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लोक परलोक

उदय शंकर भट्ट

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :163
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4917
आईएसबीएन :81-7043-543-9

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गंगा के किनारे बसे एक ग्राम्य जीवन पर आधारित उपन्यास

Lok Parlok

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

1

उस दिन बड़े सबेरे से ही टीले पर इतनी रौनक और चहल-पहल थी कि झुंड के झुंड स्त्री-पुरुष, बालक-बूढ़े पास ही गंगा-स्नान करके ‘जय देवी’, ‘जय माता की’, ‘जय कल्याणी की’, जय-जय कहते ऊपर चढ़ रहे थे: कन्धों पर रखी बाँसों की लाठियों पर धोती सुखाते, गीली धोतियाँ ओढ़े, नंगे पैर, घुटनों तक चढ़ी धोती, मैले कुरते या बंडी पहने चले आ रहे थे। बगल में, कंधों पर पोटली रखे, पीली, लाल, काली गोट-लगे, छींट के लहँगे, वैसी ही रंग-बिरंगी ओढ़नी ओढ़े, हाथों में लाल, हरी चूड़ियां, पछेली, छन्न, कड़े, गले में हँसली, कंठी में रंग-बिरंगे नकली मोतियों मूँगों की मालाएँ पहने औरतों के झुँड टीले पर दिखाई दे रहे थे। लड़के उछलते, बूढ़े लकड़ी टेकते, जवान उमंगों में भरे मन में कामनाएँ लिये, कोई कतार में, कोई फैले बिखरे आते जा रहे थे। किसी के सिर पर मैलीटोपी, कोई नंगे सिर, कोई पगड़ी बाँधे, खखारते हिंसते, साँसों में मनौती भरे हुए थे। ऊपर टीले पर कल्यणी देवी के मन्दिर के सामने तख्त बिछाये सिरकियों या खुले चबूतरे पर पूजा की सामग्री बेचने वालों की दुकाने लगी थीं। पास ही कनेर, गेंदा, सदाबहार के फूल टोकरियों में बेचे जा रहे थे। दुकानदार और फूल बेचने वाली औरतें चिल्ला-चिल्लाकर अपने सामान की आवाजें लगा रहे थे। पूजा की सामग्री में बताशे, पीले नारियल, लाल कपड़े के चीथड़े, कौड़ी धूप-दीप और गहनों में टीन के टुकड़ों के हार थे। पाँच आने से लेकर सवा रुपये तक का सामान ! असली मन्दिर और बाहर के छोटे मन्दिरों में घंटे बज रहे थे। मैदान में दुकानदारों का कोलाहल, एक-एक टुकड़े के लिए लड़ उठने वाले कुत्तों और कौवों और चीलों के तीव्र, मध्य और विषादी स्वर; भिश्तियों, भंगियों की गला-फाड़ आवाजें, छोटी-छोटी लड़कियों का यात्रियों का पल्ला झाड़कर रास्ता रोककर पैसा माँगने की चिंघाड़ और यात्रियों की झिड़कियाँ, ये सब एक अजीब कोलाहल पैदा कर रही थीं। मन्दिर के भीतर बाहर आँगन में पुजारियों, माँगने वालों, चढ़ावा चढ़ाने वालों और मनौती माँगने वाले यात्रियों में कई तरह के वाग-युद्ध चल रहे थे। कहीं नारियल फोड़े जा रहे थे, कहीं पंडे देवी के नाम पर दक्षिणा के लिए जूझ रहे थे। यात्रियों के झुंड के झुंड आते, श्रद्धा के अनुसार पूजा करते, फूल-बताशे चढ़ाते, घंटे बजाते, साष्टांग दंडवत् करते, हाथ जोड़ते, सिर ज़मीन से छुआ कर मनौती माँगते, माथा और नाक रगड़ते, प्रसाद बाँटते और बाहर निकल आते। फिर एक-एक पैसे के लिए मुड़चिरों की तरह चारों ओर से घेरने वाले भिश्तियों भंगियों तथा माँगने वालों से पीछा छुड़ा कर यात्री पेड़ के नीचे या कहीं कुएँ की मन पर, कहीं कच्चे चबूतरों पर अपनी पोटलियाँ खोलकर जीमते और चल देते।

