लोगों की राय

संस्मरण >> इन बिन

इन बिन

पदमा सचदेव

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :111
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4561
आईएसबीएन :81-263-1302-1

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

389 पाठक हैं

डोगरी की सुप्रसिद्ध कवयित्री, हिन्दी कथाकार पद्मा सचदेव की नवीनतम कृति इन बिन

In Bin

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

डोगरी की सुप्रसिद्ध कवयित्री, हिन्दी कथाकार पद्मा सचदेव की नवीनतम कृति है-‘इन बिन....’। पद्मा जी लिखती हैं: गुजरे हुए वक्त में हैसियत वाले लोगों के घरों में काम करनेवाले नौकर-चाकर पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने मालिकों के साथ रहते हुए उस घर के सदस्य जैसे हो जाते थे।...बहुत से घरों में तो बुजुर्ग हो जाने पर ये नौकर घरेलू मामलों में सलाह भी देने लगते थे।...इन रिश्तों के और भी बहुत से पहलू हैं, पर मैं को सिर्फ यह जानती हूँ कि आज भी इनके बिना घर-गृहस्थी के संसार से पार होना बड़ा मुश्किल है।
पद्मा जी कहती हैं : इस सफर में जो भी आत्मीयता से मिलकर साथ चले वे तो हमेशा से ही संग रहे, पर जो लोग राह में आगे-पीछे हो गये उन सभी की स्मृतियाँ भी मैंने अपने अन्दर परत-दर-परत सहेजकर रक्खी हुई हैं। उन्हीं के बारे में यह पुस्तक ‘इन बिन....’।

इन बिन...

जब भी युग बदलता है वह अपने साथ नया बाँकपन, नयी सुबहें, नयी शामें, नये क़ानून, नये विधान, नये लोग, नयी मुहब्बतें लेकर आता है। हर चीज़ पुरानी होते हुए भी नये तेवर के साथ जैसे नया जन्म ले लेती है। अगर कहीं कुछ नहीं बदला तो वह है बच्चे की मुस्कान, माँ की ममता और मुहब्बतों का दीवानापन। हाँ, कभी-कभी रिश्ते भी जन्मों तक साथ देते हैं।
गुजरे हुए वक़्तों में हैसियत वाले लोगों के घरों में काम करनेवाले नौकर-चाकर, पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने मालिकों के साथ रहते हुए उस घर के सदस्य जैसे हो जाते थे। उनके बच्चे भी वहीं आँगनों में खेल-खेलकर बड़े हो जाते, वहीं मालिकों के बाग़ों से अमरूद, सेब, इमली या सन्तरे चुराते, उनके बच्चों की उतरन पहनते, उनके आँगनों में सर्दियों में ठिठुरते हुए कोई पुराना बूट, स्वेटर या घिसा कम्बल भी पा जाते थे। नौकरों का पूरा परिवार ही अपनी सेवाओं से मालिक-मालकिनों को खुश करने की कोशिश करता। रात को मालिक के पाँव दबाते-दबाते ऊँघने पर वहीं कहीं पलंग के नीचे ढेर हो जाता। जगने पर दयावान मालिक उसे नौकरी भी दे दिला देता।

बहुत से घरों में तो बुज़ुर्ग हो जाने पर ये नौकर घरेलू मामलों में सलाह भी दे सकते थे। घर की बेटी की विदाई पर इन्हीं नौकरों की पत्नियाँ घर की बिगड़ैल बेटी को ससुराल में जमाने की भरसक कोशिश करती थीं। मालिक और नौकर का यह रिश्ता निरन्तर मज़बूत होता जाता था। इन रिश्तों के और भी बहुत पहलू हैं, पर मैं तो सिर्फ यह जानती हूँ कि आज भी इनके बिना घर-गृहस्थी के संसार से पार होना बड़ा मुश्किल है। घर में इन लोगों को अपना समझते-समझते कई बार इनके जाने पर मैं उदास रही, पर जितने भी दिन जो भी घर में रहा, मैंने उसे घर का सदस्य ही समझा और उसके जाने पर खूब दुखी भी हुई। आज भी अगाहे-बगाहे कोई मिलने को आ जाता है तो मन में एक आन्तरिक खुशी सर उठा लेती है। आज भी इन बिन गृहस्थी ठीक से नहीं चल पाती। मैं उन सब लोगों पर लिखकर शायद हल्का होना चाहती हूँ और शायद एक कर्ज़ भी उतारना चाहती हूँ।
घरेलू कर्मचारियों में जिसका नम्बर घर में और ज़िन्दगी में पहला है उसका नाम लब्भू था। माँ बताती थीं, जब मैं पैदा हुई तब उसे आये कोई बरस-भर हुआ था। बचपन में उसने मुझे गोद में खिलाया, कन्धे पर बिठाकर सैरें करवायीं और घुटनों पर बिठाकर झूले झुलाये थे। घर में अक़्सर उसका ज़िक़्र होता था। कुछ बरस पहले उसने मुझे देखा तो मेरी माँ से पूछा, ‘‘चाची, क्या यही हमारी पद्दो है ?’’ माँ ने कहा, ‘‘क्या पहचान नहीं पा रहा ?’’ वह बोला, ‘‘पहचान लिया। इसका नाम तो रामबन के रेडियो पर भी आता है।’’ वह मेरी नक़ल लगाता हुआ कहने लगा—
‘‘हुन तुस डोगरी च ख़बराँ सुनो।’’
(अब आप डोगरी में खबरें सुनिए)

