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भूतनाथ - भाग 3

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : शारदा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :277
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4881
आईएसबीएन :81-85023-56-5

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भूतनाथ - भाग 3

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Bhootnath - Part 3 - A hindi book by Devkinandan Khatri


भूतनाथ-इक्कीस भाग, सात खण्डों में, ‘चन्द्रकान्ता’ वे ‘चन्द्रकान्ता-सन्तति’ की ही परम्परा और श्रृंखला का बाबू देवकीनन्दन खत्री विरचित एक अत्यन्त लोकप्रिय और बहुचर्चित प्रसिद्ध उपन्यास है। ‘चन्द्रकान्ता-सन्तति’ में ही बाबू देवकीनन्दन खत्री के अद्भुत पात्र भूतनाथ (गदाधर सिंह) ने अपनी जीवनी (जीवन-कथा) प्रस्तुत करने का संकल्प किया था। यह संकल्प वस्तुतः लेखक का ही एक संकेत था कि इसके बाद ‘भूतनाथ’ नामक बृहत् उपन्यास की रचना होगी। देवकीनन्दन खत्री की अद्भुत कल्पना-शक्ति को शत-शत नमन है। लाखों करोड़ों पाठकों का यह उपन्यास कंठहार बना हुआ है। जब यह कहा जाता है कि ‘चन्द्रकान्ता’ और ‘चन्द्रकान्ता-सन्तति’ उपन्यासों को पढ़ने के लिए लाखों लोगों ने हिन्दी भाषा सीखी तो इस कथन में ‘भूतनाथ’ भी स्वतः सम्मिलित हो जाता है क्योंकि ‘भूतनाथ’ उसी तिलिस्मी और ऐयारी उपन्यास परम्परा ही नहीं, उसी श्रृंखला का प्रतिनिधि उपन्यास है। कल्पना की अद्भुत उड़ान और कथारस की मार्मिकता इसे हिन्दी साहित्य की विशिष्ट रचना सिद्ध करती है। मनोरंजन का मुख्य उद्देश्य होते हुए भी इसमें बुराई और असत् पर अच्छाई और सत् की विजय का शाश्वत विधान ऐसा है जो इसे एपिक नॉवल (Epic Novel) यानी महाकाव्यात्मक उपन्यासों की कोटि में लाता है। ‘भूतनाथ’ का यह शुद्ध पाठ-सम्पादन और भव्य नवप्रकाशन, आशा है, पाठकों को विशेष रुचिकर प्रतीत होगा।

खण्ड-तीन

सातवाँ भाग

 

प्रभाकरसिंह के लखलखा सुँघाने पर जब भैयाराजा और मेघराज को होश आया और उन दोनों ने प्रभाकरसिंह और भूतनाथ को अपने सामने खड़ा पाया तो दोनों ही को बड़ा आश्चर्य हुआ और तरह-तरह के ख्यालों ने उन्हें आ घेरा. अपनी दुर्दशा की तरफ ध्यान देने से एक बार तो उनका चेहरा क्रोध से लाल हो गया तथापि अपने को सम्हाल कर सबसे पहिले उन्होंने हर्बों को टटोला और तब उधर से निश्चिन्त हो भूतनाथ की तरफ देखकर बोले—
मेघराज: क्यों जी भूतनाथ, तुम तो अभी मेरे सामने कोई जहरीली चीज खाकर बेहोश हो गये बल्कि मर चुके थे लेकिन अब भले-चंगे नजर आते हो, यह क्या बात है ?
भूत: निःसंदेह आप लोगों ने कुछ-कुछ वैसी ही हालत देखी थी मगर सच बात यह है कि वह मेरी ऐयारी थी और वास्तव में मैंने कोई ऐसी चीज नहीं खाई थी जिससे जान जाने का डर होता.
मेघराज: तो क्या तुम मेरे सामने तरह-तरह की बातें करते हुए जो बेहोश हो गये थे वह केवल बनावटी कार्रवाई थी ?
भूत: जी हाँ.

