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हास्य-व्यंग्य >> काटजू जी बताइन

काटजू जी बताइन

राजगोपाल काटजू

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :174
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4687
आईएसबीएन :81-288-1445-1

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काटजू जी की हास्य-व्यंग्य रचनाएँ...

Kato Ji Batayan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रयाग के एक सुशिक्षित वकील परिवार में जन्में राजगोपाल काटजू ने प्रयाग विश्वविद्यालय से बीएस.सी. तथा आई.आई. टी. खड़गपुर से कैमिकल इंजनियरिंग की उपलब्धियाँ प्राप्त कीं।
अपने चालीस वर्ष के व्यस्त व्यवसाय जीवन में समय निकाल कर उन्होंने हिंदी व अँग्रेजी में अनेक लेख व लघुकथाँ लिखीं। ‘काटजू जी कहिन’, काटजू जी मुस्कुराए, ‘काटजू जी और चाचा’ के बाद प्रकाशित होने वाला यह उनका चौथा लेख-संग्रह है।
उनके कई लेख भारत के प्रमुख समाचार-पत्र व पत्रिकाओं में छप चुके हैं।

लेखक की ओर से


लेखन एक ऐसी क्रिया है जो कि आदत पड़ जाए तो छूटती नहीं है और छूटनी चाहिए भी नहीं। हाँ, आदत डालना इतना आसान नहीं है जितना लिखने में। इसके लिए मेहनत करनी पड़ती है, हर समय मन को तैयार रखना पड़ता है कि जब भी कोई असाधारण अनुभव देखें या सुनें या कोई घटना याद आए या पढ़ें तो उस पर टिप्पणी करने से जी नहीं चुराएँ, उंगलियाँ चला ही दें।
आधुनिक चिकित्सा विज्ञान काफी शोध के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि सभी बीमारियाँ हमारे मन से, हमारे मस्तिष्क से आरंभ होती हैं, यानि वे मनोवैज्ञानिक क्रियाएँ या उनके फल हैं।
नकारात्मक विशेताएँ जैसे अहमतरस, दुख, खेद, चिंता, अनिर्णयकता, खिंचाव, तनाव, बेचैनी, बेसब्री, निराशा, हीन भावना इत्यादि ही बीमारियों की जड़ हैं। लिखना आसान है कि इन सबको त्याग दें (तब तो लोग मानव नहीं भगवान या योगियों की श्रेणी में आ जाएँगे) किंतु इन सबसे बचना या बचने का अभ्यास करना इतना आसान नहीं।
इस समस्या का एक हल है अपने को व्यस्त रखना, इतना व्यस्त कि यह सोचने का समय ही न मिले कि मैं सुखी हूँ या दुखी। कुछ न कुछ कर्म या कृत्य में लगे रहें चाहे आध्यात्मिक हो या पारिश्रमिक।

