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अख्तर शीरानी और उनकी शायरी

प्रकाश पंडित

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4994
आईएसबीएन :9789386534064

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अख्तर शीरानी की जिन्दगी और उनकी बेहतरीन शायरी गजलें, नज्में, शेर

Akhtar Shirin Aur Unki Shayari a hindi book by Prakash pandit -अख्तर शीरानी और उनकी शायरी - प्रकाश पंडित

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उर्दू के लोकप्रिय शायर

नागरी लिपि में उर्दू के लोकप्रिय शायरों व उनकी शायरी पर आधारित पहली सुव्यवस्थित पुस्तकमाला। इसमें मीर, गालिब से लेकर साहिर लुधियानवी-मजरूह सुलतानपुरी तक सभी प्रमुख उस्तादों और लोकप्रिय शायरों की चुनिंदा शायरी, उनकी रोचक जीवनियों के साथ अलग-अलग पुस्तकों में प्रकाशित की गई हैं।

इस पुस्तक माला की प्रत्येक पुस्तक में संबंधित शायर के संपूर्ण लेखन से चयन किया गया है और प्रत्येक रचना के साथ कठिन शब्दों के अर्थ भी दिये गये हैं। इसका संपादन अपने विषय के दो विशेषज्ञ संपादकों-सरस्वती सरन कैफ व प्रकाश पंडित-से कराया गया है। अब इस पुस्तकमाला के अनगिनत संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और पाठकों द्वारा इसे सतत सराहा जा रहा है।

 

अख़्तर शीरानी

 

अख़्तर शीरानी को उर्दू का सबसे बड़ा शायर कहा गया है। वर्ड्सवर्थ की लूसी और कीट्स की फैनी की तरह उन्होंने भी ‘सलमा’ नामक नारी का रूप देकर अमर बना दिया, जो उनके मिस्त्र वास्ती के अनुसार एक वास्तविक सुंदरी थी—जिसके प्रेम में शायर के दिल से नग्मे फूट निकले। उसकी मृत्यु के बाद उसके बक्से से चंद पांडुलिपियों और हसीनों के खतूतों के अलावा कुछ न निकला।


ग़रज़ ‘अख़्तर’ की सारी ज़िंदगी का ये खुलासा है
कि फूलों की कहानी कहिये, शोलों का बयाँ लिखिये


क, ख या ग नाम का कोई लड़का जवान होता है और, जैसा कि किसी ने कहा है ‘‘जवानी में प्रत्येक व्यक्ति प्रेमी होता है या स्वयं को प्रेमी समझ लेता है’’। क, ख या ग नाम का वह व्यक्ति एक लड़की से प्रेम करता है, फिर उनकी मुलाक़ातें होती हैं। दोनों एक दूसरे से कुछ वचन लेते हैं। एक दूसरे के बिना जीवित न रहने की क़स्में खाते हैं; लेकिन, जैसा कि इस देश में हमेशा से होता आया है, दोनों एक दूसरे से बिछड़ने पर विवश कर दिये जाते हैं। जीवन की धारा बदल जाती है। धीरे-धीरे सब कुछ बदल जाता है; लेकिन एक टीस, एक कसक सदैव बनी रहती है !

यह एक साधारण-सी बात है और हम में से लगभग हर व्यक्ति इस अवस्था या कैफ़ियत में से गुज़रता है; लेकिन यही साधारण-सी बात अप्रत्याशित रूप से असाधारण बन जाती है जब प्रेमी का नाम ‘अख़्तर’ शीरानी हो।
‘अख़्तर’ शीरानी का नाम ज़बान पर आते ही ‘गेटे’ का वह कथन याद आ जाता है जिसमें उस जर्मन दार्शनिक ने प्रेम और वेदना की भावना का ज़िक्र करते हुए कहा था कि प्रेम और वेदना की भावना विश्व की प्रत्येक वस्तु में विद्यमान है लेकिन इसका सजीव रूप नारी है।

