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सागर लहरें और मनुष्य

उदय शंकर भट्ट

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :247
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4927
आईएसबीएन :81-7043-616-8

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एक श्रेष्ठतम उपन्यास...

Sagar Laharen Aur Manushya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

रत्ना

उस दिन मंगलवार था, पूनो की रात। आकाश से दूध की धार बरस रही थी। धरती का कोना-कोना हँस रहा था। समुद्र की सतह पर जहाँ तक निगाह जाती, मोतियों का चूरा बिछा था। लहरों की आकाश चूमने वाली ऊँची दीवारों के किनारों पर फेनों की गोट लगी दीख पड़ती थी। अभिमान की तरह लहरें ऊँची-से-ऊँची उठ रही थीं। सारा समुद्र एक महान् खिलाड़ी के उल्लास-उमंग से उत्तरंग हो रहा था।
पहले पहर की उसी रात को बम्बई के पश्चिम तट पर बसा हुआ मछलीमारों का गाँव बरसोवा उनींदा हो रहा था। गदेलों और कथरियों पर लेटी जवान औरतें काम-काज से थककर छाती पर हाथ रखे सपने देखने की तैयारी कर रही थीं। कुछ समुद्र में गए अपने पतियों की याद में टिमटिमाते दियों या पाँच नम्बर के बल्बों पर नज़र गड़ाये कल्पना के चित्र बुन रही थीं। उनकी मैली-कुचैली अँगियों में छिपे भूधरों पर काम का नाग कभी-कभी फनफना उठता। बच्चे सो गए थे। बूढ़े कभी-कभी खाँस उठते थे तो बीड़ी के धुएँ के साथ उनकी मैली साँसें हवा के आँचल को पकड़कर ऊपर-ऊपर उड़ने की चेष्टा करतीं। उस समय बरसोवा में आदमी कम, बच्चों-बूढ़ों की गिनती अधिक थी। जो आदमी थे वे बाहर से आए दूकानदार थे। प्रायः सभी मछली मार समुद्र के भीतर उमंग की तरह तैरने वाली मछलियों को पकड़ने निकल पड़े थे। दुर्गन्ध, पानी, कीचड़ से नहाई गलियों, कच्ची सड़कों पर ऊर्ध्वग्रीव कुत्ते कभी-कभी सातों स्वरों में तान अलाप छेड़ बैठते और अपने समवेतगान से समुद्र-गर्जन का मुकाबिला करते। बाकी सब शान्त था। अँधेरा कोनों में छिपा बैठा था ; उजाला मैदानों में नाच रहा था। धीरे-धीरे और भी सन्नाटा बढ़ा। गाँव के तटों और समुद्र की छाती की धड़कन कम हो रही थी। इसी समय बादलों के टुकड़े पश्चिम के क्षितिज से चोरों की तरह झाँकने लगे। हवा की साँस घुटने लगी। लहरों की हिम्मत टूटी। जो दो-चार समुद्री चिड़ियाँ आसमान में मँडराकर समुद्र की छाती पर उभरती मछलियों का शिकार करने में व्यस्त थीं, उनका अब कहीं नाम-निशान नहीं रह गया था। सन्नाटा और बढ़ा। हवा और कम हुई। लहरों के गीत सोने लगे। इसी समय साहसी डाकुओं की तरह काले लबादों में लिपटे बादल तीरों और लम्बे बाँसों के समान मोटी धार आसमान से गिराने लगे। अब सब ओर इस्पात की तरह ठोस अँधेरा घहराने लगा—निगाहों की सुई के लिए भी असम्भव। सोते-सोते जागकर एक पुराना खुर्रा्ट बूढ़ा उठा तो चिपचिपे पसीने से उसकी देह नहा गई। पसीना पोंछते हुए उसने बीड़ी सुलगाई और बाहर आकर आसमान की ओर ताका, फिर समुद्र की ओर देखा तो जी ‘धक्’ से रह गया।