कुछ ऐसे भी सम्पन्न-परिवार यात्री थे जो कई दिन पहले मन्दिर के पास बने मकानों में ठहर गए थे। उनकी तरफ़ से पूजा के बाद पंडों को खीर, पूरी लड्डुओं का भोजन कराया जाता था। कहीं इसी प्रकार के भोजन बन रहे थे। कुछ लोग बाज़ार से लड्डुओं के थाल देवी को चढ़ाने के लिए ला रहे थे। एक तरफ़ मन्दिर के पास दालान में कुछ लोग बैठे भाँग घोंट रहे थे; दूसरी ओर साधुओं का दल धूनी रमाये, सुल्फे, गाँजे की लौ उठाकर बीच-बीच में ‘जय-जय’ पुकार उठता था। यात्रियों का समूह उधर भी जाता और माँगने के लिए फैलाये कपड़ों पर पैसा, धेला, कौड़ी, अठावरी बतासे चढ़ाता, हाथ जोड़ता और लौट आता।

बड़े मन्दिर के जंगले के दोनों कोनों में दो पुजारी बैठे यात्रियों को चढ़ावे का प्रसाद दे रहे थे। भीतर एक आदमी लड्डुओं बताशों, पैसों रुपयों के ढेर अलग कर रहा था। दरवाज़े के पास खड़े दो-तीन आदमी खड़े चढ़ावे का हिसाब लगाते यह देख रहे थे कि चढ़ावे का माल इधर-उधर तो नहीं किया जा रहा है।

लगभग दोपहर बारह बजे तक यही क्रम रहा। यात्रियों की संख्या कम हुई। मन्दिर के कर्मचारियों में से एक-एक करके उठने लगा। पूजा सामग्री के ढेर अलग कर दिए गए। देवी की मूर्ति के पास रह गये पीले, लाल चीथड़ों के ढेर, हार, फूटी कौड़ियाँ, पैरों से कुचले फूल। इसी समय भाँग घोटने वालों में से एक ने ‘हर हर महादेव’ ‘ऐसी आवे हरगुन गावे’ की आवाज़ लगाई तो दूसरे ने उसे दोहराया। तीसरा हाथ की बीड़ी फेंककर हाथ धोने उठा। बाल्टी में लोटे से भाँग उछाली जाने लगी। उसी समय एक कह उठा—
‘‘बं बं बं जो विजया की निन्दा करे ताहि खाहि कालिका माई। चलो रे चलो !’’
एक पुजारी वहीं से भांग की प्रशंसा में बोल उठा----
‘‘शुद्धां ब्रह्मविचारसारपरमामाद्यां जगद्व्यापिनीम्।’’
सिल-बट्टे को भाँग की बूँदें चढ़ाने और कपड़ा बाल्टी पर ढककर ध्यान लगाने के बाद एक-एक करके लोगों ने लोटे चढ़ाये तो एक बोला---‘‘अरे, देखै का है, थोड़ी-सी और लै न !’’ इतना कहकर उसने बाँटने वाले पर जोर दिया।
दूसरा बोला, ‘‘आज मैया ने सुनी है तो कसर क्यों रहै ?’’