जहाँ तक नारी को और उसके कारण प्रेम और वेदना की भावना को अपना काव्य-विषय बनाने का प्रश्न है ‘गेटे’ के इस सजीव रूप को हम ‘वर्डसवर्थ’ के यहाँ ‘लूसी’ के रूप में देखते हैं, ‘कीट्स’ की कविता में वह ‘फ़ैनी ब्रौनी’ बनकर हमारे सामने आता है, और उर्दू का सबसे बड़ा रोमांसवादी शायर ‘अख़्तर’ शीरानी उसे ‘सलमा’ कहकर पुकारता है।
कुछ समालोचकों की दृष्टि में ‘अख़्तर’ की ‘सलमा’ भी ‘वर्डसवर्थ’ की ‘लूसी’ और ‘कीट्स’ की फ़ैनी’ की तरह कवि की कल्पित प्रेयसी है—एक पवित्र परछाईं, एक अलौकिक सुन्दरी—क्योंकि ‘सलमा’ के अतिरिक्त ‘अख़्तर’ के यहां ‘रेहाना’ ‘अज़रा’, ‘शीरीं’, ‘शम्सा’, ‘नसरीं’, ‘नाहीद’ इत्यादि कई नायिकाओं का उल्लेख मिलता है और समान मधुरता और भावुकता के साथ मिलता है।

‘सलमा’ की प्रशंसा करते हुए वह कहता है :

 

बहारे-हुस्न का1 तू ग़ुञ्चा-ए-शादाब2 है सलमा !

तुझे फ़ितरत ने अपने दस्ते-रंगी से3 संवारा है,
बहिश्ते-रंगो-बू का4 तू सरापा5 इक नज़ारा है,

तेरी सूरत सरासर पैकरे-महताब6 है सलमा,
तेरा जिस्म इक हुजूमे-रेशमो-कमख़्वाब7 है सलमा


1. सौंदर्य के वसन्त का 2. पल्लवित कली 3.रंगीन हाथों से 4.रंग और सुगंधि के स्वर्ग का 5. सिर से पैर तक 6.चाँद का प्रतिरूप 7.रेशम और कमख़्वाब का ढेर


शबिस्ताने-जवानी का1 तू इक जिन्दा सितारा है,
तू इस दुनिया में बहरे-हुस्ने-फ़ितरत का2 किनारा है
तू इस संसार में इक आस्मानी ख़्वाब है सलमा !


और ‘अज़रा’ के सम्बन्ध में वह कहता है :

 

परी-ओ-हूर की तस्वीरे-नाज़नीं ‘अजरा’ !
शहीदे-जल्वा-ए-दीदार3 कर दिया तू ने,
नज़र को महशरे-अनवार4 कर दिया तू ने,

बहारों-ख़्वाब की तनवीरे-मरमरी5 ‘अज़रा’ !
शराबों-शे’र की तफ़सीरे-दिलनशीं6 ‘अज़रा’!


और ‘रेहाना’ के बारे में लिखता है :


उसे फूलों ने मेरी याद में बेताब देखा है।
सितारों की नज़र ने रात भर बेख़्वाब देखा है।।

वो शम्मए-हुस्न7 थी पर सूरते-परवाना8 रहती थी।
यही वादी है वो हमदम9 जहां ‘रेहाना’ रहती थी।।


लेकिन ‘अख़्तर’ के एक परम मित्र हकीम नय्यर वास्ती ने अपनी एक पुस्तक ‘अख़्तर व सलमा’ में बड़े विस्तार से बताया है कि ‘सलमा’ शायर की कोई कल्पित नायिका नहीं बल्कि इसी संसार की एक सजीव सुन्दरी है जिससे ‘शायर’ को असीम प्रेम था और

