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फिराक गोरखपुरी और उनकी शायरी

प्रकाश पंडित

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4985
आईएसबीएन :9789350641972

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फिराक गोरखपुरी की जिन्दगी और उनकी बेहतरीन गजलें, नज्में, शेर और रुबाइयां

Firaq Gorakhpuri Aur Unki Shayari

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उर्दू के लोकप्रिय शायर

वर्षों पहले नागरी लिपि में उर्दू की चुनी हुई शायरी के संकलन प्रकाशित कर राजपाल एण्ड-सन्ज ने पुस्तक प्रकाशन की दुनिया में एक नया कदम उठाया था। उर्दू लिपि न जानने वाले लेकिन शायरी को पसंद करने वाले अनगिनत लोगों के लिए यह एक बड़ी नियामत साबित हुआ और सभी ने इससे बहुत लाभ उठाया।

ज्यादातर संकलन उर्दू के सुप्रसिद्ध सम्पादक प्रकाश पंडित ने किये हैं। उन्होंने शायर के सम्पूर्ण लेखन से चयन किया है और कठिन शब्दों के अर्थ साथ ही दे दिये हैं। इसी के साथ, शायर के जीवन और कार्य पर जिनमें से समकालीन उनके परिचित ही थे-बहुत रोचक और चुटीली भूमिकाएं लिखीं हैं। ये बोलती तस्वीरें हैं जो सोने में सुहागे का काम करती हैं।

 

फ़िराक़ गोरखापुरी

 

‘फ़िराक़’ साहब ने अनगिनत ग़ज़ले, नज्में, रुबाइयां, क़तए इत्यादि लिखे हैं। समलोचक भी वे उच्चकोटि के थे लेकिन स्मरण वे सदा अपनी ग़ज़लों और ग़ज़लों के उन शेरों के कारण किए जाएंगे जिनकी संख्या सैकड़ों तक पहुंचती है और जो निस्ससंदेह क्लासिक का दर्जा रखते हैं, उन्हीं शेरों के कारण जिनमें तसव्वुफ़ और ग़ज़ल की परम्परागत कथावस्तु से लेकर राजनीति और वर्ग-संघर्ष तक सभी कुछ है।

 

यूंही ‘फ़िराक़’ ने उम्र बसर की
कुछ ग़मे-जानां, कुछ ग़मे दौरां


फ़िराक़ गोरखपुरी

 

 

यह 1948 ई. का ज़िक्र है। उर्दू के एक नौजवान शायर ने फ़िराक़ गोरखपुरी के बारे में मुझे एक घटना सुनाते हुए कहा, ‘‘मैं इलाहाबाद में फ़िराक़ साहब का मेहमान था। उन दिनों जबकि हिन्दी के दोस्तनुमा दुश्मन उर्दू को विदेशी भाषा कहकर इसे देश-निकाला देने के पक्ष में थे, वहाँ की एक स्थानीय संस्था ने एक कवि सम्मेलन का आयोजन किया। फ़िराक़ साहब को उसका सभापति बनना था और मेरी शाम खाली थी। फ़िराक़ साहब मुझे भी अपने साथ वहाँ ले गए और मेरे इन्कार के बावजूद उन्होंने श्रोताओं से मेरा परिचय करा दिया और मुझसे कोई नज़्म सुनाने को कहा।
‘‘कवि-सम्मेलन हिन्दी का था और मैं उर्दू का शायर-इस पर बिन बुलाया मेहमान ! प्रबन्धकों को फ़िराक़ साहब की यह हरकत पसन्द न आई और मन्त्री महोदय तो अपना मानसिक सन्तुलन ही खो बैठे, जब उपस्थित सज्जनों ने मुझसे ताबड़तोड़ कई नज़्में सुनी और मेरे बाद के पढ़ने वाले कवि को ‘हूट’ कर दिया।’’

