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झुण्ड से बिछुड़ा

विद्यासागर नौटियाल

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4935
आईएसबीएन :81-263-1116-9

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पर्वतीय जन-जीवन की त्रासदी का वर्णन....

Jhund Se Bichhura

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रसिद्ध कथाकार विद्यासागर नौटियाल का उपन्यास ‘झुण्ड से बिछुड़ा’ पर्वतीय जन-जीवन की त्रासदी को बड़े ही विश्वसनीय ढंग से उजागर करता है-विशेषकर गढ़वाली ग्रामीणों के संघर्ष और उनकी अदम्य जिजीविषा को लेखक ने तमाम प्रचलित मिथकों, किंवदन्तियों, रूढ़ियों, अन्धविश्वासों को सामने रखते हुए एक नयी कथाशैली और प्रविधि के साथ उपन्यास में प्रस्तुत किया है, जो अपने आप में नये जीवन के द्वार खोलने जैसा है।

बेशक ‘झुण्ड के बिछुड़ा’ लघु उपन्यास है लेकिन इसके कथ्य का फलक विस्तृत है। कथा के केन्द्र में जहाँ ‘शान्ति’ जैसी निरुपाय और निस्सहाय एक पहाड़ी महिला है, जिसे अपनी गाय और ‘भोली’ बछड़ी के प्रति अपार वात्सल्य है तो दूसरी ओर है एक भयानक बाघ, जिसके रूप में मानो काल ही जंगल में घूमता रहता है।

उपन्यास में मुख्य कहानी के ईर्द-गिर्द फैला पहाड़ी जीवन ही नहीं, बाघ के आतंक से लोगों को सुरक्षा देते पात्रों का दुर्दम्य साहस भी चित्रित है। वहाँ के आम जीवन में बाघ एक पहाड़ी मिथक भी है और हकीकत भी। श्रीधर प्रसाद जैसे पात्र भी पहाड़ी समाज में बाघ जैसे ही हैं। सत्ता और नौकरशाही के आतंक को जिस तरह उपन्यास की विषय वस्तु के साथ पिरोया गया है उससे यह कृति इस पूरे ताने-बाने का जीवन्त पाठ बन जाती है।

भारतीय ज्ञानपीछ ‘झुण्ड से बिछुड़ा’ उपन्यास प्रस्तुत करते हुए आशा करता है कि अपनी यह विषयवस्तु और नये कथाशिल्प से पाठकों को आकर्षित करेगा।
पहाड़ के आदमी और उसके जीव-जगत के अनोखे जानकार जिम कार्बेट श्रीराम शर्मा प्रेम और मुकुन्दीलाल बैरिस्टर को सादर समर्पित
-विद्यासागर नौटियाल

झुण्ड से बिछुड़ा

[बघ्वा= कई लोगों को बाघ के दिखाई देने पर, या कहीं आस-पास से उसके शरीर से निकलने वाली तीखी, नाक के रास्ते प्रवेश कर पूरे शरीर को फाड़ने, पस्त कर देने वाली दुर्गन्ध को सूँघते ही बघ्वा लग जाता है। जिसे बघ्वा लगता है वह अपने होश-हवाश गवाँ बैठता है। बघ्वा के प्रभाव में डर के मारे कुछ दिल के कमजोर लोग बेबस हो जाते हैं और उनके मुख से ‘ह्या ऽऽ ह्या ऽऽ ह्या ऽऽ’ जैसी इकहरी, कतार, ऊलजलूल आवाजें निकलने लगती हैं। और कइयों की बोलती बन्द हो जाती है।
लोग ऐसे किस्से को सुनते हैं कि कई बार ऐसा भी हुआ कि बघ्वा-प्रभावित बाघ की ओर खिंचता चला गया। मस्त चाल से चल रहे बाघ के पीछे-पीछे उसे खुद ही दौड़ लगाते देखा गया।]

