लोगों की राय

नारी विमर्श >> पीले पत्तों की दास्ताँ

पीले पत्तों की दास्ताँ

दिलीप कौर टिवाणा

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4954
आईएसबीएन :81-7043-692-3

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

114 पाठक हैं

एक श्रेष्ठतम उपन्यास...

Peele Patton Ki Dastan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पीलें पत्तों की दास्ताँ

1

ऊषा की शादी करके मास्टर मदन लाल फूला नहीं समाता था। अब तो उसे पक्का विश्वास हो गया था कि ऊषा सचमुच सौभाग्यशाली है। उसने तो सोचा था जैसे तैसे बी.ए. करवा देंगे। रंगरूप अच्छा है। हो सकता है कोई प्रोफेसर लड़का ही मिल जाए।
मास्टर मदन लाल की हमेशा से यह आकांक्षा रही थी कि वह एक बार जिन्दगी में प्रोफेसर बन जाए बस पर आर्थिक तंगी के कारण वह एम.ए. करने के लिए शहर जाकर होस्टल का खर्च वहन नहीं कर सकता था। उसने तो बी.एड. भी पत्नी के गहने गिरवी रखकर की थी।
ऊषा को वह बहुत सौभाग्यशाली समझता था। जब वह पैदा हुई तभी मदन लाल बी.एड. में पास हो गया और उसकी इस गाँव के स्कूल में नौकरी लग गई।
गाँव के लोग बहुत अच्छे थे। मास्टर मदन लाल का बहुत सम्मान करते थे। साग-सब्जी, लकड़ी यहाँ तक कि दूध पर भी उसने कभी पैसा खर्च नहीं किया था। एक-दो ट्यूशनें तो उसके पास हमेशा ही रहती थीं और पैसों की उसने कभी किसी से पहले बात नहीं की थी। लोग सोचते, मास्टर तो गुरु पीर जैसा होता है उसका हक नहीं मारना चाहिए, नहीं तो अगले जन्म भुगतना पड़ेगा।
स्कूल चाहे लड़कों का था पर मास्टर मदन लाल ने ऊषा को उसी में पढ़ने लगा लिया था। उसकी देखादेखी कुछ और लड़कियाँ भी आने लगी थीं।
ऊषा से छोटे उसके दो भाई थे। तीनों इकट्ठे स्कूल चले जाते। इकट्ठे ही स्कूल से वापस आ जाते। यूँ भी मास्टर मदन लाल कहता था, लड़कों और लड़कियों में भला फर्क ही क्या होता है।
लड़कों के साथ पढ़ती, लड़कों के साथ खेलती, धीरे-धीरे पढ़ाई में, खेलों में ड्रामों, डिबेटों में उनसे स्पर्धा भी करने लगी।
और फिर प्रतियोगिताओं में उनको पीछे छोड़ने लगी।
‘‘हैड मास्टर की बेटी है न इसीलिए...’’ जब कोई कहता तो ऊषा को लगता, यह गलत है। उसे तो लगता था वह कहीं भी किसी भी मुकाबले में किसी को भी हरा सकती है। उसे तो बस एक फैसला कर लेना ही होता था।
छठी कक्षा में पढ़ते हुए उसने हमेशा से अव्वल रहने वाले जसपाल से कह दिया था कि इस बार मैं फर्स्ट आऊँगी और वह फर्स्ट आ गई थी।
इंटर डिस्ट्रिक्ट भाषण प्रतियोगिता में उसने जीत से कहा था, चलो शील्ड जीत कर लाएँ और उस साल शील्ड मास्टर मदन लाल का स्कूल ले गया था।

