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श्रेष्ठ बाल कहानियाँ

दिनेश चमोला

प्रकाशक : स्वास्तिक प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :368
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4900
आईएसबीएन :81-88090-46-8

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व्यावहारिक जीवन के चलचित्रों का जीता-जागता दस्वावेज...

Shestha Bal Kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

बचपन में मिले संस्कार जीवन के अंतिम क्षणों तक भी अपनी स्नेहिल स्मृतियाँ मस्तिष्क पर अंकित किया रहते हैं। संभवतः बचपन से ही जीवन का बहुमूल्य कालखण्ड होता है जो सांसारिक विघ्नबाधाओं से कोसों दूर ही अपनी मौज-मस्ती एवं मनोरंजन की दुनिया में सराबोर होता है। बचपन में न किसी प्रिय भौतिक वस्तु के छूट जाने की कसक सालती है, न किसी वस्तु विशेष को भौतिक रूप में पाने की आसक्ति जागती है। बच्चा सदैव स्वातंत्र्य का स्वामी होता है। उसकी स्वतंत्रता के समानांतर ही आसक्ति का संसार फैलता-सिकुड़ता रहता है। जब कभी बच्चे की आजादी पर प्रश्नचिह्न लगता है तो वह अपने निकट से निकट संबंधी चाहे वह माता-पिता, भाई बहन, नाना-नानी, या दादा-दादी ही क्यों न हों, से भी छुटकारा पाने की उत्कट अभिलाषा रखता है। कभी-कभी जब बच्चे की मौलिक स्वतंत्रता इस हद तक बाधित होती है कि वह अपने निष्कपट व निर्दोष मन से उसकी मृत्यु तक की कामना करने में भी संकोच नहीं करता। कल्पना की जा सकती है कि बच्चा सदैव प्रकृति से उपहार में मिली हुई स्वतंत्रता को अपनी उपलब्धियों के निकष पर भी बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध होता है। वस्तुतः उसे यह भी ज्ञात होता है कि जिन पाबंदियों के घेरे में उसे कसा जा रहा है, वे निश्चित रूप से उसे प्रगति के सोपान तक ले जाने के लिए कटिबद्ध हैं, बावजूद इसके बच्चा आपनी आज़ादी के साथ समझौता उपलब्धियों की प्राप्ति पर भी नहीं कर सकता।

बाल मन स्वच्छ हिमालय के स्वच्छ हिम की तरह ही निश्छल एवं निर्मल होता है। संभवतः पूर्व में निर्धारित संस्कारों के अनुरूप या कहें पारिवारिक पृष्ठभूमि पर आधारित धरोहर के रूप में बालक में जीवन एवं संस्कार के प्रति रुचियों का संचार होता है। बालमन सदैव सतरंगी संसार, इन्द्रधनुषी कल्पनाओं एवं मनोरंजन से परिपूर्ण कथा-कहानियों का प्रेमी होता है। यह नेह बालक में क्यों कर उत्पन्न होता है, यह वह स्वयं भी नहीं जानता। प्रायः मनुष्य स्वयं को विषय विशेष का पारखी मानकर बच्चों को अपनी ज्ञान सीमा के अनुरूप ढालने को बाध्य करता है, किंतु अपने भीतर असीमित अलौकिक ज्ञान को समेटे हुए शिशु स्वयं को उसकी सीमित ज्ञान की कसौटी में बँध जाने के लिए कदापि तैयार नहीं रहता। यदि माता—पिता उसे विज्ञान के चमत्कारों का परिचय देकर उस ओर प्रस्तुत होने के लिए शिक्षा देते हैं तो वह इसके विपरीत कल्पना के शिखर छूने वाली परीकथाओं में गहरी दिलचस्पी रखता है। यदि उससे बड़े-बूढ़े उसे सामान्य ज्ञान की जानकारियों की सम्पदा प्रदान कर वैज्ञानिक व इंजीनियर बनाना चाहते हैं तो वह भीतर के भावुक नियंता के अनुशासन से नियंत्रित होकर धरती के कैनवास पर तिरछी-आड़ी रेखाएँ खींचकर या तो कलाकार बन जाता है या फिर भीतर के भावुक गीतों को गुनगुनाता हुआ, संसार की विद्रूपताओं को चित्रित करता हुआ कोई प्रभावी कवि बन जाता है। संभवतः सृजन का शिलान्यास किसी दुष्ट व्यक्ति के हाथ में नहीं बल्कि वह तो अदृष्ट सत्ता की शक्ति, सामर्थ्य एवं निर्देशन से निर्दिष्ट होता है।

