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अहमद नदीम कासमी और उनकी शायरी

प्रकाश पंडित

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4991
आईएसबीएन :81-7028-360-4

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अहमद नदीम कासमी की जिन्दगी और उनकी बेहतरीन शायरी गजलें, नज्में, शेर

Ahmad Nadim Quasmi Aur Unki Shayari

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘‘सावधान ! अहमद नदीम क़ासिमी आ रहा है। और आदरवश पूरा वातावरण दम साध लेता है। यह एक विचित्र प्रकार का उल्लास-मिश्रित भय है, जो नदीम क़ासमी के आते ही महफ़िल़ पर छा जाता है और सब लोग उस जादू भरे में लिपटे-लिपटाये झूलते रहते हैं।’’

अहमद नदीम क़ासमी के सम्बन्ध में उर्दू के एक लेखक ‘फ़िक़्र’ तौंसवी के इन शब्दों का अर्थ केवल वही लोग समझ सकते हैं, जो व्यक्तिगत रूप से क़ासमी को जानते हों या जिन्होंने उसे किसी महफ़िल में आते देखा हो। यह बड़ी विचित्र वास्तविकता है कि क़ासमी के बुज़ुर्ग रिश्तेदार, और बुजुर्ग साहित्यकार भी, कि जिनके सामने स्वयं क़ासिमी को सादर झुक जाना चाहिये, उसकी उपस्थिति में उसके प्रति प्रेम-भाव के साथ-साथ श्रद्धा-भाव में भी ग्रस्त हो जाते हैं। उसकी किसी बात का उत्तर देने की बजाय उसकी हां में हां मिलाने लगते हैं। यहां तक कि कभी-कभी इस व्यवहार से स्वयं क़ासिमी बौखला उठता है।

जहां तक उसके सम्बन्धियों का सम्बन्ध है, मेरे विचार में उनकी श्रद्धा का कारण कुछ धार्मिक मान्यतायें हैं क्योंकि वह एक ‘पीरज़ादा’ है और स्वयं क़ासमी के कथनानुसार उसने अपने जूतों को उन ‘मुरीदों’ के झुरमुट में इस प्रकार गायब होते देखा है कि प्रत्येक व्यक्ति की आंखें चूमकर चमक उठीं और हर मुरीद के चेहरे पर बहुत बड़े धार्मिक बुज़ुर्ग के सुपुत्र के जूतों को छूकर एक दैवी तेज छा गया। और चूंकि उसने अपने जीवन में कभी अपने बुज़ुर्गों को किसी शिकायत का अवसर नहीं दिया और अपने सदाचार में कोई त्रुटि नहीं आने दी, इसलिये उसके बुजुर्ग उससे बड़े स्नेह तथा श्रद्धा से पेश आते हैं, लेकिन आस्तिक और नास्तिक, प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी, हर श्रेणी के साहित्यकार क्यों इतने आदर-सम्मान से उसका नाम लेते हैं और क्यों उससे इतने प्रभावित हैं, यह भेद बिना उससे मिले या उसकी रचनाओं का अध्ययन किये समझ में नहीं आ सकता।

उससे मिलने और उसकी रचनाओं का अध्ययन करने से जो बात हमें सबसे पहले अपनी ओर खींचती है, वह है उसके व्यक्तित्व और उसकी कला में विमलता। एक बड़े कलाकार के लिये जहां कई और गुणों की आवश्यकता होती है वहां उसमें विमलता का गुण सबसे आवश्यक बल्कि अनिवार्य है। कोई कलाकार उस समय तक महान साहित्य की रचना नहीं कर सकता जबतक कि अपने विचारों-भावनाओं सिद्धांतों को बिना लीपापोती के (कलात्मक ढंग से) प्रस्तुत करने की उसमें क्षमता और साहस न हो। अहमद नदीम क़ासमी की शायरी के क्रमशः अध्ययन से हम उसके किसी काल के सिद्धांतों से तो असहमत हो सकते हैं, लेकिन उसकी कलात्मक विमलता से किसी प्रकार इन्कार नहीं कर सकते। और यह उसकी कलात्मक विमलता ही है, जिसके कारण मित्र, शत्रु सभी उसका इतना आदर करते हैं।

