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प्रसिद्ध पौराणिक कहानियाँ

भगवतीशरण मिश्र

प्रकाशक : दृष्टि प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4904
आईएसबीएन :81-89361-10-4

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प्रस्तुत है पौराणिक कहानियाँ.....

Prasidha Pauranik Kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पुराण हमारी संस्कृति के संवाहक हैं तथा हमारी समृद्ध धरोहर भी। इनकी संख्या अठारह बताई जाती है किन्तु प्रमुख पुराणों में ब्रह्माण्ड पुराण, ब्रह्म वैवर्त पुराण, स्कन्द पुराण, शिव पुराण, मार्कण्डेय पुराण, विष्णु पुराण, गरुण पुराण, भागवत पुराण आदि आते हैं। वाल्मीकि कृत रामायण भी पुराणों के अन्तर्गत ही आता है। भविष्य पुराण भी प्रसिद्ध है।
पुराण एक तरह से इतिहास-ग्रन्थ ही हैं। इनमें विभिन्न महत्त्वपूर्ण घटनाओं, राजाओं-महाराजाओं, ऋषियों-महर्षियों, देवताओं, असुरों आदि की कथाएँ भरी पड़ी हैं। किसी विशेष देवता के नाम पर कोई पुराण है तो उसमें उसी देवता सम्बन्धित कथाओं और अन्तर कथाओं का वर्णन प्राप्त होता है, जैसे शिव पुराण में शिव से सम्बन्धित घटनाओं का उल्लेख मिलेगा तो मार्कण्डेय पुराण में मूलतः देवी की कथा प्राप्त होती है।
रामायण जहाँ राम-कथा को समर्पित है, वहीं श्री मद्भागवत पुराण में मुख्यतः श्रीकृष्ण की कथा मिलती है किन्तु सभी पुराणों में मूल विषय से हटकर अन्य विषयों के सम्बन्ध में जानकारी उपलब्ध है। श्रीमद्भागवत पुराण में ही अनेक अन्तर कथाएँ मिलती हैं। श्रीकृष्ण-कथा तो मुख्यतः दो स्कन्ध-दशम और एकादश स्कन्ध में ही सीमित है।
सर्वाधिक बड़ा-पुराण महाभारत पुराण है। इसमें एक लाख श्लोक हैं। इतना बड़ा महाकाव्य किसी भी अन्य भाषा में चाहे वह देशी हो या विदेशी उपलब्ध नहीं है। महाभारत पुराण का ही एक अंश गीता है जिसका आध्यात्मिक एवं दार्शनिक महत्त्व इतना महत्त्वपूर्ण है कि पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने भी इसकी प्रशंसा की है तथा कई भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है।

अपने पुराण-ग्रन्थों पर हमारा गर्व स्वाभाविक है। पुराण प्राचीन ज्ञान के भण्डार हैं साथ ही इनमें कुछ ऐसी बातें भी हैं जो विश्वसनीय नहीं लगतीं किन्तु इनमें अधिकांश की विश्वसनीयता आज सिद्ध हो रही है। उदाहरण के लिए रामायण में पुष्पक-विमान का वर्णन। कई अन्य पुराणों में भी आकाशचारी विमानों का उल्लेख है। जिस समय ये पुराण लिखे गए उस समय विमान क्या मोटरगाड़ी का भी पता नहीं था। आलोचक विमानों के उल्लेख को हास्यास्पद मानते थे किन्तु आज विमान आसमान में उड़ने लगे। आलोचकों का मुख स्वतः बन्द हो गया।
महाभारत पुराण में घोर विध्वंसक अस्त्र-शस्त्रों का उल्लेख है। पहले यह बात कपोल-कल्पना लगती थी किन्तु आज जब परमाणु-अस्त्रों ने विध्वंस का ताण्डव आरम्भ किया है तब महाभारत में वर्णित अस्त्र-शस्त्रों की वास्तविकता पर प्रश्न-चिह्न लगाना कठिन हो गया है।
पुराण एक तरह से वेदों की ही व्याख्या करते हैं। वेदों को सभी ज्ञान-विज्ञान का भण्डार माना गया है तो यह सर्वथा सत्य है क्योंकि आज के अधिकांश आविष्कारों का उल्लेख पुराणों के मूल वेदों में प्राप्त हो जाता है।
ऐसे ग्रन्थ और किसी भाषा या देश में उपलब्ध नहीं हैं। ज्ञान-विज्ञान से पूर्ण इन ग्रन्थों के कारण ही भारत को विश्व-गुरु की उपाधि प्राप्त थी।
अफ़सोस की बात है कि आज हम अपने इन महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों से अपरिचित होते जा रहे हैं। पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से प्रभावित नई पीढ़ी को तो इन उपयोगी तथा बहुमूल्य ग्रन्थों से कोई लेना-देना ही नहीं रहा। यही कारण है कि आज वह पूरी तरह दिग्भ्रमित हो रही है। उच्चतर मानवीय मूल्यों के प्रति उसमें कोई आस्था नहीं रह गई है। बुजुर्गों यहाँ तक कि माता-पिता के प्रति भी उनकी श्रद्धा समाप्त हो गई है। फलतः परिवारों का विखण्डन हो रहा है। परिवार के वृद्ध और वृद्धाएँ वृद्धाश्रमों में रहने को विवश हो रहे हैं।

