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तनहा सफर की रात

जाँनिसार अख्तर

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4845
आईएसबीएन :81-288-1162-2

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जाँनिसार अख्तर की गजलों, नज्मों व रूबाइयों का हिन्दी में प्रतिनिधि व अपूर्व संकलन...

Tanha Safar Ki Raat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

समकालीन उर्दू शायरी के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर जाँनिसार अख्तर तरक्की पसंद तहरीक के उन्नायकों में से हैं।
ये इल्म का सौदा,ये रिसाले, ये किताबें
इक शख्स की यादों को भुलाने के लिए हैं

जैसा लोकप्रिय शे’र कहने वाले जाँनिसार अख्तर की शायरी में जहाँ श्रृंगार के दोनों पक्ष कला की ऊँचाइयों को छूते हैं, वहीं उनकी शायरी में आम आदमी के संघर्ष, दुःख-दर्द और तनहाई की भी जीवंत और मार्मिक अभिव्यक्ति मिलती है।
जाँनिसार अख्तर की गजलों, नज्मों और रुबाइयों का हिन्दी में प्रतिनिधि और अपूर्व संकलन।

प्राक्कथन

समकालीन उर्दू शायरी में आज जो नये-नये रंग और लहजे दिखाई पड़ते हैं उनकी बुनियाद डालने वालों में जाँनिसार अख़्तर का नाम महत्त्वपूर्ण है। यद्यपि उर्दू साहित्य की प्रगतिशील धारा से उनका निकट का सम्बन्ध रहा है, फिर भी उन्होंने अपने आपको तथाकथित नारेबाजी से दूर रखा और काव्यात्मकता को बरकरार रखते हुए शायरी को नये रंगों और लहजों से समृद्ध किया।
ये इल्म का सौदा, ये रिसाले, ये किताबें
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं

जैसा लोकप्रिय शे’र कहने वाले जाँनिसार अख़्तर को हालाँकि एक रोमानी शायर के रूप में ख्याति प्राप्त है, किन्तु उनके यहाँ ऐसे शे’र भी बहुतायत में मिलते हैं, जो उर्दू कविता की प्रगतिशील धारा का प्रतिनिधित्व करते हुए शायरी में नये कीर्तिमान बनाते हैं।
सुबह के दर्द को रातों की जलन को भलें
किसके घर जायें कि उस वादा-शिकन को भूलें

शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ
न मिले भीक तो लाखों का गुज़ारा ही न हो

जाँनिसार अख़्तर की शायरी भोगे हुए यथार्थ की शायरी है, इसलिए उनके शे’र दिल-ओ-जाँ को इस तरह मुअत्तर कर जाते हैं कि उनके एहसास की महक ता-उम्र आपको महकाती रहती है।
भाषिक दृष्टि से देखें तो जाँनिसार अख़्तर की शायरी में बहुत बार ये फ़र्क़ करना दुश्वार हो जाता है कि उनकी शायरी हिन्दी है या उर्दू। उन्होंने शायरी की अनेक विधाओं को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया और प्रायः सभी विधाओं में उनकी शायरी मील के पत्थर की तरह स्थापित हुई है। जिस तरह ‘पिछले पहर’ की ग़ज़लों ने उर्दू ग़ज़ल को नये आयाम दिये उसी तरह ‘घर-आँगन’ की रुबाइयों ने उन्हें जोश और फ़िराक़ के साथ खड़ा कर दिया है। यदि कथ्य की दृष्टि से देखें तो न सिर्फ़ उर्दू बल्कि दूसरी भारतीय भाषाओं में भी इस विषय की शायरी शायद ही किसी ने की हो। आम बोल-चाल के शब्दों में एक मध्यवर्गीय परिवार की गृहिणी के जितने यथार्थपरक और मार्मिक चित्र उन्होंने खींचे हैं, वे उन्हें निश्चित रूप से एक महान संवेदनशील कवि के रूप में स्थापित करने के लिए पर्याप्त हैं।

कहती है कि सह लूँगी जो सहने पड़े ग़म
कुछ देर के और हैं ज़माने के सितम
तुम अपने इरादों को न करना कमज़ोर
पीछे न हटाना कहीं घबरा के क़दम

