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हफीज जालन्धरी और उनकी शायरी

प्रकाश पंडित

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4989
आईएसबीएन :81-7028-363-9

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हफीज जालन्धरी की जिन्दगी और उनकी बेहतरीन गजलें, नज्में, शेर

Hafiz Jalandari Aur Unki shayari

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उर्दू के लोकप्रिय शायर

वर्षों पहले नागरी लिपि में उर्दू की चुनी हुई शायरी के संकलन प्रकाशित कर राजपाल एण्ड सन्ज़ ने पुस्तक प्रकाशन की दुनिया में एक नया कदम उठाया था। उर्दू लिपि न जानने वाले लेकिन शायरी को पसंद करने वाले अनगिनत लोगों के लिए यह एक बड़ी नियामत साबित हुआ और सभी ने इससे बहुत लाभ उठाया।
ज्यादातर संकलन उर्दू के सुप्रसिद्ध सम्पादक प्रकाश पंडित ने किये हैं। उन्होंने शायर के सम्पूर्ण लेखन से चयन किया है और कठिन शब्दों के अर्थ साथ ही दे दिये हैं। इसी के साथ, शायर के जीवन और कार्य पर-जिनमें से समकालीन उनके परिचित ही थे-बहुत रोचक और चुटीली भूमिकाएं लिखी हैं। ये बोलती तस्वीरें हैं जो सोने में सुहागे का काम करती हैं।

हफ़ीज़ जालन्धरी

 

 

उर्दू शायरी में ‘हफ़ीज़ जालन्धरी का अपना मुकाम है। आजादी से पहले के दौर में वे शायद सबसे अधिक लोकप्रिय शायर थे, जिनकी नज़्में और ग़ज़लें साहित्य-प्रेमियों की जुबान पर चढ़ी हुई थी। इनकी शायरी की एक विशेषता यह है कि उन्होंने नये और अछूते विषयों पर कलम चलाई और पढ़नेवालों के दिल और दिमाग पर एकदम छा गये। आज भी उनकी शायरी पहले की तरह मकबूल है।

आपने अपने जीवन में इस प्रकार की कथाएँ अवश्य सुनी होंगी कि एक बार जब मारे गर्मी के चील अंडा छोड़ रही थी और हर जीव-जन्तु की जबान बाहर निकल आई थी तो बैजूबावरा ने मल्हार गा दिया और देखते-देखते मूसलाधार वर्षा होने लगी। या तानसेन ने आधी रात को दीपक राग छोड़ दिया और शहर भर के बुझे हुए दीपक आप ही आप जल उठे।
ऐसी लोक-कथाओं को आप मनगढंत और कल्पित बातें कह सकते हैं लेकिन इन कथाओं में काव्य-विषय और उसके रूप (संगीत धर्म) के परस्पर सम्बन्ध की ओर जो स्पष्ट संकेत मिलता है उसकी किसी प्रकार की अवहेलना नहीं की जा सकती। और यही कारण है कि किसी महान कवि की किसी रचना के बारे में कभी इस प्रकार की बात सुनने में नहीं आई कि कविता का विषय तो श्रृंगार रस का है और शब्द भक्ति रस के प्रयुक्त किये गये हैं।

