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सुबह होने से पहले

घनश्याम रंजन

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4949
आईएसबीएन :81-7043-521-8

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इस कहानी संग्रह में धनश्याम रंजन ने लेखक के सामाजिक सरोकार को अपनी कहानियों के पात्रों के चरित्रों के माध्यम से मुखर किया है।

Subah Hone Se Pahle

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


इस कहानी संग्रह में धनश्याम रंजन ने लेखक के सामाजिक सरोकार को अपनी कहानियों के पात्रों के चरित्रों के माध्यम से मुखर किया है। पात्र कैसी सामाजिक स्थितियों और परिस्थितियों से गुजरते हैं इसका वर्णन उन्होंने लेखकीय कथन के रूप में नहीं किया है, वरन् वह पात्रों के क्रिया-कलाप एवं संवाद के माध्यम से उभरे हैं। कहानियों में पात्र अपनी नियति स्वयं तलाशते हैं। वे पात्र कहीं व्यवस्था पर व्यंग्य करते हैं तो कभी अपनी परिस्थिति से लड़ते हुए सामाजिक विद्रूपता को नंगा करते हैं। आदमी का स्वार्थ उसकी वैचारिक प्रतिबद्धता को कैसे झटककर अलग कर सकता है, यह भी यहाँ देखने को मिल जाएगा। औरतों की मानसिकता, मजबूरियाँ और जिजीविषा भी। ये कहानियाँ मात्र मनोरंजन ही नहीं करतीं, परिवेश विशेष की चित्रकारी भी करती हैं। मनोवैज्ञानिक प्रभाव छोड़ती हैं। पाठक को झिंझोड़ती भी हैं और गले भी लगाती हैं। यह कहानी संग्रह घनश्याम रंजन के अनुभवों और उनकी सोच की ओर भी इशारा करता है। भाषा न बोझिल है, न क्लिष्ट। वह पात्रों के हाथ में हाथ डाले चलती रहती है, निःसंकोच।

क्या है, क्या नहीं है

मेरा पहला कहानी संग्रह आपके हाथों में है। सभी कहानियाँ पत्र-पत्रिकाओं में छप चुकी हैं। इसे पूर्वाग्रह के साथ न देखें। कहानी ने बहुत से रास्ते तय किए हैं। इस पर कितने प्रभाव पड़े हैं। इसने हर प्रभाव को झेलते हुए परिवर्तनों को स्वीकारा है। और फिर भी कहानी बनी हुई है शिल्प की दृष्टि से चाहे जितना कहानी डिस्टार्टेड ढंग से लिखी जाए, पर उसमें ‘कोई बात’ का होना आवश्यक है। कहानी के माध्यम से हम जो कुछ कह देना चाहते हैं, या जो कुछ विचार व्यक्त कर देना चाहते हैं, उसे मैं बात के अर्थ में लेता हूँ। वास्तव में कोई बात ऐसी होती है जो कहानीकार को छू जाती है, या उसके विचारों को धकियाती है, या उसको हांट करती है, जिसकी प्रतिक्रिया स्वरूप वह कहानी लिखता है। और अपने विचारों को प्रतिपादिकर करने का माध्यम बनाता है। कहानी लिखने के दौरान अक्सर उसके सामने यह बात स्पष्ट रूप में नहीं होती कि वह क्या प्रतिपादित करना चाहता है, और कैसे करना चाहता है। मगर सूक्ष्म रूप से वह उसके अर्ध चेतन मन में होती अवश्य है। किन्तु उसकी कोई तरतीब नहीं होती। लिखते समय स्वयं क्रम बनता जाता है। कुछ कहानीकार इस प्रकार की कहानी को बिना प्लॉट की कहानी बताते हैं। यह भी उसी तरह की बात है, जैसे लोग ‘एब्स्ट्रेक्ट पेंटिंग’ की बात करते हैं। कोई भी चित्र एब्स्ट्रेक्ट नहीं होता है। और कहानीकार के दिमाग में किसी कहानी के लिए कच्चा माल बिखरा बिखरा मौजूद होता है।
मैं कहानी को केवल कहानी मानता हूँ। उसमें दृष्टिबोध भी होता है, परिवेश विशेष भी होता है, समय भी होता है। परिस्थितियों का दबाव और उससे उत्पन्न उत्तेजना भी होती है। पात्रों के स्वभाव और चरित्र भी होते हैं। ये स्वभाव और चरित्र काल्पनिक न होकर सामाजिक व्यक्तियों के जीवित स्वभाव और चरित्र होते हैं। पर समय कहानी को जीवित रखता है। आप देखिए, मेरी इन कहानियों में क्या है, क्या नहीं है।
-घनश्याम रंजन