माँ मुझे कभी-कभी पद्दो भी कहती थी पर यह घटना तभी होती जब माँ को मुझ पर बहुत प्यार आता था, पर इसका मौक़ा मैं उन्हें बहुत कम देती थी। मेरी हरक़तों से अक्सर माँ गुस्सा रहतीं। घर में उनका हाथ बँटाने के लिए मैं कभी कुछ न करती थी। पर बाहर या बाज़ार में कोई भी काम करने को मैं हमेशा तैयार रहती थी। माँ बड़ी कर्मठ औरत थीं। उन्हें सब खुद करना अच्छा लगता था। लब्भू भैया जब भी मिलते कोई न कोई पुरानी बात ज़रूर सुनाते थे। मुझे सुनाते हुए कहते, ‘‘जब पद्दो पैदा हुई तो हमारी दादी ने खूब नाक-भौं सिकोड़ी थी। उनको सब बेबे कहते थे। बेबे का कहना था कि बहू ने आते ही मेरे बेटे पर बेटी लाद दी। उधर मेरे पिताजी बहुत प्रसन्न थे। पिताजी ने बेबे को कहा, ‘‘यह लक्ष्मी है मैं इसे सरस्वती बनाऊँगा। ये विदुषी होगी। पिताजी ने मेरे पोतड़े बनवाने के लिए उन दिनों खूब चलनेवाले चाबी के लट्ठे के तीन थान लाकर दिये। बेबे ने पोती के लिए अपनी पुरानी घिसी-पिटी मलमली चादरों के पोतड़े बनाकर देते हुए कहा, ‘‘इसकी माँ कौन महाराजा हरिसिंह की बेटी है जो इसके लिए चाबी के लट्ठे के पोतड़े बनवाऊँ। बाद में सुनने में आया था लट्ठे के तीनों थान बेबे ने अपनी तीनों बेटियों को दे दिये थे। बेबे के सामने कोई कुछ न कहता था।

लब्भू भैया जब मुझे यह बात सुनाते तो मैं अपनी दादी की सफाई में कहती, ‘‘बेव्बे ने सोचा होगा मेरी पोती को लट्ठे के कड़क थान क्यूँ चुभें।’’ लब्भू भैया कहते, ‘‘जा-जा पद्दो, तुझे बड़ा पता है। तुमने बेबे को कहाँ देखा, बेव्बे भी तुम्हें न देखती थी पर चाचाजी बहुत खुश थे इसलिए बेबे ज़्यादा कुछ न कहती थी। चाचाजी ने बड़े प्यार से तुम्हारा नाम पद्मा रखा।’’
माँ बताती थी—लब्भू भैया को गठिया हो गया था। पिताजी ने लाहौर के किसी अस्पताल में दाख़िल करवाकर अँग्रेज़ डॉक्टरों से लब्भू भैया का इलाज करवाया था। लब्भू भैया पिताजी का यह एहसान कभी न भूले। पिताजी ने बाद में उन्हें एक हलवाई की दुकान पर नौकर रखवा दिया था। उसके बाद उन्होंने रामबन में चिनाब नदी के किनारे दूध-दही की अपनी दुकान खोल ली थी। हमारे यहाँ जब भी आते कलाड़िया (दूध-दही से बना एक तरह का पनीर) ज़रूर लाते। इसके आलावा कई और पहाड़ी सौगातें लाना भी न भूलते। माँ को चाची-चाची कहकर अपना पसन्दीदा खाना बनवाते—‘‘चाची आपके हाथ का राजमा, अम्बल खाये एक ज़माना हो गया।’’ माँ प्रसन्न होकर लब्भू भैया की फरमाइशें पूरी करतीं। उनके ब्याह के कई चर्चे होते पर ब्याह कभी न हुआ इस बात का दुःख उन्हें हमेशा रहा।