आधुनिक उर्दू साहित्य का यह आदरणीय शायर जिसका असल नाम अहमद शाह है 20 नवम्बर सन् 1916 को जिला शाहपुर (पश्चिमी पंजाब) के एक छोटे से पहाड़ी गांव ‘अंगा’ में पैदा हुआ। पीरज़ादा होने पर भी घर की हालत किसी निर्धन ‘मुरीद’ के घर से भी बदतर थी और पिता के देहांत के बाद तो ‘पहनने को मोटा-झोटा, खाने को जंगली साग और आग तापने को अपने ही हाथों से चुने हुए उपले’’ रह गये थे। अपने उन दिनों के जीवन के बारे में एक जगह वह लिखता है कि ‘‘पाठशाला जाने से पहले मेरे वे आँसू बड़ी सावधानी से पोंछे जाते थे जो माता से केवल एक पैसा प्राप्त करने में असफल होने के दुःख पर बह निकलते थे। लेकिन मेरे वस्त्रों की सफ़ाई, मेरे बस्ते का ठाठ और मेरी पुस्तकों की ‘गेट-अप’ किसी से कम न होती थी। घर से बाहर उत्कृष्टता-भाव छाया रहता था और घर में प्रवेश करते ही वे सब बुलबुले छिन्न-भिन्न हो जाते थे जिन्हें मेरे बचपन के सपने तराशते थे। प्याज़ या सब्ज़ मिर्च या नमक-मिर्च के ‘सम्मिश्रण’ से रोटी खाते समय जीवन बड़ा भयंकर प्रतीत होती था और जब मैं अपने ही खानदान के बच्चों में खेलने जाता था तो आँखों में भय होता था और दिल गुस्सा। खानदान के बाक़ी सब घ़राने खाते-पीते थे, जीवन पर झोल चढ़ाये रखने का तकल्लुफ़ केवल हमारे भाग्य में आया था। जिन सगे-सम्बन्धियों ने पिता की गद्दी पर क़ब्ज़ा ज़माया, उन्होंने उनकी पत्नी, एक बेटी दो बेटों और स्वयं उनके लिये कुल डेढ़ रुपया मासिक (आधे जिसके बारह आने होते हैं) वज़ीफ़ा मुक़र्रर किया।

तीन पैसे प्रति-दिन की इस आय में माता मुझे प्रति-दिन एक पैसा देने की बजाय मेरे आंसू पोंछ देना अधिक आसान समझती थीं।’’
प्रत्यक्ष है कि यह झोल अधिक दिनों तक न चल सका शिक्षा-दीक्षा के लिये उसे अपने सम्बन्धियों की ओर देखना पड़ा।
‘‘अपने एक सम्बन्धी की आर्थिक सहायता और कुछ अपनी हिम्मत से मर-मिटकर 1932 में बी.ए. किया और अब यह परवाना हाथ में लेकर और कुछ खानदानी उपाधियों का पुलंदा कांधों पर लादकर और पश्चिमी शिष्टाचार और विनय-रीति रट कर मैंने नौकरी की भीख मांगनी शुरू की।