घनश्याम रंजन की कहानियाँ यद्यपि आकार में छोटी हैं, मगर इनमें ज़िंदगी के ज्वलंत मुद्दों को खूब उठाया गया है। गोया कि हर कहानी में कोई न कोई बात है। ये कहानियाँ उनकी पिछले चार दशकों की कठिन कमाई हैं। निश्चित तौर पर, इनमें समयानुसार उनकी भाषा-शैली एवं शिल्प बदलता ही नहीं रहा, निखरता-संवरता भी रहा है। रंजन भाई खुद चित्रकार भी हैं, इसीलिए उनकी कथा-रचनाओं में जीवन की सही तस्वीरकशी हो पाई है।
-रामसरूप अणखी

खिड़की के बाहर की ज़िन्दगी

मैं रोज देखता हूँ। हमेशा देखता हूँ। आज भी देख रहा हूँ। मेरी खिड़की चौपट खुली है। सिमटे हुए इसके पर्दे चौखट के समानान्तर लटक रहे हैं। ठण्डी-ठण्डी हवा का झोका जब आता है तो सिमटा हुआ पर्दा हरकत करने लगता है, और उस हवा का स्पर्श मुझे बड़ा भला लगता है। मगर क्षण-क्षण में हवा का झोका आ रहा है, जिससे उस ओर मेरा ध्यान नहीं है। मैं खिड़की के बाहर देख रहा हूँ। सामने दो बिल्डिंग दिखाई पड़ रही हैं ! एक पूरी और एक आधी। दोनों ही एक मंजली हैं। बाईं तरफ वाली बिल्डिंग में कई दरवाजे हैं, मगर केवल दो ही दरवाजे खुले हैं। एक, एक कोने का, एक दूसरे कोने का। मेरी निगाह इधर-उधर घूमकर एक दरवाजे पर पहुँच जाती है। उस दरवाजे में कोई विशेषता नहीं है। न ही वहाँ खड़ा कोई किसी की प्रतीक्षा कर रहा है। देहलीज सूनी पड़ी है। दूसरे दरवाजे के सामने तीन-चार मोटरें और ट्रकें खड़ी हैं। सभी खराब हैं। यहाँ इनकी मरम्मत की जाएगी। कुछ लोग एक कार को चमकाने में लगे हैं। कार के नीचे कीचड़ फैली हा, काली गन्दी कीचड़। पर मेरी निगाह वहाँ भी नहीं ठहरती है। सड़क पर आने-जाने वाली भीड़ पर पहुँच जाती है। एक ओर से मोटर रिक्शे और साइकिलें आ रही हैं, दूसरी ओर से भी यही सब हैं। कहीं से कोई कुत्ते का पिल्ला उस सड़क की भीड़ में आकर फँस गया है। रिक्शे वाला धत्-धत् करके उसे भगा रहा है। उधर से वह दूसरी ओर हटता है, साइकिल वाला भी धत्-धत् करके ठीक उसके करीब से अपनी साइकिल निकाल ले गया है। पिल्ला घबरा कर पीछे लौट रहा है, मगर दूसरी साइकिल ने उसे रोक दिया है। वह दूसरी तरफ भागना चाहता है, पर ताँगे में जुते घोड़े की टाप की आवाज और ताँगे वाले की धिक्कार से सहम गया है।
मैं सोच रहा हूँ, इस भीड़ में वह जरूर कुचल जाएगा। मर जाएगा। और मेरे सामने सड़क पर कुचला पड़ा कुत्ते का शरीर दिखाई पड़ने लगा है, जिससे बचकर, नाक-भौं सिकोड़ते हुए लोग, आ-जा रहे हैं। मक्खियाँ भिनभिनाने लगी हैं। मगर उस कुत्ते का कुचला हुआ घिनौना जिस्म सड़क पर पड़ा है। किसी ने भी टेलीफोन करके मुर्दा उठाने वाली गाड़ी को नहीं बुलाया है। फिर मैं झट काल्पनिक जगत से यथार्थ की पक्की सड़क पर आ गया हूँ। कुत्ते का पिल्ला मरा नहीं है। शायद अभी उसे और जीना है। एक रिक्शे का पिछला पहिया उसकी टाँग पर चढ़ गया है। वह पें-पें करके चिल्लाया है और फिर बेतहाशा पटरी की ओर भाग खड़ा हुआ है। एक साइकिल वाला उसे बचाने के प्रयत्न में खुद गिर पड़ा है। लोग हँसने लगे हैं। साइकिल वाला जल्दी से साइकिल पर चढ़कर कुत्ते के पिल्ले को घूरता हुआ चला गया है। और वह पिल्ला अभी भी पें-पें करता करता एक ट्रक के नीचे खड़ा हुआ अपनी टाँग झटकार रहा है। कुछ बच्चे उसे देख-देख कर तालियाँ पीटने लगे हैं। उन्हें मज़ा आ रहा है।