असल में जो बात बताने से मैं बच रही हूँ वह यह है कि लब्भू भैया रिश्ते में हमारे भाई ही लगते थे। हमारे एक दूर के ताऊ अपनी ज़मीनों पर कई-कई दिन रहते तो वहीं की एक स्त्री से इन्होंने किसी क़िस्म की शादी कर ली थी। उनकी पत्नी—हमारी ताई—उनको घास न डालती थी। इसलिए ताऊ जी भी उनसे बचने के लिए ज़्यादा समय खेती-बाड़ी की देखभाल पर लगाने लगे। फसलें तो अच्छी हुईं ही लब्भू भैया भी दुनिया में आ गये। उस गाँव में सब जानते थे पर ताई को बताने की हिम्मत किसी में न थी। जब ताऊ भगवान को प्यारे हुए तो हमारी ताई ने लब्भू भैया की माँ को उनके अन्तिम दर्शन भी न करने दिये। लब्भू भैया को लेकर वह ज़मीनों पर ही किसी तरह गुज़र कर रही थी। उनकी मृत्यु के समय लब्भू भैया दस-बारह बरस की उम्र में ही जब यतीम हो गये तो मेरे पिताजी उन्हें घर ले आये। अन्त तक हमारे परिवार से लब्भू भैया जुड़े रहे।

बहुत साल पहले माँ ने एक जगह टिप्पस भिड़ायी भी थी। बड़े अच्छे घर की विधवा औरत थी। उसकी एक बेटी भी थी। उस औरत के ससुराल वाले उससे इसलिए नाराज़ थे कि अपने पति की पेंशन उसे मिल गयी थी और वह अकेली रहती थी। शहर में अपनी लड़की को स्कूल में डाला था उसने। लब्भू भैया मेरी माँ से पूछकर उसे ‘नल-दमयन्ती’ फिल्म दिखाने भी ले गये थे पर बात इससे आगे न बढ़ी। उस औरत ने एक दिन मेरी माँ को आकर कहा, ‘‘मेरी बेटी की सोचिए, कल जब इसकी शादी होगी तो बाप की जगह मैं लब्भू को तो खड़ा नहीं कर सकती, मुझे माफ़ करिए।’’ वह अपनी लाड़ली बेटी को लेकर चली गयी और माँ ने उसे माफ़ कर दिया।

लब्भू भैया ने पहाड़ की एक औरत कई बरस तक घर में रखी पर उससे शादी करना न चाहते थे। माँ कहती, ‘‘इस मुए को कहा था इसी पहाड़िन से शादी कर लो पर ब्राह्मण होने का इतना दम्भ मैंने किसी भी ब्राह्मण में नहीं देखा। पता नहीं इसे ब्राह्मणों ने क्या दिया। अपने बाप ने तो नाम तक दिया नहीं। रहा ब्राह्मण का ब्राह्मण ही। ब्राह्मणी ने कभी घर की देहरी न लाँघी। मुआ कुँआरा ही मरकर भूत बनकर इस दुनिया में रहेगा।’’

मरने से पहले ही लब्भू भैया ने पड़ोस के एक लड़के नाम अपनी दुकान करवा दी थी। उन्होंने कहा, ‘‘तुम साल-भर मुझे नेति (रोज़ एक वक्त का खाना किसी दरख़्त के नीचे रख देना) देना, मेरा दाह संस्कार करना और साल बाद मेरी बरसी कर देना। उस लड़के ने लब्भू भैया का क्रिया-करम एक पुत्र की तरह से ही किया और मेरा ख़्याल है हर बरस श्राद्ध भी करता ही होगा। लोग ज़िन्दा मनुष्यों से उतना नहीं डरते जितना मरे हुओं से डरते हैं। मेरी माँ कहती—‘‘जीने से ज़्यादा उसे मरने की चिन्ता थी, बस उसी का इन्तज़ाम सारी उम्र करता रहा। ब्राह्मण होने का बड़ा अभिमान था उसे !’’

