लोगों की राय

बहुभागीय पुस्तकें >> भूतनाथ - भाग 2

भूतनाथ - भाग 2

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : शारदा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4880
आईएसबीएन :81-85023-56-5

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

193 पाठक हैं

भूतनाथ - भाग 2

इस पुस्तक का सेट खरीदें

Bhootnath - Part 2 - A hindi book by Devkinandan Khatri


भूतनाथ-इक्कीस भाग, सात खण्डों में, ‘चन्द्रकान्ता’ वे ‘चन्द्रकान्ता-सन्तति’ की ही परम्परा और श्रृंखला का बाबू देवकीनन्दन खत्री विरचित एक अत्यन्त लोकप्रिय और बहुचर्चित प्रसिद्ध उपन्यास है। ‘चन्द्रकान्ता-सन्तति’ में ही बाबू देवकीनन्दन खत्री के अद्भुत पात्र भूतनाथ (गदाधर सिंह) ने अपनी जीवनी (जीवन-कथा) प्रस्तुत करने का संकल्प किया था। यह संकल्प वस्तुतः लेखक का ही एक संकेत था कि इसके बाद ‘भूतनाथ’ नामक बृहत् उपन्यास की रचना होगी। देवकीनन्दन खत्री की अद्भुत कल्पना-शक्ति को शत-शत नमन है। लाखों करोड़ों पाठकों का यह उपन्यास कंठहार बना हुआ है। जब यह कहा जाता है कि ‘चन्द्रकान्ता’ और ‘चन्द्रकान्ता-सन्तति’ उपन्यासों को पढ़ने के लिए लाखों लोगों ने हिन्दी भाषा सीखी तो इस कथन में ‘भूतनाथ’ भी स्वतः सम्मिलित हो जाता है क्योंकि ‘भूतनाथ’ उसी तिलिस्मी और ऐयारी उपन्यास परम्परा ही नहीं, उसी श्रृंखला का प्रतिनिधि उपन्यास है। कल्पना की अद्भुत उड़ान और कथारस की मार्मिकता इसे हिन्दी साहित्य की विशिष्ट रचना सिद्ध करती है। मनोरंजन का मुख्य उद्देश्य होते हुए भी इसमें बुराई और असत् पर अच्छाई और सत् की विजय का शाश्वत विधान ऐसा है जो इसे एपिक नॉवल (Epic Novel) यानी महाकाव्यात्मक उपन्यासों की कोटि में लाता है। ‘भूतनाथ’ का यह शुद्ध पाठ-सम्पादन और भव्य नवप्रकाशन, आशा है, पाठकों को विशेष रुचिकर प्रतीत होगा।

खण्ड-दो

चौथा भाग

 

दारोगा के चले जाने के बाद थोड़ी देर तक वहाँ सन्नाटा रहा, इसके बाद उन तीनों में इस तरह की बातचीत होने लगी:-
जमना: देखो बहिन, जमाने ने कैसा पलटा खाया है !
सरस्वती: बहिन, किस्मत ने तो बहुत दिनों से पलटा खाया हुआ है, यह कहो कि उतना दुःख देकर भी विधाता को चैन न पड़ा और अब वह अपनी निर्दय आँखों के सामने एकदम से ही हम लोगों का निपटारा किया चाहता है. दुनिया में लोग किस तरह कहा करते हैं कि धर्म की सदा जय रहती है ?
जमना: हाय, अब मैं क्या करूं ? मेरी समझ में कुछ भी नहीं आता. (इन्दुमति से) बहिन, तुम चुप क्यों हो ? तुम ही कुछ बताओ की अब क्या किया जाय ? इस कैदखाने से छुटकारा मिलना तो बड़ा कठिन जान पड़ता है.
इन्दु: बहिन, मैं क्या कहूँ ? मेरी किस्मत तो बिल्कुल ही फूटी हुई है, मैं इस योग्य कहाँ हूँ कि कुछ राय दूँ !
जमना: नहीं बहिन, तुम्हारी किस्मत फूटी हुई नहीं थी बल्कि मेरे साथ आ रहने ही से तुम्हारी भी किस्मत फूट गई, बदकिस्मतों के साथ रहने वाला भी कुछ दिन में बदकिस्मत हो जाता है, मेरी ही संगत ने तुम्हें भी बर्बाद कर दिया. आह, हम दोनों बहिनें वास्तव में......

