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जीवनी/आत्मकथा >> प्रेमचन्द

प्रेमचन्द

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4580
आईएसबीएन :81-7055-222-2

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प्रेमचन्द का परिचय..

Apurva

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रेमचंद का महत्त्व


प्रेमचन्द्र से पूर्व हिन्दी साहित्य में देवकीनन्दन खत्री, गोपालराम गहमरी, मेहता लज्जाराम शर्मा, किशोरीलाल गोस्वामी इत्यादि हिन्दी-पाठक के अत्यन्त लोक-प्रिय उपन्यासकार थे। उनके उपन्यास तिलस्मी-ऐयारी, जासूसी-डकैती, प्रेम-कथाओं, इतिहास-प्रसिद्ध वैभव, दुष्ट चरित्रों के भ्रष्ट आचरणों के वर्णनों के आसुरी सुख से ओत-प्रोत थे।

आज भी उन पुस्तकों को पढ़कर, इस तथ्य से कोई भी संवेदनशील पाठक इनकार नहीं कर सकता है कि उन उपन्यासों में एक तीव्र आकर्षण है। आरम्भ में बहुत थोड़े समय के लिए हमारी बुद्धि उनसे विद्रोह करती है, किन्तु उन उपन्यासों का सम्मोहन, अफीम के नशे के समान, बुद्धि को बहलाकर सुला देता है; और फिर व्यक्ति उन उपन्यासों में डूब जाता है। वे उपन्यास उसकी बुद्धि को निष्क्रिय कर देते हैं और व्यक्ति कुछ नया सोचने, कुछ नया करने में असमर्थ हो जाता है। उसकी स्वतन्त्रता-स्वाधीनता समाप्त हो जाती है। ‘परबस जीव, स्वबस भगवन्ता।’1 उन पुस्तकों का पाठक परबस जीव ही है, जिसकी बुद्धि स्वतन्त्र प्रतिक्रिया व्यक्त करने में असमर्थ हो जाती है।
उपन्यास, अथवा समग्र साहित्य या कला का यह रूप अपूर्व नहीं था। साहित्य का यह भी एक रूप है; हमारे विभिन्न साहित्यकारों ने उसकी चर्चा भी की है, तथा उसके विरुद्ध आवाज भी उठाई है। वृन्दावनलाल वर्मा ने अपने उपन्यास ‘मृगनयनी’ में कला के इस वासनात्मक रूप के विरुद्ध बार-बार चेतावनी दी है।

उपन्यास की नायिका का तो समस्त बल ही इस बात पर है कि राजा मानसिंह तथा उनकी प्रजा कला के प्रेरणादायक, कर्तव्यपरायण रूप को ही स्वीकार करें और कला के वासनापूर्ण, निष्क्रियतोत्पादन रूप की ओर प्रवृत्त होने से बचें। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में कान्यकुब्ज के होलिकोत्सव पर नायक टिप्पड़ी करता हैः "ये उन्मत्त, ये गान, ये श्रृंगार सीत्कार, ये अबीर गुलाल, ये चर्चरी और पटह मनुष्य की किसी मानसिक दुर्बलता को छिपाने के लिए हैं,

ये दुख भुलाने वाली मदिरा है, ये हमारी मानसिक दुर्बलता के पर्दें हैं।"2 अज्ञेय’ ने आधुनिक युग में साहित्य के इसी स्वरूप को एक उपलब्धि भी माना है और एक भंयकर खतरा भीः "आधुनिक जीवन दो क्रियाओं में बँट जाता है- श्रम, जो अन्ततः यांत्रिक और तोषशून्य है; तथा अवकरण जो मूलतः श्रम की अवस्था की क्षतिपूर्ति है, स्थगित जीवन की थकान में भागना, या कम-से-कम मनोरंजन का आश्रय लेना है। अतः आधुनिक जीवन में संस्कृति के, और उसके प्रमुख अंग, बल्कि केंद्र, साहित्य के लिए कोई स्थान है तो दूसरी अवस्था में ही है।

