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मनोरंजक कथाएँ >> कठपुतला

कठपुतला

श्रीकान्त व्यास

प्रकाशक : शिक्षा भारती प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :80
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5013
आईएसबीएन :9788174830555

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कार्लो कालोदी का प्रसिद्ध उपन्यास पिनोकियो का सरल हिन्दी रूपान्तर....

Kathaputla

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

1

एक समय की बात है, एक था....
‘‘राजा !’ तुम फौरन कहोगे। लेकिन नहीं बच्चों ! कहानी यों है—एक समय की बात है, एक था लकड़ी का टुकड़ा ! बहुत मामूली-सी लकड़ी का टुकड़ा था वह। जैसे जलाने की लकड़ी समझ लो।
लकड़ी का यह टुकड़ा एक दिन अन्तोनियो नाम के एक बूढ़े बढ़ई की दुकान में पड़ा था। जैसे ही बढ़ई की नज़र इस टुकड़े पर पड़ी, उसका झुर्रियों-भरा चेहरा खुशी से चमक उठा। वह हाथ मलते हुए बोला, ‘‘वाह, मैं बेकार ही परेशान था, इस लकड़ी से उस टेबल की एक टाँग बड़े मजे से बन सकती है।’’
उसने फौरन लकड़ी को छीलने के लिए अपना बसूला निकाला।
जैसे ही वह बसूला चलाने लगा कि उसका हाथ रुक गया। एक पतली-सी आवाज़ में कोई कह रहा था, ‘‘हाय, इतनी ज़ोर से नहीं।’’
बढ़ई ने चौंककर इधर-उधर देखा। कहीं कोई नहीं। दूकान खाली थी। बस, वह था और उसके औज़ार थे, लकड़ी की दो-चार चीज़ें थीं। फिर आवाज़ कहाँ से आई ? हो सकता है, यों ही उसने कुछ सोच लिया हो। उसने लकड़ी छीलने के लिए कसकर बसूला मारा और फिर वहीं आवाज़ रोते हुए स्वर में बोली, ‘‘ओह ! मुझे बहुत चोट लग रही है।’’
इस बार बढ़ई अचम्भे में पड़ गया। आखिर यह कौन है ? किसी बच्चे की आवाज़ मालूम पड़ती है। लेकिन यहाँ आस-पास तो कोई है ही नहीं। वह चिढ़कर जल्दी-जल्दी बसूला चलाता रहा। एक-दो बार फिर आवाज़ आई, लेकिन उसने कोई ध्यान नहीं दिया। लकड़ी का कुछ हिस्सा छीलकर वह उसे चिकना करने के लिए बलुए कागज़ से रगड़ने लगा। इतने में फिर वही आवाज़ कुछ हँसते हुए बोली, ‘‘ही-ही-ही, ज़रा ज़ल्दी करो। मुझे बड़ी गुदगुदी हो रही है।’’