सुबह वह बहुत तड़के जग गया था। कल रात बिस्तर पर लेटे-लेटे शतरू इस बात पर विचार करता रह गया कि अल-स्सुबह किस दिशा में प्रस्थान करना ठीक रहेगा। सोचते-सोचते वह कई तरह की समस्याओं में उलझने लगता। वह कोई ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पा रहा था। इस विषय में किसी दूसरे से पूछ लेने या मदद लेने की कोई गुंजाइश नहीं होती। ऐसे कार्य को सम्पन्न करने के लिए खुद ही निर्णय लेना होता है। अकेले में। एकदम एकान्त में। प्रस्थान करते वक्त किसी दूसरे को, करीबतर दोस्त को भी नहीं बताया जाता। बताना ज़रूरी नहीं माना जाता। किसी दुश्मन को तो हर्गिज नहीं। उसे तो पता न लग सके इस बात की पूरी कोशिश करनी पड़ती है। ऐन मौके पर किसी के मुँह से कोई टेढ़ी-मेढ़ी, अगड़म-सगड़म उल्टी-सीधी बात निकल बैठे। या आप घर से बाहर बटिया पर पाँव धर रहे हैं, कहीं आधे रास्ते में हैं, और तब तक कहीं से किसी की ‘आँक्छीं !’ हो गया न गुड़ गोबर ! आँक्छीं नहीं होना चाहिए। उससे पूरे दिन के ही नहीं, पूरी यात्रा के ही गड़बड़ हो जाने की आशंका पैदा हो जाती है। वह उद्देश्य जिसके लिए घर छोड़ कर प्रस्थान किया जा रहा है, उसके सफल होने में कोई भारी अड़चन पैदा हो सकती है। वह अकेली छींक मन में सन्देह पैदा कर देती है-कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। दिन भर भटको, हासिल कुछ भी नहीं।

ऐसे अवसर पर घर से प्रस्थान करते समय किसी भी तरह पैदा हो जाने वाली छोटी से छोटी विघ्न बाधा की याद में, घर से निकल कर दूर पहुँच जाने पर, रह-रह कर आने लगती है। पाँव आगे धरे जा रहे हैं और दिमाग गाँव में ही पहुँचता जा रहा है। दिमाग पर लगातार हथौड़े मारने लगती है किसी की नाक से बाहर निकली उस भयानक आँक्छीं की याद। भुलाए नहीं भूलती। किसी और चीज में मन ही नहीं लगता। कोशिश करो कि किसी और चीज की, किसी सुन्दर स्थान की, अपने किसी प्रिय-जन की, किसी सुन्दर घटना की, किसी चीज की, बार-त्यौहार की याद आए। लेकिन नहीं। वैसा क्यों होना है। दिमाग में तो वहीं छींक भर गयी है। याद तो बस उसी बदशकुनी छींक की आती जा रही है। और अगर वह अपना कोई बैरी-दुश्मन हुआ तो उसकी छींक की याद तो और भी बुरी लगने लगती है और बेवजह सताने लगती है। परेशान करने लगती है। जानबूझकर छींक की गोली दाग जाने वाला वह बैरी, हो सकता है, इस वक़्त मज़े में अपने घर पर बैठा होगा। अपने बाल-बच्चों के बीच होगा। छज्जे के ऊपर ठाठ से हुक्का गुड़गुड़ा रहा होगा या तिवारी में खूब भरे हुए, छुलबुल गिलास को हाथ में उठाए गरम-गरम, मीठी-मीठी चाय सुड़क रहा होगा। अपने दुधमुँहें बेटे या नाती को गोद में लेकर उसे मुलमुल हँसाते हुए मज़े में खुद भी हँसता जा रहा होगा। लेकिन उसकी अकेली छींक की याद तलवार का काम करने लगी है। काट कर रख देती है पूरी देह को। मिटाए नहीं मिटती।