सरस्वती: अब इन सब बातों के सोचने-विचारने का यह समय नहीं है, इस समय अपना कर्तव्य सोचना और बहुत जल्द निश्चय करना चाहिये कि जब थोड़ी देर में दारोगा आवेगा तो उसे क्या जवाब दिया जाएगा. हाय, हम लोगों की नादानी और जल्दबाजी ही के सबब से यह बुरा दिन देखना नसीब हुआ, नहीं तो बड़े मजे से उस घाटी के अन्दर हम लोग पड़े हुए थे. अगर थोड़े दिन और प्रकट न होते तो अच्छा था, शीघ्रता से उछल पड़े, यही बुरा हुआ.
जमना: (ऊँची साँस लेकर) खैर जो हुआ सो हुआ.
सरस्वती: मेरी राय में तो अब दारोगा की बात मान ही लेनी चाहिए.
जमना: वह जरूर कहेगा कि तुम एक चिट्ठी लिख दो कि भूतनाथ बेकसूर है इत्यादि इत्यादि.
सरस्वती: बेशक ऐसा लिखने के लिए कहेगा, परन्तु यह बताओ कि इस कैद में पड़े सड़ने से ही लाभ क्या है ? हाँ कुछ उम्मीद हो तो कहो.
जमना: उम्मीद तो कुछ भी नहीं है.
सरस्वती: बस फिर, जो कुछ दारोगा कहे सो लिख दो और भूतनाथ से सुलह करके बखेड़ा तै करो, अपने साथ क्यों बेचारी इन्दुमति और प्रभाकरसिंहजी को जहन्नुम में मिला रही हो ?
जमना: और अगर उसकी इच्छानुसार लिख देने पर भी वह बदल जाय अर्थात् अपना काम पूरा करके हम लोगों को मार डाले तब ?

सर: तब क्या ? जो होगा सो होगा, उसकी बात न मानने से तो निश्चित है कि वह हम लोगों को कभी जीता न छोड़ेगा, और लिख देने पर आशा होती है कि शायद वह अपने कौल का सच्चा निकले और हम लोगों पर रहम करे !
जमना: हाँ, सो हो सकता है. (कुछ गहरी चिन्ता करके) अच्छा निश्चय हो गया कि ऐसा ही किया जायगा अर्थात् जो कुछ दारोगा कहेगा उसे मंजूर कर लेंगे.
सर: (ऊपर की तरफ हाथ उठा कर) हे ईश्वर, क्या हम लोगों के पाप का प्रायश्चित नहीं है ? क्या हम लोग इस योग्य नहीं हैं कि तू हम लोगों पर दया करे ? तू तो बड़ा दयालू कहलाता है. क्या इस समय हमारे लिए यहाँ कोई मददगार नहीं भेज सकता !
कुछ देर तक जमना और सरस्वती में इसी तरह की और भी बातें होती रहीं, इसके बाद समय पूरा हो जाने पर कैदखाने का दरवाजा खुला और तिलिस्मी दारोगा किवाड़ बन्द करता हुआ आकर उन तीनों के सामने खड़ा हो गया.
दारोगा: कहो क्या निश्चय किया ?
जमना: हम लोगों को क्या निश्चय करना है, जो कुछ कहोगे करने के लिए तैयार हैं.
दारोगा: शाबाश, यही बुद्धिमानी है, अच्छा तो तुम अपने हाथ से एक चीठी भूतनाथ के नाम की लिख दो जिसमें यह मजमून होना चाहिए—‘‘मेरे प्यारे गदाधरसिंह, बड़े अफसोस की बात है कि तुम अभी तक हमारे पति के घातक का पता लगा कर वादा पूरा न कर सके. मुझे पता लग चुका है कि दलीपशाह मेरे पति का घातक है, इसके लिए मुझे कई सबूत मिल चुके हैं. अब तुम शीघ्र मेरे पास आओ तो मैं वह सबूत तुम्हें दिखाऊँ. आशा है कि उसके सहारे तुम जल्द असली बात का पता लगा लोगे.’’

बस इसी मजमून का पत्र लिख दो और तुम दोनों बहिन उस पर अपना हस्ताक्षर भी कर दो, कलम-दवात और कागज मैं अपने साथ लेता आया हूँ.
जमना: (कुछ बिगड़ कर) वाह वाह, क्या खूब ! तुम तो ऐसी बात लिखाना चाहते हो जिससे कि मैं जीती रह कर भी किसी के आगे मुँह न दिखा सकूँ. इससे तो साफ जाहिर होता है कि ये बातें लिखाने के बाद तुम हम लोगों को मार डालोगे. बेशक ऐसी ही बात है. दलीपशाह बेचारे ने मेरा क्या बिगाड़ा है जो मैं उसे इस तरह हलाल करूँ ? दारोगा: ऐसा लिखने में तुम्हारा कोई भी नुकसान नहीं है, और बिना इस तरह पर लिखे तुम्हें छुटकारा भी नहीं मिल सकता.
जमना: चाहे जो हो, मगर मैं दलीपशाह के बारे में कदापि ऐसा न लिखूँगी, वह बेचारा बिल्कुल निर्दोष है.
दारोगा: देखो नादानी मत करो और मुफ्त में अपने साथ इन्दुमति और प्रभाकरसिंह की भी जान मत लो.
जमना: अब जो कुछ किस्मत में लिखा है सो होगा मगर मैं ऐसा अन्धेर नहीं कर सकती.
दारोगा: खैर जब तुम्हें यही धुन समाई हुई है तो देखो तुम्हारे साथ कैसा सलूक किया जाता है ! अच्छा मैं जाता हूँ, थोड़ी देर में बन्दोबस्त करके पुनः आऊँगा.