बढ़ई ने लकड़ी का टुकड़ा फौरन दूर फेंक दिया और वह खड़ा हो गया। यह आवाज़ तो शायद उसी लकड़ी के टुकड़े में से आ रही थी। वह पसीने-पसीने हो गया। अब भी उसे ठीक से विश्वास नहीं हो रहा था कि यह आवाज लक़ड़ी के टुकड़े में से आ रही है या कहीं और से ! इतने में बाहर किसी ने दरवाज़ा थपथपाया। बढ़ई ने कहा, ‘‘आ जाओ, कौन है ?’’
तुरन्त एक हँसमुख आदमी उछलकर दुकान पर चढ़ आया। इस आदमी का नाम जेपत्तो था। लेकिन मुहल्ले के लड़के इसे ‘पोलेन्दिना’ कहकर चिढ़ाया करते थे, जिसका मतलब होता है हलुवा। आते ही उसने बढ़ई को सलाम किया और बोला, ‘‘बढ़ई चाचा, आज मुझे एक बात सूझी है।’’
‘‘बोलो, क्या है ?’’
‘‘मैंने सोचा कि मैं लकड़ी का एक खूबसूरत पुतला बनाऊँ।
ऐसा कठपुतला, जो तरह-तरह के खेल दिखाए, नाचे, गाए, धूम मचाए। इस पुतले को लेकर मैं दुनिया भर में घूमूँगा, खेल दिखाऊँगा और रोटी कमाऊँगा। कहो, ठीक है न ?’’
‘‘और क्या, शाबाश, पोलेन्दिना।’’ उस लकड़ी के टुकड़े की तरफ से पतली-सी आवाज़ आई।
जेपेत्तो ने जब यह सुना तो नाराज़ हो गया। उसे सवेरे-ही-सवेरे पोलेन्दिना कहकर चिढ़ाया गया ! वह बढ़ई को डाट कर बोला, ‘‘तुम मुझे चिढ़ा क्यों रहे हो ? तुम मुझे पोलेन्दिना कहते हो !’’
‘‘नहीं, मैंने नहीं कहा।’’ बढ़ई बोला।
‘‘तुमने नहीं कहा, तो क्या मैंने कहा ? तुम्हीं ने मुझे चिढ़ाया !’’
और इस तरह दोनों झगड़ पड़े। काफी देर तक झगड़ने के बाद जब किसी तरह दोनों ठण्डे हुए, तो जेपेत्तो को मनाने के लिए बढ़ई बोला, ‘‘हाँ, तो तुम कठपुतला बनाना चाहते हो ? ठीक है, लेकिन यह तो बताओ कि तुम मेरे पास क्यों आए थे ?’’
‘‘बढ़ई चाचा, बात असल में यह है कि कठपुतला बनाने के लिए मुझे थोड़ी-सी लकड़ी चाहिए। तुम्हारे पास कोई फालतू लकड़ी है ?’’
‘‘हाँ-हाँ, यह लो ! बढ़ई ने खुशी से कहा और लकड़ी का वही टुकड़ा उठा लाया जिसे उसने डरकर दूर फेंक दिया था। लेकिन इतने में एक अजीब बात हो गई। लकड़ी का टुकड़ा उसके हाथ की पकड़ से छूटकर जेपेत्तो की टाँगों से जा टकराया। जेपेत्तो चीखा, ‘‘अरे चाचा, यह क्या करते हो ? मेरा पैर ही तोड़ा होता तुमने !’’
‘‘नहीं तो, मैंने तो कुछ नहीं किया।’’ बढ़ई बोला।
‘‘कहते हो कुछ नहीं किया। तुमने इतने ज़ोर से लकड़ी फेंकी कि मैं तो अभी लंगड़ा ही हो जाता !’’
‘‘नहीं, लकड़ी मैंने फेंकी नहीं, वह तो अपने-आप आ गिरी। इसमें मेरा क्या कुसूर !’’
‘‘तुम झूठ बोलते हो !’’
‘‘तुम हो झूठे, जाओ यहाँ से !’’
और जेपेत्तो बड़बड़ाता हुआ लकड़ी लेकर अपने घर लौट आया।