वह बैरी, गाँव भर का वह अकेला, कुख्यात बैरी, अच्छी तरह जानता है कि उसकी वैसी हरकत का क्या असर हो सकता है। दुश्मन के कहीं प्रस्थान करते वक़्त वह जानबूझकर उधर आ जाता है। बोलेगा कुछ नहीं, कोई रामा-कृष्णा नहीं। रामा-कृष्णी तो उससे है ही नहीं। आएगा और जानबूझकर, सोची समझी चाल के मुताबिक पाँच नपे-तुले, लम्बे कदम चल उसका रास्ता काट जाएगा। ए-ए-ए-क, दो-ओ-ओ-ओ-, ती-ई-ई-न, चा-ऽ-ऽ-ऽ र, पाँ ऽ ऽ ऽ च। और उसके बाद अपनी योजना को अन्जाम देने के बाद, खुशी-भरे तन-बदन को लहराता हुआ वहाँ से अपने घर की ओर लौट जाएगा। दस बिल्लियों के एक साथ रास्ता काटने का वैसा मारक, तारी प्रभाव नहीं हो सकता जैसा कि बटिया की चौड़ाई के दोनों छोरों को छू जाने वाले उसके पाँच डगर पैदा कर जाते हैं। उससे यह नहीं पूछा जा सकता कि तू इस वक़्त यहाँ क्यों आया था, अब कहाँ जा रहा है। कहीं और आगे जाने के लिए इधर आया था तो अब और आगे क्यों नहीं जा रहा है ? यहीं से वापस क्यों जा रहा है ? कुछ पूछने का सवाल ही पैदा नहीं होता। मालूम है कि अपने स्वभाव से मजबूर है और कि इस वक़्त उधर क्यों प्रकट हुआ है। वह तो जानबूझकर आता है और रास्ते को एक बार काटकर निकल जाता है। उसे घर से बाहर कहीं प्रस्थान थोड़े ही करना है यह बात उसे बहुत अच्छी तरह मालूम है कि गाँव भर में, गाँव के कुल निवासियों के मन में उसे अपशकुनी माना जाता है। उसके पास कोई एक सद्गुण नहीं। अपशकुनी है तो अपने अपशकुनी होने का फायदा उठाने की फिराक में लगा रहता है। उसका तो एकमात्र उदेश्य यह होता है कि जिसका रास्ता काट रहा है उसका कार्य सिद्ध न होने पाए। कोई-न-कोई बिघ्न-बाधा खड़ी हो जाए। किसी के काम में बाधा पैदा हो जाने से उसे बेहद खुशी होती है। दूसरों के दुःखी हो जाने से और अतीव सुख और आनन्द मिलता है। सुबह-सुबह किसी का रास्ता काटकर उसे अपना पूरा-का-पूरा दिन सुधरता हुआ नज़र आने लगता है। दुष्ट ऐसा कि अगर किसी के शुभ-प्रस्थान के मौके पर वह उस रास्ते के इतना नजदीक नहीं हुआ कि बिल्ली की तरह सिर्फ पाँच कदम चलने के बाद अगले का रास्ता काट सके तो ऐन मौके पर काफी दूरी से ही अपनी नाक की गुफाओं से उबालकर एक ज़ोर की ‘आँक्छीं’ उधर भेज देगा। ऐसे मौके पर जानबूझकर पठायी गयी उसकी एक छोटी-सी, कृत्तिम छींक भी बहुत बड़ा काम कर जाती है। एक असली गोली की मार।
गोली भी तो दूर ही दागी जाती है। कभी-कभी कभी दूर से। कच्ची सुबह के मौके पर कई घण्टे पहले दागी गयी छींक की वह गोली खास तौर पर उस ऐन मौके पर दिमाग पर हथौड़े बजाने लगती है जब साँस रोककर बन्दूक के घोड़े के हलके-से दबाए जाने से पेश्तर काफी देर से ताके जा रहे शिकार को अचानक कोई भनक लग जाती है और चौकड़ी भरता हुआ आनन फानन में वह नज़रों से ओझल हो उठता है।