इतना कह कर दारोगा वहाँ से चला गया और आधे घण्टे के बाद पुनः लौट आया, अबकी दफे और भी दो आदमी उसके साथ थे जिनके चेहरों पर स्याह नकाब और हाथ में नंगी तलवारें थीं. दारोगा ने पुनः उसी सुरंग का दरवाजा खोला जिसमें जमना, सरस्वती और इन्दुमति को प्रभाकरसिंह के कैद की अवस्था दिखाने के लिए ले गया था, इसके बाद दोनों नकाबपोशों से कुछ कहा जिसके सुनते ही वे जमना, सरस्वती और इन्दुमति के पास चले गये और उन तीनों को खम्भे से खोल उसी सुरंग में ले गये. वह खिड़की खोल दी गई थी जिसमें से पहिले दफे उन तीनों ने झांक कर प्रभाकरसिंह को देखा था. दारोगा की आज्ञानुसार दोनों नकाबपोशों ने जमना, सरस्वती और इन्दुमति को उस खिड़की के पास खड़ा कर दिया और स्वयं नंगी तलवार लिए उनके पीछे खड़े हो गये. उस समय दारोगा ने पुनः उन तीनों से कहा, ‘‘एक दफे फिर नीचे की तरफ झाँक कर अपने प्रभाकरसिंह की दुर्दशा देखो. मैं उनके पास जाता हूँ और तुम्हारे देखते-ही-देखते उनका काम तमाम करता हूँ।’’
इतना कह दारोगा वहाँ से चला गया और ये तीनों बड़ी ही बेचैनी के साथ नीचे की तरफ देखने और रक्षा के लिए ईश्वर से प्रार्थना करने लगीं.
हथकड़ी-बेड़ी से मजबूर और पेड़ के साथ बंधे हुए प्रभाकरसिंह सिर झुकाए जमीन की तरफ देख रहे थे जिस समय हाथ में नंगी तलवार लिए दारोगा उनके पास पहुँचा.

2

 

जमना, सरस्वती और इन्दुमति डबडबाई हुई आँखों से झाँकती हुई देख रही थीं कि प्रभाकरसिंह हथकड़ी-बेड़ी से मजबूर पेड़ के साथ बंधे हुए हैं और दारोगा नंगी तलवार लिए उनके सामने खड़ा है. अब दारोगा और प्रभाकरसिंह में कुछ बातें होने लगीं जो कि उन दोनों की आकृति और हाव-भाव से मालूम होता था मगर दूर होने के कारण उनके शब्द जमना, सरस्वती और इन्दुमति को सुनाई नहीं देते थे, फिर कुछ देर बाद मालूम हुआ कि दारोगा उन्हें किसी काम के लिए मजबूर किया चाहता है मगर प्रभाकरसिंह लापरवाही के साथ इनकार कर रहे हैं और दारोगा की धमकियों तथा क्रोध में आकर उसके दांत पीसने पर कुछ भी खयाल नहीं करते.
इसी समय इन्दुमति की निगाह एक मौलसिरी (मालश्री) के पेड़ के नीचे पड़ी जो बहुत ही बड़ा और छतनार था, तथा ऊपर मालती की लता चढ़े रहने के कारण जिसकी अवस्था घने कुँज की-सी हो रही थी. वह पेड़ वहाँ से थोड़ी दूर पर था जहाँ दारोगा खड़ा प्रभाकरसिंह से बातें कर रहा था.