मोहम्मद हफ़ीज़ ‘हफ़ीज़ जालंधरी की शायरी का अध्ययन करने से जो बात सबसे पहले हमें अपनी ओर खींचती है वह यही विषय और रूप का परस्पर संबंध है। उसके यहां एक शब्द पर दूसरा शब्द एक पंक्ति पर दूसरी पंक्ति और एक शेर पर दूसरा शेर इस प्रकार ठुका हुआ और आगे बढ़ता हुआ मिलता है मानो किसी चित्र पर पड़ा पर्दा सरक रहा हो। और जब पूरा चित्र हमारे सामने आता है तो जाना-पहचाना होने पर भी हमें उसमें कुछ ऐसा नया अर्थ, नया प्रसंग और नया सौंदर्य नज़र आने लगता है कि हम उस से नज़रें हटाना पसंद नहीं करते। नये और पुरानेपन के इस समन्वय से ‘हफ़ीज़ ने अपने यहां जो निराला-पन पैदा किया है, वह आधारित है उसके छोटे संगीतधर्मी छन्दों के चुनाव पर (जिसके लिए उसने हिन्दी छन्दों का भी सहारा लिया है), विचारों की एकाग्रता पर, तथा चित्र-चित्रण के लिए चित्र से मेल खाती हुई उपमाओं पर। अतएव जब हम उस की कविता बसंत या अभी तो मैं जवान हूँ पढ़ते हैं (या उस की ज़बान से सुनते हैं) तो हम पर एक विचित्र-सी मस्ती और उन्माद छा जाते हैं। ‘जल्वा-ए-सहर के विषय वस्तु की ओर ध्यान दिये बिना केवल शब्दों के उतार-चढ़ाव से ही ऐसा मालूम होता है कि जैसे नींद में डूबा हुआ पूरा संसार जाग उठा हो और एक अंतिम अंगड़ाई के साथ सारी शिथिलता को परे झटक कर दिनचर्या के लिये तैयार हो रहा हो। ‘तारों भरी रात सुनते समय न केवल पूरे विश्व के सो जाने का विश्वास हो जाता है बल्कि स्वयं सुनने वाले पर निद्रा आक्रमण करने लगती है और जब हम ‘बरसात सुनते हैं तो लगता है वर्षा ऋतु में हम किसी बाग की सैर कर रहे हैं, झूला झूलती सुन्दरियाँ मल्हार गा रही हैं और उनके अरमानों भरे गीत हमारे दिल में हूक-सी पैदा कर रहे हैं।

‘उसकी ज़बान से सुनते हैं लिखने की आवश्यकता मुझे इसलिए हुई कि एक बड़ा शायर होने के साथ-साथ ‘हफ़ीज़ एक बड़ा अभिनेता भी है। आज तक कोई ऐसा मुशायरा दूसरे शायरों के लिए ‘शुभ सिद्ध नहीं हुआ जिस में ‘हफ़ीज़ मौजूद हो। अपनी एक दो तानों से ही वह पूरे मुशायरे पर छा जाता है और लोग बार-बार उसी के शेर सुनने की फ़र्माइश करने लगते हैं। लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं है कि वह केवल मुशायरों का शायर है और उस की लोकप्रियता का भेद उस की गलेबाज़ी या उस की विभिन्न शारीरिक हरकतों में निहित है और इसलिये उसे गायक या मसख़रा कह कर टाला जा सकता है।1 नहीं, गायक या मसख़रे की बजाय मौलिक रूप से वह न केवल एक बड़ा शायर है बल्कि उर्दू शायरी में वह एक कड़ी का  सा महत्व रखता है और मेरे इस कथन में संदेह की शायद कम ही गुंजाइश होगी कि ‘इक़बाल के तुरन्त बाद जिन उर्दू शायरों ने शायरी को जीवन के निकटतर लाने, विषय से मेल खाते छन्दों का ‘आविष्कार करने और खूब सोच-समझ कर भाषा और शैली को सरल बनाने के सफल प्रयास किए और इस प्रकार नये शायरों के लिये नई राहें खोलीं, उन में ‘अख़्तर शीरानी और ‘हफ़ीज़ जालंधरी का नाम सब से ऊपर आता है। बल्कि ‘हफ़ीज़ ने तो उर्दू शायरी के तंग दामन को इतना
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1.शुरु-शुरु में ऐसी कोशिशें की गई थीं। उसकी लोकप्रियता को देखते हुए लाहौर में मुद्दतों गलेबाजी होती रही। जिस किसी की आवाज में ज़रा सा लोच था, वह शायर बन बैठा और उल्टी-सीधी तुकबंदियों को गा-बजा कर उर्दू साहित्य में ‘बहुमूल्य वृद्धि करने लगा।