1935 से 1945 ई. तक लगभग पूरे पंजाब का चक्कर लगाया। खानदान के पुराने अभिभावकों ने मुस्कराकर देखा और सहानुभूति प्रकट करते हुए सैर को निकल गये। एक्स्ट्रा-एसिस्टैंट कमिश्नरी, तहसीलदारी और नायब-तहसीलदारी से लेकर अंजुमने-हिमायते-इस्लाम में क्लर्की तक के लिए नित-नये ढंग से दर्ख्वास्तें लिखीं। रिफ़ार्म-कमिश्नर के दफ़्तर में बीस रुपये मासिक पर मुहर्ररी करता रहा। ज़िला मिंटगुमरी में नौ दिन टेलीफ़ोन आपरेटर रहा। प्रकाशन-विभाग (पंजाब) की पत्रिका ‘तहजीबे-निसवां’ के लिए अंग्रेजी कहानियों का अनुवाद किया। एक महानुभाव को पांच सौ पन्नों की एक पुस्तक चालीस रुपये के बदले लिख दी (जो अब तक उन्हीं के नाम से बिक रही है) रावलपिंडी में टाइप सीखता रहा। पंचायत विभाग से लेकर आर्मी एंकाउंट्स तक के दफ़्तरों में मेरा नाम उम्मीदवार के तौर पर दर्ज रहा। साथ-साथ मांगे-तांगे का लिबास पहनकर डिप्टी कमिश्नरों और फ़िनानशल कमिश्नरों की ड्योढ़ियों पर सलामी देता फिरा कि ‘‘मेरे अमुक बुज़ुर्ग ने अंग्रेज़ जनरल मैक्वैल को मनीपुर सेनाओं का गुप्त पता दिया और ‘शेर दिल’ की उपाधि प्राप्त की’’—‘‘मेरे अमुक सम्बंधी ने तिब्बत के मोर्चे पर विजय पाने में लार्ड कर्ज़न को यह सहायता दी’’—‘‘मेरे अमुक रिश्तेदार को महायुद्ध में सिपाही भरती करने के पुरस्कार-स्वरूप इतने तमगे़ और उपाधियां प्रदान की गईं...’’

लेकिन ऐसी कड़ी परिस्थितियों से गुज़रने के बावजूद, जबकि उसे तीन-तीन दिन के फ़ाके भी करने पड़े, जब एक बार उसे कहीं से कुछ क़लम की मजदूरी मिल गई तो उसने बजाय जी भर खाने के एक सिनेमा हाल की राह ली। तीन बजे वहां से निकलकर एक और सिनेमा हाल में घुस गया। शाम को वहां से निबटा तो एक और क्रीड़ास्थल में चला गया। रात के नौ बजे वहां से निकला तो जेब में एक और मनोरंजन साधन मौजूद था। अतएव एक और सिनेमा हाउस में ऊंचे दर्जे का टिकट लेकर बैठ गया। जब वहां से एक बजे निकला तो जेब में केवल एक दवन्नी थी। ‘‘भूखा-प्यासा, बिना किसी मतलब के, नहर की ओर निकल गया। मन्द गति से बहते हुए पानी सितारों का मटियाला प्रतिबिम्ब देखता रहा कि पौ फटी और मुझे महसूस हुआ कि कल सुबह से मैं अपने आप में नहीं हूं। ये तथा इस प्रकार की कई और आवारगियां मेरे ऐसे नौजवानों की प्रतिदिन की घटनायें हैं, लेकिन यहां मैं केवल अपना ज़िक्र कर रहा हूं—एक शायर का ज़िक्र—जिसकी शायरी पर यदि ऐसी घटनाओं का प्रभाव न पड़े तो वह अपनी कला के प्रति सच्चा नहीं। वह केवल नक़्क़ाल और अनुगामी है।’’