आज साहित्य का यही मुख्य उपभोग है- और मेरी समझ में यही उसके लिए सबसे बड़ा खतरा है। ....मनोरंजन भी एक विशेष प्रकार का- जो अपनी परिस्थिति को भूलने में सहायक हो।"3 स्वयं प्रेमचन्द्र ने साहित्य के इस भयंकर खतरे को देखा, परखा और समझा था, तभी तो उन्होंने चेतावनी दी थी, "वह साहित्य जो हमें विलासिता के नशे में डुबा दे, जो हमें वैराग्य, पस्तहिम्मती, निराशावाद की ओर ले जाये, जिसके नजदीक, संसार दुख का घर है, उससे निकल भागने में हमारा कल्याण है, जो केवल लिप्सा और भावुकता में डूबी हुई कथाएँ लिखकर कामुकता को भड़काये, निर्जीव है।"4 तथा "हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिन्तन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो-जो हम में गति, संघर्ष और बैचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं; क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।"5

प्रश्न यह है कि यदि समस्त ललित कलाओं तथा साहित्य में यह गुण होता है, और इसका उपयोग सदा होता ही रहा है, अज्ञेय ने उसे साहित्य का मुख्य उपयोग माना है, तो हम इस प्रकार के साहित्य का विपुल मात्रा में सृजन करने के लिए पूर्व-प्रेमचन्दकालीन उपन्यासकारों को, महान् उपन्यासकारों के रूप में मान्यता क्यों नहीं देते ?

मुझे लगता है, मदिरा की विशेषताओं को सवीकार करते हुए भी, उसके उपभोग को जानते हुए भी हमने उसे लाभदायक वस्तु के रूप में प्रतिष्ठा नहीं दी है। यह साहित्य मनोरंजन अवश्य करता है, हमें अपनी समस्याओं को भुलाने में सहायता देकर, मानसिक राहत भी देता है; किन्तु परिणाम यह होता है कि अपनी समस्याओं का विस्मरण कर, उनके निराकरण के प्रयत्न की उपेक्षा कर देते है।

समस्याएँ समाप्त नहीं होती हैं, भुला दी जाती हैं। किसी की पीड़ा का उपचार उसे इंजेक्शन देकर सुला देना नहीं है। अतः किसी राष्ट्र में, समस्याओं की चुनौती स्वीकार करने के लिए जो क्षमता होती है- इस प्रकार के साहित्य से वह क्षीण होकर क्रमशः नष्ट होती जाती है। सक्रियता का लोप राष्ट्र में असहायता का भाव उत्पन्न करता है, जो अन्ततः राष्ट्र के पतन का कारण होता है।

जो साहित्य किसी राष्ट्र को महान नहीं बनाता, वह महान् कैसे माना जा सकता है।
इसका अर्थ क्या यह हुआ कि प्रेमचन्द को राष्ट्र में सक्रियता लाने के लिए अपने उपन्यासों में कतिपय समकालीन सामाजिक दोषों को रेखांकित किया, कुछ आदर्श प्रस्तुत किये, कुछ सुधारों की चर्चा की- अतः वे महान उपन्यासकार हो गये ?

सामाजिक दोषों का चित्रण, आदर्शों का प्रचार, सुधारों की चर्चा प्रेमचन्द से पूर्व भी हिन्दी के उपन्यासकारों ने की थी। किशोरी लाल गोस्वामी ने कहा, "क्योंकि यहाँ पर जो सामाजिक चित्र अंकित किया गया है, वह किसी व्यक्ति विशेष के ऊपर व्यर्थ आक्षेप करने की इच्छा से नहीं लिखा गया है; वरन सच्ची घटना का अवलंबन करके इसीलिए लिखा गया है कि समाज के नेतागण इन बुराइयों से समाज को मुक्त करने का प्रयत्न करें।"6 गोपालराम गहमरी ने कहा, "अच्छे और सदाचारी पात्रों का शुभ परिणाम देखकर पाठक अपना आचरण सुधारें और कर्त्तव्य स्थिर करें। दुराचारी, कुपथगामी लोगों की हीन-दीन और दुःखपूर्ण दशा विचारकर अवगुणों को त्यागें, यही मंगल उदेश्य लेकर लिखना अच्छे औपन्यासिक और नाटककार का अभिप्राय होता है।"7 तथा, "इस पुस्तक से ऐसे कुल की कुलांगनाएँ शिक्षा पाकर सुमार्ग पर आवें, यही ग्रन्थकार का मुख्य उद्देश्य है।"8 मेहता लज्जाराम शर्मा, देवकीनन्दन खत्री, ब्रजनन्दन सहाय इत्यादि प्रमुख उपन्याकारों ने भी समाज-सुधार तथा पाठकों को उपदेश देने के उद्देश्य से ही उपन्यास लिखे थे।

