, व्यवसायी हैं, धर्माधिकारी हैं। वे समय की शिला पर अपने हस्ताक्षर नहीं कर पाये।

इस बीच मनोहर जी के जीवन में दो घटनाएँ घटीं। उन्हें हृदय-रोग के आघात से बचाने के लिए 28 नवम्बर, 1996 ई. को ‘अखिलभारतीय आयुर्विज्ञान-संस्थान’, नई दिल्ली में बाइपास शल्य-चिकित्सा की गईं। उन्हें पुनर्जीवन मिला। वे स्वास्थ्य लाभ कर ही रहे थे कि कैंसर-पीड़ित उनकी-संगिनी दमयन्ती अपने नल को 26 अक्टूबर, 1997 ई., को छोड़ चल बसीं और उन्हें आघात दे गईं। अपने झंझावातों तथा आघातों के बावजूद मनोहरजी हम सबके बीच हैं और निरन्तर स्नेहिल सुरभि बिखेर रहे हैं। स्वयं को अत्यंन्त सौभाग्यशाली समझते हैं, क्योंकि हम मनोहरजी के समकालीन हैं तथा उनके कृत्यों के साक्षी हैं।

हमारी दीर्घसूत्रता के बावजूद यह ग्रन्थ आपके हाथों में है। इसके लिए सुदीर्घ प्रतीक्षारत शुभेच्छुओं के प्रति आभार प्रकट करते हैं। दूर रहकर भी हमारे पास रहनेवाले डॉ. वेदप्रताप वैदिक के हम आभारी हैं, दिशा-निर्देश के बिना यह कृति इस रूप में सामने नहीं आ पाती। हम अन्तः कृतज्ञ हैं डॉ. श्रीरंजन के, जिनकी विशिष्ठ सम्पादन- मनीषा से इस अभिनन्दन-ग्रन्थ को मण्डित होने का सौभाग्य सुलभ हुआ। सामग्री-संकलन, सम्पादन, अर्थव्यवस्था, वर्ण-संयोजन तथा मुद्रण में अपने अनेकानेक सहयोगियों, विशेषकर सुश्री अनिता कर्ण, श्रीवीरेन्द्र विभावसु, श्रीप्रदीप जैन, श्रीशान्तिकुमार

जैन, श्रीसुमतिलाल जैन, श्रीताजबहादुर सिंह जैन एवं श्रीशिवगोपाल शर्मा के प्रति भी आत्मीय आभार प्रकट करते हैं, जिन्होंने यह यात्रा सफलतापूर्वक पूरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। वर्ण-संयोजन कार्य में ‘डिजाइनर’ के संचालक सर्वश्री प्रेमरंजन, राजू प्रसाद एवं संजयकुमार ने धैर्यपूर्वक हमें झेला है, इसके लिए हम उन्हें हृदय से धन्यवाद करते हैं। अन्त में, मैं अन्तरराष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त प्राच्यविद्या-प्रकाशन-प्रतिष्ठान ‘सर्वश्री मोतीलाल बनारसीदास’ के निदेशक श्रीजैनेन्द्रप्रकाश जैन का हृदय से आभारी हूँ कि उन्होंने इस ग्रन्थ को कलावरेण्य स्वरूप में प्रकाशित कर इसे एक विशिष्ट अभिज्ञान की गरिमा से मण्डित किया।

राय प्रभाकर प्रसाद

वसन्त-पंचमीः 1 फरवरी, 1998 ई.
बी-8, शान्ति विहार
जवाहरलाल नेहरू मार्ग
पटना-800014


पूर्वाभास



पत्रकारिता के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर पं. रामजी पं. ‘मनोहर’ सर्वात्मना पत्रकार हैं। इनके लिए पत्रकारिता सर्वाधिक सुखद एवं सर्जनात्मक अनुभव है। इन्होंने अपने वैदुष्य की विमलता, व्यक्तित्व की सरलता और संस्कारों की तरलता से पत्रकारिता को अनुकूल अवसर और अभिनव आयाम प्रदान किया है। पत्रकारिता इनके जीवन का पर्याय बन गई है।