दुश्मन को अपने गाँव से काफी दूर जाना होता था। गाँव के बहुत करीब या उससे थोड़ा दूर के इलाके में उसे कुछ खास नहीं मिल सकता। गाँव से काफी दूर, आबादी क्षेत्र से बाहर, खेत के इलाके से बाहर, गाँव के लोगों के घास-लकड़ी के जंगलों और पशुओं के चरान-चुगान के इलाके से भी बाहर। इतना दूर निकल जाने के बाद ही कुछ हाथ लग सकता था। कोई ठीक तरह का शिकार। घने, बन्द-जंगल में पहुँच जाने के बाद। दो मील की खड़ी चढ़ाई चढ़कर उसे रिखागैर पहुँचना था। आपस में कुछ स्थायी फासला छोड़कर एक-दूसरे के आमने-सामने खड़े आकाश को बेंध रहे दो पहाड़ों के बीच कुदरती तौर पर घोड़े की पीठ की तरह दिखाई देने वाली एक सँकरी घाटी, जिसे लोग रिखागैर नाम से जानते हैं। उस सँकरी राह पर खड़े होकर पहाड़ के दोनों ओर के नज़ारे देख लो। दोनों ओर की घाटियों के ऊपर से नीचे तक के नज़ारे। और वहाँ से सिर्फ वही से, उन पहाड़ों की चोटियों को पार किया जा सकता है वहाँ से बाहर से निकला जा सकता है या घर की ओर लौटा जा सकता है। रिखागैर पहुँच जाने के बाद उन दो पहाड़ों के पीछे की ओर उतरा जा सकता है। रात में बिस्तर पर लेटे-लेटे अपनी आंखें बन्द किये वह पहले अपने घर से बाहर निकला। फिर चलते-चलते उसने गाँव के आबाद क्षेत्र को भी पीछे छोड़ दिया। रिखागैर की चढ़ाई के उस बिन्दु पर पहुँच जाने के बाद कहीं और आगे बढ़ने के बजाय वह वहीं पर थम गया था।

अब वहाँ से दूसरी ओर नीचे उतरने की बात थी। उतरने से पहले उसे यह अहम निर्णय लेना था कि वह किस दिशा में आगे बढ़े। बायें हाथ की ओर या दाहिनी दिशा में। किधर को पाँव बढ़ाए ? तोपची को अपने सब काम खूब अच्छी तरह सोच-विचार कर करने होते हैं ? गोली हवा में नहीं चलाई जा सकती। किसी जंगली जानवर को डराकर वहाँ से भगा देने के लिए नहीं चलाई जाती गोली। शिकार को तो पता भी नहीं चलना चाहिए कि उसे निशाना बनाया जा रहा है। कि दिल थामकर, अपने सीने के भीतर उठती-गिरती साँसों को जब्त कर, अपना सब-कुछ भुला कर, बेहद सतर्क नज़रों से कोई उसे ताक रहा है। अपने तन को छुपाकर, उस पर नज़रें गढ़ाए, घात लगाए कहीं दुबका बैठा है।
शिकार के बदन पर दागनी होती है गोली। तन्न से। सीधे बदन पर। और शिकार इस इन्तजार में बैठा नहीं रहता कि आ तोपची। उठा बन्दूक। कर ले अपनी एक आँख को बन्द। अब रोक ले अपनी साँस और धैर्यपूर्वक, ध्यान लगाकर, बन्दूक की नोक को और मेरे शरीर को एक-रूप, एक-बराबरी पर देखते हुए साध ले मुझ पर निशाना। और हाँ ! ठीक, ठीक शाबाश ! अब दाग दे तू गोली। ऐसी फुरसत की तलाश में रहे तो हो चुका शिकार। इधर बन्दूक उठी नहीं कि उधर शिकार नज़रों से ओझल। उसी फुर्ती से गायब जिस फुर्ती से तोपची उस पर गोली दागना चाहता था। कई शिकार तो यों ओझल हो जाते हैं कि यह भी पता नहीं लग पाता कि उस स्थान से हटकर वे आखिर गये तो किस ओर गये। इस वीरान पर्वत पर कोई जादू हो गया भाई ? अभी-अभी तो वह मेरी नज़रों के एकदम सामने था। उस पर ठीक तरह से नज़रें टिकाकर उस पर निशाना, साधने के लिए मैंने बन्दूक हाथों के बीच में टिकाकर सीधी करनी चाही थी। और मेरे पलक मारते ही गायब ? घर से मेरे प्रस्थान से पहले सुबह-सुबह मेरे बैरी ने छींक जो दिया था।