बाल साहित्य अपने में कई-कई बारीकियों, गहनताओं को समेटे होता है जिनमें मनोरंजकता का तत्व प्रमुख है। भौतिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से ज्ञान के व्याकरण से बिल्कुल अपरिचित बच्चा भी भी अपने भीतर रुचियों का व्यापक संसार समाए होता है। वह उन्हीं सब वस्तुओं से प्रेम करता है, लगाव रखता है, आसक्ति महसूस करता है जो भीतर से उसको यह सब करने, सुनने अथवा गुनने के लिए प्रेरित करती हैं। परिवार मानवीय गुणों की प्राथमिक पाठशाला तो हो सकती है किंतु पूर्व निर्धारित बौद्धिक सम्पदा को परिवर्तित करने की कर्मशाला नहीं। बच्चे को कुछ गुण नैसर्गिक उपहार के रूप में प्राप्त होते हैं जबकि कुछ गुण संसर्ग, संस्कृति एवं पृष्ठभूमि के आधार पर संस्कारित होते हैं। बाल साहित्य में बच्चों के भीतर की सोई हुई भावनाओं को जगाने की महत्त्वपूर्ण क्षमता होनी चाहिए। कहानी, कविता अथवा कथ्य का आवरण जो भी हो, उसके भीतर कुछ-न-कुछ उद्दिष्ट संदेश अवश्य निहित होना चाहिए जिसको सम्मुख रखकर बालक में संघर्षशील जीवन से दो-चार होने की क्षमता विकसित हो; संसार में आकाश से पाताल तक प्राकृतिक वैभवों, खनिज सम्पदाओं एवं जैविक विविधता का जिस प्रकार अपना महत्त्व, प्रभाव एवं भविष्य है, उसी प्रकार प्राकृतिक अथवा नैसर्गिक रूप से सृजित प्रतिभाओं का भी अपना अलग महत्त्व एवं भविष्य है। संसार में न जाने कितनी भाषाएँ, जिनकी बोलियाँ, कितने मानव एवं कितने सम्प्रेषण के माध्यम हैं। सभी माध्यम अपने-अपने स्तर पर अपने-अपने समय के साथ पूर्ण न्याय करते हैं। अतः हम दावे के साथ यह नहीं कह सकते कि कौन-सा माध्यम कितना प्रभावी, कितना बलिष्ठ तथा कितना सहज और कितना निकृष्ट है। संसार में प्रत्येक व्यक्ति अपनी शक्ति, सम्पन्नता, सामर्थ्य, प्रभाव एवं दक्षता के अनुरूप जीवन की गाड़ी खींचता है। जिस प्रकार लोकतंत्र में मंत्री से प्रधानमंत्री तक, व्यक्ति से लेकर समाज तक प्रत्येक की अपनी प्रतिष्ठा, पहचान एवं निजी अस्तित्व होता है, उसी प्रकार साहित्य के विभिन्न अवयवों का भी समाज में अपने-अपने सरोकारों की व्यापकता के कारण अपना महत्त्व होता है। कई बार बाल साहित्य के चिंतक, आलोचक एवं मर्मज्ञ विधा विशेष को अग्रणी व अन्य किसी विधा को निकृष्ट करार देते हैं, यह कतई आवश्यक नहीं है। जैसे एक पियक्कड़ के लिए मदिरा भले ही अत्यंत महत्त्व का विषय हो किन्तु एक स्वाध्यायी व्यक्ति के लिए इससे बढ़कर कई गुना अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान लोकप्रिय साहित्यिक पुस्तक का हो सकता है।