वरिष्ठ पत्रकार मनोहरजी के सारस्वत व्यक्तित्व की रेखांकित करने योग्य विशेषता यह है कि इन्होंने प्राचीन और नवीन के बीच सम्बध सेतु का निर्माण किया है। पुराने पत्रकारों की परम्परा को सच्चाई और ईमानदारी से निबाहते हुए इन्होंने अपने पत्रकारिता-विषयक सिद्धान्त को पैसे और पद से बराबर ऊपर समझा जाता है सिद्धान्त की उपेक्षा उन्हें कभी सह्य नहीं हुई। यह प्राणान्तर पीड़ा को झेलकर और दुःसह दंश को पी-पचाकर पत्रकारिता के धर्म का निर्भीक निर्वाह करते हैं। यह जिस पत्र से जुड़े़, उसे अपनी प्रखर प्रतिभा से मण्डित करते रहे।

उदारमना मनोहरजी सर्जनधर्मी पत्रकार हैं। यह पत्र की सम्पादन- की कला के मर्मज्ञ तो हैं ही, पत्र के संचालन और प्रबन्ध की भी इनमें अपूर्व क्षमता है। सच पूछिए तो, मनोहरजी जन्मजात लेखक और पत्रकार हैं। किशोरावस्था से ही इन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में कठोर श्रम किया है। इनके जैसा बहिरन्तः समर्पित पत्रकार आज के पत्रकारिता- जगत में अंगुलिगण्य ही हैं।

पत्रकार अपने समय का इतिहास-निर्माता होता है। समाचार-पत्र की सार्थकता भी इसी में है कि उसमें जनता को विशुद्ध ऐतिहासिक सत्य से संवलित द्वेषमुक्त समाचार सुलभ करने की क्षमता हो। समाचारों के साथ निरन्तर जुड़े रहने और उन्हें सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करनेवाले सफल और कर्मठ पत्रकार मनोहरजी साहित्य, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, इतिहास, दर्शन, अध्याय, पुरातत्त्व आदि सभी विषयों की आधिकारिक जानकारी रखते हैं।

पत्र-सम्पादन-कला के मर्मज्ञ मनोहरजी ने समाचारों के आकलन की दृष्टि से यदि दैनिकों को समृद्धतर बनाने का अविराम प्रयत्न किया, तो समय के सहपद होकर ऐसी सामयिक रचनाओं की भी सृष्टि की, जिनसे दैनिकों की लोकप्रियता में प्रशंसनीय वृद्धि होती है।

धार्मिक, समाजोपयोगी, जीवनीपरक, राजनीतिक, ऐतिहासिक, पुरातात्त्विक की दृष्टि-भाषा-शैली, समद्ध शब्द-सम्पदा, पूर्ण भाषिक अधिकार, विषय-विन्यास और वस्तु-प्रतिपादन की विलक्षण क्षमता इनके आलेख की उल्लेखनीय निजात है।
मनोहरजी सूक्ष्मेक्षिका-सम्पन्न बहुश्रुत पत्रकार हैं। यह पत्रकारों में अहर्निश गतिशीलता के आकांक्षी हैं। पत्रकारों में जड़ता को यह मुत्युसम मानते हैं। अवसर का सदुपयोग, व्यापक उन्मुक्त दृष्टि, बहुमुख ज्ञान, नवीनता के सम्प्रयोग एंव मूल्यों के विनियोग को यह पत्रकारिता के लिए अपेक्षित आवश्यक गुण मानते हैं।

मनोहरजी उस युग के पत्रकार हैं, जिस युग में पत्रकारिता स्वतन्त्रता-संग्राम से जुड़ी हुई थी और प्रत्येक पत्रकार खादी पहनता था और अँगरेजों की कठोर कारा की दुर्विषह यातना झेलता था और फिर उस समय आज की तरह पत्रकार और साहित्यकार जैसा वर्ग-विभाजन भी नहीं हुआ था, इसलिए सभी पत्रकार साहित्यकार ही माने जाते थे। इस प्रकार, मनोहरजी साहित्यकार और पत्रकार दोनों के द्वैत के साथ अद्वैत बने हुए हैं।

आज मनोहरजी किसी पात्रिक संस्था से सम्बद्ध नहीं हैं। स्वतन्त्र लेखन करते हुए पत्रकार-धर्म का निर्वाह कर रहे हैं। इनमें नवीनतम जानकारी एकत्र करने और जनाहित की दृष्टि से कलम उठाने की प्रवृत्ति अपनी आयु की सात दशक से भी अधिक कालावधि में यथापूर्व विद्यमान है। इनका समग्र जीवन संघर्षजीवी होकर भी संघर्षजयी बना हुआ है।

