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भारत में लोक प्रशासन

पद्या रामचंद्रन

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :242
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4868
आईएसबीएन :81-237-4464-1

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भारतीय राजनैतिक व्यवस्था की संरचना पर आधारित पुस्तक...

Bharat Mein Lok Prashashan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शासन हमारे दैनिक जीवन का एक अंग है, लेकिन हममें से अधिकतर लोग ‘लोक प्रशासन’ के विषय में बहुत कम जानते हैं। किसी भी देश में लोक प्रशासन के उद्देश्य वहां की संस्थाओं, प्रक्रियाओं और कार्मिक राजनीतिक व्यवस्था की संरचनाओं पर तथा उस देश के संविधान में व्यक्त शासन के सिद्धातों पर निर्भर होते हैं। भारत का संविधान हमारी जनता के आदर्शों और आकांक्षाओं का मूर्त रूप है। शासन का स्वरूप, प्रतिनिधित्व, उत्तरदायित्व, औचित्य और समता की दृष्टि से महत्वपूर्ण होता है, लेकिन सरकार एक अच्छे प्रशासन के माध्यम से इन्हें साकार करने का प्रयास करती है। प्रस्तुत पुस्तक में सरल भाषा में प्राचीनकाल से लेकर भारत में आज तक के लोक प्रशासन का इतिहास दर्शाया गया है तथा स्वाधीनता से पूर्व के भारतीय प्रशासन की प्रमुख विशेषताओं को संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है। यह पुस्तक एक प्रशासक के राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुए गत 35 वर्षों के अनुभव पर आधारित है। यह सामान्य पाठकों के लिए लाभकारी और रुचिकर तो होगी ही, साथ ही केंद्र एवं राज्य स्तर की उन संस्थाओं के छात्रों के लिए भी उपयोगी सिद्ध होगी जहां लोक प्रशासन को व्याहारिक रूप से पढ़ाया जाता है।

प्राक्कथन

शासन हमारे दैनिक जीवन का एक अंग है। कारण कि रोजाना सार्वजनिक कर्मचारियों से हमारा संपर्क होता रहता है। यह अंतःक्रिया हमेशा सुखकर नहीं होती और जनता में आमरूप से यह धारणा प्रचलित है कि हाल के वर्षों में प्रशासन में गिरावट आई है। शासन के स्वरूप, प्रतिनिधित्व, उत्तरदायित्व, औचित्य और समता की दृष्टि से महत्वपूर्ण होता है, लेकिन सरकार एक अच्छे प्रशासन के माध्यम से ही इन्हें साकार करने के प्रयास करती है। इसीलिए यह सुविख्यात लोकोक्ति प्रचलित है कि शासन का स्वरूप चाहे जो हो सर्वोत्तम वही है जिसका प्रशासन सर्वोत्तम होता है। फिर भी हममें से अधिकांश लोग ‘लोक प्रशासन’ के बारे में बहुत कम जानते हैं और उन सिद्धातों के बारे में भी, जिनसे हमारे जैसा संसदीय लोकतंत्र संचालित होना चाहिए।

वर्षों के कालक्रम में राजनीतिक व्यवस्थाओं और शासन के स्वरूपों पर अनेक पुस्तकें लिखी गई हैं लेकिन एक अलग विषय के रूप में लोक प्रशासन या शासन का अध्ययन 1950 के दशक में ही प्रारंभ हुआ। तो भी संस्थाओं और लेखकों ने इसे वह महत्व नहीं दिया जो उन्होंने व्यापार-प्रबंध के विषय को दे रखा है। सामान्य पाठक के लिए प्रबंध पर अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं। अकादमिशियनों और विद्वानों ने लोक प्रशासन और लोक प्रबंध पर पुस्तकें लिखीं तो उनमें से अधिकतर अन्य विद्वानों और प्रशासकों के लिए थीं। कुछ प्रशासकों ने भी अपने निजी अनुभवों के आधार पर पुस्तकें लिखीं। इन पुस्तकों को कोई बड़ा पाठकवर्ग नहीं मिला, न ही उनका यह अभिप्राय था। भारत में, जहां तक मुझे पता है, अभी तक इस महत्वपूर्ण विषय पर सामान्य जनता के लिए कोई पुस्तक नहीं है। प्रस्तुत पुस्तक यही आवश्यकता पूरी करती है। मैं इस पुस्तक को लिखवाने और प्रकाशित करने संबंधी निर्णय के लिए नेशनल बुक ट्रस्ट को बधाई देता हूं जिसने अपने विषयों पर सामान्य पाठकों के लिए पुस्तकें प्रकाशित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