‘श्रेष्ठ बाल कहानियाँ’ कल्पना ये यथार्थ तक के विविध रंगों में रंगा हुआ बाल कथाओं का एक नवीन प्रयोग है जो अपने साथ मनोरंजकता के साथ-साथ बाल मनोविज्ञान के विभिन्न चित्रों को प्रस्तुत करने का एक प्रयोगधर्मी प्रयास है। बाल साहित्य सदैव या तो कल्पना के क्षितिज के पार का अलौकिक संसार होता है या फिर व्यावहारिक जन जीवन के चलचित्रों के जीते-जागते दस्तावेजों का सीधा-सीधा प्रतिबिम्ब। लेखक सदैव बालकों के मुँह से शब्दों की अभिव्यक्ति छीनकर कल्पना के रंग भर देता है। यह इन्द्रधनुषी रंग बालकों, बालपाठकों एवं समालोचकों के लिए कितना ग्राह्य हो सकता है ये तो वे स्वयं जानें। बाल साहित्य में साहित्यकार को अपनी अतीत की स्नेहिल स्मृतियों को सँजोना होता है या फिर नितांत बालक बनकर जीवन की अनुभूतियों को व्यावहारिक काल्पनिक स्वर देकर अभिव्यक्ति कौशल से उकेरना। इस संदर्भ में बाल साहित्य निःसंदेह ही एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। आज के इस भटकाव के दौर में, जबकि देश की कुल जनसंख्या का लगभग 45 प्रतिशत बच्चे हों, बाल साहित्यकार की भूमिका अन्य साहित्यकारों की अपेक्षा कहीं अधिक जोखिमों से भरी हुई है। निष्ठा किसी भी कार्य की उपलब्धि का मूलभूत सोपान है। समालोचनात्मक एवं व्यापक दृष्टि से यदि हम देखें तो बाल साहित्य के क्षेत्र में हम लम्बी यात्रा कर आए हैं। अगली सदी में बड़े-बड़े लेखकों को भी बाल साहित्य के क्षेत्र में पदार्पण करना होगा अन्यथा इसके अभाव में वे स्वयं के साहित्य को नितान्त अधूरा एवं अपूर्ण पाएँगे।