2

 


जेपेत्तो एक ऐसे कमरे में रहता था, जो मकान के निचले हिस्से में तहख़ानेनुमा था, अँधेरा-अँधेरा-सा, जिसमें रोशनी सिर्फ सीढ़ियों से होकर आती थी। कमरे में सामान के नाम पर एक टूटी खाट, सड़ी-सी-कुर्सी और हिलते हुए पायोंवाली एक मेज़ थी। एक कोने में अंगीठी में आंच जल रही थी। लेकिन यह आँच सचमुच की नहीं थी, बल्कि यह एक तस्वीर थी।
घर पहुँचकर जेपेत्तो अपने औज़ार लेकर काम करने बैठा। वह एक पुतला बनाना चाहता था। वह सोच रहा था कि इस पुतले का नाम ‘पिनोकिया’ रखूँगा। यह एक बहुत धनी आदमी का नाम है। यह कठपुतला भी मुझे धन दिलाएगा।
पहले उसने पुतले के बाल बनाए। फिर माथा बनाया और तब आँखें बनाईं। आँखें बनाते-बनाते उसे यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि उसकी पुतलियाँ इस तरह घूमती थीं जैसे सच्ची हों। इस समय वे आँखें उसे ही एकटक देख रही थीं। वह बोला, ‘‘क्या बात है ? लकड़ी की आँख और इस तरह मुझे घूरती है !’’
उसे कोई जवाब नहीं मिला। उसने नाक बनाई, लेकिन देखते-देखते नाक लम्बी होने लगी। इतनी लम्बी कि बस कुछ न पूछो ! जेपेत्तो बार-बार उसे काटता था, छीलता था, लेकिन फिर भी वह लम्बी हो जाती थी। वह चिढ़कर पुतले का मुंह बनाने लगा। अभी मुँह पूरा बन भी न पाया था कि अचानक पुतला हँस पड़ा, ही-ही-ही, हा-हा-हा !’
‘‘चुप रहो ! इस तरह मत हँसो !’’ जेपेत्तो ने उसे डाँटते हुए कहा। वह मारे डर के चुप हो गया। जेपेत्तो ने गला, कन्धा, पेट और बाँहें बनाने के बाद उसके हाथ बनाए। जैसे ही उसके हाथ बने कि उस विचित्र पुतले ने जेपेत्तो के बाल खींचने शुरू किए। फिर उसने उसकी टोपी उतार ली। जेपेत्तो चीखा, ‘‘यह क्या है ? मेरी टोपी दे दो !’’
लेकिन पिनोकियो ने टोपी उसे देने के बजाय खुद पहन ली। जेपेत्तो ने नाराज़ होकर उसे दो-चार चाँटे जड़ दिए। लेकिन जल्दी ही उसे इसका जवाब मिल गया। जैसे ही उसने पिनोकियो के दोनों पैर बनाए कि खटाक से पुतले ने उसकी नाक पर ठोकर मार दी। जेपेत्तो को यह बहुत बुरा लगा। लेकिन फिर भी उसने सोचा कि कोई बात नहीं, मैंने अभी इसे पीटा था, इसलिए इसने ठोकर मार दी। वह पिनोकियो को चलाना सिखाने लगा। देखते-देखते पिनोकियो चलना सीख गया और दौड़ता हुआ बाहर भाग गया। जेपेत्तो उसके पीछे भागा। लेकिन उसे पकड़ नहीं सका, क्योंकि पिनोकियो बहुत तेज़ी से भाग रहा था। जेपेत्तो ने लोगों को चिल्लाकर इशारा किया, ‘‘पकड़ो, पकडो़। इसे पकड़ लो !’’ लेकिन लोग उलटे तमाशा देखने लगे।
इतने में एक सिपाही ने यह हल्ला सुना तो उसने पिनोकियो का रास्ता रोक लिया। पिनोकियो ने उसकी टाँगों के बीच से निकलकर भागने की कोशिश की, लेकिन सिपाही ने उसकी लम्बी नाक पकड़ ली। इतने में जेपेत्तो भी वहाँ आ पहुँचा। उसने पिनोकियो को डाँटते हुए कहा, ‘‘चलो, मैं अभी तुम्हारे कान उमेठता हूँ।’’
यह कहकर जैसे ही उसने उसका कान पकड़ना चाहा, तो उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उसके कान ही नहीं थे। अब उसे अपनी गलती याद आई कि उसने पिनोकियो के कान ही नहीं बनाए, इसलिए वह उसकी गर्दन पकड़कर उसे झकझोरने लगा। इतने लोगों के सामने यह अपमान पिनोकियो को बहुत बुरा लगा। वह ज़मीन पर लेट गया और सिसकने लगा। अब तक वहाँ काफी लोग इकट्ठे हो गए थे। उन्हें उस पर दया आ गई। एक आदमी बोला, ‘‘बेचारा काठ का ही तो पुतला है। वह घर नहीं जाना चाहता, तो क्या बुरा करता है ! यह बूढ़ा मारते-मारते उसकी जान ले लेगा।’’ लोगों ने सिपाही को समझा-बुझाकर पिनोकियो की जान बचाने को कहा। सिपाही ने पिनोकियो को छुड़वा दिया और लोगों के कहने पर जेपेत्तो को गिरफ्तार कर लिया। वह गिड़गिड़ाने लगा, लेकिन किसी ने उसकी बात नहीं मानी। सिपाही उसे जेल की ओर ले जाने लगा। उसने रोते-रोते कहा ‘‘अरे मूर्ख लड़के, यह तूने क्या किया, तू इतना भी भूल गया कि मैंने तुझे कितनी मुश्किल से बनाया है। मैंने तुम्हें भलामानस बनाने की कितनी कोशिश की, लेकिन तुम तो शुरू से ही शरारती निकले।’’
लेकिन पिनोकियो यह सब सुनने के लिए ठहरा नहीं। ज्योंही सिपाही ने उसे छोड़ा कि वह वहाँ से भाग निकला। भागते-भागते वह फिर से घर लौट आया। अन्दर घुसकर उसने दरवाजा बन्द कर लिया और आराम करने के लिए ज़मीन पर बैठ गया।
इतने में एक झींगुर पास आकर गाना गाने लगा। पिनोकियो ने चिढ़कर कहा, ‘‘तुम यहाँ चिल्लाओ मत। चले जाओ। यह मेरा कमरा है।’’
झींगुर आश्चर्य से अपनी आँखें मटकाते हुए बोला, ‘‘क्या ? तुम्हें मालूम है, मैं इस कमरे में सौ साल से रह रहा हूँ ! खैर, मैं जा सकता हूँ महाशय, लेकिन तुम्हें एक बहुत बड़ी बात बताना चाहता हूँ। वह यह कि जो लड़के घर से इस तरह भागते हैं वे अच्छे नहीं होते। वे दुनिया में कोई काम नहीं कर सकते। उन्हें बाद में पछताना पड़ता है।’’
पिनोकियो हँसकर बोला, ‘‘रहने दो, बेकार मुझे बहकाओ मत। मैं कल ही यहाँ से भाग जाऊँगा। वरना ये लोग मुझे पढ़ने के लिए स्कूल भेजेंगे। मैं तो खेलना चाहता हूँ।’’
झींगुर बोला, ‘‘यह इसलिए कि तुम एक पुतले हो और तुम्हारा सिर लकड़ी का है।’’ यह सुनकर पिनोकियो को गुस्सा आ गया। उसने एक हथौड़ी उठाकर झींगुर की ओर फेंकी। वह उसे मारना नहीं भगाना चाहता था। लेकिन हथौड़ी झींगुर के सिर पर पड़ी और वह मर गया।
पिनोकियो को बड़ा अफसोस हुआ । लेकिन इस समय उसे इतनी भूख लगी हुई थी कि अफसोस करने का उसके पास समय नहीं था। उसने देखा, अंगीठी पर कोई चीज़ पक रही है। उसने हाथ बढ़ाकर उसे लेना चाहा। लेकिन यह क्या ‍‌? यह सब एक चित्र था। यह देखकर उसे बहुत दुःख हुआ और उसकी नाक बहने लगी। जब वह दुःखी होता था तो उसकी नाक बहने लगती थी। उसने कमरे का कोना-कोना छान मारा, लेकिन उसे खाने की कोई चीज़ न मिली।
निराश होकर वह एक बार फिर कमरे में इधर-उधर टटोलने लगा। अचानक उसे एक मुर्गी का अण्डा मिल गया। वह खुशी से नाच उठा। उसने अंगीठी में आग सुलगाई और आमलेट बनाने की तैयारी की। जैसे ही उसने उसका छिलका तोड़ा कि उसमें से सफेदी और ज़र्दी की बजाय एक बच्चा कूदकर बाहर आ गया। चूज़े ने झुककर बड़े आदर से पिनोकियो को सलाम किया और कहा, ‘‘शुक्रिया पिनोकियो साहब ! अण्डा तोड़ने में आपको कोई तकलीफ तो नहीं हुई ? अच्छा, मैं चलूँ। अलविदा !’’ यह कहकर उसने पंख फड़फड़ाए और खिड़की से कूदकर बाहर हो गया।
बेचारा कठपुतला देखता रह गया। मारे भूख के उसकी जान निकल रही थी। वह रोने लगा, और सिसकते-सिसकते बोला, ‘‘झींगुर ठीक ही कह रहा था, मुझे इस तरह घर से अकेले नहीं भागना चाहिए था। अगर इस समय पापा घर में होते, तो भला मैं इस तरह भूखा क्यों मरता ?’’
जब घर में खाने को कुछ नहीं मिला तो उसने सोचा कि चलो, बाहर सड़क पर चला जाए। शायद कोई भला आदमी रोटी का टुकड़ा दे दे।