दूसरा हल है अपने को ईश्वर को समर्पण कर देना। कर्म किए जाएँ और फल उस पर छोड़ दें-गीता का संदेश। ईश्वर ने ही हमसे बिना पूछे हमें किसी परिवार में जन्म दिलवाया और जब भी चाहेगा तो उठा लेगा। हम तो कुछ वर्षों के लिए इस पृथ्वी पर मेहमान के तौर पर आए हैं तो किसी से द्वेष या बराबरी क्यों करें ? नंगे आए थे और नंगे जाएँगे तो यह बनावट, सजावट और जमावट क्यों और किसलिए ?
जब कभी हीनता और आत्म तरस की भावना का दौर दिल में आने का प्रयत्न भी करता है तो सोचता हूँ कि रात्रि के समय स्टेशन का चक्कर लगा लूँ। वहाँ देखूँगा कि सैकड़ों प्राणी फुटपाथ पर पड़े हैं और यह उनकी गलती नहीं है, केवल उनका दुर्भाग्य है, बदकिस्मती है। सम्राट ‘बहादुरशाह जफर’ भी दो गज जमीन के लिए तड़प गया और मुझे तो भगवान ने मकान दिया और बनवा भी दिया। शिक्षित मानव को इसी तरह की सोच करनी चाहिए।
एक पहलू और। ईश्वर ने आरंभ में स्वस्थ शरीर हर एक को दिया है, तो यह अवश्यक है कि उनकी देन की ठीक से रक्षा करें। हर समय कोशिश होनी चाहिए कि अपनी पाचन व्यवस्था ठीक रहे। यह क्यों ? क्योंकि अस्सी प्रतिशत बीमारियाँ इस व्यवस्था के गड़बड़ाने से लगती हैं। समाधान यह है कि रोज सबेरे नियम से नित्य कर्म (शौच, भजन इत्यादि) से निवृत्त होकर टहलने व व्यायाम करने निकल जाना चाहिए। गुरु रामदेव की यौगिक कसरतें, मधुमेह बुखार, ठंड इत्यादि पास नहीं फटक पातीं। इस विषय पर उल्लेख लेख डॉक्टरों से विनती में भी किया हुआ है।
अब आइए आतंकवाद पर। हम भारतवासियों ने अब आतंकवाद थोड़ा पहचानना आरंभ किया है फिर भी अधिकतर लोग सामान्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं, अपने धंधों में लगे हुए हैं। जरा सोचिए मध्य एशिया का क्या हाल है ? इज़राइल पैलिस्टीन में युद्ध व आतंक लगातार चल रहा है। ईराक व अफगानिस्तान में कोई नहीं कह सकता कि अगला दिन सामान्यता से बीतेगा कि नहीं। अमेरिका में 32 करोड़ मनुष्य हैं तो बत्तीस करोड़ पिस्तौल भी। तो इस वातावरण में, इस माहौल में हमारे देशवासी ठीक से जी रहे हैं। मुंबई, दिल्ली, बंगलौर जैसे नगरों में स्त्रियाँ व लड़कियाँ शिक्षा ग्रहण कर रही हैं व तरह-तरह के धंधों में हिस्सा ले रही हैं। बच्चों के स्कूल हर जगह खुले हैं और सामान्य शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। यह सब ईश्वर का आशीर्वाद समझना चाहिए।
जहाँ तक मेरा सवाल है, ईश्वर की असीम कृपा बनी हुई है-स्वस्थ हूँ और कार्यरत भी-और वह भी 66 वर्ष की आयु में, और क्या चाहिए ? कुछ नहीं, बस प्रार्थना है कि यह कृपा जब तक हो सके बनी रहे।
इन लेखों व लघुकथाओं का संकलन कुछ हितैषी व शुभचिंतकों के प्रोत्साहन व आशीर्वाद से हो सका है।
-माताश्री अन्नपूर्णा अब नहीं रहीं किंतु जीवन की अब तक की यात्रा उनकी प्रेरणा व बढ़ावे से तय हो पाई।
-मासी कलाजी कौल का भी आशीर्वाद व उनके सुझाव फूलों की तरह बरसा करते हैं।
-डायमंड पॉकेट बुक्स के प्रबंध निदेशक श्री नरेन्द्र कुमार ने मेरी किताबें छापकर मुझ पर बहुत कृपा करी। आशा है पाठकों की सोच भी यही हो।
-ए.एच. वीलर के प्रबंधक श्री समीर बनर्जी ने मेरी किताबों को जनता तक पहुँचाने में योगदान दिया। उनका आभारी हूँ, मित्र हो तो ऐसा।
-पत्नी प्रीति को कैसे भूल सकता हूँ। जीवन के पथ पर साथ देती आई है, सहायक बनकर, गुरु बनकर और शिष्य बनकर भी।