रचनाकार का चयन भी इससे बेहतर नहीं हो सकता था। पद्मा रामचंद्रन हमारे प्रमुखतम प्रशासकों में से एक रही हैं-प्रतिभाशाली, योग्य, अनथक और जीवन से भरपूर। उनका एक सफल जीवनवृत रहा है। केरल राज्य में नीचे के स्तर से लेकर मुख्य सचिव के उच्चतम पद तक वह अनेक पदों पर कार्य करती रही हैं। उन्होंने बैंकाक में संयुक्त राष्ट्रसंघ के अनेक अतिमहत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय दायित्व संभाले हैं और अब भारत के सर्वाधिक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से एक अर्थात एम.एस.विश्वविद्यालय, बड़ौदा की कुलपति हैं। पद्मा, प्रशासन के छोटे-से नक्षत्रमंडल के एक चमकदार सितारे के रूप में जानी गई हैं जिन्होंने मानव संसाधनों के विकास और खासकर महिलाओं के शक्ति संवर्धन में मौलिक और रचनात्मक योगदान दिया है। उन्होंने नौकरशाहों की संवेदनहीनता के खिलाफ हमेशा आवाज उठाई है। अपनी जीवनवृत्ति के दौरान उन्होंने सौंपे गए दायित्वों में विद्वता तथा जमीनी सचाइयों के ज्ञान का अनोखा समन्वय किया है। वे एक सूक्ष्म दृष्टिवाली महिला साबित हुई हैं-स्पष्टवादी, पारखी दृष्टिवाली, आलोचनात्मक, स्नेहमयी और कोमल-हृदय। उनके इस विवरण के ताने-बाने में उनके गुणों तथा लंबे प्रशासकीय अनुभवों की तथा इनसे उन्हें मिलनेवाली बौद्धिक प्रेरणा की अदृश्य छाप ढूंढ़ी जा सकती है।

पद्मा ने सरल भाषा में प्राचीनकाल से लेकर आज तक भारत में लोक-प्रशासन का इतिहास दर्शाया है। ब्रिटिश-पूर्वकाल में भारतीय प्रशासन पर उन्होंने जो तथ्य दिए हैं, उनमें से अनेक का तो कार्यरत प्रशासकों तक को पता नहीं है। अतीत के उन दिनों में प्रशासन की प्रमुख विशेषताओं को संक्षेप में प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने जो दुःसाध्य प्रयास किया है, वह अत्यंत प्रशंसनीय है। आजादी के बाद के वर्षो में सरकार और प्रशासन की भूमिका बेपनाह बढ़ी है और पद्मा ने इस काल की उपलब्धियों और कमियों का स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया है। उन्होंने एक आधुनिक नागरिक समाज में कानून के शासन की सर्वोच्च महत्ता पर तथा उसे लागू करने में प्रशासकों की भूमिका पर यथाचित जोर दिया है।