पिछले दिनों घर में शादी थी तो भी लब्भू भैया आये थे और उन्होंने बताया था कि मैं तो हाथ में गठरी लिये रहता हूँ अब जब भी उसका बुलौआ आ जाय। चिनाब दरिया की लहरों को देखता रहता हूँ। दुकान का काम भी चलता ही रहता है।
यह पहला घरेलू कर्मचारी था जिसके बारे में मैंने जाना। उनकी इज़्ज़त करना माँ ने ही सिखाया था। लब्भू भैया उम्र में बड़े होने पर भी माँ के पाँव छूते और इज़्ज़त करते। माँ जब तक हिम्मत थी अपने छोटे बेटे को लेकर रामबन चली जातीं और कई-कई दिन रहकर आतीं। आकर खूब खुशी से बतातीं :
‘‘इस मुए को अच्छा खाना कहाँ नसीब है। मैं उसकी पसन्द का सबकुछ खिलाकर आयी हूँ।’’
आज न माँ हैं, न भैया। पर उनका वह सम्बन्ध आज भी क़ायम है। माँ के कहने से हम उनका पूरा सम्मान करते रहे। मान्यता भले ही न मिली हो पर रिश्ते में तो भाई ही लगते थे।

जम्मू में मेरी सबसे बड़ी बुआ की इतिहास में ख्यात, उस वक्त के रियासत के प्रधानमन्त्री जल्ला पंडित के प्रपौत्र से शादी हुई थी। घर एकदम पास था। उनकी पौत्रियाँ बचपन से ही मुझे अपने घर से जाने न देती थीं। मैं आती-जाती रहती थी। उनके घर में एक नौकर था रामलाल। घर के सब काम तो करता ही था बाहर के चक्कर भी वही लगाता था। मशीन पर इतने सुन्दर कपड़े सिलता था कि बाज़ार के दर्जी भी हैरान रह जाएँ। जब वह मशीन चलाता तब मैं उसकी हत्थी घुमाती रहती। आज भी मैं मशीन चलाऊँ तो उसी झटके से शुरू करती हूँ। वह हमेशा याद आ जाता है। एक बार टायफायड होने से मेरे सारे बाल गिर गये थे तो बुआ जी के पुत्र पं. महेन्द्रनाथ शर्मा जी ने मेरा नाम गौरैया रख दिया था। डोगरी में ‘गटारी’ कहते हैं। सब मुझे गटारी कहने लगे। वह रामलाल भी गटारी ही कहता था। एक दिन उसने मुझे धीरे से कहा, ‘‘बुआ, मुझे एक कार्ड लिख दोगी ?’’ मैं बुआ सम्बोधन से प्रसन्न थी। कार्ड लिख दिया। उसने कहा, लिखो कि मैं पाँच-सात दिन के लिए आ रहा हूँ। फिर वह घर चला गया। जब वहाँ से लौटा तो आते ही पूछा, ‘‘कहाँ है गटारी ?’’ मैं माँ के पास थी। जब आयी तो उसने मुझे डाँटकर कहा, ‘‘ऐ गटारी, तुमने चिट्ठी में क्या लिखा था।’’ मैं हतप्रभ ! मैंने कहा, ‘‘तुमने जो बताया वही लिखा और क्या लिखती।’’ सब लोग मेरी तरफ देख रहे थे। कहानी तो वह पहले ही सबको सुना चुका था। उसने कमीज़ की जेब में से कार्ड निकाला और कहा, ‘‘ये कार्ड पढ़िए, इस गटारी ने मेरी सारी छुट्टियाँ बरबाद कर दीं। बदनाम हुआ तो अलग। पूछो, पूछो इसको, इसने कार्ड में क्या लिखा है। अब देखो जी, मैं गाँव में पहुँचता था तो बस अड्डे से ही सब मेरे साथ हो लेते थे। इस बार मेरे साथ किसी ने बात तक न की, जिसे देखूँ वह मुँह फेरकर आगे हो ले। अब जैसी ही मैं घर पहुँचा, मेरे पिता मुँह फेरकर बैठक में जाकर हुक्के की नली मुँह में लेकर बैठ गये। माँ ने देखा तो बुक्का फाड़ कर रोने लग गयी। किसी ने बैठने तक को न कहा। मैं ढीठ होकर चारपाई पर बैठ गया। मन में सोचा, पता नहीं घर में क्या अनहोनी हुई है, कहीं कोई मर तो नहीं गया। मैंने ध्यान लगाया तो मालूम पड़ा घर में न कोई बूढ़ा है, न बीमार। मैंने गुस्सा होकर जोर से माँ से पूछा, ‘बताओ !...कोई मर गया है क्या ?’ माँ ने रोते-रोते कहा, ‘और कौन मरेगा। ऐसा पूत करने के बाद मैं ही मर गयी हूँ। हे भगवान, मुझे उठा ले।’ मुझे गुस्सा आ गया, मैंने कहा, ‘साफ़-साफ़ क्यूँ नहीं बताती क्या हुआ है ?’ माँ ने चादर में लिपटा कार्ड लाकर मेरे आगे रख दिया। ‘ये कार्ड देखो क्या लिखा है तुमने।’ माँ ने मुँह बिचकाकर कहा।

