लोगों की राय

आचार्य श्रीराम किंकर जी >> मानस एवं गीता का तुलनात्मक विवेचन - 2

मानस एवं गीता का तुलनात्मक विवेचन - 2

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4762
आईएसबीएन :00-0000-000-0

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

342 पाठक हैं

सम्पूर्ण मानव जीवन पर आधारित पुस्तक....

Manas Evam Geeta Ka Tulnatamak Vivechan-2

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


मेरी दृष्टि में व्यक्तित्व और कृतित्व का गौरवशाली रूप वह है कि जब व्यक्ति अपनी साधना को, चाहे वह ज्ञानमार्ग की हो अथवा भक्तिमार्ग की, सम्पूर्ण रूप से लोकमंगल के लिए मोड़ दे। गोस्वामी जी की भी यही मान्यता है कि-

कीरति भनिति भूति भलि सोई।
सुरसरि सम सब कहँ हित होई।।


पंडित रामकिकंकर जी के अम्रत महोत्सव के इस पर्व पर मैं कहना चाहूँगा कि यह बात उन पर पूरी तरह चरितार्थ होती है।

पण्डितजी ने प्ररम्भ से ही अपनी आध्यात्मिक और दार्शनिक चेतना की मूल-भूत प्रकृति को रामचरितमानस के सरोवर में इस तरह उतार दिया कि वह उत्तरोत्तर वर्धमान होती हुई असंख्य श्रोताओं की समवेत श्रद्धा का अमृत-स्रोत बन गई। आप तुलसी काव्य की पवित्र नौका को जिस प्रकार अनायास-अप्रयास खेते जा रहे हैं, रामचरितमानस का यह दिव्य सरोवर उतना ही गहरा और अपरम्पार दिखाई दे रहा है। पण्डित जी ज्ञानामृत की प्रकृति में रहकर अब उसकी एक परात्पर कृति बन चुके हैं। हम आपकी प्रकृति, आकृति और कृति को प्रणाम करते हैं।

पण्डित जी के कृतित्व का पक्ष बड़ा उज्जवल और विषद है। आपने अपने श्रोताओं का भी निर्माण किया है। पन्द्रह-बीस वर्ष की युवावस्था में जब आपका कथामंच अविर्भाव हुआ, उस काल में कथा-कारों का लीला-शैली में कही जाने वाली कथा के लिए श्रोता-समुदाय मिल जाया करते थे। क्योंकि उस समय मनोरंजनी कथा का तुरत घूँट पीने वाले श्रोताओं की संख्या बहुत अधिक थी। पर पण्डितजी प्रारम्भ से ही गम्भीर एवं चिन्तनशील शैली के कथावाचक रहे हैं। और न तब (और न आज ही) उनके पास कोई स्वर-लहरी थी, न वाद्ययन्त्र थे, न संगीत था और न ही कथा में सुनने के लिए अटपटे-चटपटे, कहानी-किस्से ही थे। अतः प्रारम्भ में श्रोताओं की संख्या की समस्या तो आपके सामने थी ही। पर आपकी कथा में जो भी एक बार आया, वह आपकी भाव-प्रवण शैली तथा आपके अनूठे विचारों से इतना अभिभूत हुआ कि ‘अरथ अमित अरु आखर थोरे’ को चरितार्थ करने वाला आपका अद्भुत एवं प्रभायुक्त ज्ञानमण्डप ऐसे असंख्य यात्रियों का तीर्थ-स्थल बनता चला गया।

भारतवर्ष एक ऐसा देश है, जहाँ आदिकाल से ईश्वरीय अवतारों और शास्त्रीय ग्रन्थों की भरमार रही है। कोई पण्डितप्रवर एक ही अवतार, एक ही सन्त के एक ही ग्रन्थ में समाहित होकर पचास-पचपन वर्षों से अनवरत उस रसनाभूति की धारा से असंख्य श्रोताओं को आप्लावित करता रहे, यह एक दुर्लभ संयोग है, पर पण्डित रामकिंकर जी उपाध्याय इसके मूर्तिमान रूप हैं।

रामचरितमानस आपके जीवन के मनोवैज्ञानिक विचारधारा का मानो एक विश्वकोष ही बन गया है। इस महान ग्रन्थ के मन्थन से आप तुलसी की उन विलक्षणताओं, विशेषताओं और ऊँचाइयों का दिग्दर्शन कराते हैं, जिन तक किसी की दृष्टि का पैठ पाना सम्भव ही नहीं है। पर पण्डितजी न तो अपने आपको ज्ञानी मानते हैं, न दार्शनिक मानते हैं और न ही मौलिक चिन्तक मानते हैं, वे तो अपने आपको केवल ‘राम किंकर’ मानते हैं, इसलिए वे इसे अपनी किसी विशेषता के रूप में न देखकर प्रभु की कृपा का ही प्रसाद मानते हैं। यह सत्य ही है क्योंकि रामनाम आपकी प्रत्येक साँस का पर्याय बन चुका है। आपके आराध्य केवल भगवान राम हैं। राम का अनन्त रूप ही आपकी सृष्टि है और राम का शील ही आपकी दृष्टि है। आपकी कृतित्व की ब्रह्मरूपता के पीछे तुलसीदास की भाँति आपकी भी यही अनन्यता है।


