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आँगन के पार द्वार

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :79
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4587
आईएसबीएन :8-263-0942-3

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कविता-संग्रह

Angan Ke Par Dwar a hindi book by Agyeya - आँगन के पार द्वार - अज्ञेय

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हिन्दी के प्रसिद्ध कवि, लेखक और पत्रकार ‘अज्ञेय’ के अपने इस संग्रह ‘आँगन के पार द्वार’ तक आते-आते उनका काव्य निखार और गहराई के ऐसे उत्कर्ष तक पहुँचा है, जिसमें भारतीय चिन्तन-परम्परा की विश्व से संयोजन की क्षमता साकार हो उठी है। इस दृष्टि से यह संग्रह हिन्दी-काव्य की अद्वितीय उपलब्धि है। इस कृति ने यह सिद्ध कर दिया है कि अज्ञेय प्रश्न छेड़ने में नहीं, उत्तर पाने में भी कुशल हैं। यह जरूर है कि ये उत्तर उन्होंने बाहर से नहीं भीतर से पाये हैं। साहित्य अकादेमी पुरस्कार से अलंकृत आँगन के पार द्वार नयी कविता की ही नहीं, आधुनिक हिन्दी कविता की अत्यन्त प्रांजल और प्रौढ़ उपलब्धि है। समर्पित है हिन्दी कविता के सहृदय पाठकों को आँगन के पार द्वार का नया संस्करण।

आँगन के पार द्वार


‘आँगन के पार द्वार’ भीतर की ओर जितना खुलता है, उतना ही बाहर की ओर। अज्ञेय की अन्तःसलिला का यह सबसे स्फीत और श्रद्धापूत प्रवाह है। पर इसमें केवल उछली मछली की जिजीविषा भर नहीं, इसमें है दाता सागर का, धरती का, और है उस दाता का खुलापन। इस संग्रह की अन्तिम कविता ‘असाध्य वीणा’ इस अन्तस और बाह्य जगत की एकाकारता का सबसे सजीव चित्र है। यदि ‘चक्रान्त शिला’ की पन्द्रह कविताओं में मौन के माध्यम से विराट् से जुड़ने की प्रक्रिया है और वात्सल्य भाव से सहलाती एक दीठ है तो उसके बाद वाली कविताओं में परिपक्व और परिष्कृत चित्र का विनय और अर्पण का उत्कर्ष भी। इस संग्रह तक आते-आते अज्ञेय का काव्य निखार और गहराई के ऐसे उत्कर्ष पर पहुँचा है, जिसमें भारतीय चिन्तन परम्परा की विश्व से संयोजन क्षमता साकार हो उठी है। इस दृष्टि से यह संग्रह हिन्दी काव्य की अद्वितीय उपलब्धि है। इस ने यह सिद्ध कर दिया कि अज्ञेय प्रश्न छोड़ने में ही नहीं, उत्तर पाने में भी कुशल हैं। यह जरूर है कि यह उत्तर उन्होंने बाहर से नहीं भीतर से पाये हैं। साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित ‘आँगन के पार द्वार’ नयी कविता की ही नहीं, आधुनिक हिन्दी कविता की अत्यन्त प्रांजल और प्रौढ़ उपलब्धि है।


सरस्वती पुत्र



मन्दिर के भीतर वे सब धुले-पुँछे उघड़े-अवलिप्त,
खुले गले से
मुखर स्वरों में
अति-प्रगल्भ
गाते जाते थे राम-नाम।
भीतर सब गूँगे, बहरे, अर्थहीन, जल्पक,
निर्बोध, अयाने, नाटे,
पर बाहर जितने बच्चे उतने ही बड़बोले।

बाहर वह
खोया-पाया, मैला-उजला
दिन-दिन होता जाता वयस्क,
दिन-दिन धुँधलाती आँखों से
सुस्पष्ट देखता जाता था;
पहचान रहा था रूप,
पा रहा वाणी और बूझता शब्द,
पर दिन-दिन अधिकाधिक हकलाता था:
दिन-दिन पर उसकी घिग्घी बँधती जाती थी।


बना दे, चितेरे



बना दे चितेरे,
मेरे लिए एक चित्र बना दे।

पहले सागर आँक :
विस्तीर्ण प्रगाढ़ नीला,
ऊपर हलचल से भरा,
पवन के थपेड़ों से आहत,
शत-शत तरंगों से उद्वेलित,
फेनोर्मियों से टूटा हुआ, किन्तु प्रत्येक टूटन में
अपार शोभा लिये हुए,
चंचल उत्कृष्ट,
-जैसे जीवन।
हाँ, पहले सागर आँक :
नीचे अगाध, अथाह,
असंख्य दबावों, तनावों, खींचों और मरोड़ों को
अपनी द्रव एकरूपता में समेटे हुए,
असंख्य गतियों और प्रवाहों को
अपने अखण्ड स्थैर्य में समाहित किये हुए
स्वायत्त,
अचंचल
-जैसे जीवन....