पिछले दिनों एक युवक कहानीकार ने एक कहानी लिखकर मुझे पढ़ने के लिए दी थी : अपने घर पर एक वेश्या नाच रही है। लोग वाह-वाह कर रहे हैं; अश्लील वाक्यों की बौछार हो रही है; और रुपये लुटाये जा रहे हैं। उन्हीं दर्शकों में एक व्यक्ति अत्यन्त हतप्रभ-सा बैठा है। उसे यह सब अच्छा नहीं लग रहा, फिर भी बैठा है। नृत्य समाप्त हुआ। बोली होने लगी-कौन अधिकतम मूल्य देकर थोड़े समय के लिए उसे प्राप्त करेगा। उस हतप्रभ व्यक्ति की जेब में से सौ-सौ के कई नोट निकालकर दलाल उसे वेश्या के कमरे में धकेल देता है।

किन्तु वह हतप्रभ व्यक्ति स्वयं को छुड़ाकर वहाँ से भाग जाता है। घर लौटकर वह वैश्या के जीवन पर एक मार्मिक उपन्यास लिखता है। उस उपन्यास पर उसे हजारों रुपयों का पुरस्कार मिलता है। वह उन रुपयों से वेश्यालयों के सुधार के लिए एक आश्रम बनवा देता है।

मैं झूठी तसल्ली के लिए भी, एक बार नहीं कह सका कि कहानी अच्छी है, या सुधार कर देने से अच्छी हो सकती है। उस युवक कहानीकार से यही कहा कि ऐसी कहानियाँ मत लिखा करो। उसने मुझसे नहीं पूछा, कि प्रेमचन्द ने "सेवा सदन" में वेश्याओं के उद्धार की बात कही तो वह युगांतकारी उपन्यास क्यों मान लिया गया ? या उसी समस्या पर, उसी प्रकार का समाधान देते हुए, लिखी गयी उसकी कहानी को युगांतकारी क्यों नहीं माना जा रहा है ? पर पूर्व प्रेमचन्दकालीन सुधारवादी उपन्यासों तथा उस युवक कहानीकार के इस संभावित प्रश्न को दृष्टि में रखकर, प्रेमचन्द के महत्त्व को परखने का प्रयत्न किया जा सकता है।

उस युवक कहानीकार से कहा जा सकता है, उसका चित्रण समर्थ नहीं है, अप्रभावकारी है, अपूर्ण है, अयथार्थ है, अननुभूत है, कलाशून्य है, भाषा अक्षम है, इत्यादि। कुछ इसी प्रकार की बात उन पूर्वतन उपन्यासकारों को भी कही जा सकती है।

देवकीनन्दन खत्री लिखते हैः "चन्द्रकान्ता को देखते ही वीरेन्द्रसिंह का अजब हाल हो गया, बदन में कँपकँपी होने लगी, यहाँ तक कि बेहोश होकर गिर पड़े।....तेजसिंह को देखते ही चन्द्रकान्ता बोली "क्यों जी इतने दिन कहाँ रहे ‍? क्या इसी का नाम मुरौवत है ? अब की भी आये तो अकेले ही आये। वाह, ऐसा ही था तो चूड़ी पहन लेते, जवांमर्दी की डींग क्यों मारते हैं ? जब उनकी मुहब्बत का यही हाल है तो मैं जीकर क्या करूँगी ?" कहकर चन्द्रकान्ता रोने लगी, यहाँ तक की हिचकी बँध गयी।9 निश्चित रूप से इस चित्रण में उतनी ही अपरिपक्वता है, जितनी किसी नौसिखिए लेखक में हो सकती है।