एक बार जब भीषण गर्मी से घबरा कर उसने कहा था, ‘‘हे भगवान बारिश कर दे तो शाम को घनघोर बादल छा गए थे। जब एक दिन उसने चाहा था, भगवान करे आज छुट्टी हो जाए तो उस दिन सचमुच छुट्टी थी।’’
पर एक बात का उसे क्षोभ भी बहुत था। भैंस का सारा काम, गुतावा करना, पानी पिलाना, दूध दुहना इत्यादि सब काम माँ उसी से करवाती थी। एक दिन जब वह होम-वर्क कर रही थी तो माँ ने बार-बार उसे गुतावा करने के लिए कहा। वह खीझ कर बोली, ‘‘इससे तो मर ही जाए तेरी भैंस और कुछ दिनों बाद भैंस सचमुच बीमार होकर मर गई थी। तब से माँ खीझकर कई बार कह चुकी थी, ‘‘यह तो काली जीभ वाली है।’’
पर मास्टर मदन लाल हमेशा कहता, ‘‘मेरी बेटी बहुत किस्मत वाली है। दो भाइयों की बाँह पकड़ कर ले आई है और पढ़ाई में भी इतनी होशियार है। रंगरूप से तो किसी ऊँचे खानदान की लगती है और एक ज्योतिषी ने मास्टर मदन लाल से कहा था, इसी बच्ची के भाग्य में राजयोग है। बहुत बड़े घर जाएगी।’’
और ज्योतिषी की बात सच हो गई थी। पी.सी.एस. अफसर कोई छोटी बात नहीं होती। फिर उन्होंने खुद माँगकर रिश्ता लिया है। मास्टर मदन लाल का कहना था कि ऐसा रिश्ता किसी पुण्यकर्मी के फलस्वरूप ही मिलता है। मास्टर मदन लाल ने तो अभी ऊषा की शादी के बारे में सोचा भी नहीं था। वह तो दसवीं की परीक्षा देकर शहर अपनी मौसी से मिलने गई थी। वहीं लड़के वालों ने देख ली।
मौसी तो फूली नहीं समाती थी जब उसने आकर सारी बात अपनी बहन और बहनोई को बताई कि कैसे लड़के वालों ने खुद संदेश भेजा है। पल-दो पल के लिए तो मास्टर मदन लाल को संदेह भी हुआ कि ये जो खुद रिश्ता माँग रहे हैं और जल्दी शादी को भी कर रहे हैं कहीं कोई कमीवेशी ही न हो पर जब अच्छे रोजगार पर है और कुंडलियाँ भी मिलती हैं फिर तो उसे पक्का विश्वास हो गया कि यह सब ऊषा के सौभाग्य के कारण है और कुछ नहीं।
पता लगने पर कि मलिक साहब के माँ-बाप जल्दी शादी करने को कह रहे हैं, पहले तो ऊषा की माँ को चिन्ता हुई पर फिर उसने सोचा, चलो क्या है अगर ज्यादा तैयारी नहीं हुई तो बेटियों को तो देते ही रहना होता है। बाद में कसर पूरी कर देंगे। कर देते हैं शादी अगर लड़के वाले इतना ही कहते हैं तो।
ऊषा ने एक दिन लाड़-भरे गुस्से से कहा था, ‘‘पापा आपने तो अभी मुझे बी.ए. करवानी थी।’’
‘‘करवानी तो थी पर तेरी किस्मत तेज़ है। अब तुझे क्या लेना है बी.ए. करके। पी.सी.एस. अफसरों में से डी.सी. बन जाते हैं। फिर तो जिले की मालकिन बन जाएगी। कभी हमारी भी सिफारिश मान लिया करना और न कहीं नौकर-चाकर बाहर से ही लौटा दिया करें।’’ मास्टर मदन लाल ने मजाक में कहा था।
फिर ऊषा की शादी के बाद एक-दो आदमियों की सिफारिश करके जब उसने उनका काम भी करवा दिया था तो वह फूला नहीं समाता था।
‘‘सब नीत को मुराद है मास्टर जी। लड़की राज करेगी।’’ जब कोई सयानी वृद्धा मदन लाल से कहती तो उसे लगता कि ऊषा वाकई किसी बड़े घर में ही जाने के योग्य थी।