‘तोफान, तोफान’ चिल्लाता वह तट की ओर बढ़ा। ‘तोफान’ का नाम सुनते ही सारी मछलीमार बस्ती बस्ती में एक हड़कम्प मच गया और देखते-ही-देखते औरत, बच्चे, बूढ़े ‘तोफान, तोफान’ चिल्लाते समुद्र के किनारे जमा हो गए। चारों ओर घना अँधेरा ! मोटे सूत की रस्सियों से भी मोटी वर्षा की जलधार ! न कुछ सुनाई दे रहा था न दिखाई। एक प्रलय-सा समुद्र में उठ रहा था। किनारे पर खड़े लोगों के पैरों, घुटनों से लहरें टकराईं तो लोग और भी ऊपर आ गए। जब वहाँ भी पानी ने आ घेरा तो डर से चिल्लाते लोग अपनी झोपड़ियों के पास आ खड़े हुए। समुद्र-तट से आधे फर्लांग तक पानी ऊपर चढ़ आया था। अहंकारी पेड़ों का कहीं पता न था। सहमती लताएँ और घास की पत्तियाँ झुक गईं। झोपड़ियों के पास खड़े लोग उड़े जा रहे थे। उस अँधेरे में मालूम होता था सारी पृथ्वी डूब जाएगी। हवा आँधी बन गई थी और अँधी झंझा। आकाश के एक किनारे से दूसरे किनारे तक गड़गड़ाहट के साथ बिजली कौंध जाती, उससे लगता जैसे समुद्र और आसमान एक हो गए हैं। वे बूढ़े, जिनके लड़के, भाई समुद्र में मछलियाँ पकड़ने गए थे और वे स्त्रियाँ जिनके पति बहुत-सी मछली लाने का वादा करके गए थे, सब थरथर काँप रहे थे। सब चिल्ला रहे थे। पर तेज हवा न किसी का चिल्लाना सुनने देती न घना अँधेरा किसी को रोते देखने देता। समुद्र के किनारे-किनारे एक कतार में चमकने वाली बिजली की बत्तियाँ जैसे कभी थी ही नहीं। जब-तब आसमान की बिजली को छोड़कर कहीं कोई प्रकाश का चिह्न नहीं था। लोगों के हृदय का प्रकाश बुझ रहा था। बाहर खड़े लोगों के मन बिना समुद्र के पानी के ही भय, आशंका में डूबे जा रहे थे। जिनसे खड़ा नहीं रहा गया वे बैठ गए। औरतें माथे पर हाथ रखे, मन मसोस उस अँधेरे में समुद्र का ‘तांडव’ सुन रही थीं। बहुतों ने समुद्र को इतना नाराज कभी नहीं देखा था। लोगों की आँखें झरनों की तरह व्यथा की बूँदों से डबडबा रही थीं। फिर भी भीगती, काँपती, निश्छल, अटल, अडिग स्त्रियाँ समुद्र को देखतीं और ‘खंडाला’ देवता से अपने पतियों, भाइयों, लड़कों के सुरक्षित लौटने की प्रार्थना कर रही थीं। बूढ़े कभी-कभी साहस टूटने पर भविष्य की आशंका से सुबक-सुबक उठते, चिल्ला पड़ते।
रात बीती। सबेरा हुआ। दोपहर हुई। साँझ हुई। पर समुद्र अब भी प्रलय से खेल रहा था। अनन्त वज्राघातों की तरह लहरें एक-दूसरे से लड़ रही थीं। बादलों से ढके सूर्य के हल्के प्रकाश से समुद्र का सभी अन्तर जैसे दहाड़ें मार रहा था। समुद्र और आकाश का भेद समाप्त हो गया था। बहुत से लोग जो तट पर खड़े थक गए थे भाग्य पर विश्वास करके लौट गए। पर कुछ बूढ़े, हीरा, वंशी और सोमा सब एक-दूसरे से दूर एकटक समुद्र की ओर निहार रहे थे। जैसे उनकी आँखों की प्रतीक्षा का अथक बल मिल गया हो। तमाशबीन लोग आते, देखते और चले जाते। बच्चों के झुंड हँसते-खेलते तट पर आ जुड़ते और लौट जाते। उसी समय साँझ के झुटपुटे में वंशी के पास अठारह वर्ष की लड़की रत्ना आई और उसके कंधे से सटकर बैठ गई।
‘‘बाय।’’