इन्दु ने देखा कि उस कुँज के अन्दर से एक नकाबपोश झाँक कर दारोगा और प्रभाकरसिंह की तरफ देख रहा है. इन्दु ने जमुना और सरस्वती को भी उसी तरफ देखने का इशारा किया और वे भी बड़े गौर से उस नकाबपोश की तरफ देखने लगीं जिसका बदन धीरे-धीरे पत्तों के झुरमुट में से बाहर निकलता आ रहा था, यहाँ तक कि अब उसका आधा बदन और दाहिना हाथ जिसमें नंगी तलवार थी, नजरों के सामने आ चुका था.
मौत के पंजे में फँसे हुए बेचारे प्रभाकरसिंह की अवस्था की तरफ से ध्यान हटा कर उस नकाबपोश की तरफ देखने का कारण है, इन्दुमति को और साथ ही उसके जमना, सरस्वती को भी विश्वास हो गया कि यह नकाबपोश जो पत्तों की आड़ में से ताक-झाँक कर रहा है जरूर दारोगा का दुश्मन है और प्रभाकरसिंह की मदद के लिए आया है. वास्तव में बात भी ऐसी ही थी. जिस समय अपनी बात न मानने के कारण झुँझला कर दारोगा ने प्रभाकरसिंह को मारने के लिए तलवार वाला हाथ उठाया उसी समय वह नकाबपोश जो दूर न था दारोगा पर झपट पड़ा और उसके पीछे पहुँच कर उसने दारोगा का तलवार वाला उठा हुआ हाथ पकड़ लिया. दारोगा ने घबड़ा कर पीछे की तरफ देखा मगर चेहरे पर नकाब पड़े रहने के कारण इसे पहिचान न सका. झटका देकर हाथ छुड़ाना और घूम जाना चाहा मगर ऐसा भी न कर सका. मालूम होता था कि किसी फौलादी पंजे ने उसकी कलाई पकड़ ली है. कुछ देर तक दोनों की हालत एक तस्वीर की-सी बनी रही और इसके बाद नकाबपोश ने डपट कर दारोगा से कहा, ‘‘क्यों बे कम्बख्त बेईमान, यहाँ के सीधे-सादे राजा ने क्या इसीलिए तुझे इतना अधिकार दे रक्खा है कि तू अपने स्वार्थ के लिए अन्धा होकर उनके रिश्तेदारों पर और गरीबों पर हद दर्जे का जुल्म करे और उनकी जान तक ले लेना खिलवाड़ समझे ? अफसोस, उस बेचारे सीधे राजा को तेरी करतूतों की कुछ भी खबर नही है ! वह तेरी खुशामद से अन्धा हो रहा है और नहीं जानता कि एक दिन तू इसी तरह उसके ऊपर भी बेईमानी और नमकहरामी का हाथ साफ करेगा, बल्कि यों कहना चाहिए कि एक दिन तू उसे और उसके खानदान को मिट्टी में मिला देगा और स्वयं राजा बन बैठेगा. (कुछ रुक कर और दारोगा की तरफ कड़ी निगाह से घूर कर) नहीं-नहीं, मैं तुझे ऐसा न करने दूँगा. (दारोगा का हाथ झटक कर और उसे एक लात मार कर) तुफ़ है तेरी औकात पर, निस्सन्देह तेरी पैदाइश में फर्क है और अवश्य तू हरामी का पिल्ला है.’’ इस आदमी के चेहरे पर यद्यपि नकाब पड़ी हुई थी मगर सिर्फ आवाज ही सुन कर दारोगा ने इसे पहिचान लिया और डर तथा ताज्जुब की निगाहों से इसको देखने लगा. उधर खिड़की से झाँकती हुई जमना, सरस्वती और इन्दुमति ने भी पहिचान लिया कि यही बहादुर हमारा तिलिस्मी मददगार नारायण है.
नारायण की डपट और बातों ने दारोगा का कलेजा हिला दिया. डर के मारे उसका दिल बेतरह उछलने लगा क्योंकि उसके खयाल से नारायण ने नहीं बल्कि यमराज ने अपने पंजे में उसे दबा लिया था, उसमें उतनी ताकत न रह गई थी कि नायारण की बातों का जवाब देता या उसका मुकाबला करता और अगर ताकत होती भी तो उसके हाथ नारायण से मुकाबला करने के लिए तैयार न होते.

यहाँ पर हम अपने पाठकों को इस नारायण का कुछ परिचय दे देना उचित समझते हैं.
हमारे पाठक जमानिया के राजा गोपालसिंह को बखूबी जानते हैं तथा इन्दिरा के बयान में उनके पिता राजा गिरधरसिंह का भी कुछ जिक्र सुन चुके हैं. इस समय वही राजा गिरधरसिंह जमानिया का राज्य कर रहे हैं और यह कम्बख्त तिलिस्मी दारोगा उन्हीं का प्यारा मुसाहब है, तथा यह नकाबपोश जिसे हम नारायण के नाम से सम्बोधन कर चुके हैं राजा गिरधरसिंह के छोटे भाई शंकरसिंह हैं.
राजा गिरधरसिंह बिल्कुल ही सीधे-सादे और सरल स्वभाव के आदमी हैं. छल-प्रपंच को यह लेश मात्र भी नहीं जानते तथा राज-काज के मामलों और बारीकियों को भी वे अच्छी तरह नहीं समझ सकते, परन्तु उनके छोटे भाई शंकरसिंह बड़े बुद्धिमान, तेज, समझदार और बहादुर आदमी हैं. हिम्मत, उत्साह और जवांमर्दी इनके रग-रग में भरी हुई है तथा दुष्टों को सजा देने और सज्जनों को प्रसन्न करने में भी वैसे ही दत्तचित्त रहते हैं जैसाकि राजा लोगों का धर्म है. उनकी रिआया का कथन है कि यदि शंकरसिंहजी हमारे जमानिया के राजा हुए होते तो बहुत ही अच्छा था परन्तु नियमानुसार बड़े भाई होने के कारण गिरधरसिंहजी ही जमानिया के राजा हुए और वहाँ की प्रजा बल्कि स्वयं राजा गिरधरसिंह की इच्छा होने पर भी शंकरसिंह ने धर्म-विरुद्ध कार्य करना और बड़े भाई के रहते राजा बनना स्वीकार नहीं किया. फिर भी राजा हो जाने पर भी गिरधरसिंह अपने छोटे भाई शंकरसिंह की इज्जत करते हैं और एक तौर पर इनसे दबते ही रहते हैं तथा तिलिस्मी मामलों में भी ज्यादा जानकारी शंकरसिंह ही को है.