1. जवानी के शयनागार का 2. प्रकृति के सौन्दर्य के सागर का 3. दर्शन के जल्वे का शहीद 4. प्रलयक्षेत्र की ज्योति 5. मरमरीं आभा 6. हृदय-स्पर्शी व्याख्या 7. सौंदर्य का प्रतीक 8. पतंगे की तरह 9. साथी
स्वयं सलमा उसे जी-जान से चाहती थी; लेकिन सामाजिक प्रतिबंधों के कारण ‘सलमा’ का विवाह कहीं दूसरी जगह हो गया और शायर ने इस विछोह की पीड़ा का इलाज शराब में ढूँढ़ना चाहा। और वे जो अन्य नायिकाओं या प्रेयसियों के नाम उसकी शायरी में मिलते हैं, वे ‘सलमा’ के लिए खाई हुई इस क़सम की प्रतिक्रिया थी कि :


अगर मुझे न मिलीं तुम, तुम्हारे सर की क़सम
मैं अपनी सारी जवानी तबाह कर लूंगा


वास्तविकता जो भी हो, इस वास्तविकता से इन्कार नहीं किया जा सकता कि ‘सलमा’ अर्थात् एक नारी ‘अख़्तर’ की शायरी का कलेवर भी है और आत्मा भी, जिसके प्रेम में शायर के दिल के तारों से ऐसे नग्में फूट निकले जो उर्दू की रोमांसवादी शायरी के लिये अन्तिम शब्द बन गये।

‘अख़्तर’ को जो मैंने उर्दू का सबसे बड़ा रोमांसवादी शायर कहा, तो मैं समझता हूं मैंने किसी अतिशयोक्ति से काम नहीं लिया। रोमांसवाद एक बहुत विशाल और उलझी हुई धारणा है और प्रत्येक रोमांसवादी कवि रोमांस के क्षेत्र में रहते हुए भी एक-दूसरे से अलग हो जाता है।

कोई प्रेयसी की कल्पना-भर से ही आनन्दित हो जाता है (आगे चलकर उसकी प्रेयसी और परमेश्वर में भेद करना कठिन हो जाता है); कोई उसके शरीर को छूना बल्कि इस प्रकार भींचना चाहता है कि दोनों एक-दूसरे में विलीन होकर रह जाएँ (यहां रोमांस को कामुकता अपने चंगुल में ले लेती है); और कोई रोमांस के नाम पर प्रकृति-पूजक हो जाता है। यही भेद किसी को ‘शैले’ बनाता है, किसी को ‘वर्डज़वर्थ’, किसी को ‘कीट्स’ और किसी को ‘बायरन’; लेकिन विभिन्न युगों, विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों तथा विभिन्न व्यक्तिगत प्रवृत्तियों के होते हुए भी समस्त रोमांसवादी कवियों में बहुत से अंश समान होते हैं, और एक सीमा तक वे एक-सी बातें करते नज़र आते हैं। ‘अख़्तर’ शीरानी के रोमांसवाद को ‘दाग़’ देहलवी, ‘शाद’ अज़ीमबादी और अज़मत उल्ला ‘अज़मत’ के रोमांसवाद से घनिष्ट सम्बन्ध है। इन शायरों ने भी अपने-अपने समय में, अपने विशेष ढंग से, रोमांस की बाँसुरी बजाई।

विशेषतः अज़मत उल्ला ‘अज़मत’ ने जिस प्रकार परम्परागत गज़ल से विद्रोह किया और बहुत-से हिन्दी छन्दों में गीत और रोमान्टिक नज़्में लिखीं और उर्दू शायरी को पहली बार सॉनेट (Sonnet) से परिचित कराया, उर्दू साहित्य का इतिहास इसके इस उपकार को कभी नहीं भूल सकता। ‘अख़्तर’ ने अपने पूर्वगामियों की इन परम्पराओं को न केवल आगे बढ़ाया है बल्कि उन्हें नई शैली और नये अर्थ पहनाये हैं। अपनी रोमांटिक नज़्मों में वह कुछ ऐसी अचूकता, निडरता और भावुकता के साथ खुलकर सामने आया है कि उर्दू का कोई शायर उसकी गर्द तक को नहीं पहुंचता।