इसी तरह सबने और दिनों से अधिक मात्रा में भाँग पी। ब्राह्मण-भोजन कराने वाले यात्रियों को भी आग्रह करके पिलाई गयी। कुछ लोग लोटा लेकर निबटने चले गये और बाकी बीड़ी का धुआँ उड़ाने लगे। चढ़ावा गिना जाने लगा। नारियल, बतासे, रुपये पैसे कौड़ियाँ तक बँट गईं। लोगों ने अपना-अपना हिस्सा लिया और मन्दिर की अल्मारियों में बन्द कर दिया। जीमने के लिये जितने लोगों को बुलाया गया था उससे दूने लोग इकट्ठे हो गए और कुछ स्त्रियाँ और बच्चे लोटा और गिलास लेकर आ जमे। एक तरफ़ कुत्तों का दल ताक लगाए काना फूसी कर रहा था। पेड़ों और मन्दिर की मुडेरों पर कतार में बैठे कौए स्तोत्र बोल रहे थे। आंगन में कंधों पर अंगोछे रखे ब्राह्मण भोजन के लिए जमा हुए। पास ही दो-एक ठाकुर भी जमकर बैठ गए। एक ने चुपचाप सेठ को बतला दिया कि ये ठाकुर हैं। भोजन शुरू हुआ तो सेठ की पत्नी ने पति से कहा---
‘‘ये तो बहुत आदमी आ गए, हमने तो बारह का प्रबन्ध किया था।’’
‘‘हाँ, क्या करे ?’’
‘‘फिर अब और तो इतनी जल्दी नहीं बन सकता।’’

‘‘मैं कुछ इन्तजाम करता हूँ।’’ कहकर, सेठ ने अपने एक आदमी के साथ पंडे को बाज़ार भेजकर मिठाई मंगाई, तब कहीं जाकर ब्राह्मण भोजन पूरा हुआ। शेष साधुओं को बाँट दिया गया। पति-पत्नी दोनों ने थोड़ा-बहुत खाकर सन्तोष किया। पत्नी बोली---‘‘कैसे हैं ये लोग, इतना खाया !’’
‘‘क्या कहा जाय मुफ्त का माल है फिर ब्राह्मण !’’
दोनों ने देखा, भोजन के बाद कुछ वहीं लेट गए थे। शेष जो धीरे-धीरे खिसके, उनके पैर डगमगा रहे थे। मन्दिर के पट बंद हो गए। देवी की मूर्ति के पास कुचले हुए फूलों, चीथड़ों और इधर-उधर फैली हुई कानी कौड़ियों के सिवा कुछ नहीं था। दालान में पुजारियों की नाकें बोल रही थीं और बाहर पड़ी पत्तलों पर कुत्तों और भंगियों के संवाद चल रहे थे। केवल दूर पर यात्रियों के लौटते हुए जय-जय के स्वर सुनाई दे रहे थे।

2


गंगा के तट पर पद्मपुरी नाम के तीर्थ-ग्राम के टीले पर देवी के मन्दिर में वर्ष में दो बार यात्रियों का मेला लगता है। इसे ‘जगत’ कहते हैं। असाढ़ और क्वार के महीने में दूर-दूर से लोग देवी पूजा करने आते हैं। गंगा का किनारा होने से स्नान करने वालों की संख्या भी कम नहीं रहती। यह गाँव स्टेशन से तीन-चार मील दूर है। कच्ची सड़क पार करके यहाँ आना होता है। बहुत से शहरी यात्री वहीं स्टेशन के पास स्नान करके लौट जाते हैं। पद्मपुरी तो सिर्फ वे ही लोग आते हैं, जो कुछ दिन एकान्त में गंगा-सेवन की चाह रखते हैं या देवी की मानता मानते हैं; या फिर आस-पास के गाँव के लोग, इसलिए दूसरे तीर्थों की तरह यहाँ हर समय भीड़-भाड़ नहीं रहती। गंगा के पूरब में यह गाँव बसा हुआ है। किनारे-किनारे दूर तक साधुओं की कुटिया बनी हुई हैं। कहा जाता है, यह गाँव बहुत पुराना है। कुछ लोग महाभारत की घटनाओं से भी इस गाँव का सम्बन्ध जोड़ते हैं। वैसे बड़े-बड़े महात्मा, तपस्वी, साधु और सन्त इस स्थान पर तप, मनन और चिन्तन करते रहे हैं।
गाँव में ब्राह्मणों और पंडों और ठाकुरों की संख्या अधिक है। अब चमार, लोधे, गड़रिये भी कुछ दिनों से काफी संख्या में यहाँ बस गये हैं। दस-पाँच बनियों के घर भी थे, लेकिन अब उनका नाम-भर रह गया है। कुछ लोग व्यापार न होने से बाहर चले गए, बाकी मर-मरा गए। जमींदार ठाकुरों का किसी समय बड़ा दबदबा था। उनके पहले ब्राह्मणों का भी काफी प्रभाव रहा है। पर अब दोनों ब्राह्मण और ठाकुर—यौवन बीतने पर बुढ़ापे की तरह लड़खड़ा रहे हैं।

