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मीडिया का अंडरवर्ल्ड

दिलीप मंडल

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :231
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 498
आईएसबीएन :9788183614214

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पुस्तक यह समझने की कोशिश भर है कि पेड न्यूज खुद एक बीमारी है, या फिर किसी बड़ी और गम्भीर बीमारी का लक्षण मात्र।

Media Ka Underworld(Dilip Mandal)

पेज न्यूज वर्तमान मीडिया विमर्श का सबसे चर्चित विषय है। खबरें पहले भी बिकती थीं। सरकारों और नेताओं से लेकर कम्पनियाँ और फिल्में बनाने वाले तक खबरें खरीदतें रहे हैं। न्यूज के स्पेस में विज्ञापन की घुसपैठ नई नहीं है। बदलाव सिर्फ इतना है कि पहले खेल पर्दे के पीछे था, अब मीडिया अपना माल दुकान खोलकर और रेट कार्ड लगाकर बेचने लगा है। विलेन के रूप में किसी खास मीडिया हाउस को चिह्नित करना काफी नहीं है। सारा कॉरपोरेट मीडिया ही बाजार में बिकने के लिए खड़ा है। समाचार को लेकर जिस पवित्रता, निष्पक्षता, वस्तुनिष्ठता और ईमानदारी की शास्त्रीय कल्पना है, उसका विखंडन हम सब अपनी आँखों के सामने देख रहे हैं। मीडिया छवि बनाता और बिगाड़ता है। इस ताकत के बावजूद भारतीय मीडिया अपनी ही छवि का नाश होना नहीं रोक सका। देखते ही देखते पत्रकार आदरणीय नहीं रहे। लोकतंत्र का चौथा खम्भा आज धूल-धूसरित गिर पड़ा है। मीडिया की बन्द मुट्ठी क्या खुली, एक मूर्ति टूटकर बिखर गई। यह पुस्तक इसी विखंडन को दर्ज करने की कोशिश है।

देश-काल की बड़ी समस्याओं पर लिखी गई पुस्तकों में आमतौर पर समाधान की भी बात होती है। समस्या का विश्लेषण करने के साथ ही अक्सर यह भी बताया जाता है कि समाधान का रास्ता किस ओर है। इस मायने में यह पुस्तक आपको निराश करेगी। हाल के ही वर्षों में जनसंचार के क्षेत्र में सबसे विवादित और चर्चित विषय पेड न्यूज को केन्द्र में रखकर लिखी गई यह पुस्तक समस्या का कोई समाधान नहीं सुझाती।

पुस्तक यह समझने की कोशिश भर है कि पेड न्यूज खुद एक बीमारी है, या फिर किसी बड़ी और गम्भीर बीमारी का लक्षण मात्र। पुस्तक में मीडिया अर्थशास्त्र और व्यवसाय की समीक्षा के जरिए यह बताने की कोशिश की गई है कि अपनी वर्तमान संरचना की वजह से मीडिया के लिए खबरें बेचना अस्वाभाविक नहीं है। मीडिया के लिए कमाई के मुकाबले छवि की कुर्बानी कोई ब़डी कीमत नहीं है।


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