इस पुस्तक के लेखन के मूल में ये सारी समस्याएँ ही हैं। नई पीढ़ी को अपने संस्कार और संस्कृति से परिचित कराना ही इसका उद्देश्य है। उच्चतर जीवन-मूल्यों को समर्पित हैं ये बाल-पौराणिक कहानियाँ।
इस पुस्तक को प्रस्तुत करना आसान नहीं था। पुराण बालकों के लिए नहीं रचे गए। भागवत् आदि पुराण तो बहुत विद्वानों के पल्ले भी नहीं पड़ते। उक्ति है—
‘विद्यावतां भागवते परीक्षा’

अर्थात् विद्वानों की परीक्षा भागवत में ही होती है।

स्पष्ट है कि पुराणों की कथाओं को बालोपयोगी बनाने में विशेष शिल्प और भाषा की आवश्यकता थी।
पूरी तरह यह प्रयास किया गया है कि इस पुस्तक का स्तर बालकों की बुद्धि के अनुकूल हो। फिर भी कोई यह नहीं समझे कि इसमें मात्र सरल शब्दों का ही प्रयोग हुआ है।
यह पुस्तक उपदेशात्मक होने के साथ-साथ ज्ञानवर्धक भी है। अगर इसके पढ़ने के बाद बालका का ज्ञान जहाँ था वहीं रह गया तो पुस्तक का वास्तविक उद्देश्य अधूरा ही रह जाएगा, अतः कहीं-कहीं किंचित् कठिन शब्दों के प्रयोग से भी मुँह नहीं मोड़ा गया है। शब्दकोशों का प्रयोग करना भी हमारे बाल-पाठकों को आना ही चाहिए।
स्पष्टतः इन कहानियों के दो लक्ष्य हैं—
(1) अपनी संस्कृति और विरासत से परिचित करा उनके अन्दर मानवीय मूल्यों को स्थापित करना।
(2) बालकों के ज्ञान-स्तर को बढ़ाना।
कहानियों के चुनाव में कई बातों का ध्यान रखा गया है। कुछ पौराणिक बालकों की कथाएँ दी गईं जिनमें किसी प्रकार की विशेषता है चाहे वह विद्वता हो, वीरता हो, अथवा गुरुजनों, माता-पिता आदि के प्रति श्रद्धा हो।
किन्तु यह पुस्तक मात्र पौराणिक बालकों की कहानी नहीं है। इसमें चरित्रवान व्यक्तियों, ऋषियों, महर्षियों, दानवीरों, विद्वानों और प्रजा-पालकों नरेशों की भी कथाएँ हैं। इन कथाओं से बाल-पाठकों को अपने चरित्र-निर्माण की निश्चित प्रेरणा मिल सकती है।
पुस्तक में घटनापरक कहानियाँ भी हैं जो मनोरंजन के साथ-साथ जीवनोपयोगी शिक्षा भी प्रदान करती हैं। कहानी से मनोरंजन के तत्व को बहिष्कृत कर देना उसकी आत्मा की हत्या करना है। कहानी-कला का आरम्भ मुख्यतः मनोरंजन को ध्यान में रखकर ही हुआ। इस संग्रह में भी मनोरंजनतत्त्व प्रधान है।
कुछ कहानियाँ ऐसे भी मिलेंगी जिनमें वर्णित विषय अविश्वसनीय और विस्मयकारी प्रतीत हों किन्तु केवल इन कारणों से ही इन कहानियों के संग्रह से बाहर नहीं रख दिया गया है क्योंकि क्या पता जो घटना आज कल्पित लगती हो कल वही जाकर वास्तविक बन जाए। पुष्पक-विमानों और विध्वंसकारी अस्त्र-शस्त्रों का उदाहरण पहले दिया जा चुका है।
संक्षेपतः ये कहानियाँ बालकों के चरित्र-निर्माण, उनके ज्ञानवर्धक, मूल्यों के प्रति उनकी आस्था तथा अपनी संस्कृति और विरासत से उनको परिचित कराने के उद्देश्य से लिखी गई है। अगर इस लक्ष्य की प्राप्ति में मुझे थोड़ी भी सफलता मिल सकी हो तो मैं अपने श्रम को सार्थक समझूँगा।
इस पुस्तक के लेखन में आत्माराम एण्ड संस के श्री सुधीर और उनके पिता की बहुत बड़ी प्रेरणा रही है। इस संस्थान के एक अधिकारी श्री सुभाष तनेजा का सहयोग भी प्राप्त हुआ है।
इन सबों का तथा अपने साहित्यिक मित्रों एवं सुधी पाठकों का विशेष रूप से आभार मानता हूँ।
इत्यत्यम्