3

 


जाड़े की रात थी। बाहर बर्फीली आँधी चल रही थी। पेड़ हिल रहे थे। पिनोकियो तूफान से बहुत डर रहा था। लेकिन इस समय उसे इतनी तेज़ भूख लगी थी कि आँधी-तूफान की परवाह किए बिना वह घर से निकला और गाँव की तरफ दौड़ चला। लेकिन वहाँ जाने पर उसे निराशा हुई। घरों के दरवाज़े और खिड़कियाँ बन्द थीं। गलियाँ सूनी पड़ी थीं। अन्त में मजबूर होकर पिनोकियो ने एक मकान का दरवाज़ा खटखटाना शुरू किया। एक बूढ़े आदमी ने ऊपर खिड़की से झाँका और गुस्से में डाँटते हुए कहा, ‘‘क्या है ? इतनी रात गए क्या माँगने आए हो ?’’
‘‘ज़रा मेहरबानी करके मुझे कुछ खाने को दीजिए।’’
‘‘क्या, क्या चाहिए तुम्हें खाना ? अच्छा देता हूँ, ठहरो।’’ बूढ़े ने कहा। उसने सोचा, शायद यह कोई शरारती लड़का है। जान-बूझकर तंग करने आया है। ज़रा इसकी अक़्ल ठिकाने लगानी होगी। वह थोड़ी देर में फिर खिड़की में लौट आया और बोला, ‘‘लो, अपनी टोपी फैलाओ !’’
पिनोकियो ने जैसे ही अपनी टोपी उतारी कि ऊपर से एक बाल्टी ठण्डा पानी उस पर आ गिरा। वह बुरी तरह भीग गया। मारे ठण्ड के पिनोकियो ठिठुरने लगा। एक तो भूख और ऊपर से यह ठण्डा पानी। पिनोकियो की आँखों में आँसू आ गए। वह दौड़ता-दौड़ता घर लौटा।
उसके पैर एकदम सुन्न हो गए थे। वह पैरों को सेंकने के लिए अंगीठी की ओर फैलाकर सो गया। थोड़ी देर में उसे नींद आ गई। वह इतनी गहरी नींद में था कि उसके लकड़ी के पैर जलने लगे तो उसे कुछ पता ही न चला। जलते-जलते पैर राख हो गए। सवेरा हो गया। लेकिन अभी तक उसकी नींद नहीं टूटी। वह खर्राटे भर रहा था। अचानक उसने सुना कि कोई दरवाज़ा खटखटा रहा है। आँख खोलकर जंभाई लेते हुए उसने पूछा, ‘‘कौन है भाई ?’’
‘‘मैं हूँ, मैं।’’ यह जेपेत्तो की आवाज़ थी।
‘‘ओह पापा, तुम हो !’’ यह कहकर पिनोकियो ने जैसे ही उछलकर खड़ा होना चाहा कि वह मुँह के बल ज़मीन पर आ गिरा। अब जाकर उसे पता चला कि उसके पैर न मालूम कहाँ गायब हो गए। बाहर जेपेत्तो बार-बार आवाज़ लगा रहा था।
कठपुतला सिसकते हुए बोला, ‘‘पापा, मैं दरवाज़ा नहीं खोल सकता। मेरे पैर कोई खा गया है।’’
‘‘किसने खाए तुम्हारे पैर ?’’
‘‘बिल्ली ने !’’ कोने में बैठी बिल्ली को देखकर कह दिया।
‘‘दरवाज़ा जल्दी खोलो ! बेकार मुझे तंग न करो !’’ इसके जवाब में पिनोकियो रो पड़ा। अन्त में जेपेत्तो को विश्वास हो गया कि ज़रूर दाल में काला है।
बड़ी मुश्किल से वह खिड़की से होकर घर आया। वह बहुत गुस्से में था। इसलिए पहले तो काफी देर तक वह पिनोकियो को डाँटता रहा, लेकिन जब उसने देखा कि वह सचमुच ज़मीन पर पड़ा है, तो उसे उस पर दया आ गई। उसे उठाकर उसने गले से लगा लिया और आँखों मे आँसू भरकर कहा, ‘‘बेटा पिनोकियो, ये तुम्हारे पैर कैसे जल गए ?’’
