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कालसर्पयोग शोध-संज्ञान

मृदुला त्रिवेदी, टी. पी. त्रिवेदी

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :659
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4563
आईएसबीएन :81-208-3133-0

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ज्योतिष जगत् की ऊर्जस्वल उपलब्धि....

Kal-Sarp-You sodh sandhan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पुरोवाक्

नमस्ते चण्डिके चण्डि चण्डमुण्डविनाशिनि।
नमस्ते कालिके कालमहाभयविनाशिनि।।

(हे प्रचण्डस्वरूपिणी चण्डिके ! जिसने चण्डमुण्ड का वध और काल के भय का नाश किया, वह कालिके, तुम्हें नमस्कार है।)

कालसर्प योग का नाम ही अतीव आतंक, अनायास अभाव, अन्यान्य अवरोध और असीम अनिष्ट, दुर्दमनीय दारुण दुःखों तथा दुर्भाग्यपूर्ण दुर्भिक्ष का पर्याय बन गया है जो नितान्त भ्रामक, असत्य तथ्यों एवं अनर्गल वक्तव्यों पर आधारित है कालसर्प योग का नाम मात्र ही हृदय को अप्रत्याशित भ्रम, भय, ह्रास व विनाश के आभास से व्यथित, चिन्तित व आतंकित कर देता है। तथाकथित ज्योतिर्विदों ने ही कालसर्प योग के विषय में अनन्त भ्रांतियाँ उत्पन्न करके, एक अक्षम्य अपराध किया है। किसी जन्मांग के कालसर्प योग की उपस्थिति का ज्ञान ही हृदय को अनगिनत आशंकाओं, अवरोधों और अनिष्टकारी स्थितियों के आभास से प्रकंपित और विचलित कर देता है। इस विषय में अज्ञानता के अन्धकार ने मार्ग में पड़ी रस्सी को विषैले सर्प का स्वरूप प्रदान कर दिया है।

कालसर्प : शोध संज्ञान, उन सशक्त सारस्वत शाश्वत संकल्पों का साकार स्वरूप है जो इस परम रहस्यमय योग के फलाफल के विषय में अपेक्षित, प्रामाणिक तथा शास्त्रसंगत सघन सामग्री के प्रचुर अभाव के कारण अंकुरित हुए थे। कालसर्प योग से सम्बन्धित मिथ्याधारणा, भ्रम और भ्रांति को निर्मूल करके, वास्तविकता से अवगत कराने का गहन शोधपरक प्रयास है ‘कालसर्प योग : शोध संज्ञान’।

कालसर्प योग के ज्योतिषीय ग्रह योग एवं उसके बहुआयामी परिणाम परिहार परिकर के सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक विश्लेषण द्वारा अन्तर्विरोधों और प्रस्फुटित सूत्रों से आक्रान्त ‘‘कालसर्प योग : शोध संज्ञान’’ समस्त संभावित बिन्दुओं का स्पर्श कर रहा है। सतर्क चिन्तन एवं गंभीर अध्ययन के माध्यम से कालसर्प योग कृत अवरोध तथा सम्यक् शोध के उपरान्त शास्त्रगर्भित वेदविहित तथा आचार्य अभिशंसित मंत्रों, स्त्रोतों के विधि—सम्मत अनुष्ठान द्वारा कालसर्प योग का परिशमन संभव है।

कालसर्प योग से आक्रान्त अनेक व्यक्तियों को तथाकथित ज्योतिर्विदों द्वारा व्यथित, भ्रमित तथा भयभीत करके, ज्योतिष ज्ञान को अस्त्र बनाकर, उनकी आस्था और विश्वास पर बार-बार कुठाराघात किया जता है। उनका भय ही उनके आर्थिक दोहन का मार्ग प्रशस्त कर देता है। पाप प्रेरित एवं पाप कृत्यों में संलग्न पथभ्रष्ट आचार्य, धन-लोलुपता के कारण स्वयं को ही पतन का ग्रास बना लेते हैं। कालसर्प योग के मिथ्या स्वरूप और भ्रान्तियुक्त व्यथा के कारण बार-बार अंकुरित होने वाली हमारी असहनीय वेदना ही ‘कालसर्प योग : शोध संज्ञान’ की रचना का निमित्त बनी।

हमारा धैर्य तब खण्डित हो गया, जब कालसर्प योग की व्यथा से आतंकित अनेक व्यक्ति परामर्श हेतु हमारे पास आये एवं उन्होंने रुदनयु्क्त कण्ठ से अपनी शंका का समाधान जानने की जिज्ञासा प्रकट की। हम यह देखकर स्तब्ध रह गये कि उनमें से अधिकतर जन्मांगों में कालसर्प योग की संरचना हुई ही नहीं थी और मिथ्या भय ने उनके नेत्रों में अश्रु भर दिये थे। हमारा मन कालसर्प योग से पीड़ित जातक—जातिकाओं के हृदय में व्याप्त भय और भ्रम के कारण कराह उठा, जिसने हमें ‘कालसर्प योग : शोध संज्ञान’ की रचना हेतु विवश कर दिया।