बुद्धिमान गणेश

गणेश देवताओं में सबसे अधिक बुद्धिमान हैं। इसीलिए बच्चों का अध्ययन आरम्भ कराते समय उनसे ‘ऊँ गणेशाय नमः’ लिखवाया जाता है।
गणेश अपनी बुद्धिमानी के कारण ही, देवताओं में सबसे पहले पूजे जाते हैं। असल में इनकी बुद्धि इनके विचित्र सिर के कारण है। हाथी का सिर है इनका। शरीर मनुष्य का है। है न विचित्र बात ? हाथी, सभी जीवों में बुद्धिमान है इसीलिए हाथी के सिर वाले गणेश बुद्धिमान हो गए।
इनके साथ एक दुर्घटना घट गई और इन्हें हाथी का सिर धारण करना पड़ा।
जब ये बालक थे, तभी इनकी माता पार्वती ने अपने दरवाजे पर एक दिन उन्हें प्रहरी के रूप में खड़ा कर दिया। वह अन्दर कुछ कार्य कर रही थी। वह नहीं चाहती थी कि इस बीच कोई अन्दर आए। इसलिए उसने गणेश को आदेश दिया कि वह किसी को अन्दर नहीं आने दे। सबको दरवाजे के पास से वापस कर दे।
गणेश ने कइयों को अन्दर जाने से लौटा दिया। सभी अपना-सा मुँह लिये चले गए।
अब आए साक्षात् शिव। सिर पर जटा, कमर में व्याघ्र-चर्म, एक हाथ में डमरू, दूसरे में त्रिशूल। पूरे शरीर में लिपटा भस्म।
अन्दर जाना चाहा। गणेश ने रोक दिया।
‘‘क्यों ?’’ भोले शंकर क्रोधित हुए।
‘‘माँ का आदेश है, अभी कोई भीतर नहीं जा सकता।’’ गणेश अच्छी तरह दरवाजा रोककर खड़े हो गए।
‘‘छोड़ते हो कि नहीं द्वार ?’’ भगवान आशुतोष का क्रोध बढ़ता जा रहा था।
‘‘नहीं छोड़ता। उतने लोगों के लिए नहीं छोड़ा तो आपके लिए क्यों छोड़ूँगा ? आपमें कौन ऐसी बात है ?’’
‘‘मैं तुम्हारा बाप हूँ। अन्दर माता हैं तो बाहर पिता। पिता को रोकने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं।’’
‘‘यह अधिकार माता ने ही दिया है। अन्दर नहीं जाने का आदेश सबके लिए है। आपको उससे छूट नहीं मिली है। मुक्ति। नियम सब पर समान रूप से लागू है।’’ गणेश अड़ गए।