मेरी निगाह लौट कर खिड़की के पर्दे पर आ गई है। आज पर्दा कुछ गन्दा लग रहा है। मैंने सोचा कल इसे लांड्री में भिजवा दूँगा। दूसरा पर्दा जो उस दिन छींट के एक कपड़े को फाड़कर बनवाया था, यहाँ लगा दूँगा। उसकी छींट बड़ी दिलकश है। जिस वक्त वह कपड़ा खरीदा था दुकानदार से बड़ी झिकझिक करनी पड़ी थी। बड़ी मुश्किल से उसने चार आने यह कहकर छोड़े थे, ‘‘अच्छा जी, यह पैसे और कभी किसी सौदे से वसूल लेंगे।’’
‘‘हाँ-हाँ, वसूल लेना ! मैंने कहा था।
मेरी खिड़की में जंगले नहीं लगे हैं। एक चौकोर-सा हिस्सा सलोतर खुला हुआ है। सारी चीजें उसमें से सालिम दिखाई पड़ती हैं। आँखों के आगे कोई रुकावट नहीं पड़ती। सड़क के बिल्कुल नज़दीक होने के कारण शोरगुल खूब सुनाई पड़ता है। इस शोरगुल का एक कारण और है। वह दूसरी बिल्डिंग, जिसका आधा भाग मुझे दिखाई पड़ रहा है, उस आधे भाग में उसका बड़ा सा फाटक भी है। उस फाटक के आगे कितने ही रिक्शे खड़े हैं। हालांकि यहाँ रिक्शे खड़े करने की अनुमति नहीं है क्योंकि रिक्शा अड्डा सड़क पर दूसरी जगह है। तिराहे के पास। मगर फिर भी यहाँ रिक्शे खड़े होते हैं, खोंचे वाले बैठते हैं। क्योंकि उस बिल्डिंग में ताड़ीखाना है। इस ताड़ीखाने को बन्द करवाने के लिए कई संस्थाएँ एड़ी से चोटी का जोर लगा चुकी हैं, मगर ज्यों का त्यों कायम है। यहाँ आए दिन सिर फुटव्वल होती है। पुलिसवाले डण्डे बरसाते हैं। सुबह से शाम तक यहाँ गहमा-गहमी बनी रहती है, इसी से सड़क पर और भीड़ हो जाती है तभी मुझे नीचे स्त्री कंठ कई बार सुनाई दिया तो माजरा देखने को आँखें बेचैन हो गई हैं। वैसे नित्य ही पियक्कड़ों के नजारे देखने को मिलते हैं, बेसुरी अलापें सुनने को मिलती हैं। और बातें ऐसी-ऐसी कि क्या कोई गजेटेड ऑफिसर करेगा। तो, मैंने खिड़की से झाँककर देखा। एक औरत कुज्जे में ताड़ी करके चार-पाँच साल के बच्चे को पिला रही है। फिर वही कुज्जा खुद होंठों से लगाकर खाली कर गई है। एक आदमी, जो उम्र में उस औरत से काफी बड़ा है, पतला-दुबला, बीमार-सा, पत्ते पर मटर रखे खा रहा है। शायद वह पहले ही पी चुका है। औरत ने भी मटर खाया, उस बच्चे को भी दिया है। फिर मुँह बनाते हुए उसने उस आदमी से आँखों ही आँखों में कुछ कहा है और कुज्जा वहीं पर पटक कर फोड़ दिया है। आदमी दब्बू-सा बना सिकुड़ा बैठा है। इधर-उधर भी उसने नहीं देखा।
इस औरत को मैंने इस आदमी के साथ कई बार इसी तरह पीते-खाते देखा है। और जब-जब पीते-खाते देखा है, अर्थशास्त्र का सिद्धान्त याद आ गया है। गरीबों के मनोरंजन के साधन याद आ गए हैं। मैं उस बच्चे और औरत को घूरने लग गया हूँ। सोचने लग गया हूँ यह बच्चा अभी से नसेड़ी हो गया है। नशा कराना यह खुद सिखाते हैं, और फिर दोष देते हैं अपनी तकदीर को, अपनी किस्मत को।