रिखागैर पहुँच जाने के बाद वह वहीं पर थम गया था। स्थिर हो गया था। आगे की राह तय कर पाना उसे कठिन लग रहा था। बाएँ हाथ की ओर चलने पर नीचे घाटी में पहुँचा जा सकता है। वहाँ मरगदना पार करना होगा। आमने-सामने खड़े दो विराट पर्वतों के बीच आदिकाल से सीमा-रेखा का काम करता हुआ, उनके तल पर बहता जा रहा ठण्डे पानी का एक गधेरा। एक मामूली नाला। यह सिर्फ पर्वतों को नहीं बाँटता, दोनों तटों पर रहने वाले गाँवों को, वहाँ की बस्तियों को,पट्टियों को और यहाँ तक उन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की बोलियों, रहन-सहन, वेश-भूसा और उनके दैनिक व्यवहार और सभ्यताओं तक को बाँट देता है। उनके बीच की सीमाओं को निर्धारित करता है। गधेरे को खुद नहीं मालूम कि उसके बहते पानी को पार करने की कोशिश में अपने पाँवों से जानबूझकर वहाँ आकर फिसल जाने वाले या गलती से उसके अन्दर गिर जाने या जबर्दस्ती फेंक दिये जाने वाले अनगित, मर्द औरतों, पशु-पक्षियों के जिन्दा-मुर्दा शरीरों को और बहुत सारी दूसरी चीजों को बहाते रहने के अलावा वह और कितनी महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ निभाता रहता है।

उस दिन सुबह-सुबह पंचम जंगल जा रहा था। सामने के गाँव से, पाली से इस ओर के पूरे नज़ारे दिखाई देते रहते हैं। आमने-सामने बसे हुए दो गाँव हैं पाली और दाली। दोनों के बीच में हरदम मौजूद रहता है मरगदना। एक गवाह भी और जामिन भी। मरगदना के आर-पार एक ओर पाली गाँव की शुरूआत हो जाती है, दूसरी ओर दाली की। दोनों गाँवों से एक दूसरे के घरों की एक-एक चीज, एक-एक आदमी या औरत, बच्चे और यहाँ तक कि कुत्ते और मवेशी भी खूब अच्छी तरह पहचानने में आ जाते हैं। एक गाँव में कोई ज़रा ज़ोर से बोल दे वह आवाज़ सामने बसे दूसरे गाँव में वहाँ के कुल निवासियों को साफ-साफ सुनाई दे जाती है।
अचानक वहाँ घिमतू आ पहुँचा था अपनी राह पर सीधे भाव से चलते जा रहे पंचम के पास बीच रास्ते में खड़ा हो गया घिमतू-बोल ! है कुछ मर्जी ? पीछे-पीछे पंचम की घरवाली भी आ रही थी। वे दोनों वन की ओर जा रहे थे। पंचम कुछ बोल सके उससे पहले घिमतू ने धक्का मारकर पंचम को जमीन पर गिरा दिया। पीछे से पंचम की औरत हल्ला मचाती हुई आगे बढ़ी और अपने पति के पास आकर खड़ी हो गयी। जमीन से उठने की कोशिश में लगे पंचम को घिमतू धमकाने लगा था।