वंशी के चेतना जैसे अपने पति को समुद्र से खींच लाना चाहती थी। उसने न लड़की को पहचाना, न उसकी आवाज सुनी। लड़की ने फिर पुकारा, ‘‘बाय, बोलेंगा नईं।’’
रत्ना ने वंशी को जोर से झँझोड़ा और पुकारा, ‘बाय।’ काफी देर बाद जैसे उसे होश आया। उसने निगाह फेरकर रत्ना की ओर देखा ते देखती रह गई। वंशी की आँखों में न आँसू थे, न पहचान। लड़की एकदम रोकर माँ से लिपट गई। बहुत देर बाद आँख उठाकर रत्ना ने देखा तो वंशी की आँखों में आँसू थे। उसने हिचकी भरते हुए पूछा, ‘‘बाय, ए तोफान कब खल्लास होयेंगा।’’
वंशी के मुँह से केवल इतना निकला—
‘‘खंडाला भगवान् जाने।’’

लहरें उस समय भी लहरों से लड़ रही थीं—हजारों क्रुद्ध नागिनों की तरह हवा उस समय भी तेज थी, मानो उनंचास हवाएँ इकट्ठी होकर आ गई हों। वर्षा उस समय भी कभी-कभी समुद्र की छाती पर आकर नाचनें लगती थीं।
तीन दिन और तीन रात जब तक समुद्र में तूफान रहा बरसोवा के मछलीमारों के परिवार ने न कुछ खाया न पिया। निरन्तर समुद्र की ओर ताकते रहे। एक बूढ़ी औरत ने आकर सोमा को सँभाला और पकड़कर ले गई। हीरा का जवान लड़का और पति दोनों समुद्र में गये थे। इसलिए वह लोगों को समझाने-बुझाने पर भी जड़ बनी बैठी रही। चौथे दिन समुद्र के किनारे लाशों से पटे पड़े थे। मानो वीतराग समुद्र ने उन्हें स्वीकार न कर किनारे पर लाकर डाल दिया हो। झुण्ड-के-झुण्ड उन्हें पहचानने को दौड़ पड़े। जिनमें कुछ जान ती उन्हें बाहर निकालकर उल्टा टाँग दिया। सरकार की तरफ से स्टीमरों ने डूबते लोगों को बचाकर किनारे पहुँचा दिया और अधमरे बिट्ठल, नाना, यशवंत, हरिचन्द आदि कुछ लोगों को समुद्र के किनारे पटककर लौट गए। फिर भी बरसोवा के बहुत से मछलीमारों का कुछ भी पता न चला। न वे स्टीमरों से लौटे, न किनारे पर पड़े पाये गये। सामुद्रिक तुफान के बाद मछलीमारों के गाँव बहुत दिन तक अपने आदमियों को खोजते रहे। जागला, बर्लीकार, बाउला कई दिनों बाद डांडा से लाये गए। जिनके आदमी लौटे थे उनके घरों में सत्यनारायण की कथा हुई, भोजन कराया गया ; उत्सव हुए। समुद्र देवता की धूमधाम से पूजा हुई। वंशी ने महाभारत की कथा बैठाई जो एक मास तक चली।

हर साँझ स्त्रियाँ बूढ़े, जवान, बालक सब काम छोड़कर कथा सुनने इकट्ठे होते। वीरता और लड़ाई की कहानियाँ सुनकर श्रोताओं को रोमांच हो आता। भुजाएँ फड़कने लगतीं। बिजली-सी नर्सों में दौड़ जाती। आदमी मूँछों पर ताव देते। स्त्रियों की आँखों में चमक आ जाती। दिन-भर गाँव, समुद्र, घर, बाजार में लोगों के मन पर वीरता का नशा छाया रहता। दो-एक जगह पूरा तो नहीं छोटा-मोटा महाभारत हो गया। लड़कियाँ सुभद्रा, द्रौपदी, सत्यवती के सपने देखतीं और पुरुष भीष्म, अर्जुन, कर्ण, भीम बनने की प्रतिज्ञा करते। समाप्ति के बाद भी महाभारत के पात्रों की वीरता, सौन्दर्य श्रोताओं की आँखों में झूमते रहे। उन्हीं दिनों बिट्ठल की लड़की रत्ना नाना से कहने लगी—
‘‘हम भी मत्स्यगंधा बनेंगा, नाना ? हम भी बनेंगा।’’
‘‘तेरे कू ऐसा भाग किधर होने का जो तू किसी का रानी बन सकेंगा।’’ नाना ने छोकरी की ओर गहराई से देखते हुए कहा—जैसे उसे कम आश्चर्य नहीं हो रहा था। रत्ना आँखें नचाकर मुस्कराती बोली—
‘‘तुम देखेंगा, भाग कू लेने नहीं जाना होयेंगा।’’