‘हाली’ ने मुक़दमा शे’र-ओ-शायरी’ में, जिसकी तुलना हम अंग्रेजी साहित्य के ‘Lyrical Ballads’ के Preface से कर सकते हैं, प्राचीन परम्परागत शायरी के विरुद्ध यथार्थवाद के लिये बहुत-सी गिरहें खोलीं। महबूब के लिये पुल्लिंग (फ़ारसी ग़ज़ल के प्रभाव के कारण उर्दू शायरी में महबूब (प्रेयसी) के लिए पुल्लिंग का प्रयोग होता था) को अस्वाभाविक कहकर उसका खंडन किया; लेकिन अपनी शायरी में स्वयं उन्होंने भी इसका कोई उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया (संभव है इसका कारण यह रहा हो कि प्रेम और रोमांस इनकी शायरी का क्षेत्र नहीं था)। ‘अख़्तर’ शीरानी उर्दू का सबसे पहला शायर है जिसने प्रेयसी को प्रेयसी के रूप में देखा अर्थात् उसके लिए स्त्रीलिंग का प्रयोग किया। इतनी ही नहीं, उसने बड़े साहस के साथ बार-बार उसका नाम भी लिया। रूढ़ियों के प्रति इस विद्रोह द्वारा न केवल उर्दू शायरों ने दिलों की झिझक दूर हुई और उर्दू शायरी के लिए नई राहें खुलीं, उर्दू शायरी को एक नई शैली और नया कोण भी मिला और उर्दू की रोती-बिसूरती शायरी में ताज़गी और रंगीनी आई1। और मैं ‘अख़्तर’ को उर्दू का सबसे बड़ा रोमांसवादी शायर इसलिए भी कहता हूं कि संभवतः आने वाले युग में भी कभी उस जैसा रोमांसवादी शायर पैदा नहीं होगा। ‘उस जैसा’ से मेरा भाव है केवल रोमांसवादी शायर।

1. प्राचीन उर्दू शायरी को शे’र कहने के लिए केवल एक माशूक़ की आवश्यकता होती थी और यह आवश्यकता तवायफ़ (वेश्या) से अधिक कोई पूरी न कर सकता था। उस तवायफ़ के अनगिनत आशिक़ होते थे। अतएव हर आशिक़ दूसरे आशिक़ को रक़ीब (प्रतिद्वन्द्वी) मानकर रक़ीब और माशूक़ दोनों को कोसता और अपनी विवशता पर आंसू बहाता रहता था। ‘अख़्तर’ ने अपनी प्रेयसी के चुनाव के लिए कोठों की ओर नहीं, धरती की ओर देखा। अतएव उसे प्रेयसी मिली, उसके पहलू में पत्थर की बजाय दिल था, दिल में कोमल भावनाएं थीं; जिसे शायर से प्रेम था और जो अपना प्रेम प्रकट भी करती थी। उसके प्रेम में अगर कोई बाधक हुआ तो वह रक़ीब नहीं समाज था।

इसलिये भी कहता हूं कि संभवत: आने वाले युग में भी कभी उस जैसा रोमांसवादी शायद पैदा नहीं होगा। ‘उस जैसा’ से मेरा भाव है केवल रोमांसवादी शायर।