एक भरोसे एक बल एक आस विस्वास।
एक राम घनस्याम हित चातक तुलसीदास।।


पण्डित जी का यह कथन कि ‘मानस’ के प्रत्येक शब्द में विपुल अर्थ-राशियाँ सन्निहित हैं। उनके लेखन और प्रवचन से स्वतः सिद्ध ही है, पर पराकाष्ठा तो यह है कि गोस्वामी जी ने जितने अधिक शब्दों का प्रयोग किया है, हिन्दी के किसी कवि ने आज तक नहीं किया है, इसी प्रकार ‘मानस’ के दोहे और चौपाइयों के जितने भावार्थ तथा मानवीय जीवन की नीति-अनीति, युगानुकूल यश-अपयश का जैसा विश्लेषण-निरूपण करने वाला विद्वान विगत चार सौ वर्षों में पैदा नहीं हुआ है। सन्त डोंगरे जी ने भी एक बार कहा था कि ‘पण्डित राम किंकर जी को तो बस सुनो और गुनो।’

मेरा तो यह अटूट विश्वास है कि पण्डित रामकिंकरजी  की वाणी इस युग में रामकथा का सर्वसिद्ध पंचांग है, जिसे बाँचकर अपने गृहस्थ जीवन की कुण्डली बनाने से हमारा जीवन मोह, भ्रम और दुःख की समस्याओं से मुक्त होगा और भगवान राम से आत्यन्तिक निकटता की अनुभूति से हमारा कल्याण होगा।

रामनिवास जाजू


साधना



स्वरूप ज्ञान के लिए मुख्य साधन विचार है। भक्ति का मुख्य साधन सत्संग है। कर्म का मुख्य साधन शास्त्र है। और प्रभु के स्वभाव को जानने के लिए मुख्य साधन विश्वास है। नाम-जप की साधना में भी यही क्रम है। ज्ञान के नाम-जप में निरूपण की प्रधानता है। उसकी दृष्टि में नाम रत्न है। उसका मुख्य उद्देश्य रत्न से मूल्य को प्रकट करना है। भक्त के जीवन में रस की प्रधानता है।


सकल कामनाहीन जे रामभगति रस लीन।
नाम सप्रेम पियूष हृद तिन्हहुँ किए मन मीन।।


अतः वह मन को मछली बनाकर उसमें डूबता है। धार्मिक व्यक्ति के जप में विधि की प्रधानता है, क्योंकि उसकी दृष्टि में राम नाम सर्व सामर्थ्य युक्त अक्षर मन्त्र है।


चहुँ जुग तिनि काल तिहुँ लोका।
भये नाम जपि जीव बिसोका।।


पर दीन के जीवन में नाम जपने का आग्रह ही नहीं है, उसके लिए तो रत्न, रस और मन्त्र की अपेक्षा विश्वास की प्रधानता है, वह सदैव अपने को एक अबोध बालक के रूप में देखता है और उसके अन्तःकरण में यह विश्वास है कि कभी भी, किसी भी स्थिति में वह जब अपनी माँ को पुकारेगा तो माँ सब कुछ छोड़ उसके निकट आकर बालक को गोद में उठा लेगी।

महाराजश्री की डायरी से


नास्ति तत्वं गुरोः परम्




मनसि वचसिकाये राघवं यो विभार्ति
प्रतिदिनामिह दिव्यां रामगाथां च वक्ति।
विचरति भुवि नित्यं य: सतां तोषणार्थं
जयतु जयतु देव: किंकरोराम धन्य:।।1।।
जीवनयस्य साधूनामर्पित: किल सर्वदा।
तं नमामि गुरुं साक्षात् रामकिंकर रूपिणम्।।2।।
वाणी सदा सुखकारी किल तत्त्विकास्ति
येषां कथा भुवन मंगलदायिनी च।
सम्मानिता: सरलसाधुचरित गीता-
स्ते रामकिंकर महामतयो जयन्ति।।3।।
अपर स्तुलसीकोऽसौ सदा कथयन्ति पण्डिता:।
सर्वभूतरतं नित्यं तं भजामि गुरुं परम्।।4।।
चरितं साधुसन्तानां सन्ति ग्रन्था अनेकश:।
परं तु साधुचरितोऽयं सर्वस्वं साधुदर्शन्।।5।।
 

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book