इतना कहकर रत्ना आसमान में बिखरे बादलों के टुकड़ों से उतरते अपने सपनों को निहारने लगी। उसकी भारी पलकों वाली बड़ी-बड़ी आँखों में एक नया सपना तैरने लगा। नाना कुछ भी न समझ सका। पर अचानक रत्ना की बातों ने उसकी उत्सुकता को जगा दिया। नाना बहुत सोचने का आदी नहीं था। बहुत दूर तक देखना और सोचना उसके स्वभाव में था भी नहीं। बोला—
‘‘जाने काय शहाणापन ए देखने कू मांगताय।’’
इतना कहता हुआ अपने घुटनों पर हाथ का बल देकर वह उठा और गालों के मोड़ पर चाय वाले की दूकान में जा बैठा।
रत्ना झूले पर पैर लटकाए बालों की चौरी हिलाती रही। कभी-कभी पैर अपने आप हिलकर झूला चलाते रहते। नितम्बों पर लटकती उसकी वेणी, कत्थई रंग की मराठी धोती, जिसकी चौड़ी किनारी माला की तरह गले में लटक रही थी, उसके उभरे स्तनों पर हवा से हिल-हिल उठती। सामने खिड़की में से समुद्र की विशाल और उत्ताल लहरें उठती दिखाई दे रही थीं। नीले और हरे समुद्र के पर्त्त पर अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें लहरों से खेल रही थीं। ऊपर आसमान में बादलों के टुकड़े आँक-झाँककर उनका खेल देख रहे थे। रत्ना झूले से उठकर खिड़की पर आ टिकी और देर तक ऊपर ही देखती रही, मानों उसकी आँखें उन खेलों में किसी को पाने के लिए उत्सुक हो उठी हों। वह बहुत देर तक बेभान-सी खड़ी रही।
‘‘रत्ना, ओ रत्ना, एक सिंगल कप पियेंगा। नाना किदर गया। गाठिया बी लेंयगा काय ?’’ कहती वंशी रत्ना के पास चाय का प्याला लिए आ पहुँची। रत्ना जैसे नींद से जागी। बिना कुछ बोले चाय पीने लगी। चाय पीकर प्याला उसने खिड़की में रख दिया और अपने विचारों में खो गई।

उस समय पश्चिम के समुद्र की छाती पर अपनी किरणों का बिस्तर बिछाए सूर्य लेटने जा रहा था। सोने के इस आस्तर को उठती लहरों के किनारे कहीं उन्हें दूध-सा सफेद बना रहे थे, कहीं नीली और हरी चादर पर सल्मे-सितारे की सुनहली और रुपहली गोट जड़ रहे थे। वह एक विचित्र दृश्य था। ऊपर आसमान में नये-नये नगर, गाँव, नदियाँ, पहाड़ बन रहे थे। नहर, पहाड़, झरने, मनुष्य, पशु, कोट-पतलून पहने आदमी, दाढ़ी बढ़ाये ऋषी दिखाई दे रहे थे। नीले, पीले गुलाबी, धुँधले रुई के पहाड़, वृक्षों, लताओं, झाड़ियों से घिरे दीख पड़ते थे। रत्ना बहुत देर तक उन्हीं दृश्यों, अपनें विचारों और दोनों से मिलकर बने स्वप्नों में खो गई।
इसी समय टोकरियों में भरी मछलियाँ कमरे के बाहर लाकर रखी जाने लगीं। कोलाहल बढ़ा और देखते-देखते सारा बरामदा बाग्टी, मांडील, खारा, सांभर, चीरी, तामड़ी आदि कई प्रकार की मछलियों से भर गया। इसके पीछे आया बिट्ठल कोली। सामने कमर में तिकोना रंगीन रुमाल और सफेद बनियान, यही उसकी पोशाक थी। लोगों ने मछलियों को टोकरे जमीन पर रख दिए। बिट्ठल ने गिना और आवाज लगाकर वंशी को सौंप दिया और वहीं एक कोने में खड़ा बीड़ी पीने लगा। वंशी बरामदे में आकर मछलीवालों से बातें करने लगी। उसके ऊँचे और मरदाने स्वर से वातावरण ढक गया। एकाध बार उसने बातों-बातों में बिट्ठल को डाँटा भी। रत्ना डरकर माँ की सहायता करने लगी। वंशी ऊँचे स्वर में कह रही थी—
‘‘बरसोवा रैने सूँ काय लाभ ? जास्ती मच्छी नईं मिलताय। ईससे तो खार, माहीम, वर्ली का कोली लोक मजा करताय। बड़ा-बड़ा मच्छी तो मिलताय ! ए छोटी-छोटी मच्छी।’’ वंशी टोकरियों से एक मुटठी मच्छी उठाती और लापरवाही से बिखेर देती। ऊँचे स्वर में बोलने के कारण आसपास के एक-दो मच्छीमार और आ गए। सबने वंशी की बात का समर्थन किया।