2

ऊपर वाली मंजिल के बैड-रूम के पिछली तरफ खिड़की में खड़ी ऊषा को अगर कोई दूर देखता तो वह फ्रेम में जड़ी तस्वीर-सी प्रतीत होती थी।
कितनी देर वह इसी खिड़की में तस्वीर की भाँति खड़ी रहती। वस्तुतः कोठी के पीछे सड़क के उस पार जो बाग था उसके फूल-पौधों, वृक्षों, बेलों यहाँ तक कि उसी में बनी पगडंडियों, वृक्षों पर उछलते-कूदते पक्षियों-जैसे वह सबसे परिचित थी और बाग के पार निकल कर एक पगडंडी जो गुम हो जाती थी। उस खिड़की में खड़ी कई बार वह कल्पना ही में उस पगडंडी पर चलती-चलती अपने गाँव पहुँच गई थी। गाँव जहाँ उसका घर था, माता-पिता थे, भाई-बहन थे, गाँव का स्कूल था, लोग थे, शेरावाली माँ का मंदिर था, ज्ञानदास का डेरा था, छठी पातशाही का गुरुद्वारा था जहाँ से राहगीरों के लिए नित्य गुरुद्वारे का ग्रंथी रोटियाँ माँगने आता था। वहाँ सिर पर मोर-पंख की कलगियाँ लगाए हाथों में घंटियाँ पकड़े, शिव भक्त भी आया करते थे। वहाँ खेत थे, वृक्ष थे, कुएँ और तालाब थे। गाएँ-भैसें थीं, लोग थे। जाते-जागते लोग और वहाँ सब ऋतुएँ भी थीं। कड़कती दोपहरें, सर्दी की ठिठुरन-भरी रातें, बारिश में भीगते बच्चे, सवेरे पशुओं के झुंडों के झुंड़ चरागाहों के लिए निकलते और साँझ पड़े घर आते। पारिवारिक सदस्यों की भाँति चलते-फिरते कुत्ते, बिल्लियाँ, चिड़ियाँ कबूतर।
‘‘देवी ?’’ भगीरथ, उसके पति ने जब आवाज दी तो वह चौंककर खिड़की से अंदर की ओर मुड़ी।
‘‘मैं दवाई भूल गया था, इसलिए रास्ते से लौट आया। कहाँ रखी है गोलियों की शीशी ?’’
बिना कुछ कहे ऊषा ने कार्नस से उठाकर गोलियों की शीशी पकड़ा दी और पानी का गिलास भी ला दिया।
शीशी खोलकर दो गोलियाँ पानी के साथ लेकर शीशी बंद करके जेब में डालकर भगीरथ जाने लगा। उसकी ओर देखकर बस इतना ही बोला, ‘‘यह तेरा काम है देवी, याद रखना कि दवाई भी देनी है’’ और उन्हीं कदमों से वापस लौट गया।
हाँ, यही बात तो जाने से पहले उसे माँ जी ने समझाई थी कि इसके खाने-पीने का, आराम का और दवाई का ख्याल अब तुमने रखना है। ख्याल तो वह बहुत रखती थी फिर भी न जाने क्यों कभी-कभी उसे सब कुछ भूल जाता था। यहाँ तक कि सवेरे जब वह जागती तो उसे बड़ा अजीब लगता कि वह अपने गाँव की बजाय किसी और ही शहर में है। चिल्ल-पौं वाला यह शहर, समुद्र में उगे द्वीपों जैसे ये घर, गुड्डे-गुड्डियों जैसे बनावटी से ये लोग-मानो वह किसी और ही देश में आ गई थी।
कभी-कभी कोई बरतन हाथ से छूटकर जब टूट जाता तो वह भयभीत-सी होकर सोचती, ‘यहाँ बरतन टूटने की आवाज भी ऐसी है जैसे कोई बम फटा हो,’ पर नहीं टूट-फूट जाए, भगीरथ ने कभी उससे कुछ नहीं कहा था। वह तो बल्कि खुश होकर कहता, ‘‘तू तो एक जंगली फूल है जो शहराती लोगों को देखने को भी नसीब नहीं होता और मुझे तू उम्र-भर के लिए मिल गई है।’’

उम्र-भर...ऊषा को लगता उम्र-भर।....और इससे आगे वह कुछ भी न सोच पाती।
‘‘हमें कहीं और नहीं मिल सकता घर ?’’ एक दिन ऊषा ने भगीरथ से कहा।
‘‘अरी पगली, इतनी बड़ी कोठी है यह, पिछवाड़े पारक है, दफ्तर नजदीक है, और...।’’
‘‘मेरा मतलब है जो सामने अस्पताल है...।’’
‘‘अस्पताल हमें क्या कहता है और वो तो है भी सड़क के उस पार ?’’
यूँ तो भगीरथ ठीक कहता था। अस्पताल सड़क के दूसरी ओर था पर घर की ऊपर वाली मंजिल पर खड़े होकर दूर से आते-जाते लोग दिखाई पड़ते थे। इस घर में आकर ही ऊषा को लगा था, ‘हे राम ! अस्पताल में आने-जाने वालों की कितनी भीड़ रहती है।’ जैसे सारा शहर ही बीमार पड़ गया हो।
कभी-कभी किसी मृतक के वारिस लाश को लेकर रोते-बिलखते अस्पताल के गेट से बाहर निकलते तो ऊषा जैसे आतंकित हो उठती। कितनी ही देर वह पूजा-कक्ष में जाकर देवी-देवताओं की मूर्तियों के सामने बैठी मन्नतें माँगती रहती कि हमारे घर में खैर-सुख रहे। इस घर में भी और मायके घर भी।
पर जब से उसे यह पता चला था कि भगीरथ को फेफड़ों की बीमारी है वह मायके घर को भूलकर इसी घर के लिए ही दुआएँ करती रहती।
भगीरथ ने उसे बहुतेरा समझाया था कि वह इतना बीमार नहीं। रोजाना दफ्तर जाता है, खाना खाता है। बस दवाइयाँ ही ऊपर से खानी पड़ती हैं या फिर वह सामान्य से कुछ ज्यादा थक जाता था।
शादी वाली रात जब भगीरथ ने उससे कहा था, ‘‘मेरी टाँगें दबा दे जरा। मैं बहुत थक गया हूँ इस खलजगन में,’’ तो उसे भगीरथ को देखकर कुछ समझ नहीं लगी और वह छनछनाती चूड़ियों और लाल चूड़े वाले हाथों से उसकी टाँगें दबाने लगी थी।
‘‘बड़ा सुख मिलता है यूँ दबाने से,’’ भगीरथ ने प्यार से उसकी ओर देखते हुए कहा था।
आँखें नीची किए काफी देर तक वह उसकी टाँगें दबाती रही। फिर जब उसने देखा तो भगीरथ सो चुका था।
सो रहे भगीरथ को उसने अच्छी तरह निहारा। वह उसे बहुत अच्छा लगा। ‘‘टाँगें दबाते रहने से ही कहीं जाग तो नहीं जाएँगे,’’ यह सोचकर उसके हाथ रुक गए।
भगीरथ सचमुच जाग गया। ‘‘थक गई ? अच्छा सो जा,’’ कहकर वह करवट लेकर सो गया।
पर ऊषा को काफी देर कर नींद नहीं आई थी। वह पिछली खिड़की में से बाहर तारों को देखती रही। तारों के कल्पना लोक में विचरण करती वह अपने गाँव पहुँच गई।

कल शाम जो काली आँधी आई थी उससे न जाने कितने कच्चे फल टूटकर गिर गए होंगे। कभी-कभी तो वो टहनी भी टूट जाती है जिस पर किसी पक्षी ने घोंसला बनाया होता है। वह उन सब वृक्षों के पास गई जिनके कच्चे फल आँधी में झड़ गये थे और प्रत्येक उस पक्षी के पास भी गई जिसके घोंसले वाली टहनी टूटी थी। हमेशा की तरह मास्टर मदन लाल कह रहा था, ‘‘परमात्मा के प्रकृति के अपने नियम हैं। कभी आपको उनकी समझ लग जाती है और कभी नहीं।’’
‘‘माँ क्या पापा ठीक कहते हैं ?’’ उसने जब भी कभी पूछा था तो माँ ने हमेशा यही कहा था, ‘‘क्या ठीक है और क्या नहीं, यह सोचना तेरे पापा का काम है’’ और यूँ माँ सारी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाती थी।
आज तारा मंडल में विचरण करते उससे अपने माँ-बाप का न जाने कैसे ख्याल आ गया था।
और फिर भगीरथ की माँ कहती सुनाई दी, ‘‘रिश्ते तो बहुत अच्छे-अच्छे घरों के, बहुत पढ़ी-लिखी लड़कियों के आते थे। मुझे तो सुशील-सी लड़की चाहिए थी जो मेरे बेटे की सेवा कर सके।’’
उसका मन चाहा कहे, ‘‘माँ मेरे तो अब ये सिर के साईं हैं....।’’
जब ऊषा ये सब बातें कर रही थी तो रात चुपचाप उसके हाथों से सरकती जा रही थी।
फिर न जाने कब उसे नींद आ गई।
माँ ने कहा भी था वहाँ जाकर जल्दी उठ जाया करना। फिर भी वह देर तक सोई पड़ी थी।
‘‘उठो देवी जी !’’ भगीरथ ने जब जगाया तो उसे बहुत शर्म आ रही थी पर यह तो पुरानी बात है, अब कभी ऐसा नहीं होगा। एक बार भगीरथ ने नाराज होकर उससे कहा था, ‘‘यह हो ही नहीं सकता था कि उसकी माँ या नानी देर तक सो रही हो ?’’ तदोपरांत वह कभी देर से नहीं जागी थी। सवेरे देर न हो जाए, इस डर से कई बार तो वह आधी रात को ही जाग जाती और कभी-कभार तो उसे नींद ही न आती और फिर दिन में उसका सिरदर्द करता रहता।
सिरदर्द होता तो वो कभी भी भगीरथ से न कहती क्योंकि जब भी कभी वह कहती कि उसका कुछ दुखता है तो भगीरथ गुस्सा होता कि वह अपनी सेहत का ख्याल नहीं रखती।

कई बार तो उसका भगीरथ से यह कहने को भी मन करता कि हम यह मकान बदल लें। उसे वहम-सा हो गया था कि यहाँ रहते भगीरथ की फेफड़ों की बीमारी ठीक नहीं होगी। उसे लगता था कि कोई-कोई जगह ही अभिशप्त होती है। देखो न किसी जगह मंदिर बनता है और किसी जगह श्मशान घाट। यह तो उस स्थान का भाग्य होता है। उसी प्रकार अस्पताल वाले स्थान को जैसे यह सब दुःख झेलना ही है। वह दुःख मानो हवा में घुल जाता है और आसपास के घरों की छतों पर मँडराता रहता है किसी प्रेतछाया की तरह, पर वह जानती थी कि भगीरथ को वह यह बात समझा नहीं पाएगी। हारकर उसने यही सोचा था डाक्टर जैसे कहता है वो सब करते रहो। घर की सफाई के साथ-साथ गुग्गल धूप जलाना, चूल्हे-चौके की सफाई का विशेष ध्यान रखना, कपड़े-बरतन धोते समय उनमें दवाई डाल देना, भगीरथ को दूध, फल, दवाइयाँ बिना नागा यथा समय देना, उसके आराम का पूरा ध्यान रखना, ज्यादा देर बैठना नहीं, पढ़ना नहीं, बोलना नहीं, उसे बेआराम या गुस्से नहीं होने देना इत्यादि सब बातों का उसे पता था।
कई बार फिल्म देखने जाने को उसका मन करता। पहले एकाध बार भगीरथ स्वयं उसे ले गया। एक-दो बार माली की बीवी को साथ भेज दिया पर एक दिन जब सिनेमा जाने की बात की तो भगीरथ बोला, ‘‘देवी, पति घर में बीमार पड़ा हो और पत्नी सिनेमा देखने गई हो। क्या तुम सोच सकती हो कि आज से बीस साल पहले ऐसा होता होगा ? आज की औरत तो शायद औरत ही नहीं रह गई।’’ तत्पश्चात ऊषा ने कभी सिनेमा जाने को नहीं कहा था। भगीरथ ने स्वयं भी कभी पूछा तो उसने इन्कार कर दिया। उसे लगा, वह कितनी मूर्ख थी जब उसने बीमार पति से सिनेमा जाने के लिए कहा था। कभी समय था कि उसका अपने गाँव जाने को बहुत मन करता था पर अब तो वो भी नहीं करता। उसके पापा जब करवाचौथ के व्रत के लिए उसे जोर डालकर ले गए थे तब भी वह अगले ही दिन लौट आई थी।
‘‘अच्छा किया तू आ गई। तेरे बगैर तो घर सूना लगने लगता है।’’ भगीरथ ने जब हँसकर कहा तो उसे बहुत अच्छा लगा था।
‘‘आपको छोड़कर तो मैं भगवान के पास भी नहीं जा सकती।’’ ऊषा ने उत्तर दिया।
‘‘भगवान के पास तो जब गया मैं ही जाऊँगा पहले। यह नामुराद बीमारी पीछा ही नहीं छोड़ती। इस बार वजन करवाया तो आधा किलो फिर घट गया है।’’ भगीरथ ने जब बताया तो ऊषा का कलेजा धँसने लगा।
‘‘इतना परहेज, इतना एहतियात, इतनी सँभाल, इतनी दवाइयाँ और वजन फिर भी घट गया है। है परमात्मा...’’, सोचकर ऊषा के चेहरे का रंग फीका पड़ गया।
उस घड़ी भगीरथ को उस पर बड़ा स्नेह उमड़ आया। तरस भी आया। बोला, ‘‘अगर मुझे कुछ होना होता तो तेरे आने से पहले-पहले हो जाता। अब कुछ नहीं हो सकता।’’
‘‘पर आप बिल्कुल ठीक कब होंगे ?’’ ऊषा ने आँखें भरकर कहा।
‘‘दो सालों में अगर तूने मुझे मरने नहीं दिया, इसका मतलब है तू ठीक भी कर लेगी। मुझे तो लगता है देवी भगवती के वश से बाहर कुछ भी नहीं।’’
‘‘पापा कहते थे, रात के अंधकार का ऊषा नाश कर देती है। इसीलिए मेरा नाम ऊषा रखा है।’’ ऊषा ने हँसकर कहा।
‘‘पर मेरे लिए तो तू देवी है। सरब कला समर्थ देवी। इसीलिए मैंने तेरा नाम शादी के समय ही अपने मन में ऊषा से बदलकर देवी कर दिया था।’’
और उस रात बैड-रूम की पिछली खिड़की में से निकलकर तारों की दुनिया में घूमती वह ऊषा को मानो उसके गाँव छोड़ आई थी। इस घर में सिर्फ देवी की जरूरत थी।

3

धीरे-धीरे गर्मी निकल गई। हल्के-हल्के पग रखती सर्दी चली आ रही थी। ‘‘दीवाली से दरअसल मौसम बदलना शुरू हो जाता है,’’ भगीरथ ने कहा। अगले दिन दीवाली थी।
‘‘कुछ मँगवाना है ? चपरासी आया है। वैसे मिठाई तो देने वाले लोगों के घरों से ही बहुत आ जाया करती है,’’ भगीरथ ने दफ्तर से आकर चाय पीते हुए ऊषा से कहा।
वह ऊषा होती तो कहती, ‘‘एक नई साड़ी लेकर दो। कुछ बरतन खरीदने हैं, माँ कहती थी दीवाली वाले दिन बरतन खरीदना अच्छा होता है। कुछ पटाखे आतिशबाजी, मोमबत्तियाँ, मिठाई इत्यादि और सजी हुई दुकानें, सजे हुए लोग, बाजार के एक नहीं दो चक्कर लगाएँगे।’’
पर वह ऊषा नहीं, देवी थी। इसलिए इतना ही कहा, ‘‘हटड़ी और मोमबत्तियाँ मँगा लो। लक्ष्मी की तस्वीर वाला एक कैलंडर भी।’’
‘‘अगर तेरा मन करता है तो बाजार घूमने-फिरने चलते हैं या कल चले चलेंगे।’’ भगीरथ ने कहा।
‘‘नहीं आप थक जाओगे। जब आप बिल्कुल ठीक हो गए फिर चला करेंगे।’’
‘‘तू अपना भी ख्याल रखा कर। डाक्टर कहता था, कई बार मरीज की देख-भाल करने वाला खुद बीमार पड़ जाता है। पहले से तेरी सेहत भी कमजोर हुई लगती है।’’ भगीरथ ने जब कहा तो ऊषा हँस पड़ी।
भगीरथ उसे हँसते देख पल-भर उसे देखता रहा। यह हँसी कितनी स्वाभाविक थी एक फूल के खिलने जैसी और कई बार वह अकारण ही हँसने लग जाती थी और भगीरथ को वह हँसी कभी-कभी अजीब-सी भी लगती।
‘‘क्या देख रहे हो ?’’ ऊषा ने पूछा।
‘‘तू बिल्कुल अनपढ़ों की तरह हँसती है, जोर से।’’
‘‘और बीमारों की तरह हँसा करूँ ?’’ उसने इसी तरह हँसते-हँसते कहा।
पर उसकी यह बात भगीरथ के अंतर्मन को छीलती-सी लगी। उसने क्रोधित होकर कहा,‘‘अनपढ़ लड़की, लड़कों वाले स्कूल में पढ़कर तू यह भी भूल गयी कि औरत होना क्या होता है। इस तरह हँसती तू पागल लगती है।’’
ऊषा की हँसी जैसे उसके होंठों से ही काफूर हो गई।
वह उठकर अंदर चली गई। ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठकर वह वहाँ पड़ी क्रीम पाउडर केस, लिपस्टिकों, बिंदियों को झाड़-पोंछ कर रखने लगी। एकाएक उसकी नजर शीशे में अपनी शक्ल पर पड़ी। उसने देखा, शीशे में ही उसके अक्स की आँखों में पानी भरा हुआ था और फिर वह पानी किनारे तोड़कर बहने लगा।

धीरे-धीरे चलता भगीरथ उसके पीछे आकर खड़ा हो गया। आँखें झुकाए वह उसी तरह झाड़-पोंछ करती रही।
भगीरथ ने हल्के से उसके कंधे पर हाथ रखा।’’ देवी नाराज हो गई ?’’ उसने हँसकर पूछा।
ऊषा ने कोई उत्तर न दिया। बस उसकी आँखें भर-भरकर छलकती रहीं।
‘‘मुझे यह कतई पसन्द नहीं कि तू खाहमखाह मुझे परेशान करे। मैंने तुझे गोली तो नहीं मार दी। यह नहीं देखना कि कोई बीमार है। मनहूस-सी ऊपर से रोने लग जाती है। मैं पूछता हूँ तुझे हुआ क्या है ? अगर यू ही मुझे परेशान करना है तो बेशक अपने माँ-बाप के पास चली जा।’’ भगीरथ कटुतापूर्वक कह रहा था।
ऊषा ने दुपट्टे के पल्लू से आँखें पोंछीं और अपने आपको सँभाला। घड़ी में टाइम देखा और उठकर भगीरथ की दवाई शीशे के गिलास में डालकर ले आई।
‘‘तू मुझे परेशान मत किया कर। कई बार बीमार आदमी को दूसरे लोग हँसते भी अच्छे नहीं लगते, ’’ कहते हुए भगीरथ ने पकड़कर दवाई पी ली।
अगले दिन दीवाली थी। उस रात वह पिछली खिड़की में से बाग के बीच से अपने गाँव को जाने वाली पगडंडी की तलाश करती रही। न जाने इन दिनों कहीं बारिश हो गई थी और पगडंडी पानी में डूब गई थी या खेतों के साथ-साथ किसी ने उस पर भी हल चला दिया था या फिर वह अपने गाँव का रास्ता भूल गई थी और पगडंडी कहीं और ही रह गई थी।
उस रात उसने पापा को याद किया।
सवेरे ही देसी घी के लड्डू लेकर उसके पापा पहुँच गए। इसका मतलब था, उसकी आवाजें अभी उसके पापा तक पहुँचती थीं।
इस बार चीजें पकड़ा कर उसका सिर पलोसने में उसके पापा सकुचा गए। ऊषा को देखकर उन्हें लगा, यह तो बहुत बड़ी हो गई है। उस क्षण में वह उन्हें शायद अपने से भी बड़ी लगी थी।
‘‘भगीरथ साहब का क्या हाल है ऊषा ?’’ मास्टर मदन लाल ने जब पूछा तो ऊषा का मन चाहा, कह दे वह बीमार है। पर उसने कहा, ‘‘नहीं।’’ मानो उसने अपने पापा का प्रश्न सुना ही नहीं था। पूछने लगी, ‘‘माँ कुछ कहती थी ?’’
‘‘कहती थी ज़्यादा नहीं तो एक-दो दिन के लिए ही ऊषा को जरूर ले आना।’’
‘‘पापा आपने मेरी शादी क्यों कर दी थी ?’’ एकाएक ऊषा ने जब पूछा तो मास्टर मदन लाल को जैसे बात कुछ समझ नहीं आई। हँसते हुए कहने लगे, ‘‘लड़कियों की शादी तो करनी ही होती है।’’
‘‘तेरी माँ ने ये पैसे भी भेजे हैं। कुछ ले लेना।’’ बटुए से दस-दस के दो नोट निकालकर ऊषा को पकड़ाते हुए मास्टर मदन लाल ने कहा।
‘‘मेरे पास है सब कुछ,’’ कहकर ऊषा ने पैसे लेने से इन्कार कर दिया।
‘‘छोटी होती थी तो लड़-लड़कर लिया करती थी। कोई बात नहीं, रख ले फिर भी।’’