यह कहना कठिन है कि गाँव के इन लोगों पर शहर का प्रभाव नहीं पड़ा है। पास ही कई अच्छे शहर हैं। तहसील थाने और आसपास कई कालेज हैं, जहाँ इस गाँव के कभी कोई लड़के पढ़ने चले जाते हैं। फिर भी गाँव में पढ़े-लिखे लोगों की संख्या कम है। जो पढ़ जाते हैं, उन्हें नौकरी के लिए बाहर जाना पड़ता है। इधर गाँव के यात्रियों के आने जाने का भी काफी प्रभाव पड़ा है। पहले यहाँ संस्कृत की एक पाठशाला थी, विद्यार्थियों को संस्कृत में बोलना सिखाया जाता था। वेद-वेदांग के अलावा व्याकरण, न्यायशास्त्र आदि भी पढ़ाये जाते थे। कुछ लोग जो उस पाठशाला में पढ़े थे, अब भी गाँव में हैं। आर्य समाज के प्रभाव में आए हुए कुछ ठाकुर भी थे, जो अब नहीं रहे। पर उस ज्ञान के खंडहर अब भी बने हैं। एक तरह से इस गाँव का सारा वातावरण अधकचरा, ज्ञान और अज्ञान की कड़ी पर झूल रहा है। साधुओं के प्रभाव से अद्वैत, वेदान्त और गीता का भी इसमें प्रत्यक्ष, पर मौखिक विकास हुआ है। एक तरह से यह कहना चाहिए कि गाँव के लोग साधारण पढ़े-लिखे हैं और पंडों में काम-चलाऊ संस्कृत के जानने वाले। यात्रियों के आने पर ‘गंगा-लहरी’, ‘शिव मह्मिन स्तोत्र’, ‘वेदपाठ’ और छुटपुट ‘रामचरितमानस’ का पाठ कभी-कभी मन्दिरों में और गंगा के किनारे सुन पड़ता है। इस सम्पूर्ण ज्ञान का लक्ष्य एक ही है कि यात्री को किस प्रकार प्रभावित किया जा सके और दक्षिणा से मुट्ठी गरम करने के साथ-साथ भोजन और भाँग की व्यवस्था हो। लड्डू, कचौरी, खीर, मालपुओं के लिए कौन-कौन से हथकंडे काम में लाये जाएँ जिससे गाँव के सारे वातावरण में घी के बने पकवानों के लिए लालायित जीभों और कुड़कुड़ाते पेटों को तृप्ति मिले।

इधर ठाकुर और दूसरी जाति के लोग भी इस मौके से चूकना नहीं जानते। वे किसी-न-किसी बहाने यात्रियों के विविध स्वादमय भोजन में अपना पैतृक अधिकार समझने में नहीं हिचकता।
गंगा के पश्चिमी तट पर ठाकुरों की एक टेकरी है, और गाँव के बीच में ब्राह्मणों की बस्ती। बाहर लोधों और चमारों के घर। टेकरी से दक्षिण और पश्चिमी कोने में दूसरे टीले पर देवी का मन्दिर है। गाँव के आँचल को छूती हुई गंगा बहती है। बाहर से गंगा-घाट की ओर आने पर एक लकीर की तरह सीधा बाज़ार है, जहाँ पन्द्रह-बीस से ज्यादा दुकानें नहीं हैं—तीन-चार दुकानें आटे-दाल की, एक-दो पंसारी की, एक बजाज की, छः सात हलवाइयों की और बाकी पानवालों की। सुबह-शाम किसी भी समय गंगा की रज माथे, बाँह, छाती कमर और पैरों पर लपेटे, बीड़ी पीते तम्बाकू फाँकते पंडे दिखाई दे सकते हैं। कुछ अंगरखी पहने, रामानन्दी तिलक लगाए लोग भी दुकानों पर बैठे दिखाई पड़ते हैं। सारे गाँव की सड़क-ऊबड़-खाबड़ है और बरसात के कीचड़ से भरी रहती है। वही एक मात्र आने-जाने का साधन है।