विस्तृत और विशाल किया है कि चमत्कार मालूम होता है। ‘हफ़ीज़ से पहले जिस चीज] को हम स्वर्गीय पंडित हरिचन्द अख़्तर के कथनानुसार हमारी शायरी कहते थे वह अधिकतर इन अर्थों में हमारी थी कि उस के रचयिता भारत में पैदा हुए, अन्यथा उस शायरी में विचार, उद्भावना, परिभाषाएँ, सम्बोधन, पृष्ठभूमि, असल चित्र इत्यादि सब कुछ ईरान का था, और उन्होंने व्यंग किया था कि क्या इस विशाल विस्तृत महाद्वीप में जहां संसार की मानव आबादी का पांचवां भाग बसता है किसी कम्बख़्त को आशिक़ हो जाने की भी तौफ़ीक़ नहीं हुई और अगर हुई तो क्या उसकी प्रेयसी ऐसी ही गई-गुज़री थी कि हमारे शायरों को उसकी चर्चा तक पसंद नहीं।
आज तो ख़ैर ऐसे आशिक़ों और शायरों की कमी नहीं लेकिन पहला आशिक़ कहलवाने का गौरव निःसन्देह ‘हफ़ीज़ ही को प्राप्त है। कड़े विरोध के बावजूद उसने उर्दू शायरी को गीत नामक काव्य-रूप प्रदान किया1 और उसे भारत के प्राकृतिक दृश्यों के चित्रों से रंगारंग कर दिया। इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक और प्राचीन घटनाओं को ‘शाहनामा इस्लाम के नाम से काव्य का रूप देने और शुष्कता तथा गद्य से स्वच्छ रखने में ‘हफ़ीज़ ने जिस कलात्मक निपुणता का प्रमाण दिया है, वह कुछ उसी का काम था।
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1.आश्चर्य है कि कविता और संगीत का चोली-दामन का साथ होने पर भी ‘हफ़ीज़ से पहले उर्दू शायरी में गीत नहीं लिखे जाते थे।

प्रसिद्ध ईरानी शायर ‘फ़िर्दौसी ने महमूद ग़ज़नवी के कहने पर ‘शाहनामा लिखकर ईरान के बादशाहों की महानता को फिर से जीवित करने का जो अद्वितीय काम किया था, ठीक उसी प्रकार ‘हफ़ीज़ ने अपनी धार्मिक भावनाओं से प्रभावित होकर इस्लामी इतिहास और इस्लाम की आन-बान को जिन्दा करने की कोशिश की है।
‘शाहनामा इस्लाम के अतिरिक्त उसकी कविताओं के तीन और संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं, ‘नग़्मा-ए-ज़ार, सोज़ो-साज़ और ‘तल्ख़ाबा-ए-शीरीं। इन संग्रहों की नज़्मों, गजलों और गीतों की विशेषता वही असाधारण प्रवाह है, जिसमें पाठक आप ही आप बहता चला जाता है। ‘हफ़्त पैकर नाम से ‘हफ़ीज़ की कहानियों का एक संग्रह भी प्रकाशित हुआ था, लेकिन ‘‘जो लोग हज़रते ‘हफ़ीज़ को बहैसियत शायर जानते हैं अगर उनसे कहा भी जाए कि ‘हफ़ीज़ के अफ़साने उनकी शायरी से कम क़ाबिले-क़द्र नहीं तो फिलहाल कोई इस पर ग़ौर करने के लिए आमादा न होगा। लोग ‘हफ़ीज़ की शायरी से इस क़द्र मुतास्सिर (प्रभावित) हो चुके हैं कि अब उन्हें किसी दूसरी हैसियत में देखकर दाद देने की मुतलक़ गुंजाइश नहीं रही। [-सय्यद इम्तियाज़ अली ताज (हफ़्त पैकर की भूमिका में से।)]