भैयाराजा: (आश्चर्य से) मगर तुमने इसमें क्या फायदा सोचा था ? तुम तो हमारे साथ अपनी मित्रता सिद्ध करने को उद्यत थे न ?
भूत: निःसन्देह मैं आप लोगों को अपना मित्र समझता था और अब भी समझता हूँ पर मेरी वास्तविक इच्छा यह थी कि (मेघराज की तरफ इशारा करके) आपका परिचय जानूं. यही एक बात थी जिसने मुझे वैसा करने पर मजबूर किया.
मेघराज: तो क्या तुमने मुझे पहिचाना ?
भूत: (लज्जित होकर) नहीं बिल्कुल नहीं.
मेघराज: (मुस्कुरा कर) अच्छा तो बताओ कि अब क्या इच्छा है ?
भूतनाथ जवाब देने ही को था कि उसे सामने की तरफ से कुछ आदमी आते हुए दिखाई पड़े. हाथ के इशारे से थोड़ी देर के लिए बात बन्द करने की इच्छा प्रकट कर वह चुपचाप उधर ही देखने लगा. मेघराज उसका मतलब समझ गये और शीघ्र ही उनकी चंचल और तेज निगाहों ने भी उन आदमियों को खोज निकाला जिन्हें देख भूतनाथ खटका था. कुछ देर में वे सब पास आ गये और तब सभों ही ने पहिचान लिया कि वे लोग कौन हैं.
भूत: (मेघराज से) लीजिए मेरे साथी लोग आ गये, मैं केवल इन्हीं लोगों का इन्तजार कर रहा था, अब जैसी आप लोगों की इच्छा हो उसके अनुसार काम करने को उद्यत हूँ. रहा अपना इरादा, सो तो नष्ट हो ही गया. (अपने साथियों को हाथ का इशारा करके) आओ चले आओ, कोई हर्ज की बात नहीं है.
प्रभा: (भूतनाथ से) ये तो तुम्हारे वे ही साथी हैं जो मेरे हाथ से जख्मी हुए थे.
भूत: जी हाँ.
यह कहता हुआ भूतनाथ अपने साथियों को बैठने का इशारा कर खुद भी जमीन पर बैठ गया और तब मेघराज की तरफ देखकर बोला, ‘‘हाँ अब आप पूछिये क्या पूछते थे ?’’

मेघराज: उस समय तो मैं कुछ नहीं पूछता था परन्तु अब जरूर यह जानना चाहता हूँ कि क्या अभी तुम्हारे दिल में भैयाराजा की स्त्री को छुड़ाने की इच्छा बनी है ?
भूत: हाँ-हाँ, क्यों नहीं ? ईश्वर ने चाहा तो मैं भैयाराजा के काम से कदापि मुँह न मोड़ूँगा और उनके लिए सदैव तन-मन से उद्यत रहूँगा.
मेघराज: खैर शुक्र है कि अभी तक तुम इस राह पर हो ! अच्छा तो फिर उसका प्रबन्ध करो. दारोगा ने इनकी स्त्री को तुम्हारे हवाले कर देने का वादा तो किया ही था और वह दिन भी आज ही है !
भूत: बेशक ऐसा ही है, परन्तु सोचने की बात यह है कि केवल अकेले मेरा ही जाना उचित होगा या आप लोगों को भी साथ ले जाना ?
मेघराज: अब इसको तो तुम ही जानो !
भूत: (कुछ सोचकर) मेरी समझ में तो आप लोग भी यदि रहते तो उत्तम होता, क्योंकि यदि दारोगा किसी वजह से इन्कार भी कर देगा तो मैं उन तालियों की मदद से जिन्हें उसने जैपाल के धोखे में मुझे दे दिया है एक बार स्वयम् अजायबघर में जाने का उद्योग करूँ, मगर ऐसी अवस्था में ज्यादा आदमियों का साथ रहना आवश्यक है क्योंकि पहरा जरूर होगा, अकेले काम न निकलेगा.
मेघ: निःसन्देह तुम्हारा खयाल ठीक है. तो हम लोग साथ चलने को तैयार हैं, उठो, क्योंकि संध्या होने में ज्यादा विलम्ब नहीं है.