-बेटे ! कछेड़ी में हेरने को भी जाएगा तो यह बात याद रख ले, वहाँ से सही सलामत घर नहीं लौट पाएगा।
घिमतू के खिलाफ चल रहे एक फौजदारी मामले में पंचम का नाम सरकारी गवाहों की सूची में शामिल है। वकील ने उसे कुल गवाहों के नाम गिनाये थे। वकील को कोई सपना थोड़े ही होता है कि मामले में कौन-कौन गवाह होंगे। हमारे गाँव वालों के नाम कचहरी में बैठने वाला वकील कैसे जान सकता है ? वकील को चुपके नहीं हुई थी जानकारी। उसके वकील को बाकायदा अदालत की ओर से कागज दिया गया है, जिस पर गवाहों के नाम दर्ज थे। मामला पिल्ला पटवारी के क्षेत्र का है। उस मामले में पटवारी सिल्ला कुछ नहीं कर सकता। सिल्ला-पिल्ला के दोनों पटवारियों की आपस में कोई अनबन नहीं। दोनों को पुलिस की पावर मिली हैं। थानेदार का रूतबा है दोनों का। लेकिन अपनी-अपनी पट्टियों को दोनों अपने अपने ढंग से सँभालते हैं। पटवारी पिल्ला देवेश्वर जोशी बहुत अच्छी तरह जानता है कि घिमतू सिल्ला पट्टी के पटवारी रुघुवीरसिंह का खास आदमी है। इसलिए उसने घिमतू के खिलाफ एक फौजदारी केस दायर कर दिया है।
इस पार किसी आदमी औरत बच्चे का कत्ल किया गया, चोरी हुई या कि जारी की गई या किसी तरह का कोई गैरकानूनी काम किया गया या चीन से मिलने वाले सीमान्त इलाके की जनता के बीच किसी स्थानीय कम्युनिस्ट कार्यकर्ता ने प्रशासनिक अधिकारियों की मनमानी, नादिरशाही हरकतों के खिलाफ कोई आवाज़ उठाने की जुर्रत कर दी तो पटवारी सिल्ला उसकी तफतीश करेगा। तफतीश के बाद कार्यकर्ता के खिलाफ रिपोर्ट वैसी ही जाएगी जैसी लखनऊ में बैठे मन्त्रीजी भिजवाना चाहते हैं। उसे मामले की असलियत का बयान नहीं करना है, अपनी नौकरी को बचाए रखने की चिन्ता करनी है। और अपने मामले में मुलजिम घिमतू भी निश्चिंत है। उसे पूरा भरोसा है, थोड़े दिनों की परेशानी होगी। लेकिन उसका बाल बाँका नहीं हो सकता। मामले का निपटारा उसके हक में ही होगा। पटवारीजी घिमतू के अपने आदमी हैं। या वह पटवारीजी का खास आदमी है। वह जो कुछ भी करता है पटवारी की मरजी से, उसके (और अपने साझे) फायदे के लिए, उनके आदेश के मुताबिक करता है। और गधेरे के उस पार की घटना है तो पटवारी सिल्ला चाहते हुए भी अपने परम प्रिय पात्र घिमतू की रक्षा नहीं कर पाएगा। मामला पटवारी पिल्ला के क्षेत्र का है। तफतीश वही करेगा। मुलजिम को बाँधकर सीधे जेल के भीतर पहुँचाए जाने के लिए पटवारी का चपरासी सुबह-सुबह हथकड़ियाँ और रस्सी लेकर घिमतू के घर के आँगन में आकर खड़ा हो गया है।

मरगदना-मरा हुआ नाला। लेकिन इस नाम से किसी को कोई मुग़ाल़ता नहीं होना चाहिए। वैसा एकदम मरा हुआ, मृतप्राय नहीं है मरगदना जैसा कि उसके नाम से जाहिर होता है। मर का मतलब मरा हुआ नहीं है, मारक है। मारने वाला। अपार शक्ति का धारक। परम शक्तिशाली है मरगदना। सभी प्रकार की शक्तियों का स्त्रोत। सबकी शक्तियों का उद्गम मरगदना से होता है। सबको शक्ति उसे देखकर प्राप्त होती है। मरगदना सिर्फ जमीन पर नहीं बहता, सरकारी कागजात में, आलमारियों में बन्द कर दिए गये नक्शों के भीतर भी बहता रहता है। कागज को फैलाते ही, नक्शे को खोलते ही देखने के जरूरतमन्द लोगों को दिखाई दे जाता है मरगदना। आगे की बातें उसे देख लेने के बाद शुरू हो पाती हैं। मरगदना बताता है कौन इस ओर का हाकिम, कौन उस ओर का। कोई संशय की बात नहीं। कोई तरकरार हो ही नहीं सकती। मरगदना बीच में बह रहा है तो जंगलों की सीमाएँ धरती पर मजबूती से गड़ी हुई हैं। सीमा को निर्धारित करने के लिए वहाँ अलग से कोई सीमा-पत्थर लगाने की ज़रूरत नहीं सरकारी कागजात में हर गाँव के वन सम्बन्धी हकूक, आज़ादी से भी पहले से, राजाओं के जमाने से ही पूर्व निर्धारित हैं। सरकारी कागजात में मरगदना के इस ओर और मरगदना के उस ओर रहने वालों के जंगल बँटे हुए हैं। उनके घास के रकबे, काश्त की लकड़ी के क्षेत्र, पठालखानें, माटाखानें सब कुछ अलग-अलग दर्ज हैं। किस गाँव के लोग कहाँ-कहाँ तक, लम्बाई-चौड़ाई में कहाँ से कहाँ तक घास-लकड़ी काटने, अपने मवेशियों से चरान-चुगान करवाने के कानूनी तौर पर हकदार हैं, किस वन से सम्बन्धित अधिकारों से लैस हैं-इस बात के लिए किसी और से पूछने की ज़रूरत नहीं पड़ती। फैले हुए नक्शे पर बहता हुआ मरगदना सब कुछ बता देता है।
मरगदना को पार कर लेने के बाद सामने की चोटी तक की चढ़ाई चढ़नी होती है। कुछ ऊँचाई पर पहुँचने के बाद ही अपनी डार से बिछड़ जाने वाले, अकेले छूट जाने वाले किसी घोल्ड1 की तलाश की जा सकती है। एक ऐसा घोल्ड जिस पर शिकारी बेधड़क होकर गोली दाग सकता है। डार में रहने वाले, साथियों के साथ शामिल होकर चलने, मौजूद रहने वाले घोल्ड पर गोली नहीं दागी जा सकती। पहाड़ों के उन शिखरों में डार पर गोली चलाना शिकारियों के सर्वमान्य परम्परागत कायदे के खिलाफ होता है। डार पर गोली चलाओगे। तो बन्दूक रूठ
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1. हिरन
जाएगी। हमेशा-हमेशा के लिए रूठ जाएगी। तुम्हारी अपनी बन्दूक हो जाएगी तुम्हारे खिलाफ। बन्दूक ही रूठ गयी तो और कौन सहारा दे सकता है ? तब किस बात के तोपची ? बन्दूक का रूठ जाना तोपची के लिए सबसे बुरी सज़ा है। मौत जैसी सज़ा।