लोक-शिक्षण और लोकोदय को ही पत्रकारिता का मुख्य धर्म माननेवाले मनोहरजी की भूमिका अपने पूर्वज पत्रकारों द्वारा स्थापित मानदण्ड या मूल्य को ततोऽधिक विकसित और समद्ध करने में एक उत्तम पुरुष की रही। उत्तम पुरुष वही होता है, जो पूर्वजों से प्राप्त सम्पदा को सुरक्षित रखकर उसे समृद्ध से समृद्धतर करता है। इस दृष्टि से मनोहरजी समग्र सारस्वत जगत् के लिए अभिनन्दनीय और अभिवन्दनीय उत्तम पुरुष हैं।

प्रस्तुत अभिनन्दन-ग्रन्थ में वरिष्ठ पत्रकार मनोहरजी के उपरिविवेचित गुण-वैशिष्टय का ही बहुकोणीय आकलन और आशंसन उपन्यस्त हुआ है, जिसमें इनके अपने जीवन के आठवें दशक में ऋद्धिपूर्ण प्रवेश की मंगलवेला में इनके हितैषियों, शुभानुध्यायियों, इष्ट-मित्रों स्वजन-परिजन और बन्धु-बान्धवों ने इनकी सर्वतोभद्र उपलब्धियों की आक्षरिक प्रदक्षिणा की है। यह जीवनावधि इनकी सुदीर्घ अक्षर-यात्रा का समापन-बिन्दु नहीं, प्रत्युत ऐसा विराम-बिन्दु है,

जहाँ से इनकी आक्षरिक साधना अथवा वाड़्मय तप की उपलब्धियों का आकलन किया जा सकता है। प्रस्तुत अभिनन्दन-ग्रन्थ इनकी इसी सारस्वत साधना के पर्यवेक्षण का मांगलिक अनुष्ठान है, साथ ही इनकी बहुपथीय कार्य-प्रक्रिया से आकीर्ण रचनात्मक जीवन की संघर्ष-कथा भी है।

प्रस्तुत अभिनन्दन ग्रन्थ में मनोहरजी की पत्रकारिता और सम्पादन से सन्दर्भित विविध प्रकल्पों का वर्चस्व प्रतिष्ठित है, साथ ही इनके पुरातत्तवेतिहास के प्रति सर्जनात्मक अनुराग और अनुसंधानमूलक प्रवृत्ति की प्रभावकारी पहचान का बहु-आयामी मूल्यांकन हुआ है। मनोहर भगवती आस्था के सम्पन्न अध्यात्मवादी व्यक्ति हैं। वैष्णवधर्म के साथ ही जैनधर्म और सिक्ख-धर्म का भी अनुशीलन इन्होंने किया है, जिसकी विशद चर्चा इस ग्रन्थ में हुई है। इसके अतिरिक्त इनके पारिवारिक जीवन के आख्यायिका भी अक्षरित हुई है।

अभिनन्दन-ग्रन्थ के आमन्त्रित लेखकों की जागरुकता एवं प्रज्ञापूत लेखनी ने मनोहरजी के जीवन की सार्थकता का आकलन इनके जीवन-मूल्यों और स्वार्जित उपलब्धियों के आधार पर किया है। यह और बात है कि प्रत्येक लेखनी का मापदण्ड और निकष भिन्न प्रकार का है। किन्तु लेखन-समष्टि का यह स्वर निर्विवाद रूप से मुखरित हुआ है कि मनोहरजी ऐसे मनोहर पुरुष हैं, जो अभावों और संकटों के आलवाल में पनपे, पले और बढ़े हैं,

किन्तु इन्होंने ऐश्वर्य और सत्ता के उत्तुंग शिखर पर अनपेक्षित मार्ग से पहुँचने की कामना कभी नहीं की। यह जीवन की सार्थकता की अनुभूति, समर्पित भाव से साहित्य और समाज की सेवा को जीवन-केन्द्र में रखकर करते और जीते हैं और सेवा-यज्ञ में अपनी आहुति देते रहते हैं। स्वाभिमान की रक्षा के लिए विपदाओं का स्वागत करना इनके स्वभाव और शील का अविच्छिन्न अंग बन गया है। ‘स्वावलम्बन’ और ‘पुरुषार्थ’ ही इनके सच्चे जीवन का सहचर्य हैं।

आजीवन धर्म के रथ पर आरुढ़ मनोहरजी ने कर्मपथ पर निरन्तर गतिशील रहकर ही अपने को अभिनन्दनीय बनाया है। वस्तुतः, इस अभिनन्दन-ग्रन्थ द्वारा उस विग्रहवान् पौरुष का अभिनन्दन किया गया है, जो कर्म को ही पूजा मानता है और कर्म ही जिसके लिए धर्म है।