‘‘मन्त्री महोदय अब तक जैसे-तैसे चुप बैठे थे। यह माजरा देखते ही उनकी आँखों में ख़ून उतर आया और उन्होंने लोगों पर फटकारें भेजनी शुरू कर दीं कि कितने निर्लज्ज, निन्दनीय और देशद्रोही हैं आप लोग जो उर्दू के एक शायर के क़लाम पर तो वाह-वाह करते हैं और हिन्दी के सेवक की कविता पर सीटियाँ बजाते हैं-हिन्दी जो राष्ट्रभाषा होने जा रही है..हिन्दी, जो..’’
‘‘फिर क्या हुआ ?’’ मैंने अपने शायर दोस्त से पूछा, ‘‘लोगों को अपनी निर्लज्जता और देश-द्रोह का एहसास हुआ या नहीं ?’’
‘‘सो तो मालूम नहीं, हाँ, फ़िराक़ साहब ने तुरन्त मन्त्री महोदय के हाथ से माइक्रोफ़ोन झपट लिया और यह कहकर स्टेज से उतर गए कि मैं इस कवि सम्मेलन के सभापतित्व को अपनी शान के ख़िलाफ़ समझता हूँ जिसका एक ज़िम्मेदार सदस्य फुसफुसी और बेतुकी कविता को राष्ट्रभाषा के नाम पर महान कविता मनवाना चाहता है। आपने न केवल मेरा अपमान किया है, न केवल मेरे मेहमान का अपमान किया है, बल्कि राष्ट्रभाषा का भी अपमान किया है।’’

यह घटना सुनकर ‘फ़िराक़’ साहब के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में मेरी जानकारी में तो वृद्धि हुई, लेकिन कोई विशेष आश्चर्य मुझे इस घटना से नहीं हुआ। फ़िराक़ साहब के स्वभाव से मैं अच्छी तरह परिचित हूँ। उनकी प्रायः सभी रचनाएँ मेरी नज़र से गुज़र चुकी हैं। उन पर लगाए गए तरह-तरह के साहित्य सम्बन्धी आरोप और फ़िराक़ साहब की ओर से दिए गए उनके उत्तरों का भी मैंने अध्ययन किया है और उनसे स्वयं मिलने का भी मुझे कोई बार सौभाग्य प्राप्त हो चुका है। इन कारणों से नर्म-ओ-नाज़ुक शेर कहने और शायरे जमाल (सौन्दर्य का शायर) कहलाने वाले इस शायर के बारे में यह कहते हुए किंचित प्रसनन्नता ही होती है कि फ़िराक़ साहब मुँहफट होने की हद तक स्पष्टवादी और कलमफट होने की हद तक साहित्यिक योद्धा हैं। अंग्रेजी, फ़ारसी संस्कृत, हिन्दी, उर्दू आदि कई भाषाओं के गहरे अध्ययन के आधार पर फ़िराक़ साहब को जब भी किसी ‘साहित्यिक अनार्जव’ का अनुभव होता है, तुरन्त उनकी ज़बान या क़लम गतिशील हो उठती है। पाकिस्तान में जब इस्लामी और रुहानी (आध्यात्मिक) साहित्य का नारा बुलंद हुआ, तो मासिक पत्रिका नुकूश (लाहौर) जिसमें इस प्रकार के लेख प्रकाशित हुए थे, के सम्पादक को एक पत्र में उन्होंने लिखा-