बन्दूक के भी अपने कायदे होते हैं। बन्दूक की सहायता से अपना काम सिद्ध करना चाहते हो तो कायदों को पूरी तरह मानते रहना पड़ेगा। हर मौके पर उनकी रक्षा करना होगी। तोपची की मजाल नहीं कि घोल्ड़ों की डार पर गोली दाग सके या किसी ऐसे घोल्ड पर गोली दाग सके जो अपनी डार में, बाकायदा अपनी जमात में शामिल है। डार से अलग होकर रहना किसे पसन्द होता है ? जुदा कौन होता है ? डार से जुदा वही होता है जिसकी औरों से ज्यादा, बहुत ज्यादा खाने की चाह हो। जो दूसरों को चरते न देख सकता हो। जो चर-चर कर अकेले ही मोटाना चाहता हो। जिसकी अकेले ही अकेले चरते रहने की मंशा हो। वह बिलग जाता है डार से। या वह छिटक पड़ता है जो अपने मद में चूर हो कर औरों को हिकारत की नज़रों से देखने लगता है। जो औरों की, अपने चारों ओर फैले हुए समाज में, अपने जैसों की, रत्ती भर परवाह नहीं करता।

रिखागैर से बायें हाथ की ओर जाने के बजाय अगर दाहिने हाथ की ओर चला जाय तो पहाड़ी बटिया पर चलने वाला कुछ ही दूर के बाद एक विकट, अगम्य इलाके में पहुँच जाता है, जहाँ कहीं-कहीं इक्के-दुक्के पेड़ खड़े मिलते हैं। बस, और कुछ नहीं। आपस में खूब-खूब दूरी पर खड़े उन अकेले-अकेले पेड़ों के अलावा पेड़ों के अलावा और कहीं कोई हरियाली नहीं। कोई छाँह देने वाली वन्सपति नहीं। वे पेड़ भी लगता है, डार से बिछड़े हुए हिरन हैं जो दूसरों की कोई परवाह नहीं करते। अपनी जमात की ओर से मिलने वाली सुरक्षा को वे ठेंगा बताते रहते हैं। घना जंगल ना जाने कहाँ गायब हो गया है। पहाड़ के ढलानों पर खडे उन पेड़ों के अलावा वहाँ चट्टानें दिखाई देती हैं। चट्टानें ही चट्टानें। दुर्गम। भयानक, अगम्य ढंगारों के सीने पर अटकी हुई विकट चट्टाने। सदियों से, सहस्त्राब्दियों से आसमान से सीधी, तीखी, गर्म किरणों के गोलों की मार झेलती आई काली, चिकनी चट्टानें। मनुष्यों के लिए, मनुष्यों के बीच के शिकारियों के लिए जो उस ओर जा पहुँचते हैं, वे फिसलन-भरी होती हैं। किसी शिकार का पीछा करते समय उन पर चढ़ने की कोशिश में शिकारी अचानक उन पर अपना पाँव रखे तो वह यों फिसलेगा कि उसकी देह ढंगार में लुढ़कती हुई नीचे की ओर कहीं दूर जा गिरेगी। और हिरन हैं कि उनके खुरों पर चट्टानों की फिसलन का कोई असर ही नहीं होता। हिरनों की डार उनके ऊपर भी आसानी से कुलाँचें भरती रहती हैं। आदमी पर नज़र पड़ते ही, शिकारी को देखते ही कुलाँचें भरने लगते हैं हिरन। एक चट्टान से दूसरी चट्टान। ऐसे कि जैसे वे किसी एकदम समतल जमीन पर घास के ऊपर दौड़ रहे हों। उन विकट चट्टानों पर उस आसानी से चढ़ पाना किसी शिकारी के वश का नहीं रह जाता।