इतना कह कर मेघराज अपनी जगह से उठे और सब को साथ ले भूतनाथ के पीछे-पीछे जमानिया की तरफ रवाना हुए. भैयाराजा इत्यादि घोड़ों पर सवार थे और भूतनाथ तथा उसके साथी पैदल ही घोड़ों के साथ-साथ जा रहे थे. अभी ये लोग ज्यादा दूर न गये थे कि सामने से दो सवार आते दिखाई पड़े जिन्हें देख सब रुक गये और उसी तरफ देखने लगे. पहिले तो गर्द के सबब से कुछ जान न पड़ा परन्तु करीब आ जाने पर मालूम हुआ कि ये लोग भी अपने ही साथी अर्थात् इन्द्रदेव के भेजे हुए ही शागिर्द हैं जिनको उन्होंने मेघराज आदि की मदद पर भेजा था. जब प्रभाकरसिंह ने पारस इत्यादि भूतनाथ के शागिर्दों को जैपाल की गठरी लिए जाते देखा था उस समय भी ये दोनों सवार उनके साथ ही थे. उनको अलग छोड़ कर प्रभाकरसिंह आगे बढ़ आए थे तथा भूतनाथ के शागिर्दों को बेकाम करने के बाद जैपाल को अपने साथ ले जा कर इन्हीं दोनों सवारों के सुपुर्द कर स्वयं भूतनाथ के पास लौट गए थे और वे दोनों उसे ठिकाने पहुँचा अब लौट रहे थे.

2

 

जमानिया की तरफ जाते-जाते यकायक भूतनाथ ने सोचा कि अजायबघर में जाने अथवा भैयाराजा की स्त्री को छुड़ाने से पहिले अगर मैं रामेश्वरचन्द्र से मिल लूँ तो बेहतर होगा क्योंकि इससे एक तो जो कुछ नई बात मेरी गैरहाजिरी में वहाँ हुई होगी सो मालूम हो जाएगी दूसरे जैपाल के यकायक गायब हो जाने पर यदि दारोगा ने अपने कैदियों को भेद खुल जाने के डर से अजायबघर से निकाल कर कहीं और हटाया होगा तो वह बात भी रामेश्वरचन्द्र से कदापि छिपी न होगी क्योंकि एक तो वह यों ही अपनी बुद्धिमानी से चारों तरफ की आहट रखता है दूसरे इस बार तो चलते समय मैं उसे ताकीद भी कर आया था इन बातों की टोह में जरूर रहना, कहीं ऐसा न हो कि दारोगा उन कैदियों को मार डाले या किसी ऐसी जगह ले जाकर कैद कर दे जहाँ से पता लगाना कठिन हो जाय. इसके अतिरिक्त अब मुनासिब यह है कि मैं उस दूकान को भी हटा दूँ क्योंकि जब मैं दारोगा की मर्जी के विरुद्ध काम करने को तैयार हो गया हूँ अर्थात् उसके कैदियों को छुड़ाने की फिक्र में पड़ गया हूँ तो मेरी दारोगा से दुश्मनी हुए बिना कदापि न रहेगी, और यह असम्भव है कि ऐसा करके भी मैं उससे दोस्ती कायम रख सकूँ क्योंकि दुश्मनी साबित हो जाने के बाद हरनामसिंह की जुबानी सब हाल सुन कर दारोगा को अवश्य इस बात का विश्वास हो गया होगा कि जमानिया वाली ऐयारी की दूकान का कर्ता-धर्ता भूतनाथ ही है, और ऐसी अवस्था में वह मेरे साथियों की गिरफ्तारी तथा मेरी दूकान को मटियामेट करने की फिक्र में भी जरूर लग गया होगा. अस्तु उस दूकान को उठा देना ही मुनासिब है. अफसोस, मैं कदापि दारोगा के कैदियों को न छुड़ाता और न ऐसे समय में जबकि बहुत कुछ फायदे की उम्मीद है, उससे दुश्मनी ही पैदा करता परन्तु क्या करूँ, बिना ऐसा किए न तो मैं भैयाराजा अथवा इन्द्रदेव को मुँह दिखाने योग्य रहूँगा और न दयाराम ही का पता लगा सकूँगा क्योंकि किसी और रीति से दयाराम का हाथ लगना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव है. सच तो यों है कि बिना उनको खोज निकाले मेरे सर से कलंक का टीका न छूटेगा और न मैं कभी स्वतंत्रता से इस दुनिया में काम ही कर सकूँगा. मुझे सदैव मुर्दों की तरह अपनी जिन्दगी के दिन व्यतीत करने पड़ेंगे क्योंकि अब मुझे अच्छी तरह मालूम हो गया कि भैयाराजा अथवा प्रभाकरसिंह से विरोध रख कर मैं कदापि इस संसार में सुख प्राप्त नहीं कर सकता.