‘बरसोवा का धंधा खल्लास हो गया। दर रोज मील का चक्कर मारताय तब किदर जाकर दो पाटी माल मिलताय। आइसा कइसा होयेंगा।’’
एक बूढ़ा बोल उठा—
‘‘हमारा जमाना में होडी (नाव) पर जाकर डोल (जाल) डाला नईं के ढेर-का-ढेर मच्छी आया।’’
‘‘ईमान नईं होयेंगा को कइसा होयेंगा। कइसा चलेंगा।’’

बिट्ठल बीच ही में बोल उठा, ‘‘दर रात मारेंगा तो कइसा मच्छी आयेंगा। पहले थोड़ा खरच था थोड़ा मच्छी मार जागला ?’’
‘‘चल जाने दे, दे वंशी अबी जो कुच मिलताय अपन कू गुजारा तो ओई में करने काय न। ताड़ी बी तो माँगा हे,’’ तीसरे ने कहा।
‘‘अरे सभी कुछ माँगा है। चावल, शाक, चिउड़ा। कपड़ा के तो अंगार लग गयाय। गरीब मानस कइसा पहनें।’’
बरामदे में रखी टोकरियों को लक्ष्य करके लोगों ने अपने जीवन की व्याख्या कर डाली, राजनीति, सरकार के ऊपर अपने-अपने ज्ञान के पैमाने से चर्चा की, समाज के ऊपर व्यंग्य-बाण कसे। वंशी ने टोकरियाँ उठाकर भीतर के आँगन में रखवा लीं। बिट्ठल वंशी की नजर बचाकर बाहर निकल गया।

बरसोवा का असली नाम ‘बिसावा’ है। यह बम्बई समुद्र-तट के पूर्व-पश्चिम में मछलीमारों की बड़ी बस्ती है--‘अँघेरी’ से पश्चिम की तरफ लगभग तीन-चार मील दूर। इस जाति को ‘कोली’ कहा जाता है। बरसोवा में दो तरह के कोली बसते हैं—थलकर और शिवकर। अधिक संख्या में थलकर और थोड़ी संख्या में शिवकर रहते हैं। दोनों का आपस में विवाह-सम्बन्ध नहीं होता, पर खाने-पीने में दोनों में कोई भेद नहीं है। थलकर एक वीरा देवी और खण्डोवा के उपासक हैं और शिवकर वैष्णव। परंतु अब ऐसा कोई फर्क नहीं है। शिवकर जाति के लोग थलकरों से अधिक सुन्दर हैं और थोड़ी संख्या में होने के कारण वे बाहर भी शादी-ब्याह कर लेते हैं, जबकि छलकरों की शादियाँ बरसोवा में ही होती है। अँधेरी से आती एक लम्बी सड़क के किनारे पूर्व और पश्चिम में यह गाँव बसा है। कुछ पक्के मकान, लेकिन अधिकतर कच्चे छप्पर वाले। आदमियों की पोशाक एक बनियाइन या कमीज। नीचे घुटनों से ऊपर तिकोना, रंगीन रुमाल पहने रहते हैं। पीछे का भाग खुला। स्त्रियाँ रंगीन लाँगदार साड़ी या धोती पहनती हैं। ऊपर चोली। धोती का फेंटा कमर में खोंसा रहता है। सम्पन्न परिवार की स्त्रियाँ ऊपर चादर भी ओढ़ती हैं। कान में मछली की तरह सोने की गाँठ। गले में मंगलसूत्र (सोने की जंजीर) मोहन लाल या चपलाहार। हाथों में बागड्या (कड़ा) सोने का।