‘‘बहुत हठी बालक को। उद्दंड भी।’’ शिव गुर्राए।
‘‘माँ का आदेश-पालक हूँ।’’
‘‘पिता माता से बड़ा होता है।’’ भगवान पशुपति ने तर्क दिया।
‘‘माता की समानता कोई नहीं कर सकता। पिता भी नहीं। मैं आपको किसी मूल्य पर अन्दर जाने की अनुमति नहीं दे सकता।’’
‘‘तो इसका परिणाम भुगतना पड़ेगा।’’ शिव का क्रोध प्रचण्ड हुआ।
‘‘मैं माँ की आज्ञा के पालन में किसी परिणाम की चिन्ता नहीं करता।’’ गणेश अपनी बात पर अड़े थे।
‘‘मृत्यु को भी नहीं ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘तो मुझे पुत्र-हत्या का भागी बनना पड़ेगा। मैं तुम्हें धक्का देकर अन्दर जा सकता था पर आपने आदेश का अनुपालन नहीं करने के कारण मुझे अन्दर जाने के लिए तुम्हारी गर्दन उतारनी पड़ेगी।’’ शिव और कुपित हुए।
‘‘कोई चिन्ता नहीं।’’ गणेश निर्भीक बोले, ‘‘मातृ-आज्ञा-पालन में प्राणों से भी हाथ धोना पड़े तो यह मेरा सौभाग्य ही होगा।’’
‘‘फिर यही हो।’’ कहकर भगवान शिव ने त्रिशूल से गणेश का सिर धड़ से अलग कर दिया।
कैलास पर चारों ओर हाहाकार मच गया। ‘गणेश मारे गए’, ‘गणेश मारे गए, यह बात जंगल की आग की तरह चारों तरफ फैल गई। पार्वती को भी यह सूचना उनके गणों ने दी। शिव अन्दर पहुँच चुके थे। उनके स्वागत-सत्कार की चिन्ता किए बिना गणेश-माता पार्वती द्वार के बाहर भागी।
गणेश को घेरकर कई शिव-गण, आँखों में आँसू भरे, खड़े थे। पार्वती को देखते ही सबने उनके लिए मार्ग दे दिया।
अपने पुत्र को मृत पाकर माँ की ममता सारे बाँध तोड़कर उमड़ पड़ी। उनकी आँखों से अश्रु की नदियाँ प्रवाहित होने लगीं। वह गणेश के मृत शरीर को गोद में रखकर ज़ोर-ज़ोर से विलाप करने लगीं।
उनके विलाप का स्वर अन्दर बैठे सदा शिव के कानों में भी पड़ा। उनका क्रोध काफूर हो गया और अपने कृत्य पर पश्चाताप करते हुए वह बाहर आए। पार्वती को मनाने का प्रयास किया पर गणेश-माता भगवती पार्वती का रुदन जारी रहा। वह भगवान शंकर के लाख समझाने पर भी समझने को प्रस्तुत नहीं थी।
अन्ततः शिव ने हथियार डाल दिए और पार्वती से पूछा, ‘‘तुम कैसे चुप रहोगी ?’’
पार्वती ने कहा, ‘‘मेरे पुत्र के प्राण ले लिये। इसे जीवित कीजिए तभी मैं यहाँ से उठूँगी और अन्न-जल ग्रहण करूँगी।’’
‘‘यह तुम्हारा लड़का बहुत उद्दंड था, इसने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया। ऐसे भी जो मर गया उसे जीवित कैसे किया जा सकता है ?’’

पार्वती ने सिसकते हुए कहा, ‘‘यह केवल मेरा लड़का नहीं आपका भी पुत्र था। यह उद्दंड भी नहीं था, मात्र मेरी आज्ञा का पालन कर रहा था। जहाँ तक मृत को जीवित करने के प्रश्न है, आप देवाधिदेव महादेव के लिए यह कौन-सा कठिन कार्य है? मुझे भुलवाने का प्रयास नहीं कीजिए। आप चाहें तो गणेश क्षण मात्र में जीवित हो सकता है। यदि आप तत्काल जीवित नहीं करते हैं तो फिर जिस त्रिशूल से इसका सिर काटा है उसी से मेरा भी काट दीजिए।
भगवान भोले शंकर विवश हो गए और उन्होंने अपने एक प्रमुख गण को कहा, ‘‘उत्तर दिशा की ओर जाओ और जो सबसे पहला प्राणी मिले उसका सिर काट लाओ।’’
गण जब उत्तर दिशा में बढ़ा तो सबसे पहले उसे एक हाथी का बच्चा दिखाई पड़ा। उसने उसका सिर काट लिया।
सिर को लाकर उसने शिव के हाथों में पकड़ा दिया। भोले शंकर ने इस सिर को गणेश की, सिर-हीन गर्दन से जोड़ दिया और गणेश जीवित हो उठ बैठे।
पार्वती बहुत प्रसन्न हुई और इस विचित्र शिशु को उठाकर उन्होंने अपने कलेजे से लगा लिया। सभी उपस्थित गण प्रसन्नता से भरकर नृत्य करने लगे।

नारद का न्याय

सभी देवताओं के पहले गणेश की पूजा होती है। यहाँ तक कि उनके पिता शिव और उनकी माता पार्वती के पहले भी गणेश की ही पूजा होती है। ब्रह्मा-विष्णु के पहले भी।
यह कैसे हुआ ? गणेश से बड़े-बड़े देवताओं के होते हुए भी पहली पूजा (अग्रपूजा) गणेश की ही क्यों होती है ? अन्य देवताओं को इसका बुरा क्यों नहीं लगता ?
इससे सम्बन्धित एक रोचक कहानी है।
एक बार कैलास पर्वत के ऊपर शिव, पार्वती, गणेश और कार्तिकेय बैठे हुए थे। शिव की सवारी नन्दी भी पास ही में विश्राम कर रहे थे।
इसी समय नारायण-नारायण कहते हुए नारदजी पहुँचे। उन्होंने भगवान शिव और माता पार्वती को प्रणाम किया और बोले, ‘सब कुछ ठीक-ठाक तो चल रहा है कैलास पर ?’
शिव ने कहा, ‘सब कुछ ठीक है पर गणेश और कार्तिकेय में झगड़ा बना रहता है। वे एक-दूसरे को नीचा दिखाना चाहते हैं। गणेश का कहना है कि वे कार्तिकेय से अधिक बुद्धिमान हैं अतः उनकी पूजा पहले होनी चाहिए, कार्तिकेय का कथन है कि वे गणेश से अधिक बलवान हैं। उनके छः मुख हैं। गणेश को केवल एक मुख है वह भी आदमी का नहीं हाथी का, अतः उनकी पूजा गणेश से पहले होनी चाहिए। मेरी और पार्वती की समझ में यह नहीं आता कि इस झगड़े को कैसे समाप्त किया जाए ?’
नारद बोले, ‘देवाधिदेव व्यर्थ चिंतित हो रहे हैं। इस विवाद को सुलझाना बहुत आसान है।’
‘आपको आसान लगता होगा, शिव आरम्भ हुए, ‘हम लोग तो कई दिनों से सिर खपा रहे हैं। पर इन दोनों के विवाद को सुलझा पाने में सफल नहीं हुए।’