राज गोपाल काटजू

पूजा से साक्षात्


शिशुओं की देखरेख (baby-sitting) के बारे में बहुत सुना था। अमेरिका में यह धंधा बहुत प्रसिद्ध है। सुना है यह करते-करते लोग लखपति बन जाते हैं।
हमें इस धंधे से लखपति बनने का कोई चाव नहीं था, किंतु दादा बन चुके थे अवकाश प्राप्त हो गए थे तो कैसे बच पाते ?
एक दिन सवेरे दस बजे बेटा और बहू अपने स्कूटर पर आए और कहा ‘‘पापा मैं काम पर जा रही हूँ, आप और अम्मा जी पूजा की देखभाल कीजिएगा। यह सो रही है। दो घंटे बाद जागेगी, तब इसे दूध बनाकर बोतल से पिला दीजिएगा। वैसे मैं भी डेढ़ बजे आ जाऊँगी।’’
हमने कहा-‘‘ठीक है बेटा, कोई तकलीफ नहीं।’’ उधर छह माह की पूजा ने भी आँख खोली, माँ को देखा, जैसे कह रही हो ‘कोई तकलीफ नहीं मम्मी, मैं दादा-दादी को संभाल लूँगी। आप ऑफिस हो आइए’’ और आँख बंद कर फिर सो गई।
बहू ने निश्चंत होकर स्कूटर चालू किया और पूजा रानी की नींद नदारद हुई।
पूजा पीठ के सहारे पड़ी हुई तिलचट्टे (cockroach) की तरह लेटे हुए हाथ-पाँव को साईकिल की तरह चलाने में निपुण है। तिलचट्टे तो अपनी निपुणता घंटों अभ्यास के बाद संपन्न कर पाते हैं। पूजा में इतना धीरज कहाँ ? न समय। उसे तो सब कुछ एकदम सीखना है, करना है।
तो माँ की याद में पूजा ने साईकिल चलानी आरंभ करी और तेज रफ्तार में पटरी बदली यानि पेट के बल आ गई। जैसे तैर रही हो। चीखी और आँसू निकल आए।
हम घबरा गए। यह तो मामला गंभीर हो गया। अब क्या करें ? देवीजी को उठाया और दिल से चिपका लिया। चीखें बंद नहीं हुईं। ऊपर से फिसलती मछली से जैसे संघर्ष होने लगा। सामने टी.वी. था हमने आव देखा न ताव, उसे चला दिया।
देखा स्क्रीन पर कोई अभिनेत्री नाच रही है। शायद शिल्पा थी, शेट्टी या शिरोडकर। पहचानने का समय कहां था ? उधर पूजा जी का रोना गायब हो गया। ऐसे डोल कर देखे जैसे सांप सपेरे की बीन पर डोलता है। हमने अभी तक नाश्ता नहीं खाया था और पेट में चूहे कूद रहे थे। क्या करते, यह समस्या गंभीर थी।
दस मिनट अभिनेत्रियों की उछल-कूद सहते रहे। फिर नीचे देखा, असली अभिनेत्री निद्रा में व्यस्त थी। धीरे से बिस्तर पर लिटा दिया। लेटे ही लेटे, सोते सोते पूजा ने दायां हाथ बिस्तर पर मारा। कोई हाड़ मांस का जीवन नहीं था। अगले क्षण आँख खोल चीख मारी। हमने भोजन की खोज स्थगित करी और बिस्तर में कूद पूजा को बाहों में लिपटा लिया। उसकी आँखों पर हाथ रख संगीत गुनगुनाने लगे। दो तीन मिनटों में यह कार्य रंग लाया। पूजा फिर से सो गई। हम वहीं लेटे रहे, हिम्मत नहीं हुई कि इससे अलग होएं। भूचाल आ जाएगा।
लगा जिन्दगी भर भूख से तड़पते रहे और ऊंघते रहे। फिर किसी ने हिलाया, देखा देवीजी की आँखें खुली हुई हैं और वे हमारे पेट को फुटबॉल बनाए हैं। मुस्कुराते हुए नीचे छुआ। पलुआ गीला पाया।
उनकी दादी ने पलुआ बदला। समय देखा साढ़े ग्यारह बजे थे। उधर पूजा जी हमें जबान हिला-हिलाकर चिढ़ाने लगीं। थोड़ी देर बाद उबकर चिंघाड़ मारी। हमारा दिल फिर बैठने लगा।
दादी अधिक समझदार निकली। जल्दी से दूध तैयार किया और बोतल पूजा के मुँह में डाली। देवी जी मुँह के साथ-साथ हाथ-पाँव भी चलाए जाएँ। कुछ ही देर में यह कार्य समाप्त हुआ। चम्मच से पानी भी पिया और उसे दादी से छीन चबाने का प्रयास किया। चूहे बिल्लू का खेल। असफल रहीं और एक नुकीले कोने से मसूड़े पर चोट मारी। फिर चीख मारी रोने की तैयारी में।
पूजा को बाहर घूमने का शौक है। चाहे कड़कती धूप ही क्यों न हो। जल्दी से गोद में उठाया और बाहर भागे। ड्योढ़ी पर स्कूटर खड़ा था। उस पर बिठाया तो रोना भूल उसके यंत्रों का परीक्षण करने लगी। स्विच को परखा, चाभी को घुमाया। धैर्य की सीमा कम है। मूड बिगड़ते देख पेड़ों के पास ले गए। वहाँ पेड़, फूल व पत्तों का निरीक्षण ध्यान से हुआ। पत्तियाँ मसली गईं, फूल की हड्डी पसली अलग कर दी गई, फिर हमें बाहर चलने की आज्ञा इशारे से हुई बाजार चलो।
धूप थी, सिर पर रुमाल लपेटा और सड़क के किनारे हलवाई की दुकान पर ले गए। पहले तो शीशे के अंदर की मिठाईयों को घूर उन पर लपकी। शीशे से संघर्ष किया तो दीवार के सहारे बिठा दिया। देवीजी सवारियों को देखने में ऐसी गाफिल हुईं कि मिठाई, गर्मी, रोना इत्यादि सब भूल गईं। मोटर, स्कूटर, साईकिलों को एकटक देखती जाए। उधर दादाजी की कमीज पसीने से लथपथ हो गई। पूजा के विरोध करने पर भी उसे उठाया, गोद में चिपकाया और छांह के सहारे घर का रास्ता नापा। मंद हवा भी चल रही थी, पूजा जी फिर निंद्रादेवी के वशीभूत हो गईं।
घर में बहू अपनी लाड़ली को देखने के लिए खाने के अवकाश में आई हुई थी। उसे सवेरे से दोपहर तक की कथा सुनाई तो जवाब मिला ‘‘दादाजी, पौत्री को हलवाइन बना रहे हैं।’’ हम पर शर्मीली मुसकान फू़ट पड़ी। सोचा कि अवकाश प्राप्त जीवन तो काम-काजी जीवन से अधिक व्यस्त बीतेगा। और अभी तो केवल इंटरवल हुआ है, आधी दिनचर्या तो बाकी है।