3


शाम का समय था। बाज़ार में पान की दुकान पर कुछ लोग बैठे पान खा रहे थे। उसी समय देवी के एक पंडे ने आकर तमोली को एक पान का ‘आर्डर’ दिया और वहीं बैठ गया। बीड़ी का कश खींचकर धुआँ छोड़ते हुए एक साथी ने पूछा—‘लल्तापस्साद, आज कल तो मौजई मौज है, जात तो टूटी पर रई है, ससुरी।’’
ललिता ने पोपले मुँह में पान भर कर जवाब दिया—
‘‘का टूटी पर रई है ? पाँच आना तीनि पाई चार रुपल्ली हिस्सा में आये हैं। छै आना के नारियल बस, चारि आना एक सेठ दच्छिना में दै गयो। जिमाइबे कूँ बैठो तो लड्डू खत्म है गये। फिर बाज़ार सूँ पेड़ा मँगाए बेऊ हमन्ने खतम कर दीने। आजु कुछ रंग जमौ हो सो सेठ ने ‘टैं’ बोल दई। अकिल्ले रामधन ने बीस लड्डू चौबीस पेड़ा और बारह पूरी खाई। तुम तौ जानौ हौ मेरे दाँत नायें, तौऊ पन्द्रह लड्डू, दस पेड़ा और पाँच पूरी मैं खाइ सकौ। का बताऊँ, धीमें चबे हैं; खातई-खात पंगत उठि गई, नायँ तौ पाँच-सात लड्डू तौ और दाबतौ। पेड़ा बा सारे लछमना ने बूरे के बनाये हैं, भला कोई कितने खातौ ! कोरौ बूरौ तौ फाँकौ नायँ जाय, तुम जानौ।’’

ललिता प्रसाद ने पान की पीक बीच बाज़ार में ‘पिच्च’ करके थूकी तो उधर तेज़ी से जाते धनुआ लोधे के पैरों पर जा गिरी। वह चौंका और लौटकर बोला—देखिकै थूँका करौ पंडित, आँखेऊँ चली गई हैं का ?’’
‘‘अरे लोधे के, सँभरि के बोल, हमारौ कसूर है, तोय सुसरे नायँ दीखै। बड़े आये लाट साब !’’
धनुआ सहम कर बोला—
‘‘लेऊ साब, उल्टौ चोर कोतवाल कूँ डाँटै। सूधी बात कई तो पंडित बिगरि परे, एक तो ऊपर थूँकतैं, दूसरि आँख दिखावतैं।’’
‘‘अरे तौ का भयौ, बामन को थूकु है सारे, पवित्तरु है गयौ’’। वहीं पास बैठे एक दूसरे व्यक्ति ने मज़ाक में कह डाला।
‘‘हाँ, काएकूँ कहौगे ! हमईं थूकिबे कूँ रै गये हैं ? जि तो नायँ कहौगे कि तुम्हारे मोहल्ला में हैं, जो चाहें कहौ।’’
दूर से एक फटी-सी आवाज़ आई—
‘‘बजार है धनुआ बजार, मोहल्ला नायें।’’