नारद ने कहा, ‘मैं ऐसा यत्न बतलाता हूँ जिससे यह विवाद भी सुलझ जाएगा और गणेश और कार्तिकेय में से किसी एक की पूजा इन दोनों में से एक के पहिले क्या, सभी देवताओं के पहले होगी।’
नारद के इस कथन पर सभी प्रसन्न हो आए। गणेश और कार्तिकेय तो विशेष रूप में। दोनों ने देवर्षि नारद को पृथक् घेरते हुए कहा, ‘आप शीघ्र ही यह यत्न बतलाइए। आपका बहुत उपकार होगा। कैसी अच्छी बात हो कि हम दोनों की पूजा सभी देवताओं से पहले हो।’
‘दोनों की नहीं आप दोनों में से किसी एक की।’ नारद ने उन्हें शुद्ध किया।
‘तब भी चलेगा। आप उपाय तो बताइए सही।’ दोनों ने एक साथ कहा।
‘मैं भगवान शिव और माता पार्वती के समक्ष यह यत्न बतलाऊँगा ताकि वे भी इसके साक्षी रहें। नारद बोले और जहाँ शिव-पार्वती बैठे थे वहाँ जा पहुँचे। पीछे-पीछे गणेश और कार्तिकेय भी वहां पहुंचे।
नारद ने भगवान शिव को सम्बोधित कर कहा, ‘आदेश हो तो मैं अपना यत्न बतलाऊँगा ?’
‘देवर्षि नारद को आदेश देने वाला मैं कौन होता हूँ ? आप अपना यत्न बतलाइए। उससे यह विवाद समाप्त होता है तो मुझसे अधिक प्रसन्नता किसको होगी ?’
‘क्या आप दोनों को मैं जो एक शर्त रखने जा रहा हूँ वह स्वीकार होगी ?’ नारद ने गणेश और कार्तिकेय को सम्बोधित करते हुए कहा।
‘हाँ’। दोनों ने एक साथ कहा।
‘तो भगवान शिव और माता पार्वती सुन लें कि इन दोनों में से जो सबसे पहले पूरी पृथ्वी की परिक्रमा कर लौटेगा उसकी पूजा सभी देवताओं के पहले अर्थात् अग्रपूजा होगी।’
‘गणेश और कार्तिकेय दोनों ने एक साथ कहा, ‘मुझे यह शर्त मंजूर है।’
नारद ने शिव-पार्वती की तरफ मुड़ कर कहा, ‘लीजिए, अब समस्या का समाधान हो गया। मैं तो ठहरा यायावर (घुमक्कड़)। एक जगह पर टिकता नहीं। मैं चला अपने भ्रमण पर। आप दोनों यह निश्चय कीजिएगा कि सबसे पहले कौन लौटता है।’ यह कह कर ‘‘नारायण ! नारायण !!’’ कहते हुए देवर्षि नारद स्वर्ग-लोक की ओर चल पड़े।
शिव तो तटस्थ थे। दोनों में से कोई पहले लौटे उन्हें कोई अन्तर नहीं पड़ता था किन्तु पार्वती को गणेश से बहुत प्रेम था। पार्वती को इस बात की चिन्ता थी कि कार्तिकेय की सवारी तो मयूर (मोर) है और गणेश की सवारी है चूहा। ऐसे में गणेश कार्तिकेय का मुकाबला किसी तरह भी नहीं कर सकते। गणेश तो बहुत पीछे रह जाएँगे। कार्तिकेय विजयी होंगे।
शिव ने तटस्थ भाव से ही पार्वती को सम्बोधित किया, ‘देवि व्यर्थ ही चिन्ता कर रही हैं। भाग्य को कौन जानता है ? अभी से यह सोचना गलत है कि आपके दोनों पुत्रों में कौन विजयी होगा।’