इन्हीं बातों को सोचता-विचारता भूतनाथ सिर झुकाये चला जा रहा था. जब सब लोग अजायबघर के पास पहुँच गए तब मेघराज ने उसे पुकार कर कहा, ‘‘कहो भूतनाथ, किस ख्याल में निमग्न हो जो तुम्हें इधर-उधर का कुछ ध्यान ही नहीं है ? लो अजायबघर के पास तो आ गए.’’
भूत: (चौंक कर) निःसन्देह मैं कुछ ऐसा बेसुध हो रहा था कि मुझे इस बात की कुछ खबर ही न थी कि कहाँ आ पहुँचा, मगर हम लोग मैदान में आ गए हैं—कदाचित् दारोगा का कोई आदमी घूमता-फिरता इधर निकल आया तो मुश्किल होगी. (झाड़ियों की तरफ इशारा करके) आइए इस तरफ आड़ में हो रहें.
मेघराज: (घोड़े की बाग मोड़ कर) अच्छा चलो उधर ही चलें. मगर यह बताओ कि तुम रास्ते भर सोच क्या रहे थे ?
भूत: चलिए आड़ में पहुँच कर बता दूँगा.
सब लोग झाड़ी के पास पहुँच घोड़ों से उतर पड़े और उनको पेड़ों से बाँधा, इसके बाद भूतनाथ ने कुछ घटा-बढ़ा कर जो कुछ उसने सोचा था इन लोगों से कह सुनाया और उसके विचारों को भैयाराजा इत्यादि ने भी पसन्द किया.
कुछ देर सुस्ताने के बाद इन लोगों को वहीं छोड़ भूतनाथ रामेश्वरचन्द्र की दूकान की तरफ चला. वहाँ पहुँच कर वह अपना परिचय देने तथा उसका लेने के बाद एकान्त वाले बैठने के कमरे में चला गया और हाल-चाल पूछने लगा.
भूत: कहो कोई नई बात तो नहीं है ?
रामेश्वर: है क्यों नहीं ! दारोगा ने कैदियों को अपने मकान से निकाल कर अजायबघर में भेजवा दिया है.
भूत: यह तो मुझे मालूम है, और कुछ ?
रामेश्वर: हाँ इसके अतिरिक्त एक बात और भी है जिसको मैं आपके कान ही में कहूँगा.
भूत: (मुस्कुरा कर) मालूम होता है कि कोई बड़ी गुप्त बात है जिसको तुम इस तरह छिपा कर कहना चाहते हो.
रामेश्वर: जी हाँ, वह बात ऐसी ही गुप्त है.
भूत: (अपने कान को रामेश्वर के मुँह के पास ले जाकर) लो कहो परन्तु जल्दी करो क्योंकि समय बहुत कम है और काम बहुत करना है. भैयाराजा इत्यादि बड़ी उतावली से मेरी राह देख रहे होंगे.

रामेश्वरचन्द्र देर तक भूतनाथ के कान से मुँह लगाए धीरे-धीरे कुछ कहता रहा और इस बीच भूतनाथ ने भी कई बार बहुत ही धीरे-धीरे उससे कुछ पूछा या कहा. रामेश्वरचन्द्र ने भूतनाथ से क्या कहा यह तो मालूम नहीं हुआ परन्तु भूतनाथ के चेहरे पर गौर करने से यह अवश्य जान पड़ता था कि इस समय वह आश्चर्य और विचार के समुद्र में गोते खा रहा है. कुछ देर तक सन्नाटा रहा और दोनों में कोई बातचीत न हुई, इसके बाद भूतनाथ ने ऊँची साँस लेकर रामेश्वरचन्द्र से कहा—
भूत: तुम्हारी इन बातों को सुन कर तो मेरा जी यही चाहता है कि इसी समय शिवदत्तगढ़ जाऊँ और जो कुछ मेरे किये हो सके करूँ परन्तु लाचारी यह है कि भैयाराजा इत्यादि के साथ रह कर आज जो काम मैं किया चाहता हूँ उसमें भी ज्यादा विलम्ब करना बहुरानी की जान के साथ दुश्मनी करना होगा. यद्यपि मुझे अभी तक इस बात का पूरा विश्वास नहीं होता कि जो कुछ तुमने सुना अथवा अभी-अभी मुझसे कहा है वह सही है तथापि उन मूजियों के हाथ से ऐसा होना असम्भव नहीं और इसीलिए इस खबर को सच मान कुछ-न-कुछ उद्योग करना भी आवश्यक है. रामेश्वर: जरूर-जरूर, मगर एक ही साथ दोनों काम कैसे हो सकते हैं ?
भूतनाथ: हाँ, यही तो कठिनाई है.
रामेश्वर: आवश्यक दोनों काम जान पड़ते हैं.
भूतनाथ: निःसन्देह ऐसा ही है, लेकिन तब यह बात और भी है कि इस काम को जिसके लिए तुमने अभी-अभी मेरे कान में कहा है मैं स्वयं किया चाहता हूँ और यह नहीं चाहता कि किसी दूसरे की मदद इसमें लूँ या किसी गैर को इस बात की खबर तक भी होने दूँ.
रामेश्वर: ऐसा क्यों ?
भूत: इसलिए कि इस काम को पूरा कर देने से एक बड़े भारी अहसान का बोझ मेरे सर से उतर जाएगा.

रामेश्वर: बिल्कुल सही है, मगर भैयाराजा वाला काम भी तो बहुत जरूरी है और उनका भी अहसान आप पर कम नहीं है. खैर जैसा उचित जान पड़े कीजिए, क्योंकि इस समय दोनों ही आपके अख्तियार में हैं, चाहे भैयाराजा का अहसान उतारिए चाहे प्रभाकरसिंह का काम कीजिए.
भूतनाथ: ठीक है परन्तु साथ ही मैं यह भी चाहता हूँ कि दोनों बातों में नाम भी मेरा ही हो. (कुछ सोच कर) अफसोस यह है कि तुम खाली नहीं हो.
रामेश्वर: क्यों मुझे करना ही क्या है ?
भूतनाथ: सो जल्दी ही मालूम हो जाएगा.
रामेश्वर: यदि आपने कोई काम मेरे लिए सोच रखा है तो उस पर इस दूकान के किसी दूसरे आदमी को मुकर्रर कर दीजिए और मुझसे जो काम लेना चाहें लीजिए, मैं हर तरह से तैयार हूँ.
भूत: वह काम कोई दूसरा नहीं कर सकता बल्कि सच बात तो यह है कि मुझे तुम्हारी दूकान के नौकरों पर भरोसा नहीं है.
इतना कह भूतनाथ चुप हो गया और कुछ सोचने लगा.
इसी समय भैयाराजा के दोस्त नन्दरामजी एक देहाती की सूरत में वहाँ आ पहुँचे और रामेश्वरचन्द्र को इशारे से अपना परिचय देने बाद एक कुर्सी पर बैठ गए. भूतनाथ उनको देख कर रामेश्वरचन्द्र का मुँह ताकने लगा और कुछ पूछने ही को था कि रामेश्वरचन्द्र ने कहा—
रामेश्वर:आपको ताज्जुब हुआ होगा कि यह कौन आदमी हैं जो बिन हमारी आज्ञा के इस जगह इस तरह बेधड़क चले आए.
भूत: निःसन्देह ऐसा ही है क्योंकि मैं इनको बिल्कुल नहीं पहिचानता.
रामेश्वर: नहीं-नहीं, आप इनको बखूबी जानते हैं, ये भैयाराजा के दिली दोस्त नन्दरामजी हैं.

भूत: (खुश होकर नन्दराम से) वाह-वाह, आप तो खूब मौके पर आये ! मगर पहिले यह कहिये कि यहाँ क्यों आए और अपनी सूरत क्यों बदले हुए हैं ?
नन्द: इसको तुम्हारे शागिर्द रामेश्वरचन्द्र अच्छी तरह जानते हैं.
इतना सुन भूतनाथ ने अपने शागिर्द की तरफ देखा जिससे उनका सब हाल अर्थात् भैयाराजा से बिदा हो यहाँ उनका आना और सूरत बदल कर दारोगा के आदमियों को फाँसने की फिक्र में घूमना इत्यादि, कह सुनाया जिसे सुन भूतनाथ नन्दराम से बोला—
भूत: तो यह कहिए कि आप भैयाराजा की मदद पर घूम रहे हैं.
नन्दराम: जी हाँ.
भूत: क्या आपको यह भी मालूम है कि मैं इन दिनों भैयाराजा अथवा मेघराज इत्यादि का साथ दे रहा हूँ ?
नन्दराम: अवश्य मालूम है, यदि ऐसा न होता तो मैं तुम्हारे शागिर्द से अथवा तुमसे मिलता ही क्यों ?
भूत: तो क्या आप मुझ पर भरोसा कर सकते हैं या मैं जो सलाह दूँ उसके मुताबिक एक ऐसा काम कर सकते हैं जिसमें भैयाराजा और प्रभाकरसिंह दोनों ही का भारी लाभ हो ?
नन्दराम: बेशक, अवश्य.
भूत: तो आपको इस समय मेरी इच्छानुसार एक काम करना पड़ेगा.
नन्दराम: यदि उस काम से भैयाराजा अथवा प्रभाकरसिंह इत्यादि का हित हो तो जरूर करूँगा.

भूत: राम-राम, भला आप यह क्या सोचते हैं कि मैं कोई ऐसा काम करने को आपसे कहूँगा जिसमें आपके मित्रों की हानि होती हो ! नहीं कदापि नहीं, यह तो वह काम है जिसके लिए वे लोग बहुत ही व्याकुल हो रहे हैं. इसके जवाब में भूतनाथ ने नन्दराम को कई बहुत जरूरी और आवश्यक बातें बताईं और तब कहा—‘‘इन्हीं सब कामों के लिए इस समय मैं भैयाराजा, मेघराज और प्रभाकरसिंह को अजायबघर के पास की झाड़ियों में छोड़ यहाँ आया था. मेरा इरादा था कि रामेश्वरचन्द्र से सब जानकारी हासिल करके वापस जाऊँ और तब सब को साथ लिए अजायबघर में जाकर कैदियों के छुड़ाने का उद्योग करूँ मगर यहाँ एक नया काम ऐसा निकल आया है जो बिना मेरे किसी दूसरे से हो ही नहीं सकता और उधर किसी दूसरे भी मैं उस काम के लिए नहीं कह सकता हूँ. इसलिए मैं चाहता हूँ कि आप अजायबघर की ताली मुझसे लेकर और मेरी सूरत बन कर भैयाराजा इत्यादि के पास लौट जाइए और जब तक मैं वापस न आऊँ मेरी ही सूरत में उनके साथ रह कर काम कीजिए. ईश्वर ने चाहा तो कल किसी समय मैं आपसे मिलूँगा. इसके अतिरिक्त जो कुछ वहाँ आपको करना है वह भी मैं बतलाये देता हूँ, मगर कृपा करके इतना जरूर कीजिएगा कि उन लोगों को किसी तरह आपका सच्चा हाल मालूम न होने पावे और वे आपको भूतनाथ ही समझते रहें. मेरा यह मतलब कदापि नहीं है कि हम लोग इस भेद को सदैव के लिए छिपाए रक्खेंगे, नहीं, दस ही पाँच दिन में मेरा वह काम हो जाएगा जिसके लिए मैं इस समय यहाँ से जा रहा हूँ—तब मैं स्वयम् इस बात को भैयाराजा इत्यादि पर जाहिर करूँगा और यह भी कह दूँगा कि मैंने नन्दरामजी से पहिले ही वादा करा लिया था जिससे वह अपने को आप लोगों पर प्रकट न कर सके.’’
और भी बहुत-सी बातें नन्दराम को बताने और समझाने के बाद भूतनाथ रामेश्वरचन्द्र की तरफ मुखातिब हुआ और जो कुछ अन्य घटनायें आज-कल में हुई थीं उन्हें बयान करके बोला, ‘‘इस समय मेरे यहाँ आने का कारण केवल यही था कि इस दूकान का नाम-निशान मिटा सारा असबाब तम्हारे हवाले कर कहीं भेजवा दूँ और तब निश्चिन्त होकर जो कुछ करना है करूँ अस्तु तुम्हें चाहिए कि जहाँ तक जल्द मुमकिन हो इस काम से छुट्टी पा जाओ.’’

भूतनाथ ने गुप्त रीति से रामेश्वरचन्द्र को बहुत-सी बातें और भी समझाईं और तब नन्दराम को साथ ले दूकान के बाहर निकल कर तेजी के साथ अजायबघर की तरफ रवाना हुआ. उस समय रात लगभग एक पहर के जा चुकी थी और सड़कों पर सन्नाटा छा चुका था. लगभग दो सौ कदम जाने के बाद वे लोग एक गली से होकर चलने लगे. जब उस जगह पहुँचे जहाँ गली खतम होकर एक सड़क से मिलती थी तो उनको ‘भैयाराजा’ शब्द सुनाई पड़ा जिसे सुन ये दोनों ठिठक गए और आड़ दे सड़क की तरफ देखने लगे. दो आदमी गली के मोड़ पर खड़े बातें कर रहे थे जिनको यद्यपि भूतनाथ और नन्दराम पहिचान न सके मगर जो कुछ बातचीत हुई उसे जरूर सुनते रहे. थोड़ी देर बाद किसी को अपनी तरफ आते देख वे दोनों आदमी अलग हो गए मगर देर हो जाने के खयाल से भूतनाथ और नन्दराम ने उनका पीछा न किया और अजायबघर की तरफ तेजी से रवाना हुए.

इस वक्त भी नन्दराम और भूतनाथ चुपचाप न थे बल्कि समयानुकूल बहुत-सी बातें रास्ते-भर होती गईं. जब दोनों उस जगह के पास पहुँचे जहाँ भैयाराजा, मेघराज और प्रभाकरसिंह इत्यादि बैठे भूतनाथ का इन्तजार कर रहे थे तो भूतनाथ रुक गया और जल्दी-जल्दी अपनी पोशाक नन्दराम को देने और उनका कपड़ा लेकर आप पहिनने लगा. थोड़ी ही देर में कपड़ों का अदल-बदल समाप्त हो गया, इसके बाद भूतनाथ ने अपने हाथ से उनकी सूरत अपनी-सी बनाई और तब इशारे से उस झाड़ी की तरफ बतला कर जिसके पीछे भैयाराजा वगैरह छिपे बैठे थे दूसरी तरफ का रास्ता लिया.
पाठकों को मालूम है कि भूतनाथ ने नन्दराम से वादा करा लिया है कि अपने को प्रकट न करके भूतनाथ की ही सूरत में भैयाराजा इत्यादि के साथ रह कर काम करेंगे, इसलिए हम भी नन्दरामजी को नकली भूतनाथ कह कर सम्बोधन करेंगे, हाँ आगे चल कर जब असली भूतनाथ आ जाएगा तो दोनों ही अपने असल नाम से पुकारे जाएँगे.

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