पुस्तक में एक ओर 1991 के बाद आर्थिक उदारीकरण की दिशा में तथा दूसरी ओर शासन के विकेंद्रीकरण की दिशा में शुरू किए गए सुधारों की विवेचना भी की गई है। भारत में ये सुधार एक ऐसे समय में हो रहे हैं जब प्रौद्योगिकी के तीव्र परिवर्तनों के कारण प्रशासनिक ढांचों और कार्यपद्धतियों में नवीन प्रवर्तन संभव हुए हैं। पुस्तक इस उद्देश्य से भविष्य की ओर देखती है तथा आशा के स्वरों के साथ यह दर्शाते हुए समाप्त होती है कि कुल मिलाकर ये प्रवृत्तियां किस प्रकार लोक प्रशासन को अधिक दक्ष, अधिक संवेदनशील और लोकमुखी बना सकती हैं और इस प्रकार उस पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकती हैं, यही तो वह विकासक्रम है, जिसकी इच्छा हम सबके मन में है।
मैं केंद्र, राज्य और स्थानीय शासन के स्तर पर सिविल सेवाओं में प्रवेश के इच्छुक और प्रवेश कर चुके सभी व्यक्तियों, अवर स्नातक छात्रों और निश्चित ही आम जनता के लिए इस सुंदर ढंग से लिखी गई और सुपठनीय पुस्तक की संस्तुति करता हूं।
-आबिद हुसैन

आभार

प्रस्तुत पुस्तक को लिखने की प्रेरणा नेशनल बुक ट्रस्ट के एक आमंत्रण से मिली जिसके लिए मैं कृतज्ञ हूं। भारतीय लोक प्रशासन संस्थान, नई दिल्ली के निदेशक श्री सुरेश बधवानी ने संस्थान के पुस्तकालय के उपयोग की अनुमति देकर मेरी सहायता की। मैं उनके और पुस्तकालय के स्टाफ के सभी सदस्यों की हृदय से आभारी हूं। पांडुलिप का टंकण करने और उसे व्यवस्थित रूप देने में दो व्यक्तियों ने मुझे बहुत अधिक सहायता दी। मैं श्रीमती राघम्मा और श्रीमती तुलसी को धन्यवाद देती हूं।
मोहन, हरि, कुमार, उन्नीकृष्णन, दास तथा तिरुअनंतपुरम के अन्य लोग निर्धारित समय-सीमा से पहले विभिन्न कार्यों को पूरा करने के लिए दौड़-धूप करते रहे। मैं उनके प्रति आभार और धन्यवाद व्यक्त करती हूं।
मुझे सबसे अधिक प्रेरणा अपने पति पी. रामचंद्रन से मिली जो हमेशा मेरे सामने एक व्यक्तित्व की अखंडता और सहयोग पर आधारित दक्षता और कर्मठता से भरे आदर्श ‘प्रशासक’ की मिसाल बनकर रहे।

मैं यह पुस्तक उन्हें तथा अपने बच्चों को तथा अपने माता-पिता, भाई-बहनों को समर्पित करती हूं जिनसे मेरा बचपन सुखद बना रहा और कुछ पाने का प्रोत्साहन मिलता रहा।
-पद्मा रामचंद्रन

प्रस्तावना

मेरे विचार में भारत की महिमा इस बात से निहित है कि उसने एकसाथ दो विशेषताओं को अर्थात अपनी अनंत विविधता और साथ ही इस विविधता में अपनी एकता को बनाए रखा। इन दोनों का होना आवश्यक है। कारण कि अगर हम सिर्फ विविधता को बनाए रखें तो उसका मतलब होगा अलगाव और टुकड़े-टुकड़े हो जाना। अगर हम एक प्रकार की जड़ एकता को आरोपित करना चाहें तो एक जीवंत काया लगभग निर्जीव होकर रह जाएगी।
-जवाहरलाल नेहरू

भारत जो एक महान देश था, और है, अनेक सदियों पुराना है। ईसा-पूर्व 2000 से पहले भी देश के विभिन्न भागों में प्राचीन सभ्यताएं विकसित हुई थीं। देश में एक के बाद एक करके अनेक समूह आकर बसे। इसका आरंभ आर्यों के आगमन से हुआ जो ईसा-पूर्व 1500 में बताया जाता है। इसी को वैदिककाल कहते हैं क्योंकि तब तक ‘ऋग्वेद’ की रचना हो चुकी थी। इस आप्रवासियों का पहला दल पंजाब में आकर बसा। फिर 500 वर्षों के अंदर वे गंगा के दोआबे और आगे चलकर बंगाल तक फैल गए।