यह तिलिस्मी दारोगा जिसका असल नाम यदुनाथ शर्मा था इस राज्य के गुरु तथा पुरोहित खानदान का लड़का अर्थात् इसके बुजुर्ग लोग राजा साहब के बुजुर्गों के गुरु और पुरोहित होते आये हैं और सदैव से इन लोगों को मुसाहिब की इज्जत मिलती आई है. आज भी उसी पुराने सम्बन्ध से राजा गिरधरसिंह इसे मानते और इसकी इज्जत करते हैं.
मगर इस दारोगा के बुजुर्ग लोग चाहे जैसे भी नेक और ईमानदार होते आये हों फिर भी यह बड़ी ही दुष्ट प्रकृति का आदमी है. लालच, बेईमानी, नमकहरामी, बदमाशी, ऐयाशी और दगाबाजी का तो इसे पुतला ही समझना चाहिये, मगर वह अपने भेद और भाव को ऐसा छिपाये और बनाये रहता है कि किसी को इसके ऊपर बदगुमान होने का जरा भी मौका नहीं मिलता. अपनी चापलूसियों से यह राजा गिरधरसिंह को अपना आशिक बनाये हुए था मगर शंकरसिंह इस पर विश्वास नहीं करते और हमेशा इसके भेदों की खोज में लगे रहते हैं, और इसी तरह दारोगा भी इनसे हमेशा चौकन्ना बना रहता है. शंकरसिंह को किसी तरह इस बात का भी पता लग गया था कि दारोगा ने कोई गुप्त कमेटी1 बनाई हुई है जिसके सभासद लोग इसी शहर के रहने वाले तथा इसी दरबार के बड़े-बड़े ओहदेदार लोग हैं, यद्यपि उसका ठीक-ठीक पता शंकरसिह को अभी तक मालूम नहीं हुआ था, तथापि उन्होंने अपने बड़े भाई राजा साहब से इसका जिक्र कर दिया था जिस पर उन्होंने यह कह कर बात टाल दी थी कि यह खबर बेबुनियाद है, हमारा दारोगा ऐसा बेईमान नहीं है बल्कि जती और सती महात्मा आदमी है.