सागर आँक कर फिर आँक एक उछली हुई मछली :
ऊपर अधर में
जहाँ ऊपर भी अगाध नीलिमा है
तरंगोर्मियाँ हैं, हलचल और टूटन है,
द्रव है, दबाव है
और उसे घेरे हुए वह अविकल सूक्ष्मता है
जिस में सब आन्दोलन स्थिर और समाहित होते हैं;
ऊपर अधर में
हवा का एक बुलबुला-भर पीने को
उछली हुई मछली
जिसकी मरोड़ी हुई देह-वल्ली में
उसकी जिजीविषा की उत्कट आतुरता मुखर है।
जैसे तडिल्लता में दो बादलों के बीच के खिंचाव सब कौंध जाते हैं-

वज्र अनजाने, अप्रसूत, असन्धीत सब
गल जाते हैं।

उस प्राणों का एक बुलबुला-भर पी लेने को-
उस अनन्त नीलिमा पर छाये रहते ही
जिस में वह जनमी है, जियी है, पली है, जियेगी,
उस दूसरी अनन्त प्रगाढ़ नीलिमा की ओर
विद्युल्लता की कौंध की तरह
अपनी इयत्ता की सारी आकुल तड़प के साथ उछली हुई
एक अकेली मछली।

बना दे, चितेरे,
यह चित्र मेरे लिए आँक दे।
मिट्टी की बनी, पानी से सिंची, प्राणाकाश की प्यासी
उस अन्तहीन उदीषा को
तू अन्तहीन काल के लिए फलक पर टाँक दे-
क्योंकि यह माँग मेरी, मेरी, मेरी है कि प्राणों के
एक जिस बुलबुले की ओर मैं हुआ हूँ उदग्र, वह
अन्तहीन काल तक मुझे खींचता रहे :
मैं उदग्र ही बना रहूँ कि
-जाने कब-
वह मुझे सोख ले



भीतर जागा दाता



मतियाया
सागर लहराया।
तरंग की पंखयुक्त वीणा पर
पवन से भर उमंग से गाया।
फेन-झालरदार मखमली चादर पर मचलती
किरण-अपसराएँ भारहीन पैरों से थिरकीं-
जल पर आलते की छाप छोड़ पल-पल बदलती।
दूर धुँधला किनारा
झूम-झूम आया, डगमगाया किया।
मेरे भीतर जागा
दाता
बोला :
लो, यह सागर मैंने तुम्हें दिया।

हरियाली बिछ गयी तराई पर,
घाटी की पगडण्डी
लजाई और ओट हुई-
पर चंचला रह न सकी, फिर उझकी और झाँक गयी।
छरहरे पेड़ की नयी रंगीली फुनगी
आकाश के भाल पर जय-तिलक आँक गयी।
गेहूँ की हरी बालियों में से
कभी राई की उजली, कभी सरसों की पाली फूल-ज्योत्स्ना दिप गयी,
कभी लाली पोस्ते की सहसा चौंका गयी-
कभी लघु नीलिमा तीसी की चमकी और छिप गयी।
मेरे भीतर फिर जागा
दाता
और मैंने फिर नीरव संकल्प किया :
लो, यह हरी-भरी धरती-यह सवत्सा कामधेनु-मैंने तुम्हें दी
आकाश भी तुम्हें दिया
यह बौर, यह अंकुर, ये रंग, ये फूल, ये कोंपलें,
ये दूधिया कनी से भरी बालियाँ,
ये मैंने तुम्हें दीं।
आँकी-बाँकी रेखा यह,
मेड़ों पर छाग-छौने ये किलोलते,
यह तलैया, गलियारा यह
सरसों के जोड़े, मौन खड़े पर तोलते-
यह रूप जो केवल मैंने देखा है,
यह अनुभव अद्वितीय, जो केवल मैंने जिया,
सब तुम्हें दिया।
एक स्मृति से मन पूत हो आया।
एक श्रद्धा से आहुत प्राणों ने गाया।
एक प्यार की ज्वार दुर्निवार बढ़ आया।
मैं डूबा नहीं उमड़ा-उतराया,
फिर भीतर
दाता खिल आया।
हँसा, हँस कर तुम्हें बुलाया :
लो, यह स्मृति, यह श्रद्धा, यह हँसी,
यह आहूत, स्पर्श-पूत भाव
यह मैं, यह तुम, यह खिलना,
यह ज्वार, यह प्लवन,
यह प्यार, यह अडूब उमड़ना-
सब तुम्हें दिया।
सब
तुम्हें
दिया।



अन्धकार में दीप



अन्धकार था :
सब-कुछ जाना-
पहचाना था
हुआ कभी न गया हो, फिर भी
सब-कुछ की संयति थी,
संहति थी,
स्वीकृति थी।

दिया जलाया :
अर्थहीन आकारों की यह
अर्थहीनतर भीड़-
निरर्थकता का संकुल-
निर्जल पारावार न-कारों का
यह उमड़ा आया।

कहाँ गया वह
जिस ने सब-कुछ को
ऋत के ढाँचे में बैठाया ?



पास और दूर



जो पास रहे
वे ही तो सबसे दूर रहे :
प्यार से बार-बार
जिन सब ने उठ-उठ हाथ और झुक-झुक कर पैर गहे,
वे ही दयालु, वत्सल स्नेही तो
सब से क्रूर रहे।

जो चले गये
ठुकरा कर हड्डी-पसली तोड़ गये
पर जो मिट्टी
उन के पग रोष-भरे खूँदते रहे,
फिर अवहेला से रौंद गये :
उसको वे ही एक अनजाने नयी खाद दे गाड़ गये :
उसमें ही वे एक अनोखा अंकुर रोप गये।
-जो चले गये, जो छोड़ गये,
जो जड़े काट, मिट्टी उपाट, चुन-चुन कर डाल मरोड़ गये
वे नहर खोद कर अनायास
सागर से सागर जोड़ गये
मिटा गये अस्तित्व,
किन्तु वे
जीवन मुझको सौंप गये।



पहचान


तुम वही थीं :
किन्तु ढलती धूप का कुछ खेल था-
ढलती उमर के दाग़ उसने धो दिये थे।
भूल थी
पर
बन गयी पहचान-
मैं भी स्मरण से
नहा आया।
 


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