अहमद नदीम क़ासमी की शायरी में हमें किसी प्रकार की नक़्क़ाली या अनुकरण का आभास नहीं मिलता। अपने जीवन की विभिन्न घटनाओं के अनुभवों द्वारा (जिनका सिलसिला आज भी जारी है) उसने अपना एक अलग मार्ग निकाला और जिस समय जो महसूस किया बड़ी दयानतदारी से प्रस्तुत भी कर दिया। वह यदि उदास और मलिन हुआ तो हमें उदास टीलों, वीरान मरुस्थलों और उजाड़ खंडहरों में ले गया और झुकी हुई खजूरों, चकराते हुए बगूलों और बिना फूल-पत्ती के बबूलों द्वारा हमारे मन-मस्तिष्क में निराशा-विवशता और करुणा उत्पन्न की। प्रकृति और नारी के सौन्दर्य से प्रभावित हुआ तो हमें गांव की सलोनी संध्याओं, मुस्कराते हुए चश्मों और गाते हुए पनघटों पर ले गया। उसने हमें धानी-चूड़ियों की खनक सुनवाई। गोरी बाहों की लचक और थरथराते भूमरों की फबन और ढोलक पर नाचती हुई कोमल उंगलियों की तड़प दिखाई। क्रोधित हुआ तो उसकी ललकार से धरती-आकाश कांपने लगे और जब सोचने के मूड में आया तो अपनी सोच के अनुसार सब गुत्थियां सुझलाकर रख दीं।

क़ासमी की सोच का उल्लेख करते हुए मुझे अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध कवि ‘कोलरिज’ का यह कथन याद आ रहा है कि कोई व्यक्ति बड़ा कवि नहीं हो सकता जब तक कि वह एक विशाल-हृदय दार्शनिक न हो। इस कथनानुसार अहमद नदीम क़ासमी की 1945 (बल्कि 1947) तक की शायरी में हमें किसी महान् दर्शन का पता नहीं चलता, बल्कि ‘इक़बाल’ की तरह यहां-वहां अनेक सिद्धांत मिलते हैं जिनमें इस्माल को पूरे विश्व की जीवन-व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत करने की भावना सबसे उग्र है और वह बड़े गौरव से एलान करता है कि :

मैं अपना रिश्ता शहे-ग़ज़नवी से जोड़ूंगा

लेकिन ‘इक़बाल’ के विपरीत उसके सिद्धांतों में धीरे-धीरे एकसारता और दो-टूकपन आता गया और सामाजिक परिवर्तनों के बोध द्वारा उसने उस जीवन-दर्शन को पा लिया, जिसके बिना आज का शायर किसी प्रकार बड़ा शायर नहीं बन सकता। आज वह जन-साधारण के उस आन्दोलन से सम्बन्धित है जो मनुष्य के सुन्दर भविष्य के लिए प्रतिक्रियावादी शक्तियों से लोहा ले रहा है।

उसके आज के सिद्धांत जैसा कि मैं पहले कह चुका हूं धीरे-धीरे ढले हैं। देव-बाणी की तरह एकदम उसके मस्तिष्क में नहीं उतरे। इनके लिये उसे काफ़ी लम्बा सफ़र करना पड़ा है। ‘पाकिस्तान ज़िन्दाबाद’ के नारे लगाने पड़े हैं। तैमूर के भयावह व्यक्तित्व को न्याय के सिंहासन पर बिठाना पड़ा है। धर्म के नाम पर ख़ून की नदियां बहते और अबला नारियों का सतीत्व लुटते देखना पड़ा है। और साथ ही साथ सोचना पड़ा है कि अमुक व्यक्ति निर्धन है तो क्यों ? अमुक ने अपनी बेटी बेच दी तो क्यों बेच दी ? अमुक ने चोरी की तो क्यों की ? अमुक बेगुनाह ने थानेदार के सामने नाक से लकीरें खैंची तो क्यों खैंची और अमुक चुपके से बेगार पर काम करने चला गया तो क्यों चला गया ? और इसी सोच ने जब क्रियात्मक-रूप धारण किया, सिकंदर और फ़ग़फूर की जगह किसान और मज़दूर ने सम्भाल ली और वह दलित-दरिद्र आदमी के गीत गाने लगा, अत्याचारी को भरे बाजार में अत्याचारी कहने लगा तो पाकिस्तान सरकार ने उसे जेल में डाल दिया।