अपने बिस्तर पर लेटा हुआ दुश्मन सोचता ही रह गया। अपने दिमाग में अपने घर से रिखागैर तक ही राह आसानी से पार कर ली। सार्वजनिक बटिया। लेकिन रिखागैर पहुँच जाने के बाद कहीं आगे की ओर नहीं बढ़ सका। न दायें। न बायें किसी भी ओर नहीं। किसी निर्णय पर पहुँच पाना उसके लिए बहुत कठिन हो उठा। आखिर में उसने सोचना बन्द कर दिया और नींद लाने की कोशिश करने लगा। इस वक़्त मुझे सो जाना चाहिए। सुबह जल्दी उठना पड़ेगा। और गाँव के किसी भी आदमी-औरत के जागने से पहले, किसी और के दिशा-फिराकत के लिए गाँव की बटिया पर पहुँचने से भी पेशतर बस्ती से बाहर निकल जाना चाहिए। नहीं तो सुबह-सुबह पता नहीं किस भले या मनहूस आदमी या औरत की शक्ल सामने दिखाई दे जाय। बैरी के अलावा। इस वक़्त जल्दी नहीं सो पाया तो नींद पूरी नहीं होगी और जंगल में पहुँच जाने पर आँखें दर्द करने लगेंगी।

वहाँ, जगंल में आकाश में घूम रहे सूरज के सिर के ऊपर सरक आने के बाद पथरीले इलाके में धूप चमकने लगेगी तो उनींदी आँखें दर्द के कारण ठीक तरह से काम नहीं कर पाएँगी। शिकार के मामले में सबसे महत्त्वपूर्ण काम तो अन्त में उन्हीं के भरोसे छोड़ देना होता है। ऐन मौके पर निशाना तो आँखों को ही साधना होता है। आखीर के निर्णायक क्षणों में तोपची की आँख और तर्जनी इन्हीं दोनों को काम अंजान देना होता है। तर्जनी, जिसके अन्दर बातचीत में बाकी झुकी हुई उँगलियों के बीच से फौरन अलग होकर और खुद जरा-सा उठकर कोई महत्त्वपूर्ण, लाचार या लाजवाब कर देने वाला, भय पैदा कर देने वाला प्रश्न खड़ा कर देने को सामर्थ्य भरी होती है इहँ कुम्हड़ बतिया केऊ नाहीं/जे तर्जनि देखि डरि जाहीं। तर्जनी हलके से दबाती है उतनी बड़ी बन्दूक के उस छोटे से घोड़े को, जिसके दबते ही गोली कहीं बेहद दूर पर मौजूद अपने शिकार के बदन के आर-पार हो जाती है। घोड़े को, जिसके दबते ही गोली कहीं बेहद दूरी पर मौजूद अपने शिकार के बदन के आर-पार हो जाती है। घोड़े को धीरे से दबाने वाली, अपनी जमात से विलगी, ए छोटी-सी उँगली। शिकारी के हाथ की बाकी उँगलियों के साथ उसके फिर से शामिल होने से पेश्तर गोली की मार हो चुकी होती है। अकबका जाने वाला शिकार घायल हो कर जमीन पर छटपटाने और दम तोड़ने लगता है।

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