‘‘मेरी प्यारी लाड़ी जी
(मेरी प्यारी पत्नी)
‘‘फिर माँ ने सिर पर दुहत्थड़ मारकर कहा, ‘अरे इतनी ही प्यारी थी तो साथ क्यूँ न ले गया। घर का काम मैं खुद कर सकती हूँ। मुझे इस रामलीला की ज़रूरत नहीं है। इन बूढ़ी हड्डियों में अभी भी इतनी ताक़त है कि हम दो जीव आराम से खाना खा सकें।’
‘‘तभी भीतर से आकर पिता ने और चिनगारी भड़का दी। कहने लगे--‘रामलाल की मां, ऐसा कपूत जना है तुमने कि क्या कहूँ। हमारे बुज़ुर्गों ने कभी दिन में पत्नी का मुँह भी न देखा था, कभी पत्नी से बात तक न की और ये लिख रहे हैं—मेरी प्यारी लाड़ी जी। बेशर्म औलाद। सारे गाँव में बदनामी हुई सो अलग।’
‘‘मैं बताओ जी क्या कहता ? हाथ में कार्ड लेकर बेशर्मों की तरह बैठा इस गटारी को गाली देता रहा, चुड़ैल कहीं की !’’

मेरी बात सुनने को कोई तैयार न था। रामलाल सबको हँसते देख थोड़ा नाराज़ होकर बोला, ‘‘आप हँस रहे हैं पर मेरे हाल पर मुझे रोना आ रहा था। एक तो इस गटारी को मशीन पर कपड़े सिलने सिखा रहा हूँ ऊपर से इसने मेरा जनाज़ा ही निकाल दिया। मुझे क्या पता था ये इतनी ख़तरनाक चिट्ठी लिखेगी। मेरी बीवी भी मुझसे बात करने को तैयार न थी। ज़्यादा ताने तो सुबह-शाम उसी को सुनने पड़ते थे। बड़ी आयी ‘मेरी प्यारी ला़ड़ी जी’ ! लानत है ऐसे जीने पर। मेरी लाड़ी तो रोती रहती थी। मैंने किसी तरह उसे समझा तो लिया पर कान को हाथ लगाता हूँ, अब इस गटारी से कभी चिट्ठी न लिखवाऊँगा मैं। आज के बाद इसका कोई कपड़ा भी न सिलूँगा और अपनी मशीन को हाथ भी न लगाने दूँगा। और तो और, वहाँ बाज़ार में भी सब लोग मखौल उड़ाते थे। मेरी तो तौबा !’’

मेरी बुआ के घर में सब लोग मज़ा ले रहे थे और उसको उकसा भी रहे थे। थोड़ी देर बाद उसे समझ आ गयी और वह यह कहता हुआ कुत्ते की जंजीर खोलकर उसे बाहर घुमाने ले गया कि मैं भी क्या पागल हूँ यह तो सारा खानदान ही हत्थी से उखड़ा हुआ है। हालाँकि उसकी तनख्वाह सात ही रुपये थी पर पूरे घर पर शासन उसी का चलता था।
ज़िन्दगी में कई मोड़ काटने पर जो तीसरा घरेलू कर्मचारी याद आता है वह मेरे पति सरदार सुरिन्दर सिंह जी के घर का है। उसका नामकरण भी शायद मेरी ससुराल में ही हुआ था। उसे सब निक्कू कहते थे। इस तरह का चरित्र तो भगवान भी बड़ी सोच के बाद तैयार करते हैं। उसे देखकर आप सिर्फ किसी दीवाने की ही कल्पना कर सकते हैं। पर निक्कू ने सबको दीवाना बना रखा था। वह अक्सर आता और घर के सब लोग उसे निक्कू-निक्कू कहते। काम किये बग़ैर वह कुछ न खाता था। चाहे चार गिलास धोकर डबलरोटी-सब्ज़ी खा ले पर हराम की कमाई को हराम समझता था। खा-पीकर अक्सर वह आँगन में खड़े होकर मेरी सास को कहता—