सहृदयता मनोहरजी के व्यक्तित्व की विशेषता है। इनमें अध्यात्मप्रवण विचारक, कुशल पत्रकार, संवेदनशील मानव व्यवहारज्ञ, सद्गृहस्थ, गवेषणापटु इतिहास प्रेमी और पुरातत्त्वज्ञ जैसे व्यक्तित्वों का वैविध्य अन्तर्निहित है। मुख्य रूप से पत्रकारिता के क्षेत्र में रहकर भी इन्होंने अपनी सर्वतोमुखी लेखन-प्रतिभा सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं सामयिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने में किया।

यह अभिनन्दन-ग्रथ, जिन आत्मीयत्व-सिक्त लेखनियों के पावक अक्षर-सहयोग से अपना मनोज्ञ रूप ग्रहण कर सका है, उन सभी के प्रति मेरी अन्तः कृतज्ञता निवेदित है। सर्वोपरि अभिनन्दन-ग्रन्थ-समिति के मान्यास्पद सदस्यों के उस सारस्वत सत्प्रयत्न की मैं वन्दना करता हूँ, जिसके प्रभाव से उक्त लेखनियों का लेखन-श्रम सार्थक हुआ है और इस ग्रन्थ को आशंसनीय अभिनन्दनीयता प्राप्त हुई है।

मैं सत्यपुरुष श्रीजैनेन्द्रप्रकाश जैनजी के प्रति सहज ही प्रशंसामुखर हूँ कि उन्होंने इस महनीय ग्रन्थ के कलारमणीय प्रकाशन-यज्ञ में पुरुषार्थी पुरोध की श्रेष्ठतर भूमिका का सफल निर्वाह किया।
प्रस्तुत अभिनन्दन-ग्रन्थ एक पुरात्त्वेतिहासप्रेमी पत्रकार पर केन्द्रित शोधभूयिष्ठ आलेख-सामग्री का ऐसा संकलन है, जो पत्रकारिता और पुरातत्त्व, विशेषतः पाटिलपुत्र या प्राचीन पटना के पुरातत्त्व से सन्दर्भित विषयों पर प्रमाणित और विश्वसनीय शोधोपजीव्य सिद्ध होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।

डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव

बुद्ध-पूर्णिमाः दि. 11 मई, 1998 ईं.
पी. एन, सिन्हा कॉलोनी
भिखनापहाड़ी
पटना-800006


हमारे भइयाजी
डॉ. अख्तर हुसैन आफताब

श्रीरामजी मिश्र ‘मनोहर’ को मैं लगभग 40 वर्षों से जानता हूँ। इनका व्यक्तित्व, इनका अध्ययन, इनकी दृष्टि और इनका चरित्र महान् है। मैं हर दृष्टिकोण से इनसे बहुत छोटा हूँ। मेरी इच्छा हुई कि मैं भी कुछ ऊपर उठूँ और इसलिए मैंने अपना नाता इनसे जोड़ लिया। मैं इन्हें ‘भइयाजी कहा करता हूँ। इन्हें ‘भइयाजी’ कहने से ऐसा लगता है कि मैं भी कुछ ऊपर उठ गया।
श्रीरामजी मिश्र ‘मनोहर’ एक महान् पत्रकार हैं। एक पत्रकार की हैसियत से ये जो लिखते हैं, वह निष्पक्ष हुआ करता है। कुछ पत्रकारों में राजनीति की प्रेरणा पाई जाती है। ऐसे पत्रकार जिस सिद्धान्त से प्रेरित रहते हैं, वे उसी सिद्वान्त के प्रकाश में तथ्यों को प्रस्तुत करते हैं। ऐसी बात एक सच्चे पत्रकार को शोभा नहीं देती। हमारे भइयाजी की दृष्टि उदार है। इनका सिद्धान्त सच को सच कहना और झूठ को झूठ कहना है। ये जो भी लिखते हैं, उसका लक्ष्य जनता को शिक्षित करना होता है।
हमारे कुछ पत्रकार वही लिखते हैं, जो कि प्रबन्धन उनसे लिखवाना चाहता है। हमारे भइया जी प्रबन्धकों के सामने कभी घुटने टेकने वाले नहीं हैं। ये वही लिखेंगे, जो सत्य हो और इनकी आत्मा को स्वीकृत हो ! दूसरे शब्दों में हम गौरव के साथ यह कह सकते हैं कि श्रीरामजी मिश्र ‘मनोहर’ एक निर्भीक पत्रकार हैं।