राहु केतु की धुरी के एक ओर शेष सातों ग्रहों की स्थिति, कालसर्प योग की संरचना करती है, मात्र इतना ही हमें ज्ञात है। कितना अपूर्ण और भ्रामक है, ‘कालसर्प योग’ के विषय में यह अपूर्ण और अल्प ज्ञान ? किन परिस्थितियों में ‘कालसर्प योग’ प्रभावहीन होता है और कब प्रभावी होकर जीवन के मधुमास को संत्रास में परिवर्तित कर देता है। किन ग्रह योगों के कारण स्पष्ट कालसर्प योग का सुखद आभास जीवन पथ को आन्दोलित करता है और किन ग्रह योगों के अभाव में वही कालसर्प योग समस्त सुख-सुविधा, सरसता, सम्मान, समृद्धि, सफलता और सुयश को प्रकम्पित कर देता है। यह शोध संज्ञान ही इस रचना का आधार बिन्दु है। अज्ञानता के कारण हृदय में व्याप्त आतंक को निश्चेष्ट करने के उद्देश्य से कालसर्प योग युक्त सहस्रों जन्मांगों के अध्ययन, अनुभव, अनुसंधान ने इस रचना में उद्घाटित शोध को जन्म दिया।

‘कालसर्प योग : शोध संज्ञान’ पाँच खण्डों में विभाजित है—
1.    कालसर्प योग : सृजन संज्ञान –(सिद्धान्त खण्ड)
2.    कालसर्प योग : परिहार परिज्ञान –(समाधान खण्ड)
3.    कालसर्प योग : अनुष्ठान विधान –(शान्ति विधान खण्ड)
4.    कालसर्प योग : मंत्र मंथन –(नवग्रह परिहार खण्ड)
5.    कालसर्प योग : अभीष्ट प्राप्ति : --(विस्तृत मन्त्र मीमांसा खण्ड) विविध विधान
इन पाँच खण्डों में समाहित विषय वस्तु का उल्लेख अत्यन्त संक्षेप में अग्रांकित है।

1. कालसर्प योग : सृजन संज्ञान –(सिद्धान्त खण्ड)


हमने इस रचनाक्रम में यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि कालसर्प योग जिन जन्मांगों में विद्यमान भी होता है, वह किन स्थितियों में प्रभावहीन होता है। कालसर्प योग के सृजन तथा प्रभाव में पर्याप्त अन्तर है। जिस तरह से अनेक स्थितियों में मंगली दोष विद्यामान होने पर भी व्यक्ति पर मंगल का अशुभ प्रभाव नहीं होता, उसी प्रकार से अनेक जन्मांगों में कालसर्प योग की सृष्टि होने पर भी उसका अशुभ प्रभाव नहीं पड़ता, यह कौन सी स्थिति है जो कालसर्प योग को प्रभावहीन करती है। इसका विस्तृत उल्लेख इस रचना में अनेक स्थलों पर अंकित है जिसे व्यावहारिक जन्मांगों द्वारा सिद्ध किया गया है।

विश्व के अनेक विशिष्ट व्यक्तियों के जन्मांगों में कालसर्प योग विद्यमान है परन्तु उनके जीवन में इस योग के कारण कोई अवरोध नहीं उत्पन्न हुआ तथा वह अपने क्षेत्र में शिखर तक पहुंचे, अत्यधिक प्रशंसित हुए तथा अनुकरणीय बने। जार्ज.डब्लू.बुश. सचिन् तेन्दुलकर, सम्राट अकबर, व्ही. शान्ताराम, मुरली मनोहर जोशी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, पं. जवाहर लाल नेहरू, डॉ. राधाकृष्णन, रामबिलास पासवान, धीरूभाई अंबानी, महेश योगी तथा मार्ग्रेट थैचर आदि अत्यन्त महत्वपूर्ण व्यक्तियों के जन्मांगों में कालसर्प योग विद्यमान है परन्तु उसकी प्रगति के समक्ष कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता है। अतः यह ज्ञान अति आवश्यक है कि कालसर्प योग यदि जन्मांग में विद्यामान भी है तो कालसर्प योग प्रभावी है अथवा प्रभावहीन, इस तथ्य को भलीभाँति इस रचना में स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।