किन्तु, उससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पूर्व-प्रेमचन्दकालीन उपन्यासकार अपने समसामायिक जीवन के प्रति उतने संवेदनशील ही नहीं थे। वे जीवन-प्रवाह के किनारे पर खड़े हुए, परम्परागत आदर्शों को ध्यान में रखते हुए, वैयक्तिक चरित्र को सुधारने के लिए अत्यन्त तटस्थ ढंग से प्रत्यक्ष उपदेश दे रहे थे। उनके उपदेश और चित्रण एक-दूसरे के अनुकूल नहीं है। उनका उपदेश चाहे कुछ कहे, किन्तु उनके चित्रण का प्रभाव पाठक पर अपराधी मनोवृत्ति के आसुरी सुख के समान ही पड़ता है।

उनके आदर्श अपने समय के लिए न नये थे, न मौलिक और न ही क्रांतिकारी, जैसेकि उस युवक कहानीकार की कहानी का आदर्श अब हमारे भीतर कोई स्पन्दन पैदा नहीं करता। सच बोलना, चोरी न करना, सतीत्व की रक्षा करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना-प्राचीन ग्रन्थों से लिये गये वे आदर्श थे, जो युगों से सर्वस्वीकृति थे। उन परम्परागत आदर्शों से किसी को झंझोड़कर जगाया नहीं जा सकता। प्रेमचन्द इस परिवर्तन को देख और समझ रहे थे।10

अतः उन प्रचलित परम्परागत आदर्शों को छोड़, प्रेमचन्द ने अपने समय और उस की समस्याओं को देखा तथा "सेवा सदन" में कहा, कि "समाज के गणमान्य व्यक्तियों तथा धार्मिक प्रतिष्ठानों द्वारा वेश्याओं का आदर-सत्कार तथा अपने पति द्वारा कठोर व्यवहार, कुलीन स्त्रियों के मन में भी वेश्यावृत्ति के प्रति आकर्षण जगाता है। अतः आपकी बहन या बेटी भी पथभ्रष्ट हो सकती है। जो वेश्याएँ या नर्तिकियां आज बाजार में बैठी हैं, वे भी आपके ही समान शरीफ घरानों से आयी हैं। वे भी शरीफ घरों में लौटना चाहती हैं, अतः उन्हें पुनर्वास का अवसर दो।" निश्चय ही, उस समय यह विचार यह अत्यन्त क्रांतिकारी रहे होंगे। समाज जब यह सोच भी नहीं सकता था कि वेश्याओं और समाज में किसी प्रकार का कोई सम्पर्क भी है, तब प्रेमचन्द ने उन वेश्याओं को शरीफ घरों से निकलते हुए बताया था और उन्हें शरीफ घरों में लौटाने की बात मौलिक थी, आधुनिक तथा स्पन्दनशील थी।11

आज हम सब यह स्वीकार करते हैं कि वेश्याओं का उद्धार होना चाहिए, अतः उस समस्या में कोई नवीनता नहीं रह गयी है। जिस तथ्य को समाज पहले ही स्वीकृति दे चुका हो, उसे साहित्य में प्रस्तुत कर साहित्य को मौलिक नहीं बनाया जा सकता। साहित्य मौलिक तभी हो सकता है जब वह समाज को चिन्तन की दिशा दे सके। अतः आज उस समस्या को लेकर लिखी गयी सारी रचनाएँ अप्रभावकारी होंगी।

पूर्व-प्रेमचन्दकालीन उपन्यासकार, हिन्दी के उपन्यास साहित्य के अभावों के प्रति अत्यन्त भावुकतापूर्वक सजग थे। उनमें से बहुतों ने अपनी रचनाओं का सृजन किया था कि हिन्दी का यह शून्य भर सके। किशोरीलाल गोस्वामी ने कहा, "...जिससे हिन्दी भाषा में जो इतिहास का बिल्कुल अभाव है, वह मिटे।"12 देवकीनन्दवन खत्री ने यह स्वीकार किया, "इन ऐयारों का बयान हिन्दी किताबों में अभी तक मेरी नजरों से नहीं गुजरा"13 ब्रजनन्दन सहाय ने विस्तार से अपनी बात कही :