जाँनिसार अख़्तर की शायरी मिर्ज़ा ग़ालिब के मिसरे ‘सादगी-ओ-पुरकारी, बेखुदी-ओ-हुशियारी’ और तुलसीदास की अर्द्धाली ‘अरथ अमित आखर अति थोरा’ पर खरी उतरती है। उर्दू के महान कथाकार कृश्नचंदर ने उनके बारे में ठीक ही कहा है कि ‘‘जाँनिसार अख़्तर की शायरी का लहजा कभी बलन्द आहंग और घन गरज वाला नहीं रहा। उसे चीखते हुए रंग पसंद नहीं। उसकी शायरी धीमी-धीमी आँच पर पकती है घर के सालन की तरह और उसकी तश्बीहों, अलामातों और इस्तिआरों से आँगन में खड़े हुए पेड़ों की झूलती शाख़ों की सदा आती है।’’
बहरहाल जाँनिसार अख़्तर की प्रतिनिधि ग़ज़लों, नज़्मों और रुबाइयों का यह संकलन तनहा सफ़र की रात आपके समक्ष है। मुझे ये कहने में कोई संकोच नहीं है कि जाँनिसार अख़्तर की श्रेष्ठ रचनाओं का ऐसा संग्रहणीय संकलन हिन्दी में इससे पूर्व प्रकाशित नहीं हुआ है। और इस सफलता के लिए मैं जाने-माने शायर श्री जावेद अख़्तर और उनके भ्राता श्री शाहिद अख़्तर का हृदय से आभारी हूँ, क्योंकि जाँनिसार अख़्तर के इन दोनों सुपुत्रों ने मुझे प्रेरित और प्रोत्साहित न किया होता तो शायद यह महत्त्पूर्ण कार्य इतने सुरुचिपूर्ण ढंग से आपके सम्मुख न आ पाता।
-सुरेश कुमार

गज़लें

(1)

ज़िन्दगी तनहा सफ़र की रात है
अपने-अपने हौसले की बात है

किस अक़ीदे की दुहाई दीजिए
हर अक़ीदा1 आज बेऔक़ात2 है

क्या पता पहुँचेंगे कब मंज़िल तलक
घटते-बढ़ते फ़ासले का साथ है

1.श्रद्धा।
2.प्रतिष्ठाहीन।

(2)

फुर्सत-ए-कार1 फ़क़त चार घड़ी है यारो
ये न सोचो कि अभी उम्र पड़ी है यारो

अपने तारीक मकानों से तो बाहर झाँको
ज़िन्दगी शम्अ लिए दर पे खड़ी है यारो

हमने सदियों इन्हीं ज़र्रो2 से मोहब्बत की है
चाँद-तारों से तो कल आँख लड़ी है यारो

फ़ासला चन्द क़दम का है, मना लें चलकर
सुबह आयी है मगर दूर खड़ी है यारो

किसकी दहलीज़ पे ले जाके सजायें इसको
बीच रस्ते में कोई लाश पड़ी है यारो

जब भी चाहेंगे ज़माने को बदल डालेंगे
सिर्फ़ कहने के लिए बात बड़ी है यारो

उनके बिन जी के दिखा देंगे उन्हें, यूँ ही सही
बात अपनी है कि ज़िद आन पड़ी है यारो

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1.कार्य का अवकाश।
2.कणों।

(3)

उजड़ी-उजड़ी हुई हर आस लगे
ज़िन्दगी राम का बनबास लगे

तू कि बहती हुई नदिया के समान
तुझको देखूँ तो मुझे प्यास लगे

फिर भी छूना उसे आसान नहीं
इतनी दूरी पे भी, जो पास लगे

वक़्त साया-सा कोई छोड़ गया
ये जो इक दर्द का एहसास लगे

एक इक लहर किसी युग की कथा
मुझको गंगा कोई इतिहास लगे

शे’र-ओ-नग़्मे से ये वहशत तेरी
खुद तिरी रूह1 का इफ़्लास2 लगे

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1.आत्मा। 2.कंगाली।

(4)

हर लफ़्ज़ तिरे जिस्म की खुशबू में ढला है
ये तर्ज़, ये अन्दाज-ए-सुख़न1 हमसे चला है

अरमान हमें एक रहा हो तो कहें भी
क्या जाने, ये दिल कितनी चिताओं में जला है

अब जैसा भी चाहें जिसे हालात बना दें
है यूँ कि कोई शख़्स बुरा है, न भला है

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1.वार्तालाप की शैली।

(5)

इसी सबब से हैं शायद, अज़ाब1 जितने हैं
झटक के फेंक दो पलकों पे ख़्वाब जितने हैं

वतन से इश्क़, ग़रीबी से बैर, अम्न से प्यार
सभी ने ओढ़ रखे हैं नक़ाब जितने हैं

समझ सके तो समझ ज़िन्दगी की उलझन को
सवाल उतने नहीं है, जवाब जितने हैं

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1.यातना, पीड़ा।

(6)

ज़रा-सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था
दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था

गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-शरर की तरह
अभी तो मैं उसे पहचान भी न पाया था

मुआफ़ कर न सकी मेरी ज़िन्दगी मुझको
वो एक लम्हा कि मैं तुझसे तंग आया था

शिगुफ़्ता1 फूल सिमट कर कली बने जैसे
कुछ इस कमाल से तूने बदन चुराया था

पता नहीं कि मिरे बाद उनपे क्या गुज़री
मैं चन्द ख़्वाब ज़माने में छोड़ आया था

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1.खिला हुआ।

(7)