कालसर्प योग के विभिन्न आयामों का इतना तलसंस्पर्शी शोधपरख अध्ययन अनुसंधान एवं तर्कसंगत विवेचन प्रायः दुर्लभ है जो अनेक अंधविश्वासों को ध्वस्त करके सतर्क अध्ययन को आश्रय प्रदान करता है। राहु एवं केतु विभिन्न भावों में संस्थित होकर किस कालसर्प योग का निर्माण करता है तथा नैसर्गिक फलों को कौन से फल प्रदान करता है यह कालसर्प योग : शोध संज्ञान का विवेच्य है।

सहस्त्राधिक जन्मांगों के शोधपरक अध्ययन और अनुसंधान ने ही कालसर्प योग से सम्बन्धित हमारी समग्र जिज्ञासाओं का सम्यक् समाधान प्रदान किया। इस विषय से सम्बन्धित परम्परागत मान्यताओं को व्यावहारिकता के निकष पर अनेक निष्कर्ष और नितान्त सूक्ष्म सूत्र उद्घाटित हुए और हम आपको इस सघन शोध साधना एवं संज्ञान के संग्राम और समर की संघर्षपू्र्ण यात्रा का सहभागी बनाकर अत्यन्त उल्लास, उत्साह और उमंग का अनुभव कर रहे हैं।

2. कालसर्प योग : परिहार परिज्ञान (समाधान खण्ड)


किसी क्षेत्र का ज्ञान, जब विशेष स्थितियों में एक सा ही स्वरूप और आकार ग्रहण करे, तो विज्ञान कहलाता है। वैज्ञानिक अध्ययन के आधार पर व्याधि के ज्ञान मात्र से ही उद्देश्य की पूर्ति तब तक संभव नहीं है, जब तक व्याधिमुक्त होने हेतु समुचित, अनुकूल तथा लाभप्रद औषधि एवं चिकित्सा का ज्ञान न हो। कालसर्प योग : शोध संज्ञान’ के ‘समाधान खण्ड’ के अन्तर्गत सामान्य प्रचलित विधान तथा लाल किताब में उद्धृत अनेक ऐसे नियम एवं उपाय का उल्लेख किया गया है, जिनके अनुसरण से कालसर्प योग कृत अवरोध, अवनति, आतंक और आत्मीय कष्टों का अन्त सम्भव है।

यह कहना अनुचित न होगा कि कालसर्प योग शान्ति के सम्बन्ध में सभी उपलब्ध रचनाएँ पर्याप्त अपूर्ण और भ्रामक हैं। सभी रचनाकारों ने एक दूसरे की नकल करके कालसर्प योग की शान्ति का विधान प्रस्तुत कर दिया है। किसी व्यक्ति के जन्मांग में कालसर्प योग विद्यमान हो तथा सन्ततिहीनता के कारण परिवार क्षुब्ध हो और जन्मांग में सर्पशाप की संरचना हो रही हो, नागबलि से सम्बन्धित अनुष्ठान विधि-विधान से सम्पन्न कराना चाहिए। इसी प्रकार से यदि किसी परिवार में निरन्तर अशान्ति और कष्ट की स्थितियाँ पीड़ित कर रही हों तथा पितृशाप का योग उस जन्मांग में निर्मित हो रहा हो, पितृशाप से मुक्ति प्राप्त करने हेतु नायारणबलि सम्पन्न किये जाने का विधान है।

किसी भी जन्मांग में सर्वप्रथम यह निरीक्षण करना चाहिए कि कालसर्प योग निर्मित हो रहा है अथवा नहीं। यदि कालसर्प योग की संरचना हो रही है तो कालसर्प योग प्रभावी है अथवा प्रभावहीन ? यदि कालसर्प योग प्रभावी है तो तभी कालसर्प योग की शान्ति से सम्बन्धित कोई अनुष्ठान अथवा विधि की जानी चाहिए, अन्यथा कालसर्प योग के शमन की आवश्यकता है ही नहीं। यदि भलीभाँति निरीक्षण करने से यह ज्ञात हो कि जिन शापों का उल्लेख इस रचना में किया गया है उनमें से किसी शाप के कारण व्यक्ति अथवा उसके परिवार जनों को कष्ट तो नहीं प्राप्त हो रहा है ? सभी प्रकार के शाप राहु की युति अथवा स्थिति अथवा राहु के साथ किसी ग्रह योग के कारण ही निर्मित होते हैं। यदि कालसर्प योग प्रभावशाली है तथा किसी भी शाप का योग इस जन्मांग में विद्यमान है, तो शाप मुक्ति का उपाय सर्वप्रथम किया जाना चाहिए। पितृ-शाप, गुरु-शाप, ब्रह्म-शाप आदि के पृथक्-पृथक् परिहार भी इस रचनाक्रम में देनी की चेष्टा की गयी है। जब तक शाप से मुक्ति नहीं होगी, तब तक कालसर्प योग के शमन से भी वांछित लाभ नहीं होगा।