‘आप तो ठहरे भोले शंकर। नारद के बहकावे में आ गए। यह एक अन्याय पूर्ण विधि (उपाय) है जिसे नारद ने सुझाया है। कहाँ गणेश का गुलथुल मोटा शरीर, ऊपर से सवारी चूहा, कहाँ स्फूर्ति से भरे कार्तिकेय और उनका वाहन मयूर। मूषक और मयूर में कैसी दौड़ ?’
इधर कार्तिकेय तत्काल अपने वाहन मयूर पर सवार होकर पृथ्वी-परिक्रमा में निकल पड़े। मन-ही-मन सोच रहे थे, मैं मयूर पर उड़ता हुआ सम्पूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा कुछ ही समय में कर लूँगा, गणेश तो चूहे पर रेंगता हुआ वर्षों पश्चात् कैलास पर लौटेगा।
कार्तिकेय का मयूर तो उन्हें अपनी पीठ पर लेकर उड़ चला पर गणशे अपने वाहन की ओर बढ़े ही नहीं, अपने कक्ष में जा बैठे।
पार्वती को चिन्ता हुई और उन्होंने भगवान शिव से कहा, ‘कार्तिकेय तो परिक्रमा पर निकल गया और गणेश न जाने अपने एकान्त कक्ष में क्या कर रहा है ?’ शिव मुसकराते हुए बोले क्योंकि उनसे भूत, वर्तमान, भविष्य कुछ भी कहाँ छिपा था, ‘अगर इतनी ही चिन्ता हो रही है तो देवी जाकर देख लें कि गणेश क्या कर रहा है और हो सके तो उसे परिक्रमा के लिए भेज भी दें।
पार्वती उदास मन से उठी। गणेश के कक्ष में गई और पाया कि वह बड़े आनन्द से मोदक (लड्डू) पर मोदक खाए जा रहे हैं। कहीं जाने की जैसे कोई चिन्ता ही नहीं।
पार्वती ने गणेश को सम्बोधित कर कहा, ‘कार्तिकेय कभी को पृथ्वी-परिक्रमा पर निकल गया और तुम यहां बैठे लड्डू उड़ा रहे हो। अभी पूरा थाल आगे पड़ा हुआ है। तुम्हें परिक्रमा पर जाना भी है अथवा नहीं ?’
गणेश ने माता की ओर देखते हुए कहा, ‘मुझे परिक्रमा करनी है, अतः मैं मोदक खाकर अपनी शक्ति बढ़ा रहा हूँ। कृपा हो अगर आप मेरे भोजन में बाधा नहीं दें।’ यह कहकर गणेश पुनः एक के बाद एक लड्डू मुँह में डालने लगे। पार्वती को चिन्ता हुई और वह झल्लाई, ‘मैं समझ गई तुम अपनी पराजय पहले ही स्वीकार कर चुके, कार्तिकेय के मयूर के सामने तुम्हारा मूषक कहीं नहीं ठहरने को, अतः तुम पृथ्वी परिक्रमा पर निकलना ही नहीं चाहते।’
गणेश ने थोड़ी देर के लिए लड्डुओं को निगलना बन्द किया और कहा, ‘माता आप कुछ भी कहने और सोचने को स्वतन्त्र हैं किंतु मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि अन्तिम विजय मेरी ही होगी।’
‘तो तुम परिक्रमा पर जाओ ?’
‘कहा न मोदक इसीलिए खा रहा हूँ।’ गणेश ने जवाब दिया।