‘‘..रही बात भौतिकता या आध्यात्मिकता की। निन्नानवे प्रतिशत साहित्यिक और असाहित्यिक कामों में यह झगड़ा उठता ही नहीं। जब जंगल में आग लगती है तो वे समस्त जन्तु, जो एक दूसरे को खा जाते हैं, चुपचाप एक स्थान पर खड़े हो जाते हैं। आज इसकी बिल्कुल आवश्यकता नहीं है कि जो साहित्यकार भौतिकवाद के समर्थक हैं उनका एक धड़ा हो, जो अध्यात्मवाद के पक्षपाती हैं उनका दूसरा। भूख, बेकारी, बेरोजगारी, चोरबाज़ारी, रिश्वत, जीवन के हर विभाग की अव्यवस्था, साम्राजी शक्तियों के षड्यन्त्र और विनाशात्मक प्रयत्न हज़ार में से नौ सौ निन्नावे व्यक्तियों की दरिद्रता, पाकिस्तान, हिन्दुस्तान, एशिया, अफ्रीका और यूरोप के भी कई देशों का जीवन नरक बनाए हुए हैं। फिर तीसरे महायुद्ध का खतरा मुसलमानों के ही नहीं संसार भर के जीवन और मृत्यु का प्रश्न बन गया है। इस समय नमकहलाल साहित्यकार के सम्मुख इस्लामी और गैर इस्लामी, ‘आस्तिक और नास्तिक’ साहित्य के प्रश्न नहीं है, बल्कि एक ही प्रकार की मुसीबत में गिरफ्तार मुस्लिम और ग़ैर मुस्लिम दुनिया को एक ही उद्देश्य के साहित्य की आवश्यकता है-अर्थात् इन विश्वव्यापी समस्याओं का विवेक पैदा करना, सामूहिक संघर्ष और संगठित आन्दोलनों के महत्त्व का बोध पैदा करना और अपने देश, एशिया, अफ्रीका और यूरोप के जन-आन्दोलनों का साथ देने की तत्परता पैदा करना और इन क्रियात्मक प्रस्तावों को उत्तम साहित्यिक रचनाओं द्वारा आगे बढ़ाना। वर्तमान का बोध और वर्तमान में जिस उज्जवल भविष्य की सम्भावनाएँ संसार भर के लिए निहित हैं, उन सम्भावनाओं का बोध। यही वह साम्यवादी सत्यता (Socialist Realism) है जिसके सहारे साहित्य रचना होगी। यह सत्यता न इस्लामी है, न ईसाई है, न हिन्दू है, बल्कि साम्यवादी सत्यता है...’’
(अनुवाद)

और जब फ़िराक़ साहब ने महसूस किया कि साम्यवाद में विश्वास रखनेवाले प्रगतिशील साहित्यकार (जिनमें से एक होने का स्वयं फ़िराक़ साहब को गौरव प्राप्त है) संकीर्णता के शिकार हो गए हैं और प्राचीन साहित्य की ओर विशेष ध्यान नहीं देते, तो उन्होंने इस प्रवृत्ति की बड़े कड़े शब्दों में निन्दा की-

‘‘याद रहे कि साहित्य और संस्कृति क्रान्तियों के बावजूद अगर अपने सिलसिलों और स्रोतों से विमुख हो गए, तो सख़्त घाटे में रहेंगे। संसार की सबसे प्राचीन पुस्तक ‘ऋग्वेद’ से लेकर टैनीसन, स्विनबर्न टाल्स्टाय टैगोर ग़ालिब और इकबाल तक के साहित्य में दूसरों को प्रभावित करने के जो ढंग और कलात्मक चमत्कार हमें मिलते हैं, यदि हमने उन्हें प्राप्त नहीं किया तो केवल प्रगतिशील उद्देश्य हम से महान साहित्य की रचना नहीं करवा सकते...हमें प्राचीन साहित्य की आत्मा को अपने अन्दर समोना है। यह प्राचीन साहित्य के अध्ययन मात्र से सम्भव नहीं बल्कि उसके प्राणों तक पहुँचने की ज़रूरत है। यदि हम प्राचीन साहित्य के तत्त्वों का भेद न पा सके तो हमारा साहित्य प्रगतिशील होते हुए भी एक कटी पतंग के समान होगा।’’

साहित्य के सम्बन्ध में ही नहीं, वे अपने व्यक्तिगत जीवन में भी काफ़ी ‘दबंग’ हैं। सामाजिक रूप से कोई कितना ही बड़ा व्यक्ति क्यों न हो, वे उसकी किसी मामूली सी अनुचित बात को भी सहन नहीं कर सकते। राज्य के किसी विभाग की ओर से किसी अदीब या शायर की नियुक्ति के सिलसिले में जब उन्हें बतौर सलाहकार बुलाया जाता है (उर्दू आजकल के भूतपूर्व सम्पादक जोश मलीहाबादी और उपसम्पादकों की नियुक्ति के लिए भी फ़िराक़ साहब को बुलाया गया था) तो केवल उसी शायर या अदीब की नियुक्ति हो पाती है फ़िराक़ जिसके पक्ष में हों। नियुक्ति मण्डल का कोई सदस्य भी फ़िराक़ साहब के फैसले की अवहेलना नहीं कर सकता। यदि भूले से कोई व्यक्ति कोई आक्षेप कर बैठे तो फ़िराक़ कदापि यह कहने से नहीं चूकेंगे कि ‘‘मद्रासी या बंगाली या गुजराती होते हुए आपको किसी उर्दू अदीब के बारे में कोई राय देने की कैसे जुर्रत हुई ?’’ या ‘‘हद है साहब ! अगर आपको ही यह फैसला करना था तो मुझे आपने क्यों तकलीफ दी ?’’ इस सम्बन्ध में उनमें बहुत ही कम सहनशीलता है और वे अपने या पराए किसी को नहीं बख़्शते।