क्रोध में भरकर धनुआ बोला—‘‘बामुनन कौ बजारै, नई मैऊ देखतौ। मेरे मौहल्ला में ऐसे थूकते, तौ टाँगि ने तोरि दई होतीं।’’ इतना कहकर धनुआ जैसे ही आगे बढ़ा वैसे ही तरह-तरह की डाँट उस पर पड़ने लगीं। ललिताप्रसाद ने डंडा सँभालकर कहा---
‘‘ठहर तो सई ! तेरी ऐसी-की-तैसी। दिमाग बिगरि गए हैं इन कमीनन के।’’
धनुआ बात का जवाब देता बढ़ रहा था।
इधर दुकान पर बैठे लोगों ने कई तरह से ब्राह्मणों के प्राचीन महत्त्व और आधुनिक युग पर टीकाएँ कीं। एक बोला—
‘‘अरे कलजुग है तौ का भयौ, बामन अबऊँ ऐसे गये-बीते नायें।’’
‘‘पंडित नैरूऊ तौ बामनई हैं।’’
‘‘नैरू नेंई तौ चमार-बामन एक करि दये हैं।’’
‘‘जि गाँधी को पत्तापु है, न होतौ गाँधी नजि नौबत आबती। अब का है, जैसे-तैसे जिन्दगी कटनी है।’’

‘‘अरे होयगौ गाँधी। ह्याँ नायँ चलै काऊ गाँधी-फाँदी की। गंगा मैया के सामने बड़े-बड़े सिर टेकें हैं’’, चौथे ने कहते हुए मुँह पर हाथ फेरा और जेब से सींक निकालकर दाँत कुरेदने लगा। इसी समय गंगा तट से अंगोछा पहने, सारी देह में रज लपेटे, गंगाजली हाथ में लिये एक युवक आकर रुका और पूछने लगा—
‘‘का बात भई, जि लोधे कौ का बकि रह्यौ हौ ? मन में तौ आई कि लोटा दै मारूँ सारे कें, पर चलौई आयौ, न जानें का बात हती ? चचा, तुमसूँ कछु बात भई का ?’’ उसने पास बैठे एक बूढ़े से पूछा। लोगों में से एक ने बातें सुनाई तो बोला—भस्म करि दुंगो सारेन कूँ, समिझि का रक्खी है, बामन अबई इतने गये-बीते नायें।’’
उधर से एक ठाकुर आया तो कहने लगा--‘‘अरे अब न कोई बामन है न ठाकुर, नायँ तौ जाई गाम में मजाल है कोई सिर तौ उठाई जातौ। खेदिकैं न गाढ़ि दये जाते सारे।’’ यह कहकर उसने मूछों पर ताव दिया और पान वाले से पान के लिए कहा।
‘‘पीछे के सब पैसा देऊ तबई पान मिलिंगे। तुम समझो मैं काँ तक उधार करूँ ?’’

‘‘अरे दै दिंगे, क्यों मरौ जाऐ, कितने हैं बोल ?’’
‘‘तुम जानों।’’
‘‘तू तौ बताइ।’’
‘‘बारह आना है गए हैं।’’
ठाकुर ने ठठाकर अपनी शरम पर परदा डालते हुए कहा।
‘‘तौ का भयौ, मरौं क्यों जाय है, लगा पान, दै दिंगे। अबे, जाने नई है यहाँ पैसों सालों की कभी परवाह नईं करी।’’
‘‘पहले पैसा देउ ठाकुर, जि बात झूठी है, रोज तुम ऐसे कै देतौ।’’
‘‘तू समझै है, तू नायँ देगौ तो औरू कोई नायँ देगौ।’’
‘‘तो औरूँ सूँ लै लेउ, मैं गरीब आदमीऊँ, कब तक उधार करूँ, तुमई बताऔ ?’’
‘‘अच्छा आज तो दै, कल तेरे पैसा चुकाय दिंगे।’’
पान वाले ने पान देते हुए याद दिलाया—
‘‘साढ़े बारह आने भए, याद रक्खियों ठाकुर ?’’
‘‘हाँ-हाँ, मरौ चों जातुऐ, ला एक आना के कोरे पान दै।’’