1921 ई. में उसने पहले-पहल परम्परागत शायरी से हटकर नया रंग अपनाया तो, जैसा कि सदैव होता है, रूढ़िवादियों ने उसपर अपने छुरी-कांटे तेज़ किये। इस बारे में ‘हफ़ीज़ एक स्थान पर स्वयं लिखता हैः-
‘‘मुझे ऐसे लोगों की भीड़-भाड़ में से राह निकालनी पड़ी है जिनक बोध अभी दबोच लेने, तिक्का-बोटी कर डालने और खा जाने से आगे नहीं बढ़ा। साहित्य-उद्यान उनकी शिकार-गाह है। मुझे उनके इक्के-दुक्के से भी वास्ता पड़ा और उनकी टोलियां भी मुझ पर लपकीं, झपटीं। पहले ये धमकी देते हैं, कोई डर जाये या उलझ पड़े तो उसकी ख़ैर नहीं। उनसे बचने के लिये केवल एक शस्त्र उपयोगी है- बेपरवा मुस्कराहट।
अतःएव उसने अपने इसी शस्त्र का प्रयोग किया और कान लपेटे मुस्कराता हुआ अपनी डगर पर चलता रहा और अब तक चल रहा है।

उर्दू शायरी के इस निराले पथिक का जन्म 14 जनवरी 1900 ई.को जालंधर (पंजाब) में हुआ। इस संयोग से यह शताब्दि और वह साथ-साथ चल रहे हैं और उसके कथनानुसार कोई अन्य होता तो एक इसी आधार पर शायर से कहीं उच्च पदवी की मांग कर बैठता-‘‘यह मेरा एहसान है कि मैं शायर होने का जिक्र भी दबी ज़बान से करता हूँ।
उसके जीवन का यह वृत्तांत भी उसी की जबानी सुनियेः
‘‘मेरा खानदान तक़रीबन दो सौ बरस पहले चौहान राजपूत कहलाता था। मेरे बुज़ुर्ग हिन्दू से मुसलमान हो गये और बदले में अपनी जायदाद वग़ैरा खो बैठे। हां, सूरजबंसी होने का ग़रूर मुसलमान होने के बावजूद साथ रहा, मेरी ज़ात तक पहुंचा और ख़त्म हो गया।

‘‘मैं नन्हा-सा था जब मुझे मोहल्ले की क़दीम (प्राचीन) मस्जिद में दाखिल किया गया। मैं यकीनन उस ज़माने में जहीन (तीव्र-बुद्धि) लड़कों में गिना जाता था क्योंकि मैंने 6 बरस में ही नाज़रा क़ुरान शरीफ़ पढ़ लिया। बहुत से सूरे (क़ुरान शरीफ़ के खंड) ज़बानी याद कर लिये और करीमा और मामक़ीमा (ईरानी शायर शेख़ सादी की बच्चों की नज़्में) रट लीं। इसके आगे मैं मस्जिद में  न चल सका , जिस की कई वजहें हैं-इख़लाक़ी (नैतिक) भी और मादी (आर्थिक) भी। अब मुझे मिशन स्कूल में दाखिल किया गया। वहां से मैं दूसरे दर्जे (कक्षा) में भाग निकला। सरकारी मदरिसे में दाखिल हुआ, चौथी जमाअत में वहां से भागा, आर्य स्कूल में दाखिल हुआ, फिर मिशन हाई स्कूल में ले जाया गया, लेकिन हिसाब (गणित) से मेरी जान जाती थी। हर रोज़ हिसाब के वक़्त भाग जाता था और दूसरे दिन पिटता था। यह भागने और पिटने की जंग चार साल तक जारी रही। आख़िर पिटने पर भागना ग़ालिब आ गया और मैं हमेशा के लिये भाग निकला।
‘‘शेर-गोई यों तो मेरी उम्र के सातवें बरस ही शुरू हो गई थी लेकिन इस बीमारी का बाक़ायदा हमला ग्यारह साल की उम्र में हुआ जब मैं छठी जमाअत में पढ़ता था और इस बीमारी का सबब इश्क़ की गर्मी थी। लड़कपन का यह इश्क़ भी अजीब चीज़ था। ऐ काश ! उसको मैं बयान कर सकता !