एक बार बम्बई की एक ‘महफ़िल में, जिसमें सरदार जाफ़री, जानिसार ‘अख़्तर’, साहिर लुधियानवी, ‘कैफ़ी’ आज़मी इत्यादि कई प्रगतिशील शायर मौजूद थे, ‘फ़िराक़’ साहब ने बड़े गौरव से एक शेर पढ़ा-


मौत इक गीत रात गाती थी
ज़िन्दगी झूम-झूम जाती थी।


सरदार जाफ़री ने यह समझकर कि फ़िराक़ साहब ने ज़िन्दगी पर मौत को प्रधानता दी है, ऊँची ज़बान से ललकारा, ‘‘फ़िराक़ साहब ! गुस्ताखी मुआफ हो, हमें आप शेर सुनाइए, बकवास मत कीजिए।’’
‘फ़िराक़’ साहब भला इस गुस्ताख़ी को कैसे मुआफ़ कर सकते थे तुरन्त भड़ककर बोले, ‘‘मैं तो शेर ही सुना रहा हूँ, बकवास तो आप कर रहे हैं।’’

और इसके बाद उपस्थित सज्जनों ने ‘फ़िराक़’ साहब की ज़बान से ज़िन्दगी और मौत की फ़िलासफ़ी की ऐसी ऐसी बातें सुनी कि यदि स्वयं ज़िन्दगी और मौत साकार होतीं, तो इन बातों से पनाह माँगने लगतीं।

बातें करने का भी फ़िराक़ साहब को उन्माद की हद तक शौक है-जीवन दर्शन से लेकर वे मेंढकों की विभिन्न जातियों तक के बारे में बेथकान बोल सकते हैं बल्कि ढूंढ़-ढूंढकर बोलने के अवसर निकालते हैं। हैदराबाद में एक महत्त्वपूर्ण उर्दू कान्फ्रेंस थी। कान्फ्रेंस के चौथे दिन की एक बैठक में फ़िराक़ साहब को अभिभाषण देना था। कान्फेंस के प्रबन्धक तो ख़ैर पहले से उन्हें सूचना दे चुके थे कि भाषण पहले से प्रकाशित किया जाएगा, कान्फ्रेंस में भाग लेने वाले शायरों अदीबों ने भी उनसे बहुत आग्रह किया कि वे शीघ्रातिशीघ्र भाषण लिख लें। इस उद्देश्य के लिए, यानी उनसे भाषण लिखवाने के लिए, दो व्यक्ति मुक़र्रर किए गए जो जब मौक़ा मिलता, काग़ज़ क़लम लेकर बैठ जाते कि लिखवाइए। फ़िराक़ साहब एक आध वाक्य लिखवाने के बाद ही उन्हें इस प्रकार बातों में उलझा लेते कि वे स्वयं भाषण की बात भूल जाते। चौथा दिन आ पहुँचा और भाषण की केवल चार पंक्तियाँ पूर्ण हुईं। लोगों ने फ़िराक़ साहब को क़लम काग़ज़ देकर जबर्दस्ती एक कमरे में बंद कर दिया ताकि दोपहर तक, जैसे भी हो, वे भाषण पूरा कर लें। दोपहर के अधिवेशन के समय जब वालंटियर उन्हें लिवाने उनके निवास-स्थान पर पहुँचे तो फ़िराक़ साहब को मकान के किसी कमरे में भी न पाकर बहुत चकराए। निराश होकर लौट रहे थे कि रसोईघर से बातें करने की आवाज़ आई। झांककर देखा तो फ़िराक़ साहब बैंगन हाथ में लिए बैंगन के भुरते के बारे में बावर्ची से बातें कर रहे थे।