‘‘मैं नहीं जानता पापा, बड़ मुश्किल से रात गुज़ारी है। एक तो मैं भूखा था और ऊपर से झींगुर मुझे चिढ़ाने लगा। हालाँकि वह सही कह रहा था, लेकिन मुझे गुस्सा आ गया। मैंने उस पर हथौड़ा फेंका और वह मर गया।’’
इस तरह पिनोकियो उसे रात-भर की कहानी सुना गया और अन्त में बोला, ‘‘लेकिन हाय, अब तो मेरे पैर ही नहीं रहे ! अब मैं क्या करूँगा !’’ यह कहकर वह ज़ोर से रोने लगा।
जेपेत्तो समझ गया वह भूखा है। उसने अपनी जेब से तीन आड़ू निकालकर पिनोकियो को दे दिए।
पिनोकियो ने पलक मारते ही तीनो आड़ू गले के नीचे उतार दिए। जेपेत्तो उसे देखता ही रह गया। एक डकार लेकर पिनोकियो बोला, ‘‘हाय, मैं तो अब भी वैसा ही भूखा रह गया !’’
‘‘लेकिन अब तो मेरे पास कुछ नहीं है।’’ फिर पिनोकियो अपने पैरों के लिए रोने लगा और बार-बार उससे कहने लगा कि मेरे लिए नए पैर बना दो।
‘‘क्यों बना दूँ तुम्हारे नए पैर ? इसलिए न, कि मौका मिलते ही तुम फिर से भाग निकलो ?’’
कठपुतले ने सिसकते हुए कहा, ‘‘नहीं, नहीं, पापा ! अब मैं नहीं भागूँगा ! तुम जो कहोगे, वही करूँगा। स्कूल पढ़ने जाऊँगा और भला लड़का बनूँगा।’’
जेपेत्तो को उस पर हँसी भी आई और दुःख भी हुआ। घण्टे भर में ही उसने नए पैर तैयार कर लिए। फिर उसने कठपुतले से कहा, ‘‘आँखें बन्द करो और चुपचाप सो जाओ।’’
पिनोकियो आँखें मूँदकर लेट गया और सोने का बहाना करने लगा। जेपेत्तो ने गोंद लगाकर बड़ी सफाई से दोनों पैर चिपका दिए। नए पैर मिलते ही पिनोकियो उछलकर खड़ा हो गया और खुशी से कमरे में नाचने लगा और बोला, ‘‘अब मैं ज़रूर स्कूल जाऊँगा। लेकिन पापा मेरे पास अच्छे कपड़े तो हैं ही नहीं।’’
जेपेत्तो गरीब आदमी था। लेकिन अब कठपुतला स्कूल जाना चाहता था। इसलिए उसने फूलदार कागज़ काटकर उसके लिए नए कपड़े बना दिए। पैरों में लकड़ी के छिलके के जूते पहनाए और रोटी के एक टुकड़े को काट-पीटकर टोपी बना दी। पिनोकियो उन्हें पहनकर बड़ा खुश हुआ और बोला, ‘‘लेकिन खाली हाथ पढ़ने कैसे जाऊँ ? एक किताब भी तो चाहिए।’’
पिनोकियो वैसे तो बड़ा खुशमिज़ाज लड़का था, लेकिन अन्त में पिता की गरीबी को देखकर उसे दुःख हुआ। लेकिन जेपेत्तो थोड़ी देर तक सोचता रहा और फिर अचानक खड़ा होते हुए बोला, ‘‘अच्छा, ठहरो, मैं अभी इन्तज़ाम करके आता हूँ।’’
थोड़ी देर बाद जब वह लौटा, तो उसके हाथ में पिनोकियो के लिए एक किताब थी। लेकिन उसका कोट गायब था। वह सिर्फ क़मीज़ पहने था और बाहर बर्फ गिर रही थी। पिनोकियो ने पूछा, ‘‘कोट क्या हुआ ?’’
‘‘मैंने उसे बेच दिया। मुझे बड़ी गरमी लगती थी।’’ यह कहकर धीरे से वह मुस्करा दिया।