मेरी निगाह इधर से उठकर फिर उसी दरवाजे पर चली गई है, जिसकी देहलीज सूनी पड़ी है। और वहाँ से हटकर उस कार पर जिसको कुछ लोग कपड़े से रगड़कर चमका रहे हैं। पर वहाँ भी वह ज्यादा देर नहीं टिकी है। सड़क की भीड़ देखने लगी है। रिक्शे-ताँगों का आना-जाना देखती रही है। साइकिलों का बड़े वाले फाटक के पास रुकना चलना देखती रही है। फिर एक साइकिल पर जम गई है। खोंचे वाले और कुछ आवारा से लोग भी उधर देखने और आपस में हँसी-मजाक करने लग गए हैं। पीछे कैरियर से एक दुबली सी औरत उतरी है और काले से भारी देह वाले आदमी ने साइकिल की निगरानी करने को कहा है उससे, और खुद झट से बड़े फाटक के भीतर चला गया है। औरत झिझकती-सी साइकिल के करीब खड़ी है और अपने एक हाथ से पेट दबाने लगी है। मुझे स्पष्ट दिखाई दे रहा है, उसके चेहरे पर वेदना की रेखाएँ हैं, शायद उसका पेट दुख रहा है। और पेट दुखने का विचार आते ही मैं उसके पेट की ऊँचान नापने लग गया हूँ। मगर नहीं, उसका पेट उठा-उठा सा नहीं है। जरूर ही उसका पेट खराब है, तभी दर्द कर रहा है। वह औरत आसपास के लोगों की छींटाकसी सुन रही है, मगर नीची निगाह किए चुपचाप खड़ी है। और जब वह आदमी भीतर से आ गया तो उसने सहमी नजर से उसके बहशी रूप को देखा है और हारी सी फिर कैरियर पर बैठ गई है। वह शायद उसका घरवाला है, और आज उसकी छुट्टी है। आज सभी की छुट्टी है। क्योंकि आज इतवार है। और आज की रात...शायद इसीलिए उस बीमार-सी औरत ने अपने बहशी से तगड़े पति को सहमी-सहमी निगाहों से देखा था और हारी सी भारी मन से कैरियर पर बैठ गई थी।
अब वह काफी दूर चली गई है। खिड़की में से दिखाई नहीं पड़ रही है। लेकिन उसका डरा-डरा सा व्यक्तित्व इतनी भीड़ में भी उभरा आ रहा है। उसके व्यक्तित्व ने पहले वाली औरत के व्यक्तित्व को भी ढाँप लिया है। उसे बच्चे और कुत्ते के पिल्ले के व्यक्तित्व को भी उसने धुँधला दिया है।
मैं खिड़की के पास कुर्सी पर बैठा सब कुछ देख रहा हूँ। एक लम्बी-सी कार जमीन से चिपकी हुई निकली है। उस पर कुछ पुरुष और कुछ औरतें बैठी ठहाका लगा रही हैं। ड्राइव एक नाजुक सी युवती कर रही है। उनकी दुनिया कुछ और ही तरह की है।
भट्-भट्-भट्-भट् भठ !
एक लम्ब्रैटा चलते-चलते फेल हो गया है। चालक उसकी ऐसी हालत पर इधर-उधर देखता हुआ उतरा है और उसने पेट्रोल की टंकी का ढक्कन खोलकर देखा है। फिर कुछ सोचने लगा है। उसके साथ उसकी बीवी भी है। खूब सजी-धजी। मोटर चमकाते-चमकाते वे लोग लम्ब्रैटा की ऐसी हालत देखकर आँखों ही आँखों में मुस्कराने लगे हैं। जेंटलमैन चालक ने जब देखा कि ठीक करना उसके बस की बात नहीं, तो सहायता के लिए इधर-उधर निहारने लगा है। आसपास के लोग लम्ब्रैटा को कम और उसकी पत्नी को ज्यादा देख रहे हैं। वह बेचारी बड़ी हास्यास्पद स्थिति में सकुचाई हुई झेंपी-झेंपी खड़ी है। मदद करने वाले कम और तमाशबीन ज्यादा लोग इकट्ठे हो गए हैं....उस मोटर को चमकने वाले भी इधर ही चले आए हैं। इधर-उधर लम्ब्रैटा को झटकारने के बाद उन्होंने कुछ तै किया है। और कुछ देर के बाद भट्-भट् भट्-भट् करके वह ठीक हो गया है। औरत की जान में जान आई है। और वह जेंटलमैन चालक दूसरों की निगाह अपनी पत्नी पर पड़ती देखकर मन ही मन जो घुट रहा था, उसे भी लगा कि अब घुटन की चादर फट गई है और ताजी शीतल हवा में वह साँस ले सकेगा। फिर पत्नी को जल्दी से बैठाकर वह फौरन ही भट्-भट् करता हुआ निकल गया है। भीड़ के लोग आपस में मखौल करते हुए धुएँ की तरह छितरा गए हैं।