‘‘उस ज़माने में नावल, अफ़साने, ड्रामे, शायरों का कलाम, थियेटर मुशायरे सबसे दिलचस्पी पैदा हो गई थी। मेरे घराने पर मौत का फ़रिश्ता साया डाल रहा था। पांच भाई एक के बाद एक चल बसे। एक तरफ़ तो यह आफत थी, दूसरी तरफ़ मैं घर के लिये मुसीबत बन गया, क्योंकि घर से भागते वक़्त जो कुछ हाथ लगता उड़ा ले जाता था।
‘‘सात-आठ बरस की उम्र में मैंने पहली बार एक मुशायरा सुना। उस वक़्त तो मुझे वह मजलिस मज़हकाख़ेज़ (उपहासजनक) सी नज़र आई। वाह, वाह, सुबहान-अल्लाह, मुकर्रर इर्शाद हो वल्ला एजाज है, जादू है, सहर है-या दाद देने वालों का उछलना, हाथों का हिलाना, सब का मिलकर शोर मचाना, अजीब मसख़रापन मालूम होता था। क्या ख़बर थी कि आख़िर यही मसख़रापन मुझे भी करना पड़ेगा और उम्र का हिस्सा इसी तमाशगाह में गुज़रेगा।
जब मैंने बाक़ायदा ग़ज़ल गोई शुरू की तो हस्बे-दस्तूर (नियमानुसार) क़दीमी उस्ताद की जरूरत पड़ी। पास की बस्ती में सरफ़राज़ ख़ां साहब सरफ़राज़ मुदर्रिस (अध्यापक) थे। जैसे शेर उस वक़्त कहते थे, वैसे ही आज बुढ़ापे में भी कहते हैं और मेरा ख़याल है कि अगर वो सब कुछ छाप दिया जाये जो उन्होंने अब तक कहा है तो बीस-तीस हज़ार सफ़हात (पृष्ठों) से कम न होगा। ख़ैर, मैंने उनको शुरू की दो तीन ग़ज़लें दिखाईं। उन्होंने कोई ख़ास इस्लाह (संसोधन) न दी लेकिन अब तक उनका शुक्रगुज़ार हूँ। मुझे किसी ने मश्वरा दिया कि अपना कलाम हज़रत गिरामी की ख़िदमत में दक्कन रवाना करूँ और इस्लाह चाहूं। मैंने ऐसा किया और चन्द ग़ज़लें उनकी ख़िदमत में इर्साल कीं। जबाव मिला, गिरामी फ़ारसी का शायर है, उर्दू से बहुत दूर। हफ़ीज़ जौहरे-क़ाबिल मालूम होता है। उसे चाहिए कि अपना कलाम बार-बार ख़ुद ही नाक़िदाना (आलोचनात्मक) नज़र से देखा करे वग़ैरा। मैंने इस मशवरे पर अमल शुरू कर दिया। ईमान की बात यह है कि मेरी ग़ौरो-फ़िक्र की आदत इसी मशवरे की बदौलत है।

इस मश्वरे पर अमल करते हुए हफ़ीज़ ने किसी उस्ताद के सामने घुटने नहीं टेके और होते-होते इस दावे का हकदार हो गया किः
अहले-जबां तो हैं बहुत, कोई नहीं है अहले-दिन।
कौन तेरी तरह हफ़ीज़ दर्द के गीत गा सका।

 

 

और
हफ़ीज़ अहले-ज़बाँ कब मानते थे
बड़े ज़ोरों से मनवाया गया हूं

 

 

और
किया पाबंदे-नै नाले को मैंने
ये तर्जे़-ख़ास है ईजाद मेरी

 

 