शंकरसिंह की तरह दारोगा भी इनसे चौकन्ना बना रहता और इनको अपना जानी दुश्मन समझता हुआ बराबर इस बात की धुन में लगा रहता था कि किसी तरह इन्हें इस दुनिया से उठा दिया जाय, मगर बात यह थी कि जमानिया के सभी आदमी बल्कि दारोगा वाली गुप्त कमेटी के मेम्बर लोग भी शंकरसिंह को दिल से प्यार करते थे और इसलिए बेईमान दारोगा की इच्छा पूरी नहीं होती थी.
अब हम अपने किस्से की तरफ झुकते हैं.
शंकरसिंह ने दारोगा को कई कदम पीछे हटा कर उसका हाथ छोड़ दिया और कहा, ‘‘दारोगा साहब, यह तो बताइए कि इन बेचारे
1. इस कमेटी का खुलासा हाल (इंदिरा के बयान में) चन्द्रकान्ता सन्तति में लिखा जा चुका है. इसलिए इस ग्रंथ में इसका जिक्र जरूरत के माफिक ही किया गया है ज्यादा नहीं.
प्रभाकरसिंह ने आपका क्या बिगाड़ा है जो आप इनकी जान लेने के लिए तैयार हो रहे हैं ?’’
दारोगा ने तलवार जमीन पर फेंक दी और हाथ जोड़ कर शंकरसिंह के सामने खड़ा होकर बोला, ‘‘यद्यपि आपके चेहरे पर नकाब पड़ी हुई है मगर मैं आपको पहिचान गया, मेरा दिल गवाही देता है कि आप मेरे मालिक भैयाराजा हैं.1 अगर मेरा विचार ठीक है तो कृपा करके चेहरे पर से नकाब हटा दीजिए जिसमें मेरी दिलजमयी हो जाय और मैं जी खोल कर जो कुछ कहना है कहूँ, मेरी बातें सुनने के बाद मेरे विषय में फैसला करें.’’
शंकर: (नकाब उलट कर) लो मुझे अच्छी तरह पहिचान लो कि मैं कौन हूँ. मैं तुम्हारी सभी बातें सुनने के लिए भी तैयार हूँ मगर पहिले उस बात का जवाब दो जो मैं पूछ चुका हूँ अर्थात् प्रभाकरसिंह ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो उन्हें कत्ल किया चाहते थे ?
दारोगा: (हाथ जोड़े हुए) प्रभाकरसिंह ने तो मेरा कुछ नहीं बिगाड़ा है मगर हमारे महाराज के साथ और इस राज्य के साथ उन्होंने बहुत बुरा बर्ताव किया है. आपको कदाचित् मालूम नहीं है कि जमानिया तिलिस्म के अन्दर घुस कर इन्होंने बहुत उपद्रव मचाया और बहुत कुछ नियम-विरुद्ध काम किया है, जिसकी सजा ही यह है कि ये कत्ल किये जायें. आप खूब जानते हैं कि तिलिस्मी नियम कैसे कड़े हैं.
शंकर: तिलिस्मी नियमों को जो मैं जानता हूँ वह तुम क्या तुम्हारे बाप भी नहीं जानते होंगे और प्रभाकरसिंह के तिलिस्म के अन्दर जो कुछ खराबी की है उसे भी मैं खूब जानता हूँ. यह कोई भी नहीं कह सकता कि प्रभाकरसिंह किसी बदनीयती से या अपने किसी फायदे के लिए तिलिस्म के अन्दर आये हों. वास्तव में उन्हें तिलिस्म के अन्दर लाने वाला या लाने का कारण भूतनाथ ही है जो तुम्हारा दोस्त है और जिसकी प्रसन्नता के लिए इस समय तुम अनुचित से अनुचित कार्य करने के लिए तैयार हो गये हों. अगर जमना, सरस्वती और इन्दुमति को भूतनाथ ने धोखा देकर तिलिस्म में फँसा न देता तो प्रभाकरसिंह भी कदापि तिलिस्म के अन्दर न आते. कहो इसके विपरीत कोई बात साबित करने के लिए तुम्हारे पास क्या मसाला है ?

दारोगा: आप बड़े हैं और मालिक हैं, मैं आपका गुलाम हूँ, अतएव मुझे उचित नहीं कि मैं आपसे बहस करूँ. मुझे इस बात की कुछ भी खबर नहीं है कि प्रभाकरसिंह इस तिलिस्म के अन्दर क्यों आए ? मुझे तो इस बात की खबर लगी कि प्रभाकरसिंह कई औरतों को साथ लेकर तिलिस्म के अन्दर विचर रहे हैं अस्तु मैंने अपने मालिक की भलाई सोच कर इन्हें गिरफ्तार कर लिया.......
शंकर: (बात काट कर) भला यह भी कोई समझाने की बात है ? तुम्हें इनके विषय में क्योंकर खबर लगी ? क्या तुम्हारे जासूस तिलिस्म के अन्दर घूमा करते हैं ? या तिलिस्म का कोई खास शैतान तुम्हें रोज-रोज की खबर सुना जाता है ? या खुद तुम नियमित रूप से रोज तिलिस्म के अन्दर घूम-घूम कर उसके दरोदीवार तथा पेड़-पत्तों की खबरदारी किया करते हो और ऐसा करने के लिए महाराज ने तुम्हें ताकीद की है ?
दारोगा: (कुछ लाजवाब-सा होकर) मैं तो पहिले ही कह चुका हूँ कि आपसे बहस करने की मेरी नीयत नहीं है. और न ऐसा करना मेरे लिए उचित ही है.
शंकर: यह कोई बहस की बात नहीं है. मैं तो सिर्फ इतना तुमसे पूछता हूँ कि इनके विषय में तुम्हें किसने खबर दी और किसने कहा कि प्रभाकरसिंह तिलिस्म के अन्दर ऊधम मचा रहे हैं.
दारोगा: (कुछ घबड़ाना-सा होकर) जी ई...ई...ई...मुझे कुछ यों ही खुटका-सा हो गया, और मैं....
शंकर: (रोक कर) बस बस बस, खबरदार, झूठ बोलना तुम्हारे हक में अच्छा न होगा, तुम ठीक-ठीक जवाब देने के लिए तैयार हो जाओ ! (प्रभाकरसिंह की तरफ देख कर) अच्छा कृपा कर आप ही कह जाइए कि इसके फन्दे में आप क्योंकर फँस गये ?