पान वाले ने बेमन से बुड़बुड़ाते हुए एक आने के पान दिये तो ठाकुर पंसारी की दुकान पर सुपारी-कत्थे के लिए पहुँचा। झाँय-झाँय के बाद सुपारी-कत्था लिया और हलवाई की दुकान से आध पाव दूध भी उधार लेकर तीन-चार कुल्हड़ उठाये। इसके साथ ही क्षत्रियत्व के महत्त्व पर व्याख्यान देता आँखों से ओझल हो गया।
पानवाला कहने लगा—
‘‘बजार में कोऊ ऐसो है जाकौ या ठकुरा पै उधार न होय ! काऊ के दस तौ काऊ के पाँच।’’
‘‘अरे, तौ हम का जानें नायें, अब इनमें रैई का गयौ है, ठसकई ठसक है बस’’ वहीं से एक ने कहा—
‘‘उधार लिंगे तो पैसा दैबै को नाम नहीं लिंगे। मुँड़चिरा है मुँड़चिरा !’’
उधर हलवाई अपनी गद्दी पर बैठा ठाकुर पर ‘कमेण्ट’ कर रहा था। तभी पंसारी एक गाहक को मिट्टी का तेल देता हुआ बोल पड़ा।
‘‘चलौ कबऊ तौ दिंगेई।’’
एक और आदमी ने गली के मोड़ से बाज़ार में जाते हुए कहा—
‘‘लै, एक पान मोउऐ खबाई दै,’’ कहकर उसने पान वाले के पास इकन्नी फेंकी।
‘तोइ कितनौ मिलौ माता की दच्छिना में सूँ ?’’ एक ने पूछा।
‘‘द्वै रुपैया तीनि आना, चार आना दच्छिना’’। ललिताप्रसाद की तरफ मुँह करके बोला,—‘‘तुम्हारा तो डबल हिस्सा हो न ?’’
‘‘हमऊँ एक पान लिंगे जा इकन्नी में सूँ, एक मोई दै।’’

‘‘हाँ-हाँ, एक पान इन्हेंऊँ दै। आज तो रबड़ी उड़ैगी, लछमना सूँ कहि आयौ हूँ, उस्ताद ऐसी चकाचक बनें कि रंग जमि जाय, का है कल्लि कूँ चूतर झारि कै मन्नौई तौ है। तोले भरि कौ अण्टा चढ़ायौ है। ‘बं बं बं धोखा रहे न गम।’ पान में तमाखू पीरी डारियो रे।’’ वह पान खाकर उसी पास की गली में छिप गया। इसी समय बैलगाड़ियों की चूँ-चूँ सुनाई दी। दुकानों पर बैठे पंडों के कान खड़े हो गए। यात्रियों की गाड़ियाँ थीं। लोग उठकर गाड़ियों के पीछे हो लिये। नाम-धाम पते-ठिकाने की फेहरिस्तें खुलीं। बहियाँ लाई गईं। धर्मशालाओं के दरवाज़े चरमराये। बाज़ार में हल्का कोलाहल फैल गया। उधर दीये जले और हलवाइयों ने मिठाइयों के थाल आलमारियों से निकालकर तरौनों पर सजा दिए। साधु-संन्यासी, गृहस्थों का आना-जाना बढ़ गया। कोई दूध पी रहा था, कई रबड़ी, कोई पेड़ा उड़ा रहा था। अधिकतर लोग कुल्हड़ों में दूध या दोनों में रबड़ी-मिठाई ले जा रहे थे। सबकी यह शिकायत थी कि मिठाई अच्छी नहीं बनती; हलवाई बेईमान हो गए हैं। कोई खाये तो क्या खाय ? कुत्ते उन्मुख होकर खाने वालो के दौनों-कुल्हड़ों को ऐसे देख रहे थे जैसे पपीहा स्वाति की बूँद की प्रतीक्षा में आसमान ताकता है। फिर फूट हुए कुल्हड़ों-दौनों पर गुर्राते हुए उनका एक-दूसरे पर टूट पड़ना या तो उन्होंने पंडों से सीखा होगा या फिर उनसे पद्मपुरी के लोगों ने। यह कोई नहीं बता सकता कि इसकी शुरुआत कहाँ से और कैसे हुई ?