मेरी निगाहें खिड़की के बाहर देखते-देखते जैसे ऊब कर कमरे के भीतर देखने लगी हैं। मेज पर किताबें और पत्र बिखरे पड़े हैं। दावात खाली रखी है और कलम में स्याही खत्म हो गई है। रेडियो खटर-खटर कर रहा है। शायद अब बन्द हो गया है। शायद रेडियों का समय समाप्त हो गया है। उससे प्रसारित होने वाले गीतों और समाचारों की ओर मेरा ध्यान आज नहीं लग सका !...खिड़की का चौकोर हिस्सा सलोतर खुला हुआ है। सारी चीजें उसमें से सालिम दिखाई पड़ती हैं। सामने वाली बिल्डिंग की सूनी-सूनी देहलीज...मोटर-ट्रकें..वह कार जो चमकाई जा रही है...उसके नीचे फैली, काली गन्दी कीचड़...और सड़क की भीड़...लड़ते-झगड़ते लोग..और रिक्शे-ताँगे...और..और बहुत सी चीजें।...

इम्प्रेशन

जिस दिन अफरोजजहाँ इण्टरव्यू देकर बाहर निकली थी तो उसके चेहरे पर कोई खुशी नहीं थी। उसका दिल भीतर ही भीतर बैठा जा रहा था वह तो बिलकुल निराश हो गई थी।
इण्टरव्यू में कितनी बड़ी-बड़ी पर्सनालिटीज आई थीं। कई लड़कों के नम्बर उससे ज्यादा थे। लड़कियों में एक वह थी बंगालिन, मिस घोष, बड़ी इठला-इठलाकर बातें करती थी। एक मिस सब्बरवाल थी, सूरत चाहे ऐसी ही थी मगर पोज़ करती थी कि उसे नौकरी की आवश्यकता नहीं है, ऐसे ही चली आई है। यहाँ के निदेशक उसके भाई के परिचित हैं। उन्होंने ही इन्सिस्ट किया है...और, एक और हसीन सी लड़की आई थी। उसके पाउडर की खुशबू लेने के लिए लड़के बिना बात के उससे बातें करने का यत्न कर रहे थे। और वह रह-रहकर अपने निचले होंठ दाँतों से काट-काट रही थी-अपनी जीभ लपलपा रही थी। और सबको यकीन था कि इस हसीना का ही सेलेक्शन होगा। उसने उस बंगालिन से फुसफुसाकर बताया था कि यहाँ अप्लाई करने के बाद ही उसने पउआ भिड़ा दिया था। पूरा एक किलो का।
और ऐसे में पउवेबाज लड़कों की भी हालत खस्ता हो गई थी। सभी की जबान पर मिस सब्बरवाल और उस हसीन लड़की का नाम बार-बार उभर रहा था। और फेयर सेक्स को नौकरियों में जो प्राथमिकता दी जा रही है, उससे सब हताश हो रहे थे। फिर अफरोजजहाँ ने अपनी ओर देखा, सीधी-सादी धोती पहने और एक चोटी किए, वह मात्र घरेलू स्त्री की तरह इण्टरव्यू में आई थी। शायद इसीलिए निदेशक ने उससे पूछा था : ‘‘अच्छा, मिस अफरोज जहाँ, यह बताइए कि आपके रिसोर्सेस कहाँ-कहाँ हैं ?’’
और उस वक्त वह घबरा गई थी। ‘रिसोर्सेस’ के अर्थ उसकी समझ में नहीं आए थे। वह खामोशी से निदेशक की ओर देख कर नीचे देखने लगी थी। इण्टरव्यू में आने से पूर्व उसने जुगराफिया के पन्ने पलटे थे, कितने ही मुल्कों की राजधानियों के नाम याद किए थे, कामराज योजना पर लेख पढ़े थे, राष्ट्रीय गान की पक्तियाँ कई-कई बार लिखकर याद की थीं। मगर...मगर उस वक्त खामोशी थी।
निदेशक ने फिर पूछा, ‘‘आपके वाकिफकार किस-किस पोस्ट पर हैं ?’’
वह कुछ क्षण चुप रही। उसकी समझ में नहीं आया कि क्या जवाब दे। बता दे कि...लेकिन उसके मुँह से निकल गया, ‘‘कहीं नहीं हैं।’’
और फिर उसने अपनी गर्दन नीचे झुका ली।
‘‘अच्छा...नेक्स्ट !’’
वह जब बाहर आयी तो नाउम्मीदी उसका पल्ला पकड़कर खींच रही थी। सब लड़कियाँ उसे घेरकर पूछने लगी थीं, ‘‘क्या पूछा ?...क्या पूछा..बस इतना ही पूछा ?...यह भी कोई इण्टरव्यू हुआ ?...’’
और सब अपने अपने पउवे का वजन तौलने लगी थीं।