दादी का गाँव

अंजली और शैलजा दो बहनें थीं। दोनों बहुत सुंदर और होशियार थीं। अंजली दूसरी कक्षा में पढ़ती थी और शैलजा पहली में। वे पहाड़ के रहने वाले थे। लेकिन वे दिल्ली ही रहते थे। बस, कभी गर्मियों की छुट्टियों में ही पहाड़ जाना हो पाता। पहाड़ उनको भले लगते। वे गाँव के मौसम व परिवेश में रचने-बसने लगते कि छुट्टियाँ समाप्त हो जातीं।
शैलजा चूँकि कम पहाड़ में रही थी इसलिए गाँव के माहौल से परिचित न थी। लेकिन जब भी गाँव, जंगल व पहाड़ की कहानी मम्मी-पाप सुनाते तो एकटक हो सुनती और जिज्ञासा से कई-कई अनसुलझे प्रश्न बीच-बीच में करती। मम्मी-पापा भी यह सुन प्रसन्न हो जाते।
उनके पापाजी की बदली दिल्ली से देहरादून हो गई थी। देहरादून बहुत सुंदर जगह है। फिर जहाँ नौकरी का स्थान था वह स्वर्ग से भी सुन्दर। आर-पार में हरे-भरे ऊँचे-ऊँचे वृक्षों का जंगल। बीच में मीलों तक समुद्र की चुप्पी साधे खामोश चायबग़ान। उत्तर में पहाड़ों की रानी मसूरी व चारों ओर छोटी-छोटी पर्वतमालाएँ। बच्चों को बहुत भला लगता है। दिल्ली के शोरगुल व गहमागहमी से यहाँ के शान्त जीवन का आनन्द ही कुछ और था। लेकिन यहाँ आने पर तो आँगन के आर-पार कई रंग-बिरंगी चिड़ियाँ जैसे उनसे परिचय के लिए उतावली बैठी थीं।
बच्चों को चिड़ियों का यह नजदीकी प्रेम बहुत अच्छा लगा। वे उन्हें दाना डालने लगे। अब क्या था, रात खुलती भी न थी कि रंग-बिरंगी सुन्दर-सुन्दर चिड़ियाँ बगीचे में चहचहाने लगतीं।
बगीचे में फूलों के अलावा एक आम का पेड़ भी था जिस पर दिन-भर पक्षियों का जमघट लगा रहता। मम्मी से बार-बार कहती-‘‘मम्मी जी, आप इन प्यारी चिड़ियों को भी अपने घर में ही रहने दो न !’’
‘‘नहीं बेटे, इनके भी अपने घर होते हैं। सायं होते ही ये अपने-अपने घरों को उड़ चलते हैं। यदि हम उनको यहाँ रखेंगे तो घर में उनके छोटे बच्चे बहुत रोएँगे। यदि ऑफिस से तुम्हारे पापा न आएँ तो ?’’
‘‘हम ऑफिस चले जाएँगे....पापाजी को लेने।’’ शैलजा तपाक से बोल पड़ी।

मम्मी के थोड़ा समझाने पर शैलजा समझ गई। शैलजा का घर का नाम शैलू था। पापा जी ऑफिस से आने के बाद अपने लिखने-पढ़ने के काम में डूब जाते तो बच्चे बाल पत्रिकाएँ पलटने लग जाते।
अंजली कलाकार थी। सुन्दर-सुन्दर चित्र बनाती। शैलू चित्र बनाते देखती तो खुद भी कागज काले-पीले करने लग जाती। लेकिन कुछ ही दिनों में शैलजा भी अच्छे चित्र बनाने लगी। अंजली शैतान भी थी और बुद्धिमान भी। दोनों पढ़ते-लिखते, चित्र बनाते और पापाजी के आने तक पार्क में खेलते-कूदते चिड़ियों से बतियाते। उन्हें मिलने के लिए कभी गोपेश्वर-लिखवाड़ी से प्रवीण, नवीन, निवास, कुसुम, हेमा, बंदू आते तो लखनऊ से आशु दीप्ती व मंकू, कभी रिवाड़ी से मोनू, जॉनी आता तो कभी राजस्थान से कृति। सभी यहाँ की चिड़ियों व सुन्दरता की खूब प्रशंसा करते।
शैलजा व अंजली की पाठशालएँ अलग-अलग लेकिन साथ-साथ थीं।
स्कूल जाते कभी रास्ते में बन्दर साथ हो जाते तो कभी लंगूर। इनसे उन्हें डर लगता। लेकिन जब कभी स्कूल के पास के लीची व आम के पेड़ों पर सुन्दर-सुन्दर तोतों का झुण्ड आता तो सब बच्चों को बहुत अच्छा लगता। कुछ दिनों बाद शैलजा का जन्म दिन था। उसके दो-तीन माह बाद अंजली का।
एक दिन अंजली ने मम्मी जी से कहा-‘‘मम्मी शैलू को जन्म दिन का क्या तोहफा देंगे ?’’
‘‘मम्मी जी, मुझे हीरामन लाने हैं....सुन्दर-सुन्दर तोते...जो हमारे स्कूल में आते हैं...कितनी अच्छी बातें करते हैं...मुझे लाओगी न मम्मी ?’’ शैलजा पहले ही बोल पड़ी।
‘‘अपने पापा जी से कहना...’’ मम्मी जी ने शैलजा से कहा।
बस, क्या था। शैलजा ने पापा जी के सामने धरना दे दिया। वह इतनी पक्की है कि माँग पूरी करवा कर ही साँस लेती है। अंजली तो कुछ कह-सुनकर मान भी जा जाती है लेकिन शैलजा उस दिन स्कूल भी नहीं गई। आखिर एक दिन मजबूर होकर मम्मी व पापा जी के साथ बाजार जाकर पिंजरे में दो हीरामन लेकर चैन से बैठी। अब क्या था ! हीरामन से उनकी अब अच्छी-खासी दोस्ती हो गई। दूसरे का नाम रख दिया मिट्ठू। कुछ दिनों में अंजली ने भी अपने लिए एक पिंजरे की माँग की। फिर दो तोते और ले आने पड़े। बस, अब तो सोते-खाते तोतों से ही उठना बैठना...और वे भी तो उन्हीं का दिया-लिया खाते पीते।