"मेरे मित्र बाबू सिद्धेश्वरनाथ बी०ए०बी०एल० (वकील) ने एक बार मुझसे कहा था कि यों तो आजकल बाजार में बहुतेरे उपन्यास देखने में आते हैं, परन्तु जहाँ तक देखता हूँ उसमें से बिरले ही समाज अथवा देश की रीति और नीति के सच्चे मित्र कहे जा सकते हैं और लड़कों के हाथ में देने योग्य तो विरले ही है। आप कोई ऐसा उपन्यास लिखिए जो पाठकों को रुचिकर हो और सदुपयोगों से भरे रहने के कारण लड़कों के पढ़ने-पढ़ाने योग्य भी हो। उन्हीं के अनुरोध का फल यह "अद्भुत् प्रायश्चित्त" नामक उपाख्यान लिखा है।"14

कतिपय अन्य स्वीकारोक्तियाँ भी उपलब्ध हैं जहाँ
अन्य भाषाओं में किसी विशेष प्रकार के उपन्यास देखकर उन्हीं के समान उपन्यास हिंदी में लिखने की प्रेरणा इन उपन्यासकारों में जागी। यह एक प्रकार का अनुकरण है, जिसमें मौलिकता का भाव है। किसी मित्र के ड्राइंग–रूम में कोई शोभा-वस्तु देखकर अपने ड्राइंग-रूम के लिए भी वैसी ही वस्तु खरीदकर लाने वाला व्यक्ति मौलिकता का दावा नहीं कर सकता। किन्तु, अपने कमरे में असौन्दर्य अथवा गन्दगी को देखकर, उसे साफ तथा सुन्दर बनाने के लिए तड़प उठने वाला आदमी सर्वथा मौलिक है। वह अपने कमरे को इसलिए साफ-सुथरा नहीं करना चाहता, क्योंकि उसके किसी मित्र का कमरा साथ-सुथरा है, वरन् यह विचार उस कमरे की गन्दगी के प्रति उसके व्यक्तित्व की मौलिक प्रतिक्रिया है।

पश्चिम में उपन्यास के आरम्भ के विषय में कहा गया "Once of course, the form of the novel and the sensibility that went with it were radical, even subversive, projecting a bourgeois and individualistic attack on aristocratic values and traditional sanctitics."15

अपने समाज के प्रति प्रेमचन्द के व्यक्तित्व ने भी कुछ इसी प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। पूर्वतन साहित्यिक मान्याताओं के प्रति प्रेमचन्द कुछ इतने उदासीन थे कि वे साहित्यकार अथवा कलाकार न माने जाने की जोखम उठाने के लिए भी तैयार थे।16 वे उसी विद्या, उसी ढंग से, उसी शिल्प को स्वीकार करेंगे, जिससे वे अपनी बात कहे सकें।

अपनी बातें उनके पास बहुत थीं- वेश्याओं की समस्याओं को लेकर, अनमेल, विवाह और दहेज को लेकर, जमींदार प्रथा कि अमानुषिता को लेकर, पढे-लिखे लोगों के अत्याचारों और बेईमानी को लेकर, अब तक ढोए जाते हुए भावना एवं तर्कहीन खोखले धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक आडम्बरों को लेकर।

प्रेमचन्द का यह मूर्तिभंजन रूप इतना अपूर्वतन, इतना अदभुत है कि पाठक को यह सोचकर आश्चचर्य होता है कि जब यह सब कुछ समाज में था तो हमारा साहित्यकार इनको देख क्यों नहीं रहा था ? क्या कर रहा था, हमारा साहित्यकार ? वह किस लोक में जी रहा था ? प्रेमचन्द्र के अपने व्यक्तित्व की समाज के प्रति इसी मौलिक प्रतिक्रिया ने उन्हें इतना महान बना दिया। साहित्य में, विशेषकर उपन्यास के क्षेत्र में इस मौलिकता को महानता का अनिवार्य अंग स्वीकार किया गया हैः