सोने की कला


हमारी पौत्री पूजा जब सात माह की थी तब उसकी स्वर्गीय नेपोलियन से एक समानता थी, दोनों कहीं भी और किसी भी समय सो सकते थे। नेपोलियन तो अकसर अपने घोड़ों पर सोता था। पूजा यह कार्य अपनी माता या दादी की गोद में करती थी। दादी की आज्ञा हुई, ‘‘पाइप लगाओ’’ कि पूजा जी का अंगूठा मुँह में गया और आँखें मुंदीं।
निद्रादेवी का आक्रमण सूचक होता था पूजा की उंगलियों का आचरण। नाखूनों से दादी या दादा का गला छीलना आरम्भ हो जाता था। वैसे नींद का विरोध भी कभी-कभी होता था और हल्की सी आवाज जैसे किसी स्कूटर की ध्वनि या कुत्ते का भौंकना भी नींद की बाधक बन जाती थी।
एक दिन पूजा गहरी नींद में थी, बगल के फ्लैट के अंकल को एक एटमबनुमा छींक आई और फिर एक और। दो बंद दरवाज़े व एक मोटा पर्दा दुर्घटना को नहीं बचा पाया। पूजा बिस्तर से ऐसे उठी जैसे कोई शेर का बच्चा नींद पूरी कर लड़खड़ाते कदमों पर उठा और अचरज से इधर-उधर शिनाख्त कर रहा है कि यह तूफान कहाँ से आया। कोई रोना नहीं, कोई आंसू नहीं, केवल यह जानने का कौतुहल की घटना का नायक कौन है।
वैसे सोते हुए भी पूजा कसरत करती रहती थी। बिस्तर के बीच में उत्तर-दक्षिण दिशा में सुलाओ और पंद्रह मिनट बाद देवीजी एक कोने में पूर्व-पश्चिम दिशा में मिलती। जाहिर था कि इस पर्यटन से कोई दुर्घटना से बचने के लिए तकियों की सहायता से कई बांध बनाने पड़ते।
बादशाहों की तरह पूजा को अकेले सोना पसंद नहीं था। हर समय किसी का बगल में रहना आवश्यक था। सोते हुए हर आठ-दस मिनट में उसका दायां हाथ उठता और गोल आकार बनाते हुए बिस्तर में बगल की जगह की जांच करता। अगर किसी मांसल देह या अंग का स्पर्श हुआ तो नींद जारी रहती अगर नहीं तो रोना शुरू।
एक दिन देवीजी सो रही थीं और हम बगल में लेटे हुए गायत्री मंत्र गुनगुना रहे थे। एकदम उनका दायां हाथ उठा और हमारी नाक को हवा देते हुए तकिए पर पड़ा। हमारी आँख खुली, देखा पूजा ने वालरस, जैसे एक आंख खोली, देखा दादाजी बगल में हैं और निश्चिंत हो फिर नींद में बेखबर हो गई।
एक और दिन हम भी थके हुए थे। पूजा जी को सुलाते-सुलाते खुद भी सो गए। करीब घंटे भर बाद मुंह पर हल्का सा वार हुआ। आँख खुली, देखा पूजा जी बैठी हुई दादा को जगाने में व्यस्त थीं। अपनी नींद का अंश (quota) पूरा हो गया था तो दादाजी को क्यों और सोने दिया जाए ?