मगर प्रभाकरसिंह ने इस बात का कुछ भी जवाब न दिया जिस पर शंकरसिंह ने फिर पूछा, ‘‘आप मेरी बातों का जवाब क्यों नहीं देते ? (कुछ आगे बढ़ कर) आपका चुप रहना मुझे ताज्जुब में डालता है. (और आगे बढ़ कर और उनके चेहरे की तरफ गौर से देख कर) क्या आपके चुप रहने की कोई खास वजह है ? हैं यह क्या ? आपका शरीर कांपता क्यों है ? बस ठीक-ठीक बता ! मैं समझ गया, ओ बेईमान, तू कभी प्रभाकरसिंह नहीं है, सच बता तू कौन है ? अच्छा मैं तेरे हाथ-पैर खोल देता हूँ !’’
इतना कह कर शंकरसिंह ने नकली प्रभाकरसिंह के हाथ-पैर खोल दिये और कहा, ‘‘ले अब ठीक-ठीक बोल कि तू कौन है और प्रभाकरसिंह की सूरत बनने की तुझे क्या जरूरत पड़ी ? यह क्या, तू दारोगा की तरफ क्यों देखता है ? क्या इशारे ही इशारे से उससे सलाह करना चाहता है ? खबरदार, जल्द बोल तू कौन है !’’
जब शंकरसिंह ने देखा कि नकली प्रभाकरसिंह उनकी बातों का कुछ जवाब नहीं देते तब उन्होंने पीछे की तरफ घूम कर देखा और जोर से चार दफे सीटी बजाई, सीटी की आवाज के साथ ही चार आदमी उसी झाड़ी के अन्दर से निकल-कर शंकरसिंह के पास चले आये जिसमें से स्वयं शंकरसिंह प्रकट हुए थे. शंकरसिंह की आज्ञा पा दो आदमी तो खड़े हो गये, एक आदमी नकली प्रभाकरसिंह के पास जा खड़ा हुआ, और एक आदमी पानी लेने के लिए कहीं चला गया जो बात-की-बात में पानी से भरी हुई गगरी लेकर वहाँ मौजूद हुआ.

शंकरसिंह ने आज्ञा दी कि नकली प्रभाकरसिंह का चेहरा पानी से साफ किया जाय. उसी समय उसका चेहरा साफ किया गया और असली सूरत पर निगाह पड़ते ही आश्चर्य में आकर शंकरसिंह बोल उठे, ‘‘अख्खाह ! आप जयपालसिंह हैं !!’’
शंकर: (दारोगा की तरफ देखकर) जब अपने दोस्त जयपाल को तूने प्रभाकरसिंह बना रक्खा है तो इसमें कोई खास बात जरूर है और निश्चय है कि तेरा तलवार का हाथ उठाना इसे मारने के लिए नहीं था बल्कि किसी को धोखा देने के लिए था. (कुछ सोच कर और इधर-उधर देख कर) तुम जिसको धोखा दे रहे थे वह जरूर कहीं पास ही में होगा.
ऊपर की दरीची में से जमना, सरस्वती और इन्दुमति बड़ी दिलचस्पी के साथ यह तमाशा देख रही थीं, इस बात का पता लग जाने पर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई कि प्रभाकरसिंह वास्तव में प्रभाकरसिंह न थे बल्कि दारोगा का कोई दोस्त था और हम लोगों को धोखे में डालने के लिए यह ढंग रचा गया था अस्तु उन्होंने जब शंकरसिंह को किसी खोज में चारों तरफ निगाह दौड़ाते देखा तो जमना ने हाथ उठाया. उसी समय शंकरसिंह की भी निगाह उन तीनों पर जा पड़ी, उन्होंने बड़ी खुशी के साथ अपना हाथ उठा कर जवाब दिया और तब यह भी कहा, ‘‘घबड़ाना नहीं, अब मैं आ पहुँचा हूँ.’’
इसके बाद शंकरसिंह ने पुनः दारोगा की तरफ देख कर कहा, ‘‘देखते हो उस (ऊपर की तरफ हाथ का इशारा करके) दरीची में से कौन झाँक रहा है ? भला इन तीनों औरतों ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ? तुम साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि यह सब कार्रवाई केवल गदाधरसिंह की मदद के लिए की गई है ! बोलो वास्तव में यही बात है या नहीं ?’’
दारोगा ने शंकरसिंह की बात का कुछ भी जवाब न दिया और सिर नीचा करके जमीन की तरफ देखने लगा. शंकरसिंह ने क्षणमात्र तक कुछ विचार किया और इसके बाद पुनः दारोगा से कहा, ‘‘अच्छा मैं इस समय तुम दोनों को छोड़ देता हूँ, इस मामले का फैसला भाई साहब (महाराज) के सामने ही किया जाएगा, और इस समय तुम मुझे अपने साथ जमना, सरस्वती और इन्दुमति के पास ले चलो जो उस दरीची में से झांक कर तुम्हारी बेईमानी का तमाशा देख रही हैं.’’
‘चलिए मैं आपको ले चलता हूँ’’ कह कर दारोगा मकान की तरफ रवाना हुआ. शंकरसिंह उसके साथ-साथ चलने लगे.
वह दारोगा का मकान कुछ अजीब ढंग का बना हुआ था, देखने वाला यही कहेगा कि इस मकान का भी किसी तिलिस्म से सम्बन्ध है मगर ऐसी बात न थी. दारोगा ने सिर्फ अपनी ही कारीगरी और बुद्धिमानी से इस मकान को तैयार कराया था. इस मकान में कई दालान, कई कमरे, कई कोठरियाँ, कई तहखाने और कई सुरंगें बनी हुई थीं. एक-एक कमरे और कोठरी में जाने के लिए कई रास्ते थे. किसी अनजान आदमी को यदि अकेले उस मकान में छोड़ दिया जाए तो वह घूमता-ही-घूमता परेशान हो जाय और घबड़ा जाय तथा उसे बाहर निकलने के लिए रास्ते का पता न लगे. शंकरसिंह को आज से पहिले इस मकान में आने का कभी इत्तिफाक न पड़ा था, अस्तु वे इस मकान की कैफियत को देख कर आश्चर्य करने लगे. जैसे-जैसे दारोगा उन्हें कोठरियों, कमरों और दालानों में घुमाता था तैसे-तैसे उन्हें उसकी चालबाजी और बदनीयती का ख्याल बढ़ता जाता था. दारोगा यह नहीं चाहता था कि शंकरसिंह को जमना, सरस्वती और इन्दुमति के सामने ले जाय और इसीलिए वह उन्हें अन्दाज से ज्यादा घुमाता और चक्कर दिलाता हुआ धीरे-धीरे ऊपर की तरफ लिये जा रहा था !
इसी तरह घूमते-फिरते वे एक ऐसे दरवाजे के पास पहुँचे जिसमें बहुत बड़ा ताला लगा हुआ था और उसी की बगल में एक और भी छोटा-सा दरवाजा था जिसके दोनों पल्ले खुले हुए थे. वहाँ पर दारोगा रुक गया और उसने शंकरसिंह की तरफ देख कर कहा, ‘‘जरा-सा आप यहाँ पर खड़े रहने की तकलीफ गवारा कीजिए तो मैं जाकर इस दरवाजे को खोलने के लिए ताली ले आऊँ क्योंकि वे तीनों औरतें इसी के अन्दर हैं.’’
इसके जवाब में शंकरसिंह न-मालूम क्या सोच कर कुछ देर तक तो दारोगा का मुँह देखते रहे और तब बोले, ‘‘खैर कोई चिन्ता नहीं आप जाइये और ताली लेकर जल्द आइये.’’
दारोगा फुर्ती के साथ उस दूसरे छोटे दरवाजे के अन्दर घुस गया और शंकरसिंह वहाँ खड़े रह कर उसके आने का इन्तजार करने लगे. ज्यों-ज्यों दारोगा के आने में देरी होती थी त्यों-त्यों शंकरसिंह का क्रोध बढ़ता जाता था और इस बात का भी शक हो रहा था कि वह हमें धोखा देकर यहाँ से निकल भागा.
घण्टे-भर तक शंकरसिंह चुपचाप वहाँ खड़े रह गए और दारोगा लौट कर नहीं आया, अन्त में वे बहुत झुँझलाये और वहाँ से दारोगा की खोज में चल खड़े हुए. जिस छोटे दरवाजे के अन्दर दारोगा घुस गया था उसी दरवाजे के अन्दर शंकरसिंह भी चले गये मगर आगे जाने के लिए उन्हें कोई रास्ता नहीं मिला क्योंकि उस दरवाजे के अन्दर घुसने के बाद वे एक ऐसी कोठरी में पहुँचे जिसके दोनों बगल और भी दरवाजे थे मगर वे सभी इस समय बन्द थे. शंकरसिंह झुँझलाते हुए कोठरी में से बाहर निकले और मकान के बाहर हो जाने के लिए उद्योग करने लगे.
मगर वास्तव में यह मकान भूलभुलैयाँ था. शंकरसिंह को घूमते हुए कई घण्टे बीत गये, यहाँ तक कि सूर्य भगवान अस्ताचल की तरफ चले गए और उस मकान के अन्दर अन्धकार ने धीरे-धीरे अपना दखल जमाना शुरू कर दिया.
घूमते-फिरते उन्हें कई बन्द दरवाजे भी मिले जिन्हें देख कर उन्होंने समझा कि यह दारोगा की शैतानी है, भागते समय उसने उन दरवाजों को बन्द कर दिया जिनके जरिये से बाहर हो जाने की उम्मीद हो सकती थी अस्तु उन्होंने पुनः घूमना आरम्भ किया मगर जब कोठरियों और कमरों में पूरा अन्धकार छा गया तब लाचार होकर एक ठिकाने बैठ गए और चिन्ता करने लगे कि अब क्या करना चाहिये.

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book