"This literary traditionalism was first and most fully challenged by the novel, whose primary criterion was truth to individual experience-individual experience which is always unique and therefore new. The novel is thus the logical literary vehicle of culture, which in last few centuries has set an unprecedented value on originality on novel; and it is therefore well named;" 17
आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी ने काफी जमकर प्रेमचन्द की समीक्षा की है। उन्होंने अपनी इस दीर्घ समीक्षा से पूर्व यह शिकायत भी की थी कि प्रेमचन्द के समीक्षकों ने उन्हें उपन्यास-सम्राट की उपाधि तो दे दी है, किन्तु उनका विधिवत् तिलक नहीं किया है।18 और अपने इस विधिवत् तिलक से वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि, "मूल तत्त्व यह है कि प्रेमचन्दजी का कोई स्वतन्त्र स्वानुभूति दर्शन नहीं है। केवल सामयिकता का दर्शन है।"19 इस समयिकता का विश्लेषण करते हुए वे कहते हैः "वास्तविक बात यह है कि समय ने प्रेमचन्द का साथ उतना नहीं दिया है। सामयिक वातावरण से प्रेमचन्दजी इतना विशेष प्रभावित हुए है कि उनकी सहृदयता देखकर हम मुग्ध नहीं, आतंकित होते है। शेली ने पश्चिमी वायु (West wind) के साथ क्रीड़ा करने, उड़ चलने का स्वप्न देखा था पर प्रेमचन्दजी सामयिक आँधी के साथ उड़ते देखे जा सकते है।"20

प्रेमचन्द का सामायिकता के साथ उड़ने का, वाजपेयीजी ने पर्याप्त मजाक उड़ाया है और यह इच्छा प्रकट की वे जब आकाश की सैर करके लौटेंगे तो उन्हें बताएँगे कि आकाश पर उन्होंने क्या देखा। सामायिकता की इस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कुछ प्रमाण भी जुटाए है: "आज आप सामायिक पत्रों में जो चर्चा पढ़ चुके हैं, प्रेमचन्दजी की कहानियों में उसे दुबारा पढ़िए।"21 और सामायिकता के इस प्रभाव की प्रतिष्ठा उन्होंने इन शब्दों में की है : "जो कुछ वे सत्य समझते हैं, सुन्दर समझते हैं, लिखते हैं। यह बात दूसरी है कि सत्य और सुन्दर के सन्बन्ध में उनका कोई निष्कर्ष न हो। बल्कि जिस समय जो प्रवाह है, उसी में सत्य और सुन्दर की झलक वे देखने लगें।"22

प्रेमचन्द के उपन्यास वाजपेयीजी के इन आरोपों का खंडन नहीं करते। "सेवा सदन" से "गोदान" तक के सारे उपन्यासों में तत्कालीन घटनाएँ भरी पड़ी हैं। तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक समस्याएँ-वेश्या, दहेज और अनमेल-विवाह समस्या, छुआछूत, आभूषणप्रियता तथा सामाजिक आडम्बर की समस्या, महाजनी सभ्यता के कारण चरमराता हुआ आर्थिक ढाँचा, धार्मिक आडम्बर की समस्या, लगान की समस्या, दोहरे शासन की समस्या, सत्ता की अमानुषिकता, मिटती हुई कृषक-सभ्यता की समस्याएँ, उभरती हुई औद्योगिक सभ्यता के संघर्ष की समस्याएँ, पूर्वतन आदर्शों और मूल्य-मानकों में टूटती हुई आस्था की समस्यएँ, विलास और वैभव के हाथों बिकते हुए भारतीय देशद्रोहियों की समस्याएँ—इतने विस्तार और जीवन्त रूप में चित्रित हुई हैं, कि वह युग साकार होकर पाठक की आँखों के सम्मुख प्रस्तुत हो जाता है। पाठक उस युग में जीने लगता है।
प्रेमचन्द की समसायिकता को डॉ. इन्द्रनाथ मदान ने बड़े सहज रूप से स्वीकार किया है : "इस तरह वह समसामयिकता के माध्यम से आधुनिकता को अभिव्यक्ति देते हैं और सामाजिक यथार्थ के धरातल पर इसे स्वीकारते हैं।"23 डॉ० नगेन्द्र ने उनकी समसामयिकता का महत्त्व कुछ अधिक सशक्त शब्दों में आँका है, "वास्तव में जिस समय उत्तर भारत के इतिहास के इस काल-खण्ड का सामाजिक इतिहास लिखा जायेगा, उस समय प्रेमचन्द के उपन्यासों में अधिक व्यवस्थित सामग्री