‘‘पापा आप अपने लड़कों की शादी ज्यादा पढ़ी-लिखी लड़कियों से करोगे या कम पढ़ी से ?’’ एकाएक ऊषा ने पूछा।
‘‘हम अपने लड़कों को जैसे तू कहेगी...‘‘मास्टर मदन लाल ने ऊषा की मेरी-तेरी वाली भाषा पर हँसते हुए कहा।
अपने कमरे से उठकर भगीरथ भी आ रहा था। मास्टर मदन लाल उसे मिलने के लिए उठकर खड़ा होने वाला ही था कि वह गुसलखाने की तरफ मुड़ गया।
यह देखकर बाप-बेटी की आपसी बातचीत की श्रृंखला मानो टूट गई। भगीरथ के यूँ आँख चुराकर निकल जाने की बात भी जैसे वे एक-दूसरे से छिपा रहे थे।
‘‘हाँ, सच तेरी सहेली थी न बीबो, उसका ब्याह है इस पूरनमाशी का। कहती थी, मास्टर जी ऊषा से कहना जरूर आए। वह गिला भी करती थी कि जब से ऊषा बड़ी अफ्सरानी बनी है गाँव वालों को तो भूल ही गई है। कहती थी, भगीरथ को भी साथ लेकर आए।’’
‘‘उसका अभी इस पूरनमाशी को ब्याह है ? मुझे तो लगता है जैसे मुझे सदियाँ ही हो गईं गाँव छोड़कर आई को जैसे गाँव न जाने कहाँ आगे निकल गया होगा। लोग न जाने कहाँ चले गए होंगे और कभी-कभी तो मुझे लगता है जैसे मैं हमेशा से यहाँ यूँ ही रह रही हूँ। जैसे मैं अपनी ही दादी हूँ।’’ ऊषा ऐसे बोल रही थी जैसे बड़बड़ा रही हो।
गुसलखाने से होकर भगीरथ आ रहा था। उसने झुककर अपने ससुर के पाँव छुए।
मास्टर मदन लाल गद्गद हो गया। इतना बड़ा अफसर उसके पाँव छू रहा था। इतना बड़ा अफसर उसकी बेटी को ब्याहने आया था। इतना बड़ा अफसर उसका दामाद था।
‘‘राजी-खुशी हो ?’’ मास्टर मदन लाल ने आशीष देने के ढंग से कहा।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book