यही नहीं, काग़ज़ों का पुलंदा लेकर जब वे जलसे में अपना अभिभाषण पढ़ने लगे तो केवल चार पंक्तियाँ पढ़कर ही उन्होंने पुलंदा एक तरफ रख दिया और माइक्रोफ़ोन थामकर बोले, ‘‘लिखे हुए अभिभाषण की क्या ज़रूरत है ? बड़ी मुद्दत के बाद हैदराबाद आने का मौक़ा मिला है। दोस्तों से दो बातें ही कर लें !’’
और अभिभाषण के नाम पर वे निरन्तर दो घण्टे तक बातें करते रहे और मेज़ पर पड़ा कोरे काग़ज़ों का पुलंदा प्रबन्धकों का मुँह चिढ़ाता रहा।

बातों के रसिया रघुपतिसहाय ‘फ़िराक़’ गोरखपुर के रहने वाले हैं। वहीं 1896 ई. में आपका जन्म हुआ था और वहीं आपने प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की। पिता मुंशी गोरखप्रसाद ‘इबरत’ उस समय के प्रसिद्ध वकील और शायर थे। इस प्रकार शायरी फ़िराक़ गोरखपुरी को घुट्टी1
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1.हालांकि ‘फ़िराक़’ साहब का कहना है कि घुट्टी में नहीं मिली-उर्दू शायरों के तज़किरे (चर्चाएँ) ज़्यादातर कुछ इस क़िस्म के बयानात से शुरू होते हैं कि शायरी का चस्का बचपन ही से था और दिन रात शेर ओ शायरी के चर्चे रहते थे। मेरे बचपन के बारे में ऐसे बयानात यूँ तो थोड़े बहुत सच होते हुए भी गुमराहकुन होंगे.... अपने वालिद के मुतअल्लिक़ यह सुनता ज़रूर था कि उस ज़माने की शायरी में उनके कारनामों की ख़ास अहमियत (महत्त्व) थी और उनकी तसनीफ-कर्दा (रचित) मसनवी ‘हुस्ने-फितरत’ मुसद्दस ‘नश्वोनुमा-ए-हिन्द’ और बहुत-सी दूसरी नज़्में ‘हाली’, ‘आज़ाद’ वग़ैरा उस वक़्त के अदीबों को मुतवज्जह कर चुकी थीं अलबत्ता मेरा फूफीजाद भाई बाबू राजकिशोर लाल सहर तमाम कुन्बे में तनहा आदमी थे जो मुझसे तो अठारह बीस बरस बड़े थे, लेकिन जब मैं बारह-तेरह बरस का हुआ, तबसे मुझे ‘गुलज़ारे-नसीम’ के बहुत से टुकड़े सुनाया करते थे और बाद को मेरे वालिद की नज़्मों का भी ज़िक्र किया करते थे। फिर ‘दाग़’ और ‘मीर’ के सैकड़ों अशआर और अपने अशआर और हज़रत ‘रियाज़’ (एक प्रसिद्ध शायर) की ज़िन्दगी के वाक़यात और अशआर सुनाया करते थे। मेरा यह हाल था कि दर्सी (पाठ्य) किताबों में जो नज़्में थी उनमें मुझे कोई कशिश (आकर्षण) नहीं मिलती थी। लेकिन अगर किसी शेर या नज़्म का कोई टुकड़ा ऐसा हाथ आ जाता था जिसमें बचपन के शऊर (बोध) के मुताबिक मुझे रस, तरन्नुम और रंगीनी मिले, तो ये चीज़ें मेरे दिल में ख़ामोशी से उतर जाती थीं और शऊर पर बार-बार मंडलाती थीं। मैं खेलते-खेलते उन नज़्मों में खो जाता था और अक्सर अपने साथियों और हमजोलियों में उन मौक़ों पर अपने आपको तनहा महसूस करता था।’’
(रूहे कायनात की भूमिका से)


