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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान

 

जंजीर


अपने देश में प्रवासी
और परदेस में भी प्रवासी
तब कहाँ है, मेरा देश?
सुजला, सुफला देश!
मैं जानें, देश जाने, मेरे अंतस में है, वह देश!

बैंकॉक हवाई अड्डे पर उतरते ही, मैंने सिर का आँचल खींचकर हटा दिया। आँचल काफी तलनी होकर मेरे सिर से चिपक गया धा। आँचल हटाते ही मैंने खुद को बेहद हल्की महसूस किया। अर्से वाद, मैं जैसे फिर 'मैं' हो आयी। एक अश्लील आवरण से मुझे ढके रखा गया था। उसे हटाते ही, सच्ची मैं दुनिया की रोशनी, हवा में वाहर निकल आयी। मैंने मुक्ति की साँस ली। मैं, जो वचपन से ही बुरका पहनने या सिर पर दुपट्टा डालकर, पर्दा करने की घोर विरोधी थी, वही मैं, दिन पर दिन लंबे वक्त तक अपने को ढके रखने को लाचार कर दी गयी। इससे ज़्यादा शर्म की वात और क्या है? हाँ, एक तसल्ली ज़रूर थी कि उस तरह अपने को ढके रखने के पीछे कोई धार्मिक वजह नहीं थी, यह तो मौत से बचने के लिए था। सिर ढकने का फैसला मेरे दिमाग में नहीं आया था, दूसरों के दिमाग में आया था। सिर्फ अपने को ही बचाने को नहीं, जो लोग मुझे बचाने को आगे बढ़ आए थे, उन लोगों को भी बचाने की ज़िम्मेदारी मेरे ही कंधों पर थी। वैसे यह ज़िम्मेदारी मेरे कधी पर नहीं, सिर पर कहना ही बेहतर होगा। सिर ढक कर, मैंने सिर्फ अपने ही सिर की नहीं, बहुतों के सिर की रक्षा की।

सिर पर से आँचल हटाते ही. किसी अनजान सज्जन ने मेरी तरफ हाथ बढा दिया। लास एडरसन या ऐसा ही कोई नाम था। उन्होंने बताया कि वे स्वीडन के विदेश मंत्रालय से आए हैं। कोई एक अन्य अनजान सज्जन भी उनकी बगल में खड़े थे। उन्होंने भी मेरी तरफ हाथ बढ़ा दिया। उनका नाम वल्फ या ऐसा ही कछ था। स्वीडन के पुलिस महकमे के प्रधान! दोनों ही सफेद चमड़ी, दोनों के ही सुनहरे वाल। एक साथ दोनों ही ख़ौफ़ और फ़िक्र से बदहवास! उसे परेशानी कहना ही वेहतर है। दोनों के कंधों पर या सिर पर बड़ा दायित्व आ पड़ा था, यह उन दोनों की निगाहों से साफ़ जाहिर था! उन दोनों सज्जनों ने ङ से हाथ मिलाते-मिलाते उनको अपना परिचय दे डाला, लेकिन उनकी आवाज़ वेहद धीमी थी। ङ इधर-उधर निगाह दौड़ाते रहे। होंठों पर मंद-मंद मुस्कान! आँखों में आशंका भी और ऐश भी ! लार्स और वुल्फ हमें आड़ में ले गए। हवाई अड्डे के अंदर ही, उन्होंने पहले से ही दो कमरे किराए पर ले रखे थे। हम दोनों को उन्हीं कमरों में धकेल दिया। जो जहाज़ एशिया से यूरोप जाने वाला था, उसमें सवार होने में अभी काफ़ी देर थी। इसलिए हमें कहा गया कि फ़िलहाल आराम करो। लेकिन, आराम करो, कहने से ही क्या आराम किया जा सकता है? आँखों में नींद कहाँ से उतरती? आँखें तो नींद भूल गयी थीं। तन-बदन की पेशियों-रगों में, खून की बूँद-बूंद में, त्वचा में निश्चितता और अनिश्चितता का तूफ़ानी झूला! मुझे आराम कौन देता? अपना कमरा छोड़कर ङ मेरे कमरे में चले आए। उस वक़्त ङ को भी आराम की कोई जरूरत नहीं थी। ज़रूरत थी वातें करने की। हम कहाँ जा रहे हैं, क्या हो रहा है, वे दोनों कौन हैं, वे लोग क्यों आए हैं, उन्होंने थोड़ा-थोड़ा मुझे वताया। मैंने गौर किया, किसी भी बात के नाड़ी-नक्षत्र जानने की, मुझमें कोई उत्सुकता नहीं जागी। अचानक मेरे में अद्भुत थकान भर गयी थी, मानो मुझ जीती-जागती को मिट्टी तले गाड़ दिया गया था, मैं पूरा दम लगाकर उस भयंकर अँधेरे से ऊपर उठ आयी हूँ। यह मेरा नया जीवन है। मैं जीवन, जगत की तमाम दुश्चिताओं से फ़िलहाल आजाद हूँ। खैर, आज़ाद तो मैं हो गयी हूँ, लेकिन एक चिंता, गौरैया पाखी की तरह मेरे मन की खिड़की पर अचानक आ बैठी।

उन दोनों सज्जनों ने हमारे आराम का इंतज़ाम तो कर दिया, लेकिन अपने आराम के लिए कुछ किया या नहीं, यह जानने की मेरे मन में तीव्र चाह जाग उठी। ना, उन दोनों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया था। वे दोनों हमारी पहरेदारी कर रहे थे और चहलकदमी कर रहे थे। पहरेदारी और चलहक़दमी से परे, फ़िलहाल उन्हें किसी बात का होश नहीं था, लेकिन चलो, मैं शांत-स्थिर बैठी थी, घड़ी के काँटे को तो मेरी तरह बैठे रहने की फुर्सत नहीं थी। वहरहाल, मुझे चाहे जितना भी लग रहा हो कि घड़ी का काँटा एक पैर पर खड़ा का खड़ा है, लेकिन दरअसल ऐसा नहीं था। घड़ी का काँटा तो दौड़ रहा था। अगर दौड़ नहीं भी रहा था, तो कम-से-कम चलता जा रहा था। चलते-चलते अंत में कहीं न कहीं पहुँचेगा ही। जब सचमुