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श्रंगार - प्रेम >> नीलकंठ

नीलकंठ

गुलशन नन्दा

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4732
आईएसबीएन :81-288--1440-0

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कलम के जादूगर गुलशन नंदा का एक अत्यन्त रोमांटिक और सामाजिक उपन्यास...

Neelkanth

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

संध्या और बेला दोनों रायसाहब की बेटियां...संध्या शांत स्वभाव वाली, जबकि बेला शोख, रंगीन मिजाज। बेला बम्बई में पढ़कर वापस लौटती है तो पाती है कि संध्या और आनन्द एक दूसरे से प्यार करते हैं। लेकिन बेला भी आनन्द को चाहती है। एक दिन बेला को पता चलता है कि संध्या राय साहब की गोद ली हुई पुत्री है तो वह क्रोधित हो यह सब संध्या को बता देती है। संध्या को जब अपनी माँ का पता चलता है तो वह उनसे मिलने गांव पहुँचती है जो कि गरीबों की बस्ती है और संध्या की मां उस गांव में चायखाना चलाती है। इस बीच धोखे से, अपने मोहजाल में फंसाकर बेला आनन्द से विवाह कर बंबई चली जाती है। बंबई में बेला को फिल्मों में काम करने का मौका मिलता है लेकिन आनन्द को यह सब पसन्द नहीं और उसकी हालत पागलों जैसी हो जाती है।

क्या आनन्द का पागलपन दूर हुआ ? क्या बेला एक फिल्म अभिनेत्री के रूप में सफल हो सकी ? क्या संध्या के जीवन में कोई और पुरुष आया ? इन सब जिज्ञासा भरे प्रश्नों का उत्तर आप इस उपन्यास में पा सकते हैं जो कि कलम के जादूगर गुलशन नंदा द्वारा लिखा गया है।

गुलशन नंदा का नाम रोमांटिक और सामाजिक उपन्यासकारों में सर्वाधिक लोकप्रिय है। उन्होंने अपने बीच समाज को जिया तथा उसके ताने-बाने को अपने उपन्यासों में उतारा था। उनके सभी उपन्यास आज भी प्रासंगिक हैं। उनके कई उपन्यासों पर फिल्में भी बनीं। उनके लोकप्रिय उपन्यासों में घाट का पत्थर, नीलकंठ, जलती चट्टान, कलंकिनी, आसमान चुप है, चंदन, शीशे को दीवार प्रमुख रही है। आज भी उनकी लिखी कहानियां एवं उपन्यास घर-घर में पढ़े जाते हैं। गुलशन नंदा के सभी उपन्यास अपने पहले ही संस्करण में पांच लाख से ऊपर बिकते थे। आज भी निरंतर बिक रहे हैं। इनके कई उपन्यासों पर फिल्म भी बन चुकी हैं। पाठक आज भी उनके साथ हैं, भले वे आज हमारे बीच नहीं हैं।
लड़कियां जीवन में दो जन्म लेती हैं-एक अपने मां-बाप के घर और दूसरा ससुराल में। परंतु संध्या का यह जन्म अनोखा था। वह क्या जाने कि उसका दूसरा जन्म ससुराल में नहीं बल्कि ऐसे संसार में होगा जहां दर्द और चीख-पुकार के अतिरिक्त कुछ नहीं...।
-इसी पुस्तक में से

नीलकंठ


असवाधानी से पर्दा उठाकर ज्यों ही आनंद ने कमरे में प्रवेश किया वह सहसा रुक गया। सामने सोफे पर हरी साड़ी में सुसज्जित एक लड़की बैठी कोई पत्रिका देखने में तल्लीन थी। आनंद को देखते ही वह चौंककर उठ खड़ी हुई है।
‘आप !’ घबराहट में कम्पित स्वर में उसने पूछा।
‘जी, मैं-रायसाहब घर पर हैं क्या ?’
‘जी नहीं, अभी ऑफिस से नहीं लौटे।’
‘और मालकिन’-आनंद ने पायदान पर जूते साफ करते हुए पूछा।
‘जरा मार्किट तक गई हैं।’

‘घर में और कोई नहीं ?’
‘संध्या है, उनकी बेटी ! अभी आती है।’ वह साड़ी का पल्लू ठीक करती हुई बोली।
‘आपको पहले देखा नहीं कभी...।’
‘जी, मैं सहेली हूँ उसकी’ वह बात काटते हुए बोली, ‘आप बैठिए, मैं उसे अभी बुलाकर लाती हूँ।’
जैसे ही वह संध्या को बुलाने दूसरे कमरे की ओर मुड़ी, किनारे रखी मेज से वह टकरा गई और अपने को संभालती हुई शीघ्रता से भाग गई। आनंद उसकी अस्त-व्यस्त दशा देख अपनी हँसी को कठिनतापूर्वक रोक पाया और दीवार पर लगे चित्रों को देखने लगा।

कुछ समय तक न संध्या और न उसकी सखी ही आई तो आनंद ने बिना आहट किए दूसरे कमरे में प्रवेश किया। सामने वह लड़की बाथरूम का किवाड़ खटखटा रही थी। आनंद हौले से एक ओर गया।
‘अभी कितनी देर और है तुझे ?’ लड़की ने तनिक ऊँचे स्वर में पूछा।
‘चिल्लाए क्यों जो रही है, कह जो दिया आती हूँ परंतु वह कौन है ?’ भीतर से सुनाई दिया।
‘मैं क्या जानूं ?’ बैठके में बैठा देवी जी की प्रतीक्षा कर रहा है !’
‘तू चलकर उसका मन बहला जरा-मैं अभी आई।’
‘वाह ! अतिथि तुम्हारा और मनोरंजन करें हम।’
इसके साथ ही चिटखनी खुलने की आवाज सुनाई पड़ी। आनंद झट पर्दे की ओट में हो गया।
‘घबरा तो ऐसे रही है मानो ससुराल से कोई देखने आया है।’ संध्या बाथरूम से निकलती हुई बोली।
‘संध्या !’ उस लड़की ने लाज से आँखें झुकाते हुए संध्या का पाँव दबाया। आनंद सामने खड़ा दोनों की बातों पर हंस रहा था।

‘ओह आप’-संध्या ने आंचल संभालते हुए कहा-‘कब आए ?’
‘पाँच बजकर दस मिनट छह सैकिण्ड पर।’
इस उत्तर पर संकोच से सिमटी संध्या की सूखी की हंसी छूट गई।
‘ओह !’ यह मेरी सहेली निशा-और आप मिस्टर आनंद’, संध्या ने दोनों का परिचय करता हुए कहा।
तीनों बैठक में आए। उसी समय रायसाहब, मालकिन और संध्या की छोटी बहन रेनु ने कमरे में प्रवेश किया। आनंद को देखते ही सब प्रसन्नता से खिल उठे। रेनु तो हाथ के खिलौने फेंक आनंद की टाँगों से लिपट गई। आनंद ने उसे गोद में उठा लिया।
आश्चर्यचकित निशा से न रहा गया। उसने धीरे से संध्या को समीप खींचते हुए पूछा-‘तो यह हैं वह श्रीमान !’
‘हाँ री, क्यों कैसे लगे ?’

‘सो-सो’-कहते ही निशा साथ वाले कमरे में भाग गई। संध्या ने तीव्रता से उसका पीछा किया और उसकी कमर में चुटकी लेते हुए बोली-
‘अब बोल, क्या कहा था तूने ?’
‘अरी, लड़ती क्यों है-कह जो दिया अच्छा, गुड-अब प्राण लेगी क्या। सच कहती हूँ वेरीगुड, ऐक्सीलेंट, वंडरफुल।’
‘अब आई सीधे मार्ग पर’ संध्या उसे छेड़ते हुए बोली।
‘लाठी के भय से तो लोग दिन को रात कह डालते हैं।’ कमर को सहलाते हुए निशा ने बड़बड़ाकर कहा।
संध्या फिर उसकी ओर लपकी, पर पापा की आवाज सुनकर रुक गई। सब उसी कमरे में आ पहुँचे। दोनों को वहाँ देखकर रायसाहब बोले-
‘अरे, तुम अभी यहीं हो, मैंने जाना तुम चाय का प्रबंध कर रही हो। आज तो चाय भी बढ़िया बननी चाहिए, आनंद जो आया है। क्यों संध्या ?’

‘हाँ पापा, अभी तैयार हुई।’ संध्या ने धीमे स्वर में कहा।
‘ना पापा, आनंद साहब चाय तो निशदिन पी जाते हैं किंतु अपना वचन कभी पूरा नहीं करते।’ रेनु ने मुँह बनाकर कहा।
‘कहो तो कौन-सा वचन है ?’ आनंद ने प्यार से रेनु की ओर देखते हुए पूछा।
‘नई मोटर का !’
‘ओह ! और यदि यह वचन अभी पूरा कर दें तो ?’
‘तो चाय के साथ मिठाई भी।’
‘अच्छा तो बात से बदलना मत।’
‘अजी, आपकी भांति झूठे नहीं हैं।’ रेनु की इस बात पर सब हंस पड़े।
‘तो लो, अपनी आँखें बंद करो जरा।’
जैसे ही रेनु ने अपनी आँखें मींचीं-आनंद ने सामने की खिड़की खोल दी। रेनु आँखें खोलकर उल्लास से चिल्लाई-‘पापा-मोटर !’ और तीव्रता से बाहर भागी।

सब खिड़की की ओर लपके और बाहर झांककर हल्के भूरे रंग की एक मोटर-गाड़ी को देखने लगे जो पिछवाड़े खड़ी थी।
थोड़े ही समय में घर का प्रत्येक व्यक्ति नई गाड़ी के पास इकट्ठा हो गया और हर कलपुर्जे का निरीक्षण होने लगा। संध्या और रेनु तो प्रसन्नता से फूली नहीं समा रही थी।
आनंद बंबई की एक प्रसिद्ध मोटर कंपनी का सेल्स मैनेजर था और मोटर की खरीद के विषय में ही उसका रायसाहब के यहाँ आना-जाना आरंभ हुआ जो अब इस घनिष्ठता में परिवर्तन हो गया था। यूं तो वह रायसाहब के एक निकटतम मित्र का भांजा था, किंतु अधिक जान-पहचान कभी-कभार के मिलने से बढ़ी थी। इसी संबंध में रायसाहब कुछ और भी सोच बैठे थे और वह था आनंद और संध्या का विवाह।
यह बात आनंद और संध्या से भी न छिपी थी। वे राय साहब की सहमति को जान चुके थे। संध्या से हर भेंट आनंद को लक्ष्य के निकट ला रही थी।

चाय के पश्चात् सब अपनी धुन में खोए थे। आनंद अवसर पाकर चुपके से कार की ओर बढ़ा जहाँ संध्या बड़े ध्यान से उसे देख रही थी।
आनंद समीप पहुँचकर बोला-
‘क्यों अच्छी लगी ?’
‘अच्छी ! बहुत अच्छी-और फिर हल्का भूरा रंग तो मेरा प्रिय रंग है।’
‘तभी तो लाया हूँ यह रंग, सादा-सा, तुम्हें भी तो सादापन अत्यंत प्रिय है।’
‘है तो-चमकीले-भड़कीले रंग तो मुझे भी नहीं भाते।’
‘परंतु कभी-कभी इनकी चमक आकर्षित भी कर लेती है-महोदय !’ संध्या ने कुछ ऐसे ढंग से उत्तर दिया कि आनंद हँस पड़ा और बात बदलते हुए बोला-
‘अच्छा छोड़ो इन बातों को, एक बात मानोगी ?’

‘क्या ?’ संध्या ने उत्सुकतापूर्वक पूछा।
‘चलो, नई कार में घूमने चलें।’
‘पापा से जाकर पूछ आऊँ !’
‘कैसी विचित्र बातें करती हो, यह भी भला कोई पूछने की बात है।’
‘तो यूँ ही चली चलूँ क्या ?’
‘नहीं तो क्या-निशा को तो घर छोड़ने तुम्हें जाना ही होगा।’
‘बहाना-बनाकर चोरों की भांति चलें।’
‘तो न सही-रहने दो।’ सामने से आती निशा को देखकर आनंद ने मुँह बनाते हुए कहा और भीतर की ओर चला गया।
राय साहब ने उसे देखकर पूछा-
‘क्यों, संध्या को कैसी जंची ?’
‘मेरे सामने तो वह अच्छी ही कहेगी। और हाँ रायसाहब ड्राईवर का क्या करना होगा ?’
‘गाड़ी ले दी है तो इसको चलाने वाला भी तुम्हें ही देना पड़ेगा।’
‘तो गाड़ी उस समय तक-।’

‘नहीं नहीं उसे तो ले लो। अभी रजिस्ट्रेशन इत्यादि में भी तो दिन लग जायेंगे।’
‘यदि ड्राईवर बना लेंगे।’ पास खड़ी रेनु बोल उठी।
‘हट दुष्ट कहीं की।’ मालकिन ने रेनु को डांटते हुए कहा। रायसाहब यह सुनकर मुस्करा दिए और फिर आनंद की ओर देखते हुए बोले-
‘तो इसमें हानि ही क्या है। इसी बहाने हम भी मोटर चलाना सीख लेंगे।’
आनंद उनसे विदा लेकर मोटर की ओर बढ़ा। निशा और संध्या वहाँ न थीं। आनंद ने इधर-उधर देखा किंतु वे कहीं दिखाई न दीं। विवश-खिन्न मन से मोटर स्टार्ट की और फाटक से बाहर निकल गया। गाड़ी थोड़ी दूर ही गई थी कि सामने पटरी पर संध्या और निशा पैदल चलती हुई दिख पड़ीं। आनंद ने चाहा कि गाड़ी को दौड़ाकर आगे बढ़ जाए किंतु इससे पहले ही दोनों ने मुड़कर उसे आते देख गाड़ी खड़ी करने के लिए संकेत किया। आनंद ने गाड़ी बिल्कुल उनके समीप रोक ली और संध्या को देखते हुए गंभीरतापूर्वक बोला-‘कहिए।’

‘देखिए, हमें सामने चर्च तक जाना है, यदि लिफ्ट दे सकें तो।’
‘ओह समझा, परंतु मेम साहिब। यह गाड़ी मेरी नहीं रायसाहब की है और उनकी आज्ञा के बिना किसी को लिफ्ट देना उचित न होगा।’
‘तो क्या हुआ-एकदिन हमारे लिए चोरी ही सही।’
‘नहीं मेम साहिब, मुझ गरीब की नौकरी का प्रश्न है। मैं अपने पेट पर स्वयं लात कैसे मार सकता हूँ।’
‘घबराइये नहीं, यदि रायसाहब ने नौकरी से जवाब भी दे दिया तो हम अपने पास रख लेंगे।’
‘आप क्या देंगी मुझे। केवल दो समय का खाना-रायसाहब तो मुझे वह सब कुछ देनेवाले हैं जो आप क्या दे पाएंगी ?’
‘हम भी तो सुनें-क्या ?’

‘अपनी लाडली-अर्थात् हमें अपना-’
‘आनंद !’ संध्या चिल्लाई और निशा को खिलखिलाते देखकर लजा गई। आनंद ने हाथ बढ़ाकर मोटर का द्वार खोला और दोनों हँसती हुईं भीतर, आ बैठीं।
निशा को घर छोड़कर आनंद ने मोटर समुद्र की ओर मोड़ दी। दोनों कुछ समय तक मौन बैठे रहे। आनंद गाड़ी में लगे दर्पण में संध्या के मुख के भाव देखकर मन ही मन मुस्करा रहा था। उसके कपोलों पर एक रंग आता और दूसरा जाता। अंत में आंचल को उंगलियों में लपेटते हुए बोली-
‘आनंद !’

‘हूँ।’
‘यह आपने अच्छा नहीं किया।’
‘ओह !’ आनंद ने गाड़ी रोकते हुए कहा-‘मैं तो भूल ही गया था’
‘पर आपने गाड़ी क्यों रोक दी ?’
‘इसलिए कि यह मैंने अच्छा नहीं किया। तुम पीछे अकेली और मैं-’
‘परंतु मेरा आशय यह न था।’ वह बात काटते हुए बोली-‘मैं तो बात को कह रही थी जो आपने निशा के सम्मुख कह दी।’
बोला-‘संध्या आगे आओ।’
‘नहीं, यहीं ठीक हूँ।’ वह गंभीर मुद्रा में बोली।

‘अब आ भी जाओ’ आनंद ने उसे बांह से खींचते हुए कहा और कुछ हठ के पश्चात् उसे फ्रंट सीट पर अपने साथ बिठा लिया।
‘परंतु उसमें झूठ ही क्या था ?’ आनंद ने पुनः गाड़ी चलाते हुए कहा।
‘झूठ हो या सच पर यह रहस्य ही रहना चाहिए।’
‘वह क्यों ?’
‘इसलिए कि यह बात कहीं वायु में उड़कर ही न रह जाए।’
‘तो तुम ऐसा भी सोचती हो ?’
‘आप पुरुषों का क्या भरोसा ! जब मन चाहा बोरिया बिस्तर समेटा और चल दिए।’
‘इसमें हमारा क्या दोष-यदि किसी सराय में आराम और सुख न मिले तो यात्री बेचारे के पास उपाय ही क्या रह जाता है ?’

‘यदि किसी का हृदय ही अशांत हो तो सराय की सुविधाएं उसे क्या सुख देंगी। सराय से मन का उठ जाना वहाँ के कष्टों पर नहीं वरन् किसी सुंदर विश्राम-घर की चमक-दमक पर निर्भर है।’
‘ओह ! तो आज आप हमें निरुत्तर ही करके छोड़ेंगी। लो मैंने हार मानी।’
परंतु इस हार में तो आप ही की जीत छिपी है।’
बातों-बातों में दोनों समुद्र तट पर पहुँच गए। आनंद ने गाड़ी एक ओर लगा दी और संध्या को खींचकर पानी की ओर ले चला। दोनों के हृदय सागर की उठती तरंगों के समान उल्लास से उछल रहे थे।
संध्या सैंडिल उतारकर साड़ी को घुटनों तक उठा पानी में उतर गई और संकेत से आनंद को अपने समीप बुलाने लगी। उसके न आने पर स्वयं खींचकर उसे लहरों में ले गई। आनंद चिल्लाया ! उसकी पतलून और जूते सब भीग गए परंतु संध्या ने एक न सुनी।

पानी की एक बड़ी उछाल आई और दोनों को सिर से पांव तक भिगो गई। दोनों एक दूसरे को थामे मौन खड़े थे। मानो उछाल की उतार के साथ ही यौवन का उत्साह बह गया हो। संध्या ने शरीर से चिपके हुए कपड़ों को ठीक करने बिछी एक बेंच पर बैठकर वे अपने कपड़ों को निचोड़ने लगे।
‘घर वाले पूछेंगे तो क्या कहूँगी ?’ संध्या ने दृष्टि नीचे किए हुए पूछा।
‘कह देना समुद्र में कूदी थी।’
‘किसलिए ?’
‘शरीर से ज्वाला जो भड़क रही थी। फायर-ब्रिगेड नहीं तो समुद्र ही सही।’
‘चलिए हटिए, आपको मजाक सूझ रहा है। मेरे तो भय से प्राण निकले जा रहे हैं।’
‘प्रेम का दूसरा नाम ही उपहास है।’
‘तो आप प्रेम की पवित्र भावना को उपहास समझते हैं ?’

‘मैं तो नहीं, वैसे है यह कुछ ऐसी वस्तु ! कुछ व्यक्ति को इसे स्वर्ण-जल भी बोलते हैं।’
‘तो जाइए, छली कहीं के।’ संध्या मुँह फेरते हुए बोली।
‘बस, बिगड़ने लगीं-यदि बात बातपर यूँ बिगड़ोगी तो जीवन क्योंकर कटेगा ?’
‘रोते-चिल्लाते और तभी मार-पिटाई में भी।’ संध्या ने इसी मुद्रा में उत्तर दिया।
‘तब तो खूब कटेगी, घर में रेडियो की आवश्यकता न होगी। रेडियो तो एक ओर, रसोईघर में बर्तन भी साथ देंगे।’
‘अति सुंदर! पड़ोसी सिनेमा तक जाना छोड़ देंगे और हमारी आय बढ़ेगी।’
‘क्या इस नाटक पर टिकट लगेगा ?’

‘क्यों नहीं...किसी के बाबा के नौकर हैं, जो दिन-रात खेल हम मुफ़्त दिखायेंगे।’
‘‘बाबा के नौकर ! धंधा तो इतना पसार रहे हो पर हम दोनों करेंगे क्या क्या ?’
‘सच ही है स्त्रियों की बुद्धि चुटिया में होती है। वह जो चार-छह नन्हें-मुन्ने होंगे वे किस काम आएँगे ?’
यह सुनते ही संध्या खिलखिलाकर हँस पड़ी और उसके साथ ही आनंद भी। बातों-बातों में दोनों कहाँ पहुँच गए थे। इन बातों में उन्हें कितना आनंद मिल रहा था।
‘संध्या !’ आनंद ने उसके कंधे को धीरे से छूते हुए कहा।
‘हूँ।’

‘यदि आज तुम हँस न देतीं तो मैं हारने वाला न था।’
‘वह तो अच्छा रहा-जीत मेरी रही, देखिए ! वह क्या है ?’
‘नीलकंठ-बहुत सुंदर पक्षी है-क्या वह इस पेड़ से उड़ा है ?’
‘जी...न जाने यहाँ कब से बैठा हमारी बातें सुन रहा था।’
‘तो क्या हुआ-मूक पक्षी किसी से कहेगा थोड़े ही।’
‘संसार वालों से तो नहीं परंतु इन्द्रलोक में हमारे प्रेम की चर्चा तो अवश्य करेगा।’
‘संध्या ! एक बात कहूँ।’
‘कहिए-’
‘आज से हम अपने प्रेम को ‘नीलकंठ’ की संज्ञा देते हैं।’

‘और हाँ-जीवन में हमने यदि कभी कोई मकान बनाया तो उसका नाम भी नीलकंठ ही रखेंगे।’
‘तो अब स्त्रियों की बुद्धि भी दूर तक सोचने लगी’ और फिर दोनों हँस पड़े।
दोनों की दृष्टि समुद्र की तंरगों पर पड़ी जो अब शांत हो चुकी थीं और दूर किसी मछेरे का आशा-भरा गीत सुन रही थीं, जो तट की ओर नाव खेता बढ़ा आ रहा था। संध्या आनंद का सहारा लेकर उठी और दोनों आकर गाड़ी में बैठ गए।
संध्या जब घर पहुँची तो अंधेरा हो चुका था। वह भीगी बिल्ली के समान दबे पांव सबकी दृष्टि से बचती अपने कमरे की ओर बढ़ी। जैसे हो उसने किवाड़ खोलने को हाथ बढ़ाया, किसी का स्वर सुनकर वह कांप गई। वह मालकिन थी जो इतनी देर से आने का कारण पूछ रही थी।
‘मम्मी, जरा निशा के घर देरी हो गई।’ संध्या ने धीमे स्वर में उतर दिया।
‘तुम तो भीग रही हो क्या बाहर वर्षा हो रही है ?’