अन्यत्र नहीं मिलेगी। और, यदि इतिहासकार राजनीति से आंतकित होकर विवेक न खो बैठा, तो वह उन्हें पट्टाभि के इतिहास और नेहरू और राजेन्द्र बाबू की जीवनियों से कम महत्त्व नहीं देगा। इसके मूलतः दो कारण हैं : एक तो यह है कि प्रेमचन्द्र ने अत्यन्त सचेत होकर अपने साहित्य को युग-जीवन का माध्यम बनाया है, दूसरे यह कि कि उन्होंने युग धर्म के साथ पूर्ण तादात्म्य स्थापित करते हुए सर्वांग जीवन को ग्रहण किया है।"24

प्रेमचन्द की सामायिकता को निश्चित रूप से नन्ददुलारे वाजपेयी और डॉ० नगेन्द्र ने समान रूप से स्वीकार किया है; किन्तु दोनों के स्वर में बहुत अन्तर है। वाजपेयी प्रेमचन्द की भर्त्सना करने के लिए उन पर समसामयिकता का आरोप लगा रहे हैं, जबकि डॉ० नरेन्द्र उनकी प्रशंसा के रूप में उनका महत्त्व बताने के लिए समसामयिकता को उनका गुण बता रहे हैं। डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी उपन्यास तथा उपन्यासकार को कवि तथा काव्य से प्रथक करने के लिए समसामयिकता को आधार मानकर चलते हैं :

"यही कारण है कि उपन्यासकार तथ्य को नहीं छोड़ सकता, वह वर्तमान से आँख नहीं मूँद
सकता- यहाँ तक की पुराने ऐतिहासिक कथानक को आश्रय करने पर भी वह आधुनिकतम ऐतिहासिक अनुसन्धान की बात मन में बराबर बनाये रहकर ही आगे बढ़ सकता है।"25

और अपनी इस कसौटी पर उन्होंने प्रेमचन्द को कितना खरा और कितना विश्वसनीय पाया, वह इन शब्दों में से ध्वनित होता हैः "प्रेमचन्द शताब्दियों से पददलित, अपमानित और निष्पेषित कृषकों की आवाज थे; पर्दे में कैद, पद-पद लांछित और असहाय नारी जाति की महिमा के जबरदस्त वकील थे; गरीब, बेबसों के महत्त्व के प्रचारक थे। अगर आप उत्तर भारत की समस्त जनता के आचार-विचार, भाषा-भाव, रहन-सहन, आशा-आकांक्षा, दुख-सुख और सूझ-बूझ जानना चाहते हैं तो प्रेमचन्द से उत्तम परिचायक आप को नहीं मिल सकता। झोंप़ड़ियों से लेकर महलों तक, खोंमचे वालों से लेकर बैंकों तक, गाँव से लेकर धारा-सभाओं तक, आपको इतने कौशलपूर्वक और प्रामाणिक भाव से कोई नहीं ले जा सकता। आप बेखटके प्रेमचन्द का हाथ पकड़कर मेड़ों पर गाते हुए किसान को, ईर्ष्या परायण प्रोफेसरों को, दुर्बलहृदय बैंकरों को, साहस परायण टमारिन को ढोंगी-पंडितों को, फरेबी पटवारी को, नीचाशय अमीर को देख सकते हैं और निश्चिन्त होकर विश्वास कर सकते हैं कि जो कुछ आपने देखा वह गलत नहीं है। उससे अधिक सच्चाई से दिखा सकने वाले परिदर्शन को अभी हिन्दी-उर्दू की दुनिया नहीं जानती है।"26

यह है प्रेमचन्द की अपने काल के ज्ञान की प्रामाणिकता।


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