संभवतः हम सभी अपेक्षाकृत पहले की सभ्यताओं और परवर्ती आप्रवासियों के वंशज हैं। कारण कि भारत की भूमि पर कोई मूल जाति थी या नहीं थी, कोई नहीं जानता। हमें विरासत में एक प्राचीन और विशाल देश मिला है, जो आज उत्तर-दक्षिण दिशा में 3214 कि.मी. लंबा तथा पूर्व-पश्चिम दिशा में 2933 कि.मी. चौड़ा है और जिसका कुल क्षेत्रफल 32,87,263 वर्ग कि.मी. है। आज यहां 28 राज्य, छह संघ-शासित क्षेत्र तथा अब राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली है। हिमालय पर्वत उत्तर, पूर्वोत्तर और पश्चिमोत्तर में भारत की सीमा बनाता है तथा दक्षिण के छोर पर कन्याकुमारी स्थित है जिसके चरण एक ओर अरब सागर और दूसरी ओर हिंद महासागर धोते हैं।

पहाड़ और वादियां, रेगिस्तान और हरे-भरे खेत, अनेक (पवित्र) नदियां और झीलें, तट और शुष्क मैदानों के विशाल फैलाव, चार मौसम और जगप्रसिद्ध मानसून, बाढ़ और सूखा: भारत के विभिन्न भागों में इन सबके और अन्य बहुत-सी बातों के दर्शन होते हैं। भौगोलिक और प्राकृतिक दशाओं की यह विविधता राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक जीवन के अंतर को और बढ़ाती है। हमारी जनता हिंदू धर्म, इस्लाम, ईसाइयत, सिख धर्म, बौद्ध और जैन धर्म, पारसी धर्म आदि अनेक संहिताओं और नीतिशास्त्रों की अनुयायी है। भारत में अधिकारिक मान्यता प्राप्त 22 भाषाएं और 1000 से अधिक बोलियां हैं। इसलिए यहां ऐसा प्रशासन चाहिए जो स्थानीय आवश्यकताओं के अनुकूल हो। साथ ही हमें राष्ट्रीय स्तर पर एक भिन्न प्रकार का प्रशासन चाहिए जो देश की लंबी सीमा-रेखा की रक्षा करे, राष्ट्रव्यापी बुनियादी ढांचे और सुविधाओं की व्यवस्था करे, विभिन्न समुदायों, धार्मिक समूहों और राज्यों के बीच संतुलन बनाए रखे, और आर्थिक रूप से पिछड़े व उन्नत क्षेत्रों के बीत समता स्थापित करने के प्रयास करे। भारत में प्रशासन का एक संघीय ढांचा है, जिसमें शिक्षा और कृषि जैसे विषय राज्य सरकारों के पास है और ‘विदेशी मामलों’ का संचालन संघ के स्तर पर किया जाता है।
जनसंख्या की चिंताजनक वृद्धि भारतीय प्रशासन के सामने मौजूद सबसे महत्वपूर्ण समस्याओं में एक है। भारत दुनिया के सबसे अधिक आबाद उन नौ देशों में एक है जिनमें विश्व की आधी से अधिक जनता तथा 75 प्रतिशत से अधिक निरक्षर जनता रहती है।

औपनिवेशिक जुए के बोझ से लदा एक उतार-चढ़ाव भरा इतिहास तथा विविधताओं और असमान विकास से भरा विशाल देश प्रशासन के लिए एक चुनौती है। इस कारण भारत का प्रशासन बहुत ही पेचीदा है। इसका विकास अनेक वर्षों में हुआ है, हालांकि हम कह सकते हैं कि मौजूदा प्रशासन प्रणाली की बुनियाद दो सदियों से भी अधिक समय पहले अंग्रेजों ने डाली थी।

लोक प्रशासन क्या है ?