बरसोवा किसी समय एक बड़ा बन्दरगाह था। पहले पुर्तगालियों के जहाज यहाँ आकर लगा करते थे। उन दिनों बम्बई नही बसा था, वर्ली से लेकर माहीम और शिवड़ी से मझगाँव तक किनारे-किनारे रहने वाले शिवकर कहलाए। शिव का अर्थ कोली भाषा में ‘सीमा’ है। इसी तरह गाँव में रहने वाले गाँवकर और थलगाँव में रहने वाले थलकर प्रसिद्ध हुए।
बहुत पहले समय से इन कोलियों का पेशा दूर-दूर समुद्र से मछलियाँ मारना रहा है। बिट्ठल बरसोवा का एक सम्पन् कोली है। एक-दो नौकर, दो बड़ी होड़ी और एक छोटी होड़ी (नाव)। परिवार भी बहुत बड़ा नहीं है—वंशी, रत्ना और वह स्वयं। बिट्ठल मशीन की तरह काम करने वाला खाली दिमाग का आदमी है। पत्नी का दास। इसीलिए वंशी व्यवसाय-व्यापार चलाती है। उसकी उमर ढल रही है। फिर भी उसके सलौने रंग और बड़ी-बड़ी आँखों से यौवन की मादकता जैसे लहरें लेती रहती है। रत्ना, उसी की लड़की, ‘एफ.ए. में पढ़ रही है। शायद यही बरसोवा के शिवकर कोलियों में एक लड़की है जो कॉलेज जाती है। इसीलिए जहाँ लोगों में इस घर के प्रति बड़प्पन का भाव है वहाँ उसी के बराबरी के लोग इससे जलते भी हैं। इधर पिछले दिनों से चंचल रत्ना में एक खास परिवर्तन हो रहा है। जो चिड़िया की तरह अपनी चंचलता के मशहूर थी, बातों से लोगों के कान के कीड़े झाड़ देती थी, अपनी सुन्दरता के गर्व से किसी की ओर आँख उठाकर भी नहीं ताकती थी, वही एकदम धीरे-धीरे अपने में खोई-खोई रहती है। माँ ने इसका और ही अर्थ लगाया। एक दिन उसने शराब पीकर लौटे बिट्ठल को टकोरते हुए कहा—
‘‘सुनताय बिट्ठल !’’
बिट्ठल नशे में डूबी और मुश्किल से अधखुली पलकों से वंशी की ओर देखने लगा। केवल वंशी के खुले हाथों पर आवेग की उँगलियाँ फेरने लगा। वंशी ने कड़कर कहा—
‘‘हम बोलताय, रत्ना का लगन करने का। इतना जास्ती उमर हो गया।’’

लापरवाही से बिट्ठल ने जवाब दिया, ‘‘होयेंगा, हमारा रानी होयेंगा। तुम काय कू सोटताय। तुम करेंगा सो होयेंगा।’’ कहकर बिट्ठल ने चुटकी बजाई और पास मुँह करके वंशी की ओर हसरत-भरी नजर से देखने लगा। वंशी ने उसका मुँह हटाते हुए कहा--‘‘तेरे कू अब्बी जबानी चढ़ाय। पन मेरे कू छोकरी की चिन्ता आहे। ओर की लगन की चिन्ता। हट, दूर हट। हम तेरे को बोलना नईं माँगताय। दर रोज ताड़ी पीकर आजातय। खबरदार !’’ फिर ठहरकर पूछा, ‘‘यशवन्त तेरे कू कइसाय, बिट्ठल ? हम यशवन्त का वास्ते बोलना माँगताय।’’
‘‘तो हम कू पूछने का क्या ? जो चाँगला लगे सो करेंगा। वंशी कू कौन बोलेंगा, अइसा करो अइसा मत कर बाबा। यशवन्त पन टीक हे। अपना नाना का छोकरा मानो अपना दोस्त का छोकराऽऽ।’’