रूपांतर


बढ़ते हुए शिशु का विकास प्रकृति का एक चमत्कार ही होता है। हमें भी यह देखने व इसका अध्ययन करने का सुअवसर मिला।
छह माह तक तो हमारी पौत्री पूजा पीठ के बल तिलचट्टे (cockroach)  की तरह हाथ पैर चलाती रही। भूख लगे या पलुआ गीला हो तो रोने लगे, कोई प्यार से देखे या बातें करे तो मुस्कुराने लगे। चौथे महीने से तो आँखें भी स्थिर कर जीवों पर केंद्रित करना आरंभ कर दिया। उससे पहले ऐसे डिबडिबाती थी जैसे प्रसिद्ध निर्देशक स्पीलबर्ग के अभिनय स्कूल से सीख कर आई हो। कोई वस्तु जैसे रंगीन गेंद या खिलौना दिख जाए तो हाथ पैर की साईकिल अधिक गति पकड़ ले, रोने-चिल्लाने के साथ। किंतु वहाँ तक पहुँच न पाए, वस्तु अपने परिश्रम से भी हासिल न हो पाए।
एक दिन नन्हें से कम्प्यूटरनुमा मस्तिष्क ने अवश्य सोचा होगा कि अब बहुत हो गया। बड़ों पर हर कार्य के लिए निर्भर नहीं रहना है, कुछ न कुछ करना पड़ेगा। यह हालात, यह दुर्दशा अब अधिक नहीं सहनी चाहिए।
तो हम संरक्षक दादा व दादी ने एक दिन आश्चर्य से देखा कि पूजा ने जोर लगाया किलकारी भरी और एकदम पीठ से घूमकर पेट के बल आ गई। ‘धम्म’ से आवाज हुई और उसका सिर व नाक फर्श से टकराए।
लगा कि यह भी उसके लिए अनूठा अनुभव है-एकदम तीव्रता से चीख मारी और आंसू बहा रोने लगी, हमने जल्दी से गोद में उठाया, पुचकारा, सिर हिलाया तब कहीं दो-तीन मिनट बाद ज्वालामुखी शांत हुआ। एक निष्कर्ष निकाला कि पूजा जी अब एक दो सप्ताह तक ऐसा परीक्षण नहीं करेगी-दूध का जला छांछ भी फूक-फूककर पीता है। उसी शाम फर्श पर पड़ी पूजा ने हमारा निष्कर्ष गलत साबित कर दिया।
खिसटने की आवाज सुन हमने देखा कि पूजा ने कोशिश कर, संतुलन बनाए रखते हुए, बिना किसी चोट के करवट बदली। पेट के बल आ गई और हमसे आंखें चार कर मुस्कराने लगी। शायद एक आंख भी झपकाई। अब वह सिर थोड़ा उठाए हुए हमें एक टक देख रही थी।
हम दोनों यह चमत्कार देख हैरान हो गए। लगता है उसने दोपहर भर हमारी बेखबरी में उलटने का अभ्यास किया होगा, शायद चोटें भी खाई होंगी किंतु सहती गई। अब वह इस क्रिया में निपुण हो गई थी।
गोद में उठा उसे मीठा बिस्कुट पीसकर पुरस्कार के एवज में चटाया।
कुछ दिनों तक यह अभ्यास चलता रहा किंतु एक ही स्थान पर। अगर कोई बलून सामने पड़ जाता तो 180 डिग्री घूम तो जाती किंतु उसी स्थान पर पेट के बल पड़ी-पड़ी हाथ-पैर चलाती और आंसू बहाती। तब कोई शुभचिंतक बलून हाथों के पास कर देता।