अफरोजजहाँ उस दफ्तर की आलीशान बिल्डिंग को देखने लगी थी। उसके लॉन में खिले फूल और हरी-हरी मखमली घास की फर्श को देख रही थी। सीमेण्ट के पक्के रास्ते पर अपनी चप्पल आहिस्ता-आहिस्ता फिसला रही थी। और सोच रही थी-अगर यहाँ नौकरी मिल जाती तो कितना अच्छा होता ! यहाँ की सब चीजें टिपटॉप हैं। कलात्मक ढंग की सजावट है। तबीयत तरोताजा बन जाती है। और दफ्तरों की तरह इसमें गन्दगी और भिंचा-भिंचा सा वातावरण कहीं भी नजर नहीं आता है।..कितना अच्छा होता अगर मैं कह देती कि मेरे रिसोर्सेज हैं। मन्त्री का पी.ए. मेरे मामू का लड़का है। कलचरर अफेयर्स मैं मेरे खालू जात भाई हैं। और...मैंने क्यों नहीं कह दिया...क्यों नहीं कह दिया यह सब। बता देती तो शायद कुछ रोब पड़ जाता, इम्प्रेशन पड़ जाता। शायद रिफ्रेन्सेज़ के लिए पूछा हो। शायद किसी और मतलब के लिए पूछा हो, शायद स्टेटस जानने के वास्ते पूछा हो, शायद...शायद...
और उसका सिर चकराने लगा। उसका सिर चकराने लगा तो उसके घर की परिस्थितियों ने भी उसके सामने आकर जमघट लगा लिया।
वह हौले-हौले बढ़कर पोर्टिको के गोल खम्भे से सटकर खड़ी हो गई। मोजिज के पलस्तर का खम्भा उसे काफी ठण्डा-ठण्डा सा महसूस होने लगा। ठण्डा-ठण्डा खम्भा उसे बहुत अच्छा लगने लगा। उसने अपने हाथ उस खम्भे पर धीरे-धीरे फेरने शुरू कर दिए। थोड़ी देर तक वह उसी तरह हाथ फेरती रही। फिर चौंक कर उसने हाथ ऐसे हटा लिए जैसे किसी बिच्छू ने डंक मार दिया हो, जैसे उस चिकने-ठण्डे खम्भे पर कोई नुकीली काँच की कनी उसकी उँगलियों में आ गई हो। और वह अपने चारों ओर देखने लगी कि किसी ने उसे खम्भे पर इस तरह हाथ फेरते हुए देख तो नहीं लिया है। और सचमुच दो-तीन लड़के उसकी तरफ देखकर मुस्करा रहे थे।
वह झेंप गई।
वह थोड़ी देर वैसे ही खम्भे की शीतलता को खड़ी सोखती रही। फिर कुछ सोचती-सी सीमेण्ट वाले रास्ते से होती हुई सड़क पर आ गई। सड़क पर आते ही उसकी तबीयत हुई कि एक बार जी भर कर इस दफ्तर की बिल्डिंग को देख ले। मगर उसके दिल के किसी कोने में से कोई बोला-क्या फायदा ! जब नौकरी ही नहीं मिलेगी तो बिल्डिंग देख कर क्या करेगी।
और वह बिना बिल्डिंग की तरफ देख जल्दी से एक रिक्शा बुलाकर उस पर बैठ गई। थी।
धूप तेज हो गई थी।
उस दिन फिर वह रिक्शे से उसी दफ्तर के फाटक पर उतरी। रिक्शेवाले को पैसे देने से पहले उस दफ्तर की बिल्डिंग को आँख भर कर देखा। देखती रही। फिर सीमेण्ट वाले रास्ते पर आ गई। उसकी चाल में भारीपन नहीं था। उसका दिल बैठा-बैठा नहीं था। उसके चेहरे पर प्रसन्नता खेल रही थी। उसके दिल से नाउम्मीदी वाली बात एकदम काफूर हो गई थी। और वह उड़ी-उड़ी सी पोर्टिको के गोल मोज़ेकी खम्भे के पास से निकल गई। खम्भे के पास आने पर उसके जी में आया कि एक क्षण रुककर उसकी शीतलता को अपने जिस्म में खोज ले, मगर उसके हाथ की अँगुलियों ने भी उस मोज़ेकी ठण्डे-ठण्डे, चिकने-चिकने खम्भे को नहीं छुआ। भीतर के गेट पर खड़े दरबान की तरफ भी उसने, हल्की उचटती-उचटती सी-ही निगाह फेंकी। लॉन में खड़े फूलों को भी उसने ऐसे ही सरसरी नजर से देखा। फिर सीधे नियुक्ति अनुभाग की ओर चली गई। उसके दरवाजे पर आकर वह ठिठकी। रंगीन से मोटे पर्दे को हटाकर भीतर जाने की हिम्मत उसकी नहीं पड़ी। वह इधर-उधर देखने लगी।

बराण्डे में भी बड़ी अच्छी, ठण्डी-ठण्डी हवा आ रही थी। उसकी साड़ी का पल्लू हवा में लहरियाँ ले रहा था। और यह लहरियाँ लेना उसे अच्छा लग रहा था। उसके होठों पर रह-रहकर मुस्कराहट आ-आ रही थी और उस मुस्कराहट को रह-रह कर अपने दाँतों से काट-काट कर अपंग कर रही थी। मगर पता नहीं कौन-कौन से विचार वह मुस्कराहट पैदा किए जा रहे थे, उसकी लम्बान बढ़ाते जा रहे थे कि एकदम से उसकी लम्बान रुक गई।
‘‘कहिए, किससे मिलना है ?’’ चपरासी ने बाहर निकलकर पूछा।
उसने अपने हाथ का कागज उसकी ओर बढ़ा दिया।
‘‘क्लर्क के लिए आई हो ?’’
‘‘हूँ ।’’
क्लर्क का नाम कान में पड़ते ही जैसे वह किसी हीन भावना से दब गई। जैसे अब उसके होंठो पर हँसी की लम्बान नहीं उभरेगी, जैसे इस अच्छे-अच्छे ऑफिस और दूसरे खराब-खराब ऑफिसों में कोई अन्तर नहीं रह गया।
सिर नीचा झुकाकर बराण्डे के चिकने-चिकने साफ-सुथरे फर्श पर वह अपनी चप्पल की नोक घिसने लगी। उँगली से साड़ी के पल्लू का किनारा सीधा करने लगी और फिर पता नहीं क्या सोचने लग गई।
चपरासी के इशारे पर भीतर चली गई। चपरासी के इशारे पर ही फिर दूसरे कमरे में भी चली गई।
उसकी पोस्टिंग हो गई थी। जिस सेक्शन में उसकी पोस्टिंग हुई थी, उस सेक्शन के और बाबू काफी खुश नजर आ रहे थे। उनके सेक्शन में लड़की की एक संख्या और बढ़ गई थी। और अफरोजजहाँ को भी कुछ तसल्ली हुई थी कि चलो एक और लड़की उसके साथ काम करेगी। इतने सारे बाबुओं के बीच वह अकेली नहीं है।
मगर बाबुओं की आपसी घुसर-पुसर से उसका जी बड़ा वैसा होता जा रहा था, उसकी निगाहें जैसे ऊपर उठना नहीं जानती थीं; वह खुद जैसे किसी अनजान दुनिया में जाकर फँस गई थी। पर उस दूसरी लड़की ने उसकी बगल में बैठकर उससे दोस्ती कर ली थी। और लंच आवर्स तक अफरोजजहाँ की झिझक खत्म हो गई थी। उसे दफ्तर की सारी बातें मालूम हो गई थीं। यह भी मालूम हो गया था कि न मिस सब्बरवाल की नियुक्ति हुई है और न उस बंगालिन मिस घोष की, और न उस पाउडर की खुशबू लुटाने वाली हसीन लड़की की..और न..
उसे किसी और के बारे में जानने की उत्सुकता नहीं थी। मगर उसे ताज्जुब था कि उनकी नियुक्ति क्यों नहीं हुई। उन सबके पास पउवे थे-किसी के पास किलो का, किसी के पास क्विंटल का !
लंच आवर्स में दफ्तर के मखमली घास वाले लान मैं बैठकर जब अफरोजजहाँ ने उस लड़की से अपने मन की बात कहीं तो वह हँस पड़ी थी। और उसकी तरफ बड़ी बैसी निगाहों से देखने लगी थी। अफरोजजहाँ ने शर्माकर उसके हाथ पर चपत मार दी थी।
फिर दोनों हँसने लगी थीं।
फिर उस लड़की ने बताया था, ‘‘हमारा डायरेक्टर बड़े प्रिंसिपल का आदमी है। वह चाहता है कोई उसे डॉमिनेट न कर सके। इसीलिए सेलेक्शन करने से पहले वह रिसोर्सेस के बारे में पूछ लेता है !...तुमसे भी पूछा होगा।’’
‘‘हूँ।’’
और अफरोजजहाँ सोचने लगी थी कि बड़ा अच्छा हुआ जो वह अपने वाकिफकारों के नाम नहीं बता पाई थी। अगर बता देती..अगर बता देती तो उसका भी गलत इम्प्रेशन पड़ता और..और उसकी भी नियुक्ति न होती। फिर वह इस दफ्तर में न आ पाती। घास की इस मखमली फर्श पर यूँ न बैठ पाती।
और फिर दफ्तर की उस इमारत को वह आँखें भरकर देखने लग गई थी।