लोक प्रशासन क्या है ? बहुत सरल ढंग से कहें तो इसका अर्थ वह जनसेवा है जिसे ‘सरकार’ कहा जानेवाला व्यक्तियों का एक संगठन करता है। जिसका प्रमुख उद्देश्य और अस्तित्व का आधार ‘सेवा’ है। इस प्रकार की सेवा का वित्तीय बोझ उठाने के लिए सरकार को जनता से करों और महसूलों के रूप में राजस्व वसूल कर संसाधन जुटाने पड़ते हैं। जिनकी कुछ आय है उनसे कुछ लेकर सेवाओं के माध्यम से उसका समतापूर्ण वितरण करना इसका उद्देश्य है। अभी हाल तक और खासतौर पर ब्रिटिशकाल में भू-राजस्व (मालगुजारी) सरकार की आय का प्रमुख स्त्रोत था। अब इसके अलावा राष्ट्रीय, राज्जीय और स्थानीय स्तरों पर कराधान की विभिन्न विधियों का भी सहारा लिया जाता है।

सरकार के अंग इस प्रकार हैं: राजनीतिक नौकरशाही अर्थात मंत्रिपरिषद जो संसद सदस्यों और विधायकों अर्थात विधानमंडलों के माध्यम से जनता के सामने जवाबदेह हो, और एक कार्यकारी नौकरशाही अर्थात ‘सिविल’ सेवा जो मंत्रियों की सहायता करती और उन्हें सलाह देती है तथा निर्णयों को लागू करती है। सरकार (कार्यपालिका) तथा विधायिका के कार्यों पर निगरानी के लिए तथा न्याय करने के लिए एक स्वतंत्र न्यायपालिका भी होती है। शासन के इन तीनों अंगों अर्थात विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का गठन भारतीय संविधान के निर्धारित ढांचे के दायरे में किया जाता है जिसे 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया। तीनों के बीच पारस्परिक निर्भरता का संबंध और एक नाजुक संतुलन पाया जाता है। भारत में संविधान को ही सर्वोच्चता प्राप्त है। जब कार्यपालिका अपनी मर्यादा से आगे बढ़ जाती है तो न्यायपालिका उस पर अंकुश लगा सकती है। जब संसद या विधानसभा कोई कानून बनाती है तो न्यायपालिका यह तय कर सकती है कि वह संविधान के अनुरूप है या नहीं। लेकिन संसद संविधान संशोधन के माध्यम से न्यायिक समीक्षा की आवश्यकता समाप्त कर सकती है। लोक प्रशासन के लिए संविधान के अधिकतर भाग महत्व रखते हैं और उसे ही प्रशासक का मूलग्रंथ माना जा सकता है।

लोक प्रशासन के सिद्धांत और मूल तत्व

लोक प्रशासन का विषय बहुत व्यापक और विविधतापूर्ण है। भारतीय शिक्षा प्रणाली में इसे सामान्यतः राजनीति या राजनीति विज्ञान नाम के एक बृहत्तर विषय की अनेक शाखाओं में से एक का दर्जा प्राप्त है तथा इसका अध्यापन पाठ्यक्रम के एक या दो प्रश्नपत्रों तक सीमित होता है। लेकिन अब कुछ विश्वविद्यालयों में यह एक अलग शास्त्र के रूप में विकसित हुआ है। इसका सिद्धांत अंतः अनुशासनात्मक है क्योंकि यह अपने दायरे में अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान, प्रबंधशास्त्र और समाजशास्त्र जैसे अनेक सामाजिक विज्ञानों को समेटता है।

लोक प्रशासन या सुशासन के मूल तत्व पूरी दुनिया में एक ही हैं तथा साथ ही दक्षता, मितव्ययिता और समता उसके मूलाधार हैं। शासन के स्वरूपों, आर्थिक विकास के स्तर, राजनीतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों, अतीत के प्रभावों तथा भविष्य संबंधी लक्ष्यों या स्वप्नों के आधार पर विभिन्न देशों की व्यवस्थाओं में अंतर अपरिहार्य हैं। लोकतंत्र में लोक प्रशासन का उद्देश्य ऐसे उचित साधनों द्वारा, जो पारदर्शी तथा सुस्पष्ट हों, अधिकतम जनता का अधिकतम कल्याण है।