पिनोकियो फौरन समझ गया कि वह अपना कोट बेचकर उसके लिए किताब लाया है। वह अपने को नहीं रोक सका और अपने पिता के गले से लिपटकर उसका मुँह चूमने लगा। फिर जैसे ही बर्फ का गिरना रुका कि वह अपनी किताब लेकर स्कूल चल पड़ा। रास्ते में वह तरह-तरह की बातें सोचता जा रहा था। उसने सोचा, ‘आज मैं स्कूल में पढ़ना सीखूँगा, कल लिखना सीखूँगा और परसों गुणा-भाग करना। पढ़-लिखकर मैं खूब धन कमाऊँगा। अपने पापा के लिए सूती कोट खरीद लाऊँगा। वाह, सूती कोट क्यों ? मैं तो सोने और चाँदी का कोट अपने पापा के लिए मँगाऊँगा। उसमें हीरे के बटन लगे होंगे। हाँ, यह ठीक रहेगा। देखो न, मेरे लिए कोट बेचकर वह किताब ले आया और अब जाड़े में बिना कोट के ठिठुर रहा है !...’
इसी तरह सोचते हुए वह चला जा रहा था। अचानक कहीं दूर उसे बंसी और ढोल बजने की आवाज़ सुनाई देने लगी—पी—पी-पी, ढम-ढम-ढम ! वह सोचने लगा, पता नहीं, ये ढोल कहाँ बज रहे हैं : कहीं खेल हो रहा है और इधर मुझे स्कूल जाना है। अन्त में उसने अपने मन को समझाते हुए कहा, ‘आज तो मैं ढोल सुनने जाऊँगा। स्कूल कल चला जाऊँगा।’ और फिर वह उसी तरफ दौड़ पड़ा जिधर से ढोल की आवाज़ आ रही थी।
अन्त में वह एक छोटे-से चौक में पहुँचा, जहाँ एक बड़ा-सा तम्बू तना था। उस तम्बू के आगे दर्शकों की भीड़ लगी थी। पिनोकियो ने एक लड़के से पूछा, ‘‘क्यों जी, उस तम्बू में क्या हो रहा है ?’’
‘‘इस पर लिखा है—कठपुतली नाटक-कम्पनी। टिकट है बीस पैसे।’’
पिनोकियो का मन नाटक देखने के लिए मचल पड़ा। उसके पास पैसे नहीं थे। अब क्या किया जाए ? अन्त में बड़ी बेशर्मी से उसने उस लड़के से कहा, ‘‘क्यों, तुम मुझे बीस पैसे उधार दोगे ?’’
‘‘हाँ, हाँ, मैं तुम्हें उधार दे सकता हूँ।’’ उस लड़के ने अपनी जेब से एक सिक्का निकालते हुए कहा, ‘‘लेकिन पता नहीं, क्या बात है कि मैं आज तुम्हें दे नहीं सकता !’’
‘‘अच्छा, न हो तो तुम बीस पैसे में मेरा कोट खरीद लो।’’ पिनोकियो बोला।
‘‘तुम्हारे इस कागज़ के कोट का मैं क्या करूँगा ? यह तो पानी में भीग जाएगा।’’
अब पिनोकियो की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे। वह खेल देखना चाहता था। इतनी दूर आकर बिना खेल देखे कैसे लौट सकता था ! कुछ हिचकते हुए उसने फिर कहा, ‘‘अच्छा, तुम मेरी किताब ले लो और बीस पैसे दे दो।’’
‘‘मैं क्या करूँगा किताब को ! मेरे पास खुद अपनी किताब है। क्या तुम समझते हो, मेरे पास किताब नहीं है !’’ वह लड़का कहने लगा।
लेकिन तब तक एक फेरीवाले ने दोनों की बातें सुन लीं। वह पास आकर बोला, ‘‘लाओ कहाँ है किताब ! मैं देता हूँ बीस पैसे।’’
पिनोकियो ने फौरन किताब उसके हाथ बेच दी।


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