क्लर्की, मुहर्ररी, एडीटरी, बेकारी और महकमा आबकारी ने यद्यपि उसे हर समय अपने लौह-पंजों में जकड़े रखा और रचनात्मक कार्य करने का बहुत कम अवकाश दिया, किन्तु उसके परिश्रम और उसकी सख़्तजानी पर आश्चर्य होता है जब हम देखते हैं कि उसकी लिखी हुई नज़्मों, ग़ज़लों, रुबाइयों, क़तओं, कहानियों, ड्रामों और लेखों की गिनती करना न केवल कठिन बल्कि असम्भव है। मेरे सम्मुख इस समय उसके केवल तीन कविता-संग्रह ‘रिमझिम’ ‘जलालो-जमाल’ और ‘शोला-ए-गुल’ हैं और मैं इन पुस्तकों की पृष्ठ-संख्या देखकर ही परेशान हो रहा हूं कि अपनी इस संक्षिप्त-सी आयु में क़ासमी ने ये सब कैसे लिख लिया ?

क़ासमी ने ये सब कैसे लिख लिया, यह तो मैं नहीं कह सकता लेकिन उसके लिखने के ढंग से जिस तपस्या का पता चलता है, वह प्रत्येक शायर या लेखक के बस की बात नहीं। उसकी अधिकतर नज़्में, ग़ज़लें और कहानियां रात के दो बजे के बाद की रचनायें हैं। वह नींद का सख़्त दुश्मन है और इस दुश्मनी को कभी कमज़ोर नहीं होने देता। चाय पर चाय और सिग्रेट पर सिग्रेट पीता रहता है। मित्र-मुलाक़ातियों को दो-दो बजे रात तक अपने यहां बिठाये रखता है कि ताकि नींद का खुमार सफल न हो पाये और उसकी वह रोमांटिक परिधि शुरू हो सके....और जब चारों तरफ चुप्पी छा जाती तो वह चारपाई पर उकड़ूं बैठा कोई कहानी लिख रहा होता है। नज़्म या ग़ज़ल लिखना हो तो लिहाफ़ ओढ़ कर लेट जाता है और धीरे-धीरे गुनगुनाता और शे’र लिखता रहता है।

अगर नज़्म या कहानी का मूड पैदा न हो सके तो वह अपने कमरे के एक और पहलू की ओर अपने तीर-कमान सीधे कर लेता है। उसके पलंग, कुर्सियों, अलमारियों पर हर तरफ़ पुस्तकें, काग़ज़, पत्र-पत्रिकायें बिखरी रहती हैं। मेज़ पर किताबों-कागज़ों के ढेर। सिग्रेट के खाली डिब्बे, कोई इधर कोई उधर। ऐश-ट्रे जो कभी मेज पर होता है, कभी लिहाफ़ पर, कभी तकिये पर और जब भर जाता है तो हाथ लगने से उलट जाता है—रात के दो बजे इस बेतरतीबी से तंग आकर वह आलमारियों में से पुस्तकें निकाल लेगा। मेज़ और पलंग पर बिखरी हुई पुस्तकों को उनमें शामिल कर लेगा। काग़ज़ों, पत्र-पत्रिकाओं से इस ढेर में वृद्धि करेगा और फिर इन पहाड़ों के बीच आलती-पालती मार कर बैठ जाएगा। पुस्तकों, काग़ज़ों और लेखों को तरतीब देता रहेगा। उन्हें अलमारियों में सजायेगा। मेज़ पर जमायेगा। काग़ज़ के एक-एक पुर्जे की परख करेगा और फिर अध्ययन शुरू करेगा। और इस तरतीब से शुरू करेगा कि जब सुबह को उठेगा तो मेज़ पर पुस्तकें बिखर रही होंगी। अलमारियों में फिर उसी बेतरतीबी से ठुंसी होंगी। तकिये के नीचे पुस्तकों-पत्रिकाओं का ढेर पड़ा होगा और रात जिस काग़ज़ पर नज़्म या ग़ज़ल लिखी थी, वह मुड़ी-तुड़ी हालत में लिहाफ़ के एक कोने में पड़ा होगा।



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