आज हफ़ीज़ जालंधरी जिसे अबुल-असर (प्रभाव-शालियों का पिता) कहा जाता है, जिसकी शायरी सम्बन्धी सेवाओं के आधार पर (कदाचित् दूसरे महायुद्ध के पक्ष में मैं तो छोरा को भरती कराय आई रे-ऐसी प्रचारात्मक नज़्में और गीत लिखने के कारण भी) अंग्रेज़ी सरकार ने उसे पहले ख़ान साहब और फिर ख़ान बहादुर का खिताब दिया था और जिसे पाकिस्तान सरकार आधुनिक काल का सब से बड़ा कौमी शायर (राष्ट्र-कवि) मानती है और हर वर्ष एक बड़ी रक़म वृत्ति स्वरूप प्रदान करती है, किसी जमाने में अत्यन्त दीन-दरिद्र और निराश्रय रह चुका है। उसने रेल्वे लाइन पर मेटी की है। सड़कों पर घूम-फिर कर इत्र बेचा है। ताले बनाने और कपड़े सीने का धंदा किया है। डाकघर के बाहर बैठकर लोगों के पत्र और मनीआर्डर लिखे हैं। रेल्वे स्टेशनों पर मजदूरी और सेना में ठेकेदारी की है। नये शायरों को ग़ज़लें लिखकर देना और सिंगर मशीन कम्पनी की नौकरी आदि सैकड़ों पापड़ बेले हैं। जीवन के साथ इन तरह-तरह की समझौता-बाजियों की तरह काव्य-रूप से तो नहीं लेकिन काव्य-विषय के साथ उसने काफी समझौते-बाजियां की हैं। इस के अतिरिक्त (विशेषकर पाकिस्तान बनने के बाद) वह धर्म की छत्र-छाया में इस हद तक सिमट गया है कि उसकी कलात्मक योग्यताओं को देखते हुए यह कहने की इच्छा होती है- काश वह सुधारक बनने की कोशिश न करता और सीने में दबी उस चिंनगारी को और चमकने देता जिसने 16 अगस्त 1943 ई.को उसे अपना ख़ानबहादुरी का खिताब छोड़ने पर उकसाया था और 7 दिसम्बर 1943 ई. को उसके कलम और ज़बान से उगलवाया था किः

सारे जहान में जमाअती एहसास (वर्गीय चेतना) की जो आग भड़की और भड़क रही है, हिन्दोस्तान तक उसकी गर्मी ही नहीं शोले और लपटें पहुंच गई हैं। दूसरी जंगे-आलम-गीर (दूसरे महायुद्ध) की भट्टी ने बिलावास्ता ही सही यहां भी कारफ़र्माई की है। यहां भी इजारादारी और मुख़्तारी की ज़ंजीरों के हल्क़े पिघलने लगे हैं-महकूम-ओ-मजबूर किसान व मजदूर क़ुव्वते सरमाया (धन-शक्ति) और सामान के मुकाबिले (सम्मुख) अपनी फ़ाक़ाज़दा हड्डियों को आरास्ता (सुसज्जित) करते हुए आगे बढ़ रहे हैं नई आरज़ूएं जो पूरी होकर रहेंगी। नये जमाअती एहसासे-बेदारी (जागृति) का शऊर (चेतना) कहीं रफ़्ता-रफ़्ता (धीरे-धीरे) कहीं बसुरअत (तेज़) हस्बे-हालात (परिस्थितियों के अनुसार) दिलों की गहराइयों तक पहुंच रहा है और जिन्दगी बन कर उभर रहा है। ये नई ज़िन्दगी कहीं बरसरेकार है कहीं बरसरेपैकार (संघर्षशील)।
इसके मुक़ाबिल भी वह सब हो रहा है और होगा जो दूसरे मुल्कों में इन्हीं हालात के अन्दर हो चुका है। लेकिन जद्दोजहद (संघर्ष) की बार-बार नाकामी और नामुरादी अब पीछे हटने की तलकीन नहीं करती। जिन्दगी आगे बढ़ने में है।
काश ! हफ़ीज़ अपने इस कथन पर बराबर अग्रसर रहता और उर्दू साहित्य को तल्ख़ाबा-ए-शीरीं की जन-चेतना सम्बन्धी नज़्मों से भी अधिक प्रौढ़ नज़्में प्रदान करता !

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