लोक प्रशासन और प्रबंध

अनेक लोगों को जानकर आश्चर्य होता है कि क्या लोक प्रशासन वही है जो प्रबंधशास्त्र है। जब तक हमारे कुछ उद्देश्य हैं और हमें उन्हें अभीष्टीकरण के द्वारा अर्थात न्यूनतम लागत से और न्यूनतम समय में प्राप्त करना है, दोनों को सिद्धांततः एक ही सिक्के के दो पहलू माना जा सकता है। लेकिन अभिष्टतम या अधिकतम को पाने की व्याख्या के सवाल पर प्रायः सरकार और निजी प्रबंधन में अंतर होता है। सरकार का प्रमुख सरोकार सामाजिक लाभ और प्रगति से होता है जिसे संभव है मापा न जा सके लेकिन जो विकास और जनकल्याण और उत्तम समाज की दृष्टि से महत्वपूर्ण होता है। उसे निजी उद्यम की प्राथमिकता के बराबर नहीं कहा जा सकता जिसका जीवन भौतिक लाभ-हानि के संतुलन पर निर्भर होता है।

हम लोक प्रशासन को राजनीतिक संदर्भ से अलग नहीं कर सकते। प्रशासनिक कार्यपालिका या सिविल सेवा की सहायता से चलनेवाली राजनीतिक कार्यपालिका की व्यवस्था ही लोक की इच्छा को क्रियात्मक रूप देती है। कार्यपालिका पर विधायिका की श्रेष्ठता का सर्वोत्तम दृष्टांत वह प्रकिया है जिसमें उसके आगे सार्वजनिक व्यथ के आकलन प्रस्तुत किए जाते हैं तथा उन पर मतदान कराया जाता है और उसके बाद ही सरकार का कोई भी व्यय वैध या नियमित माना जाता है। सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत यह है कि सरकार और उसकी प्रशासनिक एजेंसियां संविधान द्वारा प्रदत्त शक्तियों के दायरे में ही कार्य कर सकती हैं। कानून से कोई भी व्यक्ति ऊपर नहीं होता तथा लोक प्रशासक समेत हर व्यक्ति कानून के शासन से संचालित होता है। इन कारणों से लोक प्रशासन निजी उद्यम और व्यापार प्रबंध से भिन्न दिखाई देता है। लोक प्रशासकों को यह सुनिश्चित करना होता कि प्रक्रियाएं न्यायपूर्ण और निष्पक्ष हों, और कभी-कभी इसे गति या परिणामों की गुणवत्ता की कीमत पर सुनिश्चित किया जाता है। एक समान स्थितिवाले व्यक्तियों को एक समान व्यवहार या लाभ प्राप्त होने चाहिए। वास्तव में व्यापार प्रबंध की उपलब्धि के लिए ‘भेदभाव’ आवश्यक होता है। इसलिए इन क्षेत्रों में काम की नैतिकता भिन्न होती है। इस अंतर से इसका संकेत भी मिलता है कि सरकार को क्या चाहिए और निजी उद्यमों के लिए क्या छोड़ा जाना चाहिए।

लोक प्रशासन: एक व्यावहारिक शास्त्र

व्यवहार में भी लोक प्रशासन एक सर्व-समावेशी शास्त्र बन चुका है क्योंकि यह जन्म से लेकर मृत्यु तक (पेंशन, क्षतिपूर्ति, अनुग्रह राशि आदि के रूप में) व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करता है। (वास्तव में यह व्यक्ति को उसके जन्म के पहले से भी प्रभावित करता है, जैसे भ्रूण परीक्षण पर प्रतिबंध या महिलाओं और बच्चों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं के प्रावधान जैसी नीतियों के द्वारा)। अधिकांश पुस्तकों में इसकी विवेचना की जाती है कि यह एक विज्ञान है या कला है, या यह कि इसमें भरपूर मात्रा में दोनों के तत्व पाए जाते हैं। लोक प्रशासन चाहे कला हो या विज्ञान हो, यह एक व्यावहारिक शास्त्र है, जो सर्वव्यापी बन चुके राजनीति और राजकीय कार्यकलापों से गहराई से जुड़ा हुआ है।