‘परिहार परिज्ञान’ खण्ड के अन्तर्गत अनेक कालसर्प योग की शान्ति से सम्बन्धित व्यवस्थाओं, का तर्कसंगत उल्लेख किया गया है। ‘लाल किताब’ में उद्धृत अनेक समाधान सूत्रों के अतिरिक्त इस खण्ड में ‘नागबलि एवं नारायणबलि’ के उद्देश्य प्रारूपित करने का प्रयास किया गया है। नाग-हत्या के कारण उत्पन्न होने वाली सन्ततिहीनता के अभिशाप से मुक्ति प्राप्त करने के लिए ‘नागबलि विधान’ शास्त्र संगत और उपयुक्त है। अपने पूर्वजों के श्राद्ध कर्म का सम्पादन न करने के कारण उत्पन्न होने वाली विपन्नता तथा सन्ततिहीनता से रक्षा हेतु ‘नारायण बलि’ व ‘त्रिपिण्ड श्राद्ध’ की व्यवस्था, हमारे ऋषियों ने की है जिसका सविधि अनुष्ठान, योग्य और अनुभवी आचार्य द्वारा सम्पादित करवाना चाहिए। इस रचनाक्रम में ‘कालसर्प योग एवं नागपूजन’ नामक अध्याय भी संलग्न किया गया है। सन्ततिहीनता का कारण, प्रायः कालसर्प योग को समझने की भूल की जाती है। इसी उदेश्य से ‘विभिन्न शाप एवं सन्ततिहीनता’’ पर एक पृथक अध्याय भी रचना की विषयवस्तु में समाहित किया गया है। ‘नान्दी श्राद्ध’ की विधि तथा उपयोगिता भी आवश्यकता के अनुरूप प्रस्तुत करने की चेष्टा की गयी है। जिज्ञासा तथा आवश्यकता के अनुरूप ‘राहु एवं केतु की सविधि शान्ति’ का भी सम्यक् उल्लेख किया गया है परन्तु अनावश्यक तथा अनुपयुक्त सामग्री, स्तोत्र तथा असम्बद्ध विषय—वस्तु से अपने आपको तथा रचना का पृथक रखने की भी सतत चेष्टा की गयी है।

‘कालसर्प योग : परिहार परिज्ञान’’ हमारा सबल संकल्प है जिसे प्रामाणिकता, सारगर्भिता और वैज्ञानिकता के विभिन्न स्थलों पर बार-बार परीक्षित करने के पश्चात् ही विद्वान् पाठकगणों के समक्ष प्रस्तुत किया गया है और हमारी अखण्डित आस्था है कि विद्वान पाठक वर्ग को यह उपयुक्त एवं समुचित दिग्दर्शन प्रदान करेगा।

3. कालसर्प योग : अनुष्ठान विधान (शान्ति विधान खण्ड)


कालसर्प योग : शोध संज्ञान’ का अनुष्ठान विधान, रचना का सर्वस्व है। कालसर्प योग की अप्रीतिकर स्थितियों के निवाराणार्थ प्रायः सघन समग्र एवं सम्यक् अध्ययन, अनुभव, अनुसंधान के उपरान्त बहुप्रतीक्षित, बहुपरीक्षित, शास्त्रसंगत परिहार इस रचना की अमूल्य एवं दुर्लभ दुष्प्राप्य उपलब्धि है। कालसर्प योग के शमनार्थ अत्यन्त अनुभूत तथा आशुप्रभावी प्रयोग अपेक्षित विस्तार सहित शब्दाकिंत हैं।

कालसर्प योग से सम्बद्ध उपलब्ध ग्रंथों के बारंबार अध्ययन के पश्चात् भी, हमें कालसर्प योग के कारण उत्पन्न होने वाले अवरोध के शमन का सम्यक्, तर्कसंगत, विश्वसनीय, वैज्ञानिक एवं प्रामाणिक समाधान प्राप्त नहीं हो सका। कहीं पर रुद्राष्टाध्यायी का पाठ तर्कसंगत बताया गया है तो कहीं महामृत्युंजय मंत्र का जाप और स्तोत्र का पाठ करने का परामर्श दिया गया है। कुछ रचनाओं में राहु स्तोत्र का नियमित पाठ का उच्चारण करना या फिर मनसा देवी का अनुष्ठान ही कालसर्प योग हेतु शमन के प्रबल आधार होने की पुष्टि की गयी है। त्रिपिण्डी श्राद्ध, नारायण बलि और नागबलि से सम्बन्धित दोष के निरस्त करने के लिए पर्याप्त प्रबल बताया गया है। पृथक्-पृथक् आचार्यों ने कालसर्प योग के शमन हेतु, विभिन्न विधियों का विवेचन किया है।


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