ऐ दर्द-ए-इश्क़1 तुझसे मुकरने लगा हूँ मैं
मुझको सँभाल हद से गुज़रने लगा हूँ मैं

पहले हक़ीक़तों ही से मतलब था, और अब
एक-आध बात फ़र्ज़ भी करने लगा हूँ मैं

हर आन टूटते ये अक़ीदों2 के सिलसिले
लगता है जैसे आज बिखरने लगा हूँ मैं

ऐ चश्म-ए-यार3 ! मेरा सुधरना मुहाल था
तेरा कमाल है कि सुधरने लगा हूँ मैं

ये मेहर-ओ-माह4, अर्ज़-ओ-समा5 मुझमें खो गये
इक कायनात6 बन के उभरने लगा हूँ मैं

इतनों का प्यार मुझसे सँभाला न जायेगा !
लोगो ! तुम्हारे प्यार से डरने लगा हूँ मैं

दिल्ली ! कहाँ गयीं तिरे कूचों7 की रौनक़ें
गलियों से सर झुका के गुज़रने लगा हूँ मैं

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1.प्रेम की पीड़ा। 2.विश्वासों। 3.मित्र की आँख। 4.सूर्य और चन्द्रमा। 5.पृथ्वी और आकाश। 6.सृष्टि, ब्रह्माण्ड। 7.गलियों।

(8)

वो आँख अभी दिल की कहाँ बात करे है
कमबख़्त मिले है तो सवालात करे है

वो लोग जो दीवाना-ए-आदाब-ए-वफ़ा1 थे
इस दौर में तू उनकी कहाँ बात करे है

क्या सोच है, मैं रात में क्यों जाग रहा हूँ
ये कौन है जो मुझसे सवालात करे है

कुछ जिसकी शिकायत है न कुछ जिसकी खुशी है
ये कौन-सा बर्ताव मिरे साथ करे है

दम साध लिया करते हैं तारों के मधुर राग
जब रात गये तेरा बदन बात करे है

हर लफ़्ज़ को छूते हुए जो काँप न जाये
बर्बाद वो अल्फ़ाज़ की औक़ात करे है

हर चन्द नया ज़ेहन दिया, हमने ग़ज़ल को
पर आज भी दिल पास-ए-रवायात2 करे है

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1.निष्ठा व शिष्टाचारों के पागल। 2.परम्पराओं की रक्षा।

(9)

ज़िन्दगी ये तो नहीं, तुझको सँवारा ही न हो
कुछ न कुछ हमने तिरा क़र्ज़ उतारा ही न हो

कू-ए-क़ातिल1 की बड़ी धूम है चलकर देखें
क्या ख़बर, कूचा-ए-दिलदार2 से प्यारा ही न हो

दिल को छू जाती है यूँ रात की आवाज़ कभी
चौंक उठता हूँ कहीं तूने पुकारा ही न हो

कभी पलकों पे चमकती है जो अश्कों की लकीर
सोचता हूँ तिरे आँचल का किनारा ही न हो

ज़िन्दगी एक ख़लिश दे के न रह जा मुझको
दर्द वो दे जो किसी तरह गवारा ही न ‘हो

शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ
न मिले भीक3 तो लाखों का गुज़ारा ही न हो

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1.बधिक की गली। 2.प्रेयसी की गली। 3.भीख।

(10)

लम्हा-लम्हा तिरी यादें जो चमक उठती हैं
ऐसा लगता है कि उड़ते हुए पल जलते हैं

मेरे ख़्वाबों में कोई लाश उभर आती है
बन्द आँखों में कई ताजमहल जलते हैं

(11)

अश्आर मिरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शे’र फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं

अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं

आँखों में जो भर लोगे, तो काँटे-से चुभेंगे
ये ख़्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं

देखूँ तिरे हाथों को तो लगता है तिरे हाथ
मन्दिर में फ़क़त दीप जलाने के लिए हैं

सोचो तो बड़ी चीज़ है तहजीब बदन की
वरना तो बदन आग बुझाने के लिए हैं

ये इल्म1 का सौदा2, ये रिसाले3, ये किताबें
इक शख़्स की यादों को भुलाने के लिए हैं

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1.ज्ञान। 2.पागलपन। 3.पत्रिकाएँ।

(12)

हमने काटी हैं तिरी याद में रातें अक्सर
दिल से गुज़री हैं सितारों की बरातें अक्सर

और तो कौन है जो मुझको तसल्ली देता
हाथ रख देती हैं दिल पर तिरी बातें अक्सर

हुस्न1 शाइस्ता-ए-तहज़ीब-ए-अलम2 है शायद
ग़मज़दा लगती हैं क्यों चाँदनी रातें अक्सर

हाल कहना है किसी से तो मुख़ातिब हो कोई
कितनी दिलचस्प, हुआ करती हैं बातें अक्सर

इश्क़ रहज़न न सही, इश्क़ के हाथों फिर भी
हमने लुटती हुई देखी हैं बरातें अक्सर

हम से इक बार भी जीता है न जीतेगा कोई
वो तो हम जान के खा लेते हैं मातें अक्सर

उनसे पूछो कभी चेहरे भी पढ़े हैं तुमने
जो किताबों की किया करते हैं बातें अक्सर

हमने उन तुन्द3 हवाओं में जलाये हैं चिराग़
जिन हवाओं ने उलट दी हैं बिसातें अक्सर

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1.सौंदर्य 2.दुखों की शिष्टता का पात्र 3.प्रचण्ड।

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