‘‘बीजी, आपने तेजपाल बाबू जी की शादी करवा दी। हिट्टे बाबू जी (मेरे पति) की शादी हो गयी पर आपको मेरा ख़्याल नहीं आया। मैं भी तो शादी के लायक हो गया हूँ। अब कैसी ये बीवियाँ हैं—तेज़पाल बाबूजी की बीवी तो कहीं नज़र ही नहीं आती और हिट्टे बाबू जी की बीवी बस चप्पल पहनी और बाहर, घर में तो बैठती ही नहीं। अब शादी हो गयी है तो घर देखो, नौकरी की क्या ज़रूरत है भई ! हिट्टे बाबू जी की समझ भी कम है। अगर शादी करवा देंगी तो मेरी बीवी भी यहाँ काम कर सकती है। बीजी को आराम रहेगा—पर नहीं, मेरी शादी की इनको फ़िक्र नहीं है। अच्छा चलता हूँ। शादी मेरी करवा देती तो मैं अपनी बीवी को इनके पास ही सेवा के लिए रखता।

शिवजी की तरह मेरे पति भी क्रोधी हैं। घर में सब उन्हें हिटलर कहते थे फिर यह बिगड़कर हिट्टा हो गया और मैं हिट्टे की पत्नी। यह सिरफिरा निक्कू इनको हिट्टा बाबू जी कहता था। उसका नाम तो निक्कू था पर घर में छोटे बच्चे या बुज़ुर्ग की हैसियत रखता था। मुझे तो अक्सर डाँट देता था। मैं हँसती रहती थी। असल में हमारे पास या हमारे साथ जो लोग रहते हैं उनके बारे में हम बहुत कम जानते हैं और वह भी ज़्यादातर अपनी बात नहीं करते। पर निक्कू इन सबसे जुदा था। उसके बारे में हर कोई जानता था। उसकी अपनी बड़ी दिलचस्प कहानी थी। कहानी कुछ यूँ है—

दूसरे महायुद्ध में कुछ बच्चे भी शामिल होते थे। छोटे-मोटे कामों के लिए इनकी ज़रूरत पड़ती थी। सामान इधर-उधर ले जाना, पर्दे खींचना, चिट्ठियाँ व सन्देश इधर-उधर ले जाना ये सब काम इन्हीं बच्चों के द्वारा लिया जाता था। हमारा निक्कू भी वहाँ परदा खींचता था। परदों की बात याद करके वह कहता था—जब मैं परदा खींचता था तो बड़ी सुन्दर मेमें नाचती थीं। मैं बस उन्हें देखता रहता था। कभी किसी मेम से बात करने की हिम्मत न होती थी पर वह सब मुझे जानती थीं। निक्कू का घर छोटा शिमला में था। वह जुलाहों के गाँव से था, उसकी सबसे बड़ी गाली होती थी ‘धोबी’। क्यूँकि जुलाहों द्वारा बुने कपड़े धोबी ही धोते थे। जो सबका मैला धोता हो। धोबी से बड़ी गाली क्या हो सकती है। निक्कू की शादी हो चुकी थी। जब वह दूसरे महायुद्ध में चला गया तब नौ बरस तक अपनी सारी तनख्वाह पत्नी के नाम गाँव भेज देता था। जंग खत्म हुई तो उसने सोचा अब आराम के दिन आ गये हैं। घर जाकर सुख की साँस लूँगा। अब गाँव में उसके आने की उम्मीद किसी को न थी। उसके भाई ने उसकी पत्नी को रख लिया था और हर महीने आने वाली तनख्वाह से ऐश कर रहा था। गाँव जाकर जब उसे असलियत मालूम हुई तो वह भागकर दिल्ली आ गया। दिल्ली में वह इरविन स्कूल की एक टीचर को जानता था। उसके पास आया तो उसने उसका ख़्याल रखा। उसे वहाँ काम करके जो रूखा-सूखा मिलता, खा लेता। कभी डबलरोटी, कभी चाय, कभी बन्द। थोड़ा फ़ाकामस्त था पर उस टीचर को नौकर की ज़रूरत न थी। मेरी ननद भी उन दिनों लेडी इरविन स्कूल में टीचर थीं। उनके साथ बात हुई तो वह इसे हमारे घर में ले आयीं। वह अपनी साइकिल पर बिठाकर इसे लायी थीं, पर यह इतना हाँफ रहा था जैसे साइकिल के साथ दौड़ता हुआ आया हो। तभी मालूम हुआ कि इसे खाने में बहुत कम मिलता था। ऊपर से इसे सिगरेट-बीड़ी का भी शौक था। सिगरेट को भी बीड़ी कहता था। निक्कू को बहुत गुस्सा भी आता था और गाली बकने में भी कम न था। उसकी सबसे बड़ी गाली होती थी, ‘धोबी’। गुस्सा आने पर कहता, ‘‘मेरा अनाज खा-खाकर सब मोटे हो रहे हैं धोबी कहीं के। साले मेरी ही रोटी खाते हैं और मुझे ही आँखें दिखाते हैं।’’   