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में ही मिली। लेकिन काव्य अभिरुचि उन दिनों निखरी, जब उच्च शिक्षा के लिए आप इलाहाबाद आए और यहाँ आपको प्रोफेसर नासरी जैसे साहित्यिक का सम्पर्क प्राप्त हुआ। वैसे जब आप चौदह-पन्द्रह बरस के थे तो आपके चाचा मुंशी हरिखलाल से आपको अपने पिता की नज़मों, ग़ज़लों की एक पांडुलिपि मिल गई। यह पांडुलिपि एक मुद्दत तक मेरा ओढ़ना बिछौना रही। ग़र्ज़ कि घर भर में बजाय शे’र-ओ-शायरी के चर्चे और बचपन ही से बजाय शे’र-ओ-शायरी के चसके के मेरा ज़ौक़ तनहाई में पलता रहा और शे’र-ओ-नग्मे की कसक, जो मेरे दिल में पैदा हुई थी, उसमें मैं न किसी को अपना शरीक (भागीदार) बना सकता था और न खुद शेर कहकर इस कसक को हल्का कर सकता था।’’ प्रोफ़ेसर ‘नासरी’ ने न केवल आपकी ग़ज़लों का संशोधन किया,
बल्कि उर्दू शायरी के नियमों पर नियमपूर्वक लेक्चर भी दिए, और इस प्रकार आपके दिल की दबी हुई ज्वाला को प्रज्वलित कर दिया।

शुरू ही से आपकी बुद्धि ऐसी तीव्र थी कि आप प्रत्येक कक्षा में उत्तम सफलता प्राप्त करते रहे। म्योर सेण्ट्रल कालेज, इलाहाबाद से इस शान से बी.ए. पास किया कि सरकार ने तुरन्त डिप्टी कलक्टरी के लिए चुन लिया। परन्तु डिप्टी कलक्टर बनने के बजाय आप कांग्रेस आन्दोलन में भाग लेने लगे और यों दूसरों को जेल भेजने के बजाय स्वयं जेल चले गए तत्पश्चात् कई वर्ष तक जब पण्डित जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के जनरल सैक्रेटरी रहे तो आप कांग्रेस के अण्डर-सैक्रेटरी रहे।
जेल में गए तो वहाँ भी शेर ओ शायरी का सिलसिला जारी रहा; बल्कि जेलखाना एक प्रकार से उनके लिए शे’र-ओ-शायरी की पाठशाला बन गया। यहाँ न केवल सिद्धहस्त शायरों से आपकी भेंट हुई, बल्कि बड़े-बड़े साहित्य प्रेमियों से भी बराबर मुलाकातें होती रहीं। स्वर्गीय मौलाना मुहम्मद अली, स्वर्गीय मौलाना ‘हसरत’ मोहानी और स्वर्गीय मौलाना अबुल कलाम ‘आज़ाद’ की प्रतिदिन की संगति ने सोने पर सुहागे का काम किया, अतः अपने एक शेर में आप कहते हैं :


अहले-जिन्दां1 की ये मजलिस है सबूत इसका ‘फ़िराक़’
कि बिखर कर भी ये शीराज़ा2 पपेशां न हुआ3


1927 ई. में जब आप जेल से छूटे, तो क्रिश्चियन कालेज, लखनऊ में नौकर हो गए और फिर सनातन धर्म कालेज, कानपुर में उर्दू पढ़ाने के लिए बुला लिए गए। इस बीच आपने एम.ए. पास कर लिया और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंगेज़ी के प्रोफ़ेसर नियुक्ति हो गए और अभी कुछ ही वर्ष पूर्व रिटायर हुए हैं।
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1. जेल निवासी 2. सिलाई, जो पुस्तक के पुट्ठे में की जाती है 3. बिखरी नहीं।
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‘फ़िराक़’ साहब ने अनगिनत कविताएँ, ग़ज़लें, रुबाइयां, क़तए इत्यादि लिखे हैं। समालोचक भी वे उच्च कोटि के हैं लेकिन स्मरण वे सदा अपनी ग़ज़लों बल्कि ग़ज़लों के उन शेरों के कारण किए जाएँगे जिनकी संख्या सैकड़ों तक पहुँचती है और जो निस्संदेह क्लासिक का दर्जा रखते हैं। और उन्हीं शेरों के कारण, जिनमें उर्दू की प्राचीन इश्क़िया शायरी के विपरीत इश्क की उद्भावना एक जीवित और गतिशील शक्ति के रूप में मिलती है कुछ लोग उन्हें आधुनिक उर्दू साहित्य का सबसे बड़ा ग़ज़ल-गो शायर मानते हैं और इसमें कोई सन्देह भी नहीं है कि आपके यहाँ शब्दों की जो सुन्दर पैठ, हिन्दी, और उर्दू के शब्दों और रूपकों का सुन्दर समन्वय (जिससे आपकी भाषा सरस और सरल हो गई है) और प्रेम और सौन्दर्य की मनोवैज्ञानिक सूक्ष्मताएँ जिस सजीलेपन से विद्यमान हैं, वे अन्य उर्दू शायरों के यहाँ कुछ कम ही नज़र आती हैं। भावुकता में चिन्तन का तत्त्व सम्मिलित कर आप न केवल प्रभावशीलता में वृद्धि कर देते हैं, बल्कि सार्थकता में भी निखार आ जाता है।