4


ललिता प्रसाद बाज़ार की खबरों से अपने को ताज़ा करके माता के मन्दिर पहुँचा तो ठाकुर विक्रमसिंह पंडों को गालियाँ दे रहा था। नशे से उसकी आँखें लाल थीं, जैसे निकली पड़ रही हों। दो-एक आदमी दूर बैठे चिलम पी रहे थे। वे ही जब-तब ठाकुर की खुशामद करके उसे शान्त करने की कोशिश करते, पर वह तो गालियों के घोड़े पर सवार था। वह कह रहा था—‘‘एक-एक को देखूँगा, सालों को; देवी का चढ़ावा छिपाकर रख लेते हैं। हम लोगों को बारह आना मिलना चाहिए तो कभी अठन्नी या कभी नौ आने देकर टाल देते हैं।’’ फिर जोश में आकर बोला—‘‘आँखों में धूल झोंकते हैं साले। यात्रियों का माल चरते हैं सो ऊपर से उनकी औरतों को घूरते हैं सो घाते में। जैसे सारे सुख इन साले बमंटों के लिए हैं। अब से हर ठाकुर की पत्तल लगा करेगी, तभी इन बामनों को यात्री लोग खाना खिला सकेंगे। मैं अभी जाकर बलबीर सिंह से कहता हूँ। ये साले चरें और हम टुकुर-टुकुर देखते रहें।’’

दूर बैठा बामन का एक बेटा बोला—
‘‘ठाकुर का बामन है जांगे, बामन तौ बामनई रिंगे और जात्री तौ बामन कूँ ही खवामें हैं, ठाकुरन कूँ तौ खवाइबेते रहे।’’
‘‘देवी तो हमारी है, हम ही इसके मालिक हैं, तुम तो साले इसके पुजारी हो।’
‘‘तो ठाकुर तुमई पूजा करौ, हमें काहै ?’’
‘‘हाँ हम ही पूजा करेंगे।’’
‘‘फिर कोऊ धेलाऊ नाई चढ़ावैगो, सारी जात बन्द है जाइगी, कहूँ ठाकुरऊ पुजारी भए हैं ?’’ एक व्यक्ति ने दूर से चिलम पीते हुए कह दिया।
‘‘तो हम इन मूर्तियों को तोड़ देंगे, कोई परवाह नहीं।’’
ललिताप्रसाद को देखकर ठाकुर बोला—‘‘ललिता मिसिर, कहे देता हूँ। मैं मन्दिर को खंडहर कर दूँगा। साले, तुम लोग रोज़ यात्रियों का माल चरते हो और हमको कुछ नहीं मिलता। हमीं बहन...मालिक इस देवी के और हम ही खीर-मालपुओं को तरसते रहें, और तुम साले, माल उड़ाओ !’’
‘‘तो ठाकुर, जि तौ सदा सूँ चली आई है, छत्री तो रच्छक रहे हैं।’’ ललिता प्रसाद ने नरमी से पुचकारते हुए ठाकुर को उत्तर दिया।
‘‘ऐसे रच्छक किस काम के, सवेरे मैं बैठा टुकुर-टुकुर देखता रहा और तुम साले माल चरते रहे ! तुममें से किसी ने इतना भी न किया कि सेठ से कहकर एक पत्तर इधर भी डलवा देते।’’
‘‘तो ठाकुर हैकें तुम कैसे खाते ? जि तौ बामननु कौ काम है।’’
‘‘मैं नहीं मानता, ठाकुर के भी वैसा ही मुँह है जैसा बामनों के, उनको क्या कम स्वाद लगता है और तुमको ज्यादा, सब गलत बात है।’’
‘‘तो जा में का है ! तुमऊ नाऊ-बारीन के पास बैठि जाऔ करौ, एक पत्तल मिल जाऔ करैगी।’’
ठाकुर और भी भभक उठा। ललिता प्रसाद ने हाथ पकड़ कर शान्त करते हुए, जेब से एक बीड़ी निकाली और बोला—
‘‘लेउ, बीड़ी पीऔ ! जामें का रखौ है, आगे सूँ एक परोसा कौ इन्तजाम है जाइगौ।’’
 
   

   
 
     

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