वह वंशी के सामने ‘ही’ ‘ही’ कर के हँस दिया और वंशी के प्रतिदान से निराश होकर वहीं चटाई पर लेट गया। वंशी कोईव सलाह न करके बाहर चली गई। अब बिट्ठल की नाक से सातों स्वर बजने लगे। वह बहुत देर तक चटाई पर पड़ा रहा। थोड़ी देर बाद इधर-उधर देखकर कमरे की आलमारी में रखी शराब की एक बोतल उठा लाया और बिना प्याले के थोड़ी-थोड़ी पीने लगा। उसकी इच्छा हुई इस समय तली हुई ‘पाला’ मछली मिल जाती तो मुँह का ज़ायका बदल सकता था। वह उठा तो पैर डगमगाने लगे। दीवार का सहारा लेकर चला तो चल न सका। वहीं गुर्राता हुआ आँगन में गिर पड़ा। वंशी ने लौटकर देखा तो बड़बड़ाती हुई रसोई से राँभास और शेवड़ी मछलियाँ लाकर बिट्ठल के सामने रख दीं। बची हुई बोतल की शराब खाली करके आप भी मच्छी खाने लगी।

बिट्ठल उन लोगों में था जो शरीर से मजबूत होते हुए भी दिमाग से खोखले होते हैं। वंशी से वह डरता था। उसके इशारे और बुद्धि को ही सब मानता था। उसकी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाना, उसे खुश रखना और आलिंगान पाश में विकसित आवेगों को शान्त करना और जी तोड़कर काम करना यही उसने अपना एकमात्र काम बना लिया था। वंशी हँसती थी तो वह खिल उठता। प्यास से भीगी आँखों, फड़कते होंठों और कसमकसाते हाथों से उसे जकड़ लेता। इससे पहले जवानी में उसने कई खेल-खेले, कई औरतों से प्रेम किया, पर वंशी के घर पहुँचते ही वह भीगी बिल्ली बन गया और उस दिन तो और भी जब शराब पीकर वह सारी रात बाहर रहहा। सुबह घर लौटने पर वंशी ने जाल की मोटी रस्सियों से ‘साड़-साड़’ कर उसकी पीठ उधेड़ दी। बिट्ठल पिटता रहा। उसके बाद नौकर की तरह एक कोने में जा बैठा। वंशी ने ही दया करके उसके सामने भात और मछली लाकर रख दी। तब से लेकर उसकी स्त्री-भक्ति और घर का काम एकाकार हो गया। अब वह भी ढल चुका था। रत्ना को स्कूल भेजकर पढ़ाने में वशी का हाथ था। वह चाहती थी उसकी लड़की पढ़े-लिखे और उसी ठाट-बाट से रहे जैसे बम्बई की स्त्रियाँ रहती हैं। वंशी पढ़ी-लिखी नहीं थी, पर स्वभाव से तेज और अपने हौंसले से बड़े-बड़े काम सँभालने की क्षमता रखती थी। मछलियों के टोकरे में ट्रक में रखवाकर वह अपने-आप बाजार जाती और अच्छे-से-अच्छे दामों पर माल बेचती। मजाल है कोई उसे ठग सके, कोई धोखा दे सके। बाजार से लौटते समय वह फूलों के गजरे लेना न भूलती। अपने ढंग से श्रृंगार करती, रात को शराब पीती, तीज-त्यौहार पर अपने ही घर में उत्सव मनाती। नाचने, गाने और शराब में रात-रात बिता देती। वंशी देखने में बहुत सुन्दर नहीं थी, पर ऐसी बुरी भी नहीं थी। चपटा मुँह, बड़ी-बड़ी आँखें, मामूली उठी चौड़ी नाक, उभरी कनपटी की हड्डियाँ, रसीले पतले होंठ, उभरी ठोढ़ी, सुता हुआ साँवला शरीर, पर चिकना ; कद न बहुत ऊँचा न ठिगना ; मुख पर रौब और गम्भीरता के चिह्न, जूड़े में वेणी और माथे पर चवन्नी के बराबर टिकुली से सजी रहती।