आमतौर पर लोग यह सोचते हैं कि लोक प्रशासन न तो कोई व्यवसाय है और न कोई विशेषीकरण है। शायद इसीलिए कृषिविज्ञान, आयुर्विज्ञान या अभियांत्रिकी की तरह लोक प्रशासन का कोई व्यावसायिक महाविद्यालय नहीं है। क्या इसका मतलब यह है कि प्रशासन या ‘विकास प्रशासन’ संबंधी जीवनवृत्ति के लिए व्यावसायिक शिक्षा और कौशल की आवश्यकता नहीं है ? सेवानिवृत होने के बाद एक सामान्य प्रशासक होने के नाते कोई प्रशासक क्या किसी काम का नहीं रह जाता ? एक और अजीबोगरीब विशेषता यह है: अनेक अभियंता, चिकित्सक और पशु-चिकित्सक तथा कृषि-स्नातक भारत में सिविल सेवाओं की परीक्षाएं देकर सिविल अधिकारी बन रहे हैं। क्या इससे आमतौर पर श्रमशक्ति और खासतौर पर इन व्यवसायों में श्रमशक्ति के समुचित नियोजन के अभाव का संकेत नहीं मिलता ? या क्या यह अखिल भारतीय सेवाओं में (कारगुजारी कुछ भी हो) सेवा की दशाओं संबंधी सुरक्षा को दी जानेवाली वरीयता को (तथा इस भ्रम को) प्रतिबिंबित नहीं करता कि जब व्यक्ति को प्रशासक होने के नाते बहुत सारी शक्तियां प्राप्त होती हैं तो सामान्यतः काम की दशाएं अधिक अनुकूल होती हैं ?

विशेषज्ञ और सामान्यज्ञ

शीर्ष पर विशेषज्ञ बेहतर होते हैं या सामान्यज्ञ, इसे लेकर चलनेवाली बहस अंतहीन है। अनेक वर्षों तक प्रशासन में रहने के बाद किसी व्यक्ति को अधिकतर ऐसा सामान्यज्ञ ही समझा जाता है जो अधिकाधिक बातों के बारे में कम-फिर और भी कम जानता है। हमें तो ऐसी व्यवस्था बनायी होगी जिसमें सामान्यज्ञ अधिकाधिक विशेषज्ञ बनें तथा विशेषज्ञ व्यक्तियों और सामग्रियों का व्यापक-से-व्यापक ज्ञान प्राप्त करें। शीर्षस्थ स्तर पर नीतिगत परामर्श देने के लिए दोनों धाराएं आवश्यक हैं।

लोक प्रशासन की प्रकृति और उसके कार्यभार

लोक प्रशासन में बहुत-सी अबूझ बातें होती हैं, कारण कि इसमें अनेकानेक प्रकार के प्रकार्य शामिल होते हैं जो राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों के घटनाक्रमों से प्रभावित होते हैं। सरकार के अनेक दूरगामी लक्ष्य होते हैं जिनमें से अनेक एक-दूसरे से टकराते हैं (जैसे संवृद्धि बनाम समता), और ये स्पष्ट निरूपित नहीं होते। इसके कारण व्यक्ति अपने पेशे, कार्य और भूमिका की पर्याप्त समझ विकसित नहीं कर पाता। साथ ही कारगुजारी के वस्तुगत मूल्यांकन के लिए मापन के उपकरणों का भी अभाव है।