मेरी मँझली ननद की शादी हुई तो ज़ाहिर है वह ज़्यादा ससुराल में ही रहतीं। कभी-कभी मैके में मिलने या एक-दो-दिन रहने आती थीं। उसे उनकी ग़ैर-हाज़िरी बड़ी खराब लगती थी। वह यह तो न कहता कि आपके जाने से घर खाली-खाली लगता है पर अपने मन का गुस्सा यूँ प्रकट करता—
‘‘उन्होंने दो कपड़े और गहने क्या दे दिये कि वहीं जाकर रहने लगी। सोने की चूड़ी पहनकर घूमती है। अब बहुत हो गया अब वापिस आ जाओ।’’ मेरी सास उसे समझाने की कोशिश करतीं और डाँटकर कहतीं, ‘‘बेटियों को ऐसे नहीं कहते। उन्हें उनके घर में ही रहने को कहना चाहिए। वहीं सुखी रहे तो हम भी सुखी होंगे।’’ तब कहीं जाकर वह माना।

मेरे पति बताते हैं कि इसकी इन्हीं आदतों के मारे उसे कई बार घर से निकाल दिया जाता था। तब वह घर के बाहर दो-दो दिन भूखा बैठा रहता। फिर उसे बुलाकर खाना देते तो कहता—‘‘मैं काम किये बग़ैर खाना न खाऊँगा।’’ मेरी सास कहतीं, ‘‘चल गिलास धो, फिर खा लेना।’’ गिलास धोते ही वह खाने पर टूट पड़ता। दिल्ली की कड़ाकेदार सर्दी में जब वह छत पर रज़ाई लेकर सोता तो सब उसे कहते, ‘‘इतनी ठंड में छत पर क्यूँ सो रहा है...अकड़कर मर जाएगा।’’ तब उसका तर्क होता—‘‘आप लोग पागल हैं, जिस छत पर सारा दिन धूप रहती है वह ठंडी कैसे हो सकती है ?’’ वह कई बरस घर पर रहा, सबको गाली देता रहा पर एक दिन जब उसने मेरे ससुर जी को गाली दी तब इनसे बड़े मेरे बड़े जेठ जी ने उसे घर से पक्का ही निकाल दिया।

किसी दुकान पर लग गया था वह, पर रोज़ घर में आता तो सभी उसे पैसे भी देते और खाना भी। वह सोता और खाता भी दुकान पर ही था। पर पैसे की ज़रूरत पड़ती तो यहीं आता। सभी उसे घर का सदस्य समझते और ज़िम्मेवारी भी। दिल्ली में मेरी दोनों बड़ी ननदें ब्याही थीं। वह उनके घरों में भी पहुँच जाता। पहले जाकर बसों के पैसे लेता फिर कुछ काम करता। मैंने उनसे कहा—‘‘तुम पैसे बाद में भी ले सकते हो।’’ उसने कहा, ‘‘नहीं जी, फिर यह भूल जाएँ और मैं पैसों के लिए लटक जाऊँ। चार बजे इन्दिरा गाँधी को इंडिया गेट से निकलना है, मैं वहीं रहना चाहता हूँ। क्या पता उन्हें मुझसे कुछ कहना हो !’’ यह बात वह इतनी मासूमियत से कहता है कि कोई हँस भी न सकता।