नाना वंशी का दूर का रिश्तेदार था। किसी समय उसकी भी कई नावें थीं, नौकर थे, पर जुए में सब उड़ गया। वंशी का विवाह पहले नाना से ही होने जा रहा था। बीच में आ कूदा बिट्ठल। बिट्ठल जहाँ नाना से कद में ऊँचा और बलवान था वहाँ सुन्दर भी था। उसके शरीर के मजबूत पुट्ठे, मछलियों से भरा, कसा शरीर और बड़ी-बड़ी स्निग्ध आँखें देखकर वशी ललचा उठी। उसका मन बिट्ठल में रम गया। फिर वह बाहर का रहने वाला था। वंशी की माँ छूनी ने उसे नौकर रख लिया और एक दिन बिना लिए-दिए दोनों का विवाह हो गया।

उस दिन सत्तरह-अठारह साल की लड़की रत्ना का मन महाभारत में आई मत्स्यगन्धी की कहानी सुनकर भीतर-ही-भीतर हिलोरें लेने लगा। वह सोचने लगी, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मेरी जवानी भी सदा बनी रहे ? क्या ऐसा कोई नहीं है जो मुझे भी वरदान दे ? सदाबहार के फूलों की तरह आनन्द और उल्लास से घुमड़ती जवानी का आक्षुण्ण सौंदर्य मेरे ऊपर बरसा सके ? इसी प्रतीक्षा में छोटी नाव लेकर पढ़ने के बहाने सामने ‘मड’ नाम के टापू पर जा बैठती थी और समुद्र की शोभा निहारती।
‘मड’ बरसोवा के तट से लगभग एक मील दूर टापू है। पुर्तगालियों ने यहाँ आकर किला बनवाया था। इसका पुराना नाम ‘आलदेमार’ है। ताड़, खजूर, केलों से घिरा हुआ समुद्र-तट का यह स्थान बहुत रमणीक और सुबह-शाम के समय बिलकुल सुनहरा लगता है। मड के पश्चिम किनारे पर अधिकतर ईसाई कोली रहते हैं। इस गाँव का नाम ‘एरंगेल’ है।’’
‘मड’ पर पहुँचते ही रत्ना का मन वरदान पाने के लिए लहरों की तरह हिलोरें लेता। उस एकान्त स्थान में हर पगध्वनि उसे वरदान देनेवाली सुनाई देती। वह बैठी हुई सोच ही रही थी कि नाना के लड़के यशवंत की नाव ‘मड’ के किनारे आ लगी। वह दूर से ही चिल्लाकर बोला—
‘‘रत्ना, तुम इदर किदर, क्या करताय। दीखताय जैसे सिनेमा का कोई स्टार अपने प्रेमी का इंतजार करता होयेंगा। कितना चांगलाय ए सब।’’
जब यशवंत पास आ गया तो पत्ना ने कहा—
‘‘तुमने ओर महाभारत की कथा सुनाय यशवन्त ?’’
‘‘कौन कथा ?’’

‘‘ओ मत्स्यगन्धा का।’’
‘‘स तेरे कू मत्स्यगन्धा बनने का क्या ?’’
‘‘हम जानना माँगताय, कइसा होयेंगा ओ मत्स्यगन्धा ?’’ रत्ना ने यशवन्त से पूछा।
‘‘हम पढ़ेला-लिखेला नईं रत्ना, मत्स्यगन्धा का बात सुना जरूर, पन जानता नईं ?’’

यशवन्त रत्ना के पास बैठ गया और गहराई से रत्ना को देखने लगा। पेड़ की छाया में घनी धूप से उसका चेहरा कर्बुर हो रहा था। माथे की गहरी लाल बिन्दी, कटीली भौंहें, बड़ी-बड़ी आँखों पर दृष्टि गड़ाए यशवन्त रत्ना को देखता रहा। फिर बोला—
‘‘किती चांगलाय रत्ना। बापू बाप बोलता था के...रुककर वह मुस्कराया।
‘‘हम बोलताय तू किती सुन्दर हे रत्ना ! जब से हम सुना...’’
‘‘पन हम लगन नईं करूँ तो ?’’ मुस्कराकर रत्ना ने उत्तर दिया।
‘‘तो यशवन्त जिन्दा नईं कहेंगा।’’
‘‘नईं रहेंगा तो मेरे कू क्या ?’’
‘‘बाहर का बात हे बीतर का नईं। हम जानताय।’’
‘‘हमकू पढ़ने काय यशवन्त, तू जा।’’
‘‘हमकू तेरे कू देखने काय। देखते रैने काय।’’
‘‘पन तू पड़ेला-लिखेला नईं। हम जो लगन नईं करे।’’

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