इसके अलावा लोक प्रशासन द्वारा किए गए कार्यों तथा जुटाई गई सेवाओं या लाभों की अदृश्यता भी एक समस्या है। यह इस तथ्य से भी धूमिल होती है कि किसी सेवा विशेष को चाहनेवाले व्यक्तियों की संख्या बड़ी होती है मगर वह थोड़े-से लोगों तक ही पहुंचती है। किसी परियोजना या कार्यक्रम का परिपक्वता काल इतना लंबा हो सकता है कि उसके आगे बढ़ने पर मूल लक्ष्य ही किसी और लक्ष्य में समाहित होकर बदल जाए। कभी-कभी व्यक्ति यह नहीं जान पाता कि अंतिम परिणाम में उसका योगदान क्या रहा है। किसी कारखाने का मजदूर, जो मिसाल के लिए एक बल्ब या एक कार का बहुत छोटा-सा टुकड़ा बनाता है, अंतिम परिणाम को देखकर गर्व का अनुभव करता है क्योंकि उसके निर्माण में उसकी भी भूमिका रही है। लेकिन सिविल अधिकारी किस बात का श्रेय लें ? परिणाम दिखाई नहीं देता: ‘वह न तो गोचर होता है और न उसका परिमाणीकरण संभव है।’ शायद वर्षों बाद कुछ हो और कोई परिणाम दिखाई पड़े, मगर तब तक वह सेवानिवृत्त हो जाता है या जीवित नहीं रहता। लेकिन मान्यता और पुरस्कार (मौखिक प्रशंसा तक भी) उत्साहवर्धक होते हैं और लोक प्रशासन लगभग अकेला क्षेत्र है जिसमें इसकी भी उपेक्षा की जाती है। लोक प्रशासन एक अर्थ में गृहस्थी चलाने जैसा होता है। जब तक काम सुचारु रुप से चलता रहता है, कोई उस पर ध्यान नहीं देता, लेकिन जहां कोई बात गड़बड़ हुई कि सिविल अधिकारी पर दोष धरा जाता है। किसी गृहिणी के काम पर तब ही ध्यान जाता है जब वह सब्जी में नमक या मसाला कुछ ज्यादा डाल देती है। उसमें और लोक प्रशासक में यही एक बात साझी है !

कार्यों की पारस्परिक निर्भरता और उनका समन्वित संचालन, हाल में ये बातें लोक प्रशासन के कुछ क्षेत्रों की साझी विशेषताएं बन गई हैं, तथा व्यक्तियों के काम और उनकी योग्यता के मूल्यांकन में इनका ध्यान रखना आवश्यक है। इस ‘सामूहिक कार्य’ का समुचित मूल्यांकन कैसे किया जाए, इस पर अध्ययन की आवश्यकता है। कभी-कभी सेवा की आपात आवश्यकता के कारण अतिरिक्त कर्तव्य भी निभाने पड़ते हैं। किए जानेवाले कार्य की गुणवत्ता या परिमाण के बारे में कोई सुस्पष्ट मानक या सूचक नहीं होते। इस कारण यह तय करना कठिन हो जाता है कि किसी इकाई में आवश्यकता से अधिक स्टाफ है या कम, या क्या वह दक्षतापूर्ण है। इस तरह हम कह सकते हैं कि उद्देश्यों की स्पष्ट समझ का अभाव लोक प्रशासन में मूल्याकंन या जवाबदेही का काम मुश्किल बना देता है जिससे काम की संस्कृति में गिरावट आती है।

नीतियों और योजनाओं का निर्धारण, कार्यक्रमों का क्रियान्वयन और उनकी निगरानी, कानूनों और नियम-कायदों का निर्धारण तथा उनके क्रियान्वयन के लिए विभागों का संगठनों की स्थापना और उनकी निगरानी जैसे कार्य लोक प्रशासन में शामिल हैं। प्रशासन से आशा की जाती है कि वह हमारी सीमाओं की देखभाल और रक्षा, संचार और बुनियादी ढांचे, विदेश नीति, जमीन के दस्तावेजों के (अब भूमि के उपयोग संबंधी नियमों के भी) रखरखाव, कानून-व्यवस्था की रक्षा, राजस्व की वसूली, कृषि, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, उद्योग तथा देशी-विदेशी व्यापार की उन्नति, बैंकिंग, बीमा, खनिज और समुद्री संपदा, यातायात और संचार, शिक्षा, समाज-कल्याण, परिवार नियोजन, स्वास्थ्य तथा सभी संबद्ध बिषयों पर ध्यान देगा। प्रशासन का काम राष्ट्र, राज्य तथा जिला और प्रखंड जैसे स्थानीय स्तरों पर चलता है।

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