एक दिन एक लाल गेंद उसके हाथों की सीमा से करीब एक फुट दूर पड़ी थी। कमरे में और कोई नहीं था। हम बिना आवाज किए कमरे में घुसे। देखा पूजा का चेहरा लाल। कठिन परिश्रम करते आगे जाने की चेष्टा कर रही थी। एक हाथ मारा, फिर दूसरा, फिर पहला, फिर दूसरा, जैसे तैसे तैर रही हो। पैरों से भी शरीर को आगे ढकेलने की कोशिश जारी। और इंच-इंच बढ़ती हुई गेंद की तरफ अग्रसर हो रही है।
चुपचाप पत्नी को बुला यह दृश्य दिखाया। पूरे आठ मिनट बाद पूजा गेंद को छूने में सफल हुई। जब हमने तालियां बजाईं तब उसने हमें देखा और चार छोटे दांतों की मुस्कान से हमारा अभिनन्नद किया। लगता है उसे वही आनन्द प्राप्त हुआ होगा जो राईट बंधुओं को किटी हॉक, अमेरिका में पहली उड़ान पर प्राप्त हुआ था।
दस दिन बाद शिशुसदन की मालकिन ने पुलकित हो हमसे कहा ‘‘पूजा की उम्र के दो बच्चे तो सदन में जहाँ रखा वहीं पड़े रहते हैं किंतु आपकी पूजा तो पंद्रह फुट के इस सदन का मछली की तरह तीन-चार चक्कर रोज लगा लेती है।’’ हम लज्जा गए, ‘‘अच्छा ? सब आपकी देखरेख का प्रताप है।’’
महीने भर यह खेल चलता रहा। कभी-कभी पूजा उठने का भी प्रयास करती किंतु हाथ तो आगे का हिस्सा संभाल लेते पर पीछे का हिस्सा कमजोर पांव नहीं उठा पाते। एक दिन कड़ी मेहमत भी की गई, दो-तीन बार फिसली भी। सिर धरती से टकराया और आंसू निकल पड़े। हमने पुचकार कर पोछ दिए।
दूसरे दिन फिर प्रयास जारी जैसे सर्कस का नट अभ्यास कर रहा है। चौथे दिन शेर के शिशु जैसे कांपते हुए पूरे शरीर का नियंत्रण हुआ दोनों हाथों और पांवों के बल। कुछ क्षणों में देवीजी धराशायी हो गईं किंतु सफलता की कुंजी हाथ में गई थी।
सवेरे हम अखबार पढ़ रहे थे। कनखियों से देखा पीठ के बल लेटी हुई। पूजा ने एकाएक करवट बदली और पेट के बल आ गई। फिर हल्के-हल्के हाथों और पांवों पर पूरे बदन को उठाया और हमारी तरफ मुस्कराती हुई अग्रसर हुई। डगमगाते हुए, आगे बढ़ती गई और फिर हमारे पैरों से लिपट गई।
हमने जेब से चॉकलेट निकाल इनाम दिया, बहुत खुश।
थोड़े ही दिनों में खड़ा होना फिर चलना आरंभ कर देगी।


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