अख़्तर की शायरी केवल यौवन के सौंदर्य और उसके लालित्य की शायरी है। सुन्दर रंगों और सुन्दर सपनों की शायरी। वह पूरे संसार को अपने विचारों और भावनाओं में रंगा हुआ देखता है। प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन करते हुए उसे अनुभव होता है कि प्रकृति के दृश्य उसकी आंतरिक भावनाओं से प्रभावित हैं। यदि वह उदास है तो ओस में नहाई हुई कलियां उसे उदास नज़र आती हैं और यदि वह प्रसन्न है तो मुर्झाये हुए फूल भी उसे मुस्कराते नज़र आते हैं। सामाजिक परिस्थितियों से अलग-थलग उसकी शायरी एक ऐसे निश्चिंत तरुण का भावावेग प्रस्तुत करती है, जो अंधे कामदेव के नेतृत्व में केवल सौंदर्य और प्रेम के राग अलापता है। वह नारी की सुन्दरता पर केवल आसक्त ही नहीं, उसका पुजारी भी है और उसके लिए मर मिटने को अपना सौभाग्य समझता है।

और इसीलिए मैं ‘अख़्तर’ शीरानी को उर्दू का सबसे बड़ा रोमांसवाद शायर कहता हूँ क्योंकि नारी को और उसके कारण प्रेम और रोमांस को अपना काव्य-विषय बनाने वाले आधुनिक उर्दू-शायर आंतरिक (Subjective) अनुभूतियों के साथ-साथ बाह्य (Objective) प्रेरणाओं को भी अपने सम्मुख रखते हैं। सामाजिक प्रतिबन्धों से घबराकर संसार से निकल भागने या कोई और संसार बसाने की इच्छा करने की अपेक्षा वे सामाजिक प्रतिबन्धों को तोड़ने और इसी संसार को स्वर्ग-समान बनाने पर उतारू हैं, और साथ ही अंधे कामदेव को भी आंखें प्रदान कर रहे हैं।
उर्दू की रोमांसवादी शायरी का यह बेजोड़ शायर, जिसका असल नाम मोहम्मद दाऊद ख़ां था, 4 मई, 1905 ई. को टौंक राज्य में पैदा हुआ। वहीं उर्दू की प्रारंभिक पुस्तकें अपनी चची से पढ़ीं और फिर मौलवी अहमद ज़मां और मौलवी साबिर अली ‘शाकिर’ से फ़ारसी का कुछ ज्ञान प्राप्त किया। ‘अख़्तर’ के कथनानुसार ‘शाकिर’ साहब के शिष्यत्व-काल से ही उसमें काव्य-अभिरुची पैदा हो गई थी। लेकिन 1914 ई. में जब ‘अख़्तर’ के पिता हाफ़िज महमूद खां शीरानी इंगलैंड से वापस आये तो उन्होंने शायरी की बजाय उसे पहलवानी सिखानी शुरू कर दी और इस उद्देश्य के लिए विशेष रूप से एक पहलावन नौकर रख दिया, जो सुबह शाम ‘अख़्तर’ की मालिश करके और लंगर-लंगोट कसके उसे अखाड़े में उतरने के लिए ललकारता।

पहलवानी का यह सिलसिला 1920 ई. तक चला। 1920 ई. में जब ‘अख़्तर’ के पिता ओरियंटल कालेज लाहौर में फ़ारसी के प्रोफ़ेसर नियुक्त हुए तो ‘अख़्तर’ भी उनके साथ लाहौर चला गया। अब पहलवानी के स्थान पर ‘अख़्तर’ के पिता ने उसकी शिक्षा-दीक्षा पर अधिक जोर देना शुरू किया, लेकिन लाहौर की साहित्यिक बैठकों और काव्य की स्वाभाविक अभिरुचि ने ‘अख़्तर’ को ‘मुन्शी फ़ाजिल’ से आगे नहीं बढ़ने दिया, और अपनी उस छोटी-सी आयु में ही ‘अख़्तर’ को अपनी नज़्मों पर इतनी प्रशंसा मिली कि भविष्य का यह महान रोमांसवादी शायर घर वालों के कड़े विरोध के बावजूद शिक्षा से विमुख हो शायरी के मैदान में कूद पड़ा।
शायरी के अतिरिक्त, उस ज़माने में कुछ समय तक उसने उर्दू की प्रसिद्ध मासिक पत्रिका ‘हुमायूँ’ के सम्पादन का काम किया। फिर 1925 ई. में ‘इन्तिख़ाब’ का सम्पादन किया। 1928 ई. में रिसाला ‘ख़यालिस्तान’ निकाला और 1931 ई. में ‘रोमान’ जारी किया और उसके बाद कुछ समय तक स्वर्गीय मालौना ताजवर नजीबाबादी1 की मासिक पत्रिका ‘शाहकार’ का सम्पादन रहा।