ज्योतिषी, हैण्डपम्प और मैं

मैं बहुत देर से यहाँ बैठा हूँ। बैठे-बैठे थकान लगने लगी है। खाली मूली मुझसे बैठा नहीं जाता। फिर जून की गर्मी में एक ही जगह खाली बैठना ! हवा के नाम से बालू मिश्रित लू मुँह से टकरा रही है। और सुबह से बैठे-बैठे मुझे प्यास लगने लगी है।
ज्योतिषी महाराज के दरबार में और भी कितने ही लोग जमे हैं। सभी के चेहरों पर लू की टकराहट एक सी नहीं है। कोई खम्भे की आड़ में है तो कोई किसी इन्सान की आड़ में। एक बुढ़िया किसी यजमान के लड़के की शादी का लग्न विचरवा रही है। ज्योतिषी कह रहे हैं-‘जोग तो बनता नहीं है। लड़का और लड़की दोनों की मृत्यु अवश्यम्भावी है !’’
‘‘तो ऐसे ब्याह से महाराज बिन ब्याह ही भला।’’ बुढ़िया बोली, ‘‘कम से कम लड़का तो बना रहेगा। ना महाराज, हम्मै ऐसा जोग नहीं..’’
‘‘एक उपाय हो सकता है। लड़की वाला और लड़के वाला दोनों महामृत्युञ्जय जाप करें। सवा-सवा लाख जाप। तब दोष मिट सकता है....’’
‘‘नहीं महाराज, हम्मैं शादी नहीं चाहिए। जजमान का लड़का कौन सा भागा जा रहा है।...’’
वृद्धा शायद कुछ और कहने जा रही थी कि ज्योतिषी महाराज को पाँय लागी कहता हुआ एक वृद्ध आया। कुछ देर खड़ा रहा और उस बुढ़िया के कन्धे को छूकर बोला, ‘‘घर होती आना। बहुत दिन हो गए हैं आए।...आना...’’ और बिना कोई उत्तर सुनने की प्रतीक्षा किए चल दिया।
वृद्धा कहने जा रही थी-नहीं, मगर फिर कह उठी-‘अच्छा’...फिर बगल में बैठी औरत की ओर देखकर कहने लगी, ‘‘तबियत ठीक नहीं रहती, खाँसी आती है। घर से निकलना ही नहीं होता...कौन कहाँ जाए, कहाँ आए ?’’
आसपास बैठे लोग बुड्ढ़े-बुढ़िया की बातों पर मुस्करा दिए हैं। और मैं बाहर के हैम्डपम्प की ओर देखने लग गया हूँ। हैंण्डपम्प में एक व्यक्ति लोटे से पानी डाल रहा है। और एक लड़का हैण्डिल चला रहा है। हैण्डपम्प खराब है। उसमें पानी नहीं चढ़ रहा है।

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