‘जब तक तुम्हारे मोदक खत्म होंगे तब तक कार्तिकेय कहाँ से कहाँ पहुँच गया होगा। तुम्हारा मूषक उसे पकड़ भी पाएगा ? उससे आगे निकलना तो बड़ी बात है।’ पार्वती बोली।
‘अपने प्रति आपके प्रेम को मैं समझ रहा हूँ। आप निश्चिन्त रहिए। मैं कार्तिकेय पर विजय प्राप्त कर रहूँगा।’
‘तो खाते रहो मोदक ! अब मैं क्या साक्षात् शिव भी तुम्हारी सहायता नहीं कर सकते।’ पार्वती झल्लाकर बोली और गणेश के कक्ष से बाहर आ गई।
वह भगवान शिव के पास खड़ी, गणेश के कारनामे बता ही रही थी कि गणेश मुँह पोंछते हुए आ पहुँचे और माता-पिता को सम्बोधित करते हुए बोले, ‘आप अपने इस पुत्र पर थोड़ी कृपा करेंगे ?’
‘क्या ?’ शिव-पार्वती ने एक साथ पूछा।
‘कृपया आप दोनों एक साथ अगल-बगल सामने की चट्टान पर बैठ जाएँ।’
‘क्यों ?’ दोनों ने एक साथ पूछा।
‘कृपा हो अगर मेरी इस प्रार्थना पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाएँ और एक क्षण के लिए आस-पास बैठ जाएँ।’
शिव-पार्वती ने सोचा पुत्र से तर्क कर समय नष्ट करने से अच्छा है कि थोड़ी देर के लिए इसकी बात मान लें और दोनों एक-दूसरे के आस-पास बैठ गए।
गणेश ने चट्टान पर आसीन माता-पिता के चारों ओर घूमकर उन्हें नमस्कार किया। सदाशिव ने ‘यशस्वी भव’ और देवी पार्वती ने ‘विजयी भव’ का आशीर्वाद दिया किन्तु किसी ने गणेश के इस आकस्मिक प्रदक्षिणायुक्त प्रणाम का तात्पर्य नहीं समझा।
गणेश वहाँ से चलकर पुनः अपने कक्ष में आ गए और शेष बचे मोदकों पर हाथ साफ करने लगे। पार्वती कुछ देर तक गणेश के प्रस्थान की प्रतीक्षा करती रहीं किन्तु जब उन्होंने गणेश को अपने कक्ष से बाहर निकलते नहीं देखा तो वह पुनः उनके पास पहुँचीं। उन्हें मोदक में मस्त देखकर माता झल्लाई और बोल पड़ीं, ‘फिर तुम मोदकों पर टूट पड़े ? तुम्हें पृथ्वी-परिक्रमा पर जाने के लिए और कितने मोदकों का सेवन करना होगा ?’
‘मुझे अब कहीं नहीं जाना। मोदकों को उदरस्थ करने के पश्चात् मैं विश्राम करूँगा और आपकी कृपा हो, अगर आप मेरे विश्राम में बाधा नहीं दें। मेरा विश्राम लम्बा भी हो सकता है।’
‘समझ गई, सब कुछ समझ गई।’ पार्वती ने उसी झल्लाहट के साथ कहा।
‘क्या समझ गई मातेश्वरी ?’ गणेश ने अन्तिम मोदक मुँह में डालते हुए कहा।

‘यही कि तुमने कार्तिकेय से अपनी पराजय स्वीकार कर ली। वह पृथ्वी-परिक्रमा पर जाने कभी को निकल गया और तुम यहाँ भोजन और विश्राम में लगे हो।’
‘मैं कभी पराजित नहीं हो सकता, वह भी छः मुख वाले कार्तिकेय से ? मैं गणेश हूँ। हाथी का सिर है मेरा। मात्र एक सिर जो बुद्धि का भण्डार है।’
‘तो तुम यहीं बैठे-बैठे कार्तिकेय पर विजय प्राप्त कर लोगे ? सपने देख रहे हो क्या ?’
‘हाँ मैं, मैं ही विजय होऊँगा। यह सपना नहीं सच है। आपने मुझे ‘विजयी भव’ का आशीर्वाद दिया है। आपका आशीर्वाद निष्फल कैसे होगा ? गणेश ने लम्बी तानते हुए कहा।
‘मैं चली। देखती हूँ तुम कैसे अपनी बात सच करते हो। कहकर माता पार्वती चलने को हुईं।
‘आपके आशीर्वाद के बल से।’
‘यही तो भय है, कहीं मेरा नाम निष्फल नहीं चला जाए।’ माता ने कहा।
‘ऐसा हो ही नहीं सकता। आप निश्चिन्त रहें। व्यर्थ कि आशान्ति नहीं पालें।’ कहकर गणेश ने विश्राम की मुद्रा में आँखें मूँद लीं।
विवश पार्वती शिव के पास मुँह लटकाए हुए पहुँचीं, और बोलीं, ‘मेरे गणेश का क्या होगा ? कार्तिकेय तो कभी को निकल गया और यह लम्बी तानकर सोया है।’
शिव किंचित् मुसकराए और बोले, ‘‘जब गणेश को चिन्ता नहीं तो आप व्यर्थ क्यों चिन्तित हो रही हैं ?
‘वह तो नादान है। कहता है विजय उसी की होगी।’
‘शिव पुनः मुसकराकर बोले, ‘हो सकता है सही कह रहा हो।’
पार्वती को आश्चर्य हुआ और बोल पड़ीं, ‘आप भी ऐसा कहते हैं ? यह निष्क्रिय गणेश पवन-वेग से पृथ्वी-परिक्रमा पर निकले कार्तिकेय पर क्या खाकर विजय प्राप्त करेगा ?’
‘मोदक’। शिव मुसकराकर बोले।
पार्वती रुआँसा हुईं, ‘आपको हँसी सूझ रही है और मैं चिन्ता से मर रही हूँ।’
‘आप गणेश के लिए इतना मोहान्ध क्यों हो रही हैं ?’ आपके लिए तो दोनों पुत्र समान हैं।’
शिव की मुसकराहट यथावत उनके होठों पर विराजमान थी।
पार्वती कुछ देर के लिए झेंपी और फिर बोलीं, ‘हाँ मेरे लिए दोनों बराबर हैं इसीलिए तो चिन्ता है कि गणेश भी कार्तिकेय की तरह उद्योग करें। सफलता असफलता तो नियति के हाथों में है।’
‘तो सब कुछ नियति पर ही छोड़ दीजिए। गणेश अगर अपनी विजय को लेकर आश्वस्त है तो आप उसके विश्वास तो नहीं तोड़िए। कोई चमत्कार भी तो घट सकता है।’ शिव ने कहा।