‘हाँ मम्मी, मार्ग में इतनी जोर की वर्षा आ गई कि-‘ पर मम्मी को मुस्कराते देखकर वह चुप हो गई।
‘जान पड़ता है कि आज मेरी बिटिया झूठ बोल रही है।’
‘तो मैंने कब कहा यह सब सच है।’
संध्या की बात सुन मालकिन की हँसी छूट गई। उसे देखकर संध्या भी हँस पड़ी और अपनी बाहें उनके गले में डालकर बोली-
‘माँ, मेरी अच्छी माँ ! तू बुरा तो नहीं मान गई। आज आनंद बाबू के संग गई थी समुद्र तट पर। वह हठपूर्वक मुझे संग ले गए थे। मैं तो चलकर ही जा रही थी, परंतु उन्होंने नई कार का पट खो दिया-अब ऐसे में करती भी क्या मैं, मम्मी !’ संध्या कहते-कहते मौन हो गई। उसने देखा मम्मी उसकी बातों से अधिक उसके चेहरे को ध्यानपूर्वक देख रही है। संध्या लजाकर अलग हो गई और बोली-

‘मैं मूर्ख भी जाने क्या बके जा रही हूँ।’
‘अच्छा जा अब। शीघ्र कपड़े बदल ले, कहीं सर्दी न लग जाए।’
‘अच्छा मम्मी, पापा से तो-‘संध्या ने प्रार्थना पूर्वक दृष्टि से देखते हुए कहा।
‘हाँ, हाँ, कुछ न कहूँगी। पर अभी से इतना मेल-जोल रखना उचित नहीं।’
संध्या ने स्वीकारात्मक ढंग से सिर हिलाया और भीतर चली गई। द्वार बंद करते ही उसने मम्मी की आहट सुनने के लिए कान द्वार पर लगा दिए और तत्पश्चात चिटखनी चढ़ाकर सामने दर्पण में अपना रूप निहारने लगी।
बिखरे बाल, भीगे कपड़े, होंठों पर चंचल मुस्कान और आँखों में किसी से प्यार की लौ क्या दशा हो रही थी-स्वयं वह लजा गई और झट दर्पण से मुख मोड़ उसने कपड़ों की अलमारी खोली। ज्यों ही उसने भीगी साड़ी शरीर से हटानी चाही किसी के स्वर ने उसे चौंका दिया।

‘जरा बत्ती तो बंद कर ली होती।’ यह रेनु थी जो एक ओर बैठी पढ़ रही थी। संध्या उसे देखते ही बोली-
‘दुष्ट कहीं की-मेरे तो प्राण सुखा दिए तूने-मैं समझी न जाने कौन है।’
संध्या को उसके भोलेपन पर हँसी आ गई और हाथ बढ़ाकर उसने बत्ती बुझा दी। चारों ओर अंधेरा छा गया। संध्या ने तौलिए से गीला शरीर पोंछते हुए कहा-रेनु !’
‘हाँ दीदी !’

‘यदि कोई तुम्हें इस अंधेरे में पढ़ने के लिए कहे तो क्या पढ़ लोगी ?’
‘दीदी, तुम भी कैसी बातें करती हो, तुम ही कहो, तुम्हें कुछ दिखाई देता है क्या ?’
‘हाँ रेनु, कमरे की प्रत्येक वस्तु जैसे तुम्हारी पुस्तकें, मेज पर रखे फूल।’
‘बस-बस, मैं समझ गई।’
‘क्या ?’ संध्या ने ब्लाउज के बटन बंद करते हुए पूछा।
‘तुम अवश्य किसी अन्य स्थान का प्रकाश चुरा लाई हो, जिससे यह सब तुम्हें दिखाई दे रहा है।’
‘तुम ठीक कहती हो रेनु।’ संध्या ने उजाला करते हुए कहा।
उजाला होते ही कमरा जगमगा उठा और रेनु संध्या की ओर देखती ही रह गई। उसकी दीदी रात्रि को काली साड़ी में यों दिखाई दे रही थी मानो बादलों में चांद। दोनों मौन भाव से एक-दूसरे को निहारने लगे।

मालकिन के स्वर ने दोनों की शांति भंग कर दी और दोनों बाहर जाने को बढ़ीं। कदाचित भोजन के लिए उनकी प्रतीक्षा हो रही थी।
 
 


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