1. स्वर्गीय मौलाना को अपने शिष्यों की संख्या बढ़ाने का बहुत शौक़ था और ‘अख़्तर’ को अपनी शराबनोशी के लिए पैसों की सख़्त ज़रूरत थी। ‘अख़्तर’ के एक मित्र ने मौलाना से सिफ़ारिश की कि ‘अख़्तर’ को अपनी पत्रिका का सम्पादन-कार्य सौंप दें। मौलाना इस शर्त पर राज़ी हो गए कि यदि ‘अख़्तर’ अपने आपको उनका शिष्य घोषित कर दे तो वे बड़ी खुशी से उसे ‘शाहकार’ का सम्पादक बना देंगे।
‘अख़्तर’ से जब इस बारे में कहा गया तो उसने पूछा :
‘‘तनख़्वाह क्या होगी ?’’
‘‘दो सौ रुपये,’’ उत्तर मिला।
‘‘कुछ पेशगी देंगे ?’’
मौलाना ने तुरन्त सौ रुपये गिन दिये। नोट थामकर ‘अख़्तर’ ने अपने मित्र से कहा, ‘‘तमाम अख़बारों में मेरी तरफ़ से ऐलान छपवा दो कि आज से मैं मौलाना का शागिर्द हूं।’’ और यह कहकर शराबख़ाने की राह पकड़ी। (कुछ लोगों का कहना है कि इस बात में कुछ अधिक सच्चाई नहीं है। उनका कहना है कि शुरू-शुरू में ‘अख़्तर’ ने मौलाना से बक़ायदा अपने शे’रों पर संशोधन लिया था)।

1935 ई. में ‘अख़्तर’ को हैदराबाद दक्कन की एक साहित्यिक संस्था ‘दारुल-तर्जुमा’ ने अपने यहां पर एक उच्च पद पर बुलाना चाहा, लेकिन वे दिन ‘अख़्तर’ की ख्याति और बेतहाशा शराबनोशी के दिन थे। प्रत्यक्ष है कि वह यह पद कैसे स्वीकार करता ? इसी प्रकार जब ‘अख़्तर’ के पिता इस्लामिया कालेज लाहौर की प्रोफ़ैसरी छोड़कर ओरियंटल कालेज लाहौर में चले गये और ‘अख़्तर’ को इस्लामिया कालेज में अपने पिता की आसामी पेश की गई तो उसने यह कहकर इन्कार कर दिया कि लड़कों को पढ़ाना मेरे बस का रोग नहीं। निःसंदेह उन दिनों कोई बात भी उसके बस का रोग न थी। फ़्लेमिंग रोड लाहौर के एक मकान में बाहर की सीढ़ियों से मिला हुआ एक छोटा-सा कमरा था और ‘अख़्तर’ था। लाहौर के शराबख़ाने थे और ‘अख़्तर’ था। या भटकने को गलियां थीं और ‘अख़्तर’ था। फिर शराब-नोशी भी आम शराबियों जैसी न थी। एक बार पीने बैठता तो बस पिये चला जाता। यह सिलसिला निरंतर पन्द्रह-बीस दिन तक चलता और आश्चर्य की बात यह थी कि इन बीस दिनों में खाने की कोई चीज़ उसके गले से न उतरती थी। इसके बाद किसी तरह दो-चार दिन की नाग़ा होती और वह दौर फिर से शुरू हो जाता1। लाहौर में आवारागर्दी और
1. ‘अख़्तर’ किसी प्रकार संभल सके, इस विचार से उसके पिता ने उसका विवाह कर दिया। तीन-चार बच्चे भी हुए, लेकिन ‘अख़्तर’ को संभलना था न संभला। हितैषी मित्रों की भी एक न चली।