उसकी अपनी दुनिया निराली थी। उसे टाइयाँ पहनने का बड़ा शौक़ था। गर्मियों में भी दो-चार लटकाये रहता। टाइयाँ बरतन माँजते वक्त आड़े आती तो गाली भी देता है। कभी कहता, ‘‘ये मेरी पत्नियाँ हैं।’’ निक्कू को आज भी मेरी ससुराल में सब घर के सदस्य के रूप में ही याद करते हैं।
मैं उन दिनों आकाशवाणी में डोगरी समाचार पढ़ती थी। सुबह-शाम घर पर न होती तो वह कहता, ‘‘यह हिट्टे बाबू जी की बीवी कैसी है ! न सुबह घर में होती है न शाम को। दिन में भी चप्पल पहनी और ये गयी वो गयी। बीवियों को घर बैठकर काम करना चाहिए न कि नौकरी। शादी से पहले जितनी कर ली, कर ली। अब घर पर बैठो। बीवियाँ नौकरी नहीं करतीं। मैं तो अपनी बीवी से नौकरी न करवाऊँगा।’’

घर में वह जब भी आता सब काम कर देता। गर्मियों में कमरे के ऊपर बनी छतनुमा मेयानी कहलाने वाली जगह से वह घड़े उतार देता, रजाइयाँ रख देता, वहाँ मेरी सास ने बड़े-बड़े ट्रंक रखवाये हुए थे। कई पुरानी चीजें पड़ी रहतीं। काम पड़ने पर छत से नीचे आ जातीं। वह फिरकी की तरह घूमता था। अगर घर में झाड़ू—बरतन के लिए किसी को रखा जाता तो वह बड़ा नाराज़ होता था—‘‘क्या मैं काम नहीं करता ? इसके पैसे देंगे ? क्या बहुत पैसे हो गये हैं ? धोबी कहीं के !’’
मेरी ससुराल करोलबाग़ में थी और सब लोग आपस में मिलते-जुलते थे। इनके घर में जो जमादारिन काम करती थी वह मेरी सास के पास आकर घर-बाहर की सभी समस्याओं पर बात करती थी। इन दिनों हमारे घर में उसकी बहू काम करने आती थी। उसका नाम भग्गो था। उसकी सास भी बीच-बीच में आती रहती। बातें करते-करते बड़ी आज़िज़ी से कहती, ‘‘बीजी, बाबू लोगों की पगड़ियाँ घिस गयी होंगी, दो-चार दे दो मैं बहू-बेटियों को दुपट्टे बनवा दूँगी। सबके दुपट्टे घिस गये हैं।’’ मेरी सास उसे अक्सर पगड़ियाँ देती रहती थीं। जमादारिन वहीं आँगन में बैठकर नाश्ता करती और मेरी तारीफ भी—‘‘बीजी, बड़ी सुघड़ बहू आयी है। देखो घर का काम भी करती है और नौकरी भी। पैसे तो आपको ही देती होगी। मेरी बहुओं की न पूछो, अपने-अपने बन्ने को लेकर सूट खरीद लाती हैं। फिर जो बचे मेरे मुँह पर मार देती हैं। मैं भी क्या कहूँ..मेरे नालायक बेटे भी तो साथ ही हैं न। इनका बापू तो ऐसा न था। सारे पैसे माँ को झोली में डाल देता था। हम तो इतना लम्बा घूँघट निकालते थे जैसे, तुम्हारी पोती की फराक है। आज तो घूँघट भी माथे तक आ गया है। कल ही भग्गो ने घूँघट खींचा तो दुपट्टा फट गया। इसीलिए तो कह रही हूँ—अब तो इनको कुछ कहो तो मुँह घुमाकर चल देती हैं। मालिक इन बहुओं से बचाए पर क्या करें ज़िन्दगी तो इनके साथ ही काटनी है। अच्छा बीजी चलती हूँ, न हो तो पगड़ियाँ भग्गो को ही दे देना वैसे तो मैं भी आ जाऊँगी।’’

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book