फ़िराक़ साहब की अधिकतर शायरी इश्क़िया शायरी है। लेकिन इनकी इश्कि़या शायरी उर्दू की अधिकांश इश्क़िया शायरी जैसी-नहीं है। अपनी इश्कि़या शायरी द्वारा फ़िराक़ ने प्राचीन इश्क़िया शायरी को प्रेयसी, बेवफ़ा तवाइफ़ (वेश्या) के कोठे से नीचे उतारा है और आशिक को आठों पहर के रोने-धोने से मुक्ति दिलाई है। आपके कथनानुसार ‘‘इश्क़िया शायरों के लिए सिर्फ़ आशिक होना और शायर होना काफ़ी नहीं। सिर्फ़ नेक और रकीकीकुल कल्ब (कोमल हृदय) होना काफ़ी है। सिर्फ़ जज्बाती (भावुक) और सिर्फ़ माकूल आदमी होने भी काफ़ी नहीं। दाखिली और खारिजी (आंतरिक और ब्राह्य) मुशाहदा (अवलोकन) भी काफ़ी नहीं। इन गुणों के अलावा पुरअजमत (महान) इश्क़िया शायरी के लिए ज़रूरी है कि शायर की दर्की (बोध और ज्ञान सम्बन्धी) जमालियाती या वंज़्दानी (अन्य प्रेरणा सम्बन्धी) और इख़्लाक़ी (सदाचार सम्बन्धी) दिलचस्पियाँ वसीअ (विस्तृत) हों।

उसकी शख़ियत (व्यक्तित्व) एक वसीअ़ ज़िन्दगी और वसीअ़ कल्चर की हामिल (वाहक) हो। उसका दिल भी बड़ा हो और दिमाग़ भी बड़ा हो-यानी ऐसे दिल और दिमाग़ जिन्हें कल्चर ने रचाया सजाया हो।’’
महान इश्क़िया शायरी का यह भेद देव वाणी की तरह ‘फ़िराक़’ पर नहीं, उतरा, बल्कि यह अच्छी और बुरी, सफल और असफल शायरी और देश की प्राचीन और वर्तमान सभ्यता और संस्कृति के तुलनात्मक अध्ययन की देन है। अपने कविता संग्रह मसाल की भूमिका में लिखते हैं कि ‘‘बीसवीं सदी की तीसरी दहाई ख़त्म हो रही थी। उस वक़्त तक मेरी शायरी की उम्र कम ओ बेश दस बरस थी। उर्दू के ज़्यादातर शायर तो दस बरस की मश्क़ (अभ्यास) में बहुत-कुछ कर गुज़रते हैं और कह गुज़रते हैं, लेकिन मेरी शायरी की रफ़्तार जितनी सुस्त थी, उतनी शायद ही किसी और उर्दू शायर की शायरी की रही हो। बात यह थी कि शायरी करने की बनिस्बत उर्दू शायरी ने जो हमें सरमाया दिया है, उसकी जांच पड़ताल में मुझे गहरी दिलचस्पी थी। उस शायरी पर नज़र डाली तो उसमें बहुत कुछ खूबिया नज़र आईं, लेकिन कमियाँ और ख़राबियाँ भी बहुत मिलीं।’’


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