शराबनोशी का यह सिलसिला 1943 ई. तक चला। उसके बाद उसके पिता उसे वापस टौंक ले गये। 1943 ई. से 1947 ई. तक टौंक में उसने ऐसी गुमनामी की ज़िन्दगी गुजारी कि मित्रों को उसके पिता को पत्र लिखकर पूछना पड़ा कि ‘अख़्तर’ को कुछ हो तो नहीं गया ?
वहां टौंक में तो ‘अख़्तर’ को कुछ नहीं हुआ, हां देश के विभाजन के बाद जब वह पुनः लाहौर पहुँचा तो उसकी विचित्र दशा थी। सुर्ख और श्वेत चेहरा कालख खा गया था। बड़ी-बड़ी काली आँखें भीतर को धंस गई थीं और पीली पड़ गई थीं। मांस ने हड्डियां छोड़ दी थीं। हाथों में कम्पन था; लेकिन कपकपाते हाथों में शराब की बोतल भी थी, जिसे वह ‘दुख़्तरे-गर्दन-दराज़1 कहा करता था।<
‘कहा करता था’-मैंने इसलिए कहा क्योंकि अब वह कुछ भी कहने के योग्य नहीं। अपनी रचनाओं के साथ-साथ वह स्वयं भी हमारे लिये स्मृतिमात्र रह गया है। 9 सितम्बर 1948 ई. को उर्दू के इस महान रोमांसवादी शायर ने बड़ी दयनीय दशा लाहौर के एक अस्पताल में दम तोड़ दिया।
उसकी मृत्यु के बाद, उसके परम मित्र नय्यर वास्ती का कहना है कि जब एक टूटी-फूटी संदूकची को (जो ‘अख़्तर’ की एकमात्र सम्पत्ति थी) खोला गया तो उसमें से चंद मुसव्विदों (पाण्डुलिपियों) और हसीनों के चंद ख़ुतूत (पत्रों) के सिवा कुछ न निकला। मानो ‘ग़ालिब’ ने अपने लिए नहीं ‘अख़्तर’ शीरानी के लिए यह शे’र कहा था :
1. लम्बी गर्दन वाली की बेटी


चंद-तस्वीरे-बुता1, चंद हसीनों के ख़ुतूत
बाद मरने के मेरे घर से ये सामां2 निकला<

 

1. सुन्दरियों के चित्र 2. सामान


ऐ इश्क़ कहीं ले चल

 


ऐ इश्क़ कहीं ले चल, इस पाप की बस्ती से,
नफ़रत-गहे-आलम1 से, लानत-गहे-हस्ती2 से,
इन नफ़्स-परस्तों से3, इस नफ़्स-परस्ती से,
दूर-और कहीं ले चल,
ऐ इश्क़ कहीं ले चल !

हम प्रेम –पुजारी हैं तू प्रेम-कन्हैया है !
तू प्रेम-कन्हैया है, यह प्रेम की नय्या है,
यह प्रेम की नय्या है, तू इसका खिवैया है,
कुछ फ़िक्र नहीं, ले चल,
ऐ इश्क़ कहीं ले चल !

बे-रहम ज़माने को अब छोड़ रहे हैं हम,
बे-दर्द अ़ज़ीज़ों से मुँह मोड़ रहे हैं हम,
जो आस थी वो भी अब तोड़ रहे हैं हम,
बस ताब4 नहीं, ले चल,
ऐ इश्क़ कहीं ले चल !

 


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1. घृणा से भरे हुए संसार। 2. लानत-भरे संसार। 3. कामासक्तों से। 4. सहन-शक्ति।



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