‘कार्य-सिद्धि परिश्रम से होती है, चमत्कार से नहीं। आप गणेश को आदेश दें कि वह भी तत्काल परिश्रम पर निकले !’ पार्वती बोलीं।
‘गणेश को एक बार आदेश देकर तो मैं फल भोग चुका हूँ। देवी ! मुझे क्षमा करें। मुझे चिन्तामुक्त रहने दें और मेरा परामर्श मानें तो आप भी चिन्ता-रहित होकर परिणाम की प्रतीक्षा कीजिए।’ शिव बोल गए किन्तु उनकी मुसकराहट यथावत थी। पार्वती इस रहस्यमयी मुस्कराहट को कोई अर्थ नहीं निकाल पा रही थीं।
‘परिणाम तो पूर्व विदित है’ पार्वती इतना ही बोल सकीं और शिव को पास से खिसक गईं।
महीनों बाद कार्तिकेय कैलास पहुँचे। उनकी और उनके वाहन मयूर दोनों की हालत दयनीय थी। थककर दोनों चूर थे फिर भी कार्तिकेय इस बात से प्रसन्न थे कि पृथ्वी-परिक्रमा पूरी कर वे सबसे पहले आ पहुँचे हैं, गणेश तो अपने मूषक पर जाने कहाँ रेंग रहा होगा। इस समय शिव-पार्वती आस-पास बैठे कुछ वार्तालाप कर रहे थे कि कार्तिकेय ने मयूर से उतरकर उनके चरणों में प्रणाम किया। इसी समय गणेश अपने कक्ष से टहलते हुए वहाँ आ पहुँचे।
गणेश को देखते ही कार्तिकेय को मानों साँप सूँघ गया। वह घबराकर बोले, ‘गणेश मुझसे पहले यहाँ कैसे पहुँच गया ?
‘मैं जैसे पहुँच गया होऊँ पर पृथ्वी-परिक्रमा मैंने ही पहले पूरी की है। विजय मैं हुआ हूँ। आप नहीं।’ गणेश बोल पड़े।
कार्तिकेय ने आश्चर्य से कहा, ‘यह असम्भव है। मुझे मयूर पर उड़कर आने में महीनों लगे और तुम किस गति से यहाँ पहुँचे कि तुम्हारी परिक्रमा पहले पूरी हुई ?’
शिव से नहीं रहा गया और वह बोले पड़े ‘गणेश तो कहीं गया ही नहीं अतः कौन पहले आया और कौन बाद में इसका प्रश्न ही नहीं उठता।’ शिव के इस कथन से पार्वती का मुँह लटक आया और कार्तिकेय प्रसन्नता से भरकर बोले, ‘तो मेरा परिश्रम सफल हुआ। मैं अग्रपूजा का अधिकारी हूँ।’
‘यह व्यर्थ का प्रलाप है। विजय मैं हुआ हूँ, इसलिए अग्रपूजा का अधिकारी भी।’ गणेश विश्वास के साथ बोल पड़े।
कार्तिकेय कुछ नहीं समझकर कातर स्वर में बोले, ‘माता-पिता न्याय करें, जब गणेश परिक्रमा पर गया ही नहीं तो इसने पृथ्वी-परिक्रमा मुझसे पहले कैसे पूरी कर ली ?’
शिव-पार्वती मूक रहे किन्तु गणेश बोल पड़े, ‘पूरी ही नहीं की आपसे बहुत पहले पूरी की। आपको तो महीनों लग गए, इस परिक्रमा में मुझे क्षणमात्र भी नहीं लगा।’
कार्तिकेय ने पिता शिव को सम्बोधित किया, ‘आप ही ने तो कहा था गणेश गया ही नहीं तो इसने मुझसे पहले ही बल्कि बहुत पहले ही परिक्रमा कैसे पूरी कर ली ?’
शिव बोले, ‘यह तो गणेश ही जानें।’
कार्तिकेय ने माता पार्वती से पूछा, ‘आप तो ममतामयी हैं। आप ही निर्णय सुनाएँ कि परिक्रमा मैंने पहले पूरी की अथवा गणेश ने ?’

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