हमारे पत्रकार अपनी पत्रकारिता में उन लोगों के विचार प्रकाशित करते हैं, जिनसे प्रेस को बड़े-ब़ड़े विज्ञापन प्राप्त होते हैं। वे तर्क देते हैं कि यदि बड़े विज्ञापन देनेवालों की भावनाओं का सम्मान नहीं किया गया, तो प्रेस की आर्थिक स्थिति बिगड़ जायगी। हमारे भइयाजी ऐसी बात कभी नहीं सोचते। एक पत्रकार होने की हैसियत से इनके सामने भी बहुत सारी कठिनाइयाँ आती रही हैं, लेकिन कदम कभी डगमगाये। ये उस कमल के स्वरूप हैं, जिसकी जड़ तो मिट्टी और कीचड़ में हुआ करती है, लेकिन फूल पानी की सतह पर अपने आकर्षण और अपनी सुन्दरता के साथ दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित करता है।

हमारे भइयाजी हिन्दू-मुस्लिम-एकता के बहुत बड़े समर्थक हैं। इनका विचार है कि भगवान् एक है, इसलिए सभी मनुष्य, जिन्हें भगवान् ने पैदा किया है, आपस में भाई हैं ! व्यक्ति किसी भी धर्म में विश्वास रखता हो, व्यक्ति चाहे मन्दिर जाता हो, चाहे मस्जिद, गुरुद्वारे जाता हो या गिरिजाघर, उसी एक भगवान् के सामने अपना सिर झुकाता है और उसी को पाना चाहता है। भिन्न-भिन्न मार्ग हैं, जो कि हमें उसी भगवान् के चरणों में ले जाते हैं और उसी प्रकाश की ओर पहुँचाते हैं। मनुष्य को धर्म के नाम पर एक दूसरे से प्रेम करना चाहिए। हमारे भइयाडजी का यह विचार हमारे कानों में बराबर गूँजता रहता है- ‘‘धर्म वह है, जो दानव को मानव बनाये और मानव को देवता बनाये।’’ भइयाजी के इस कथन को मैं हमेशा याद रखता हूँ।

भइयाजी केवल एक पत्रकार ही नहीं, एक इतिहासकार भी हैं,। पटना, जो प्राचीन काल में पाटिल पुत्र के नाम से मशहूर था और महान अशोक की राजधानी भी था, दुनिया के प्राचीन शहरों में एक है। यहाँ अनगिनत ऐतिहासिक स्मारक हैं। इन स्मारकों में कुम्हरार में महान् अशोक का स्तम्भ, शेरशाह की मस्जिद, पादरी की हवेली गिरिजाघर, पटना सिटी का इसाइयों का कब्रिस्तान-पटनदेवी जी का प्रसिद्ध मन्दिर, अगमकुआँ, श्रीमहावीर-मन्दिर, दीवान बहादुर राधाकृष्ण जालान का संग्रहालय, श्रीतख्त हरिमन्दिर जी, सैफ अली खाँ की मदरसा-मस्जिद, मालसलामी का प्राचीन टकसाल वर्तमान सर्वें ऑफिस (प्राचीन अफीम गोदाम) गोलघर इत्यादि प्रसिद्ध हैं।

हमारे भइयाजी ने पटना में जितने भी ऐतिहासिक स्थान हैं, उन सब पर कुछ न कुछ जरूर लिखा है और इसलिए लिखा है कि हम अपने पूर्वजों को न भूलें।

भइयाजी के लेख हिन्दी एंव अंग्रेजी-समाचारों में बराबर प्रकाशित हुआ करते हैं। इनके लेखों में इतिहास की कड़ियाँ रहती हैं। इनके लेख बड़े ही लाभदायक और ज्ञानवर्धक हुआ करते हैं। सच पूछिए तो, हमारे भइयाजी अपने-आप में पटना के एक जीते-जगाते और चलते–फिरते इतिहास हैं।

मैं भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि वे इन्हें हर तरह से स्वस्थ रखें और दीर्घायु बनायें, ताकि इनकी कलम से जो प्रकाश हम सब लोगों को मिलता रहा है, वह एक लम्बे समय तक मिलता रहे। मैं भइयाजी को एक महान् पत्रकार तो समझता ही हूँ साथ ही अपना बड़ा भाई भी मानता हूँ। मैं कामना करता हूँ कि मुझे मेरे परिवार को और मेरे मित्रों को भइयाजी का आशीर्वाद हमेशा मिलता रहे।


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