कुछ दिनों बाद गुड़गाँव से उनके चाचा जी गाँव जाने के लिए देहरादून आए। अंजली की छुटिटयाँ थीं। वह भी अपने तोतों की निगरानी की बात कर चाचा जी के साथ गाँव चली गई। उसे गाँव बहुत अच्छा लगता। शहर की अन्य खास-खास बातों के अलावा उसने दादा-दादी को अपने सुन्दर-सुन्दर तोतों की भी बात कही। लेकिन यह बात सुनकर दादी को अच्छा नहीं लगा। दादी ने उसे समझाते हुए कहा-‘‘बेटी, पक्षियों को पिंजरे में रखना पाप होता है। जो चिड़ियों व जीव-जन्तुओं को कष्ट देता है, भगवान उसे शाप देते हैं। आकाश में उड़ने-घूमने वाले पक्षियों को नहीं सताना चाहिए बेटी...। यदि कोई हमारे भी हाथ-पाँव बाँध दे तो कष्ट तो होगा न...! जाकर अपने पापा जी को कहना कि पिंजरे में पक्षियों को रखना अच्छी बात नहीं है। बन्दी चिड़ियों, जन्तुओं को मुक्त करने पर वे दुआँएँ देते हैं।’’
‘‘लेकिन दादी जी, बहेलिये लोग तो सैकड़ों की संख्या में चिड़ियों, जीव-जन्तुओं को पकड़ कर पिंजड़ों में रखते हैं और मंहगे दामों में बेचते हैं। हमने भी तो उन्हीं से खरीदे थे।’’
‘‘वो लोग तो निर्दयी होते हैं...वे भगवान की बात क्या जानें। लेकिन हमें तो यह काम करना ठीक नहीं है। सब तोते उड़ा देना..., बल्कि अपने पापा जी-मम्मी जी से बन्दी तोतों को उड़ाने को कहना।’’
फिर दादी ने कई कहानियाँ सुना डालीं। बस, अंजली का बाल मन समझ गया कि वास्तव में चिड़ियों को पिंजरे में कैद करना उनके साथ अन्याय है। वे अवश्य दुःखी होकर श्राप देते होंगे। यह बात उसके मन में बैठ गई। कुछ दिनों बाद अंजली गाँव से देहरादून लौटी। उसने आती ही मम्मी-पाप और शैलजा की क्लास ले ली।
‘‘देखो, पापाजी, हीरामन को अभी उड़ा दो। इनको सताना व ऐसे रखना पाप है। वे भी हमारी ही तरह खेलना-कूदना, उड़ना और अपने मित्रों से मिल-बैठना चाहते हैं। अतः अब आप, दादी जी ने कहा कि, ऐसे पक्षियों को उड़ाया करना...यह पुण्य होता है।’’ अंजली ने कई-कई दादी की रहस्यमय बातें कह सुनाईं। बस, उसके बाद पापाजी प्रत्येक बच्चे के जन्म दिन पर कई पिंजड़े के पक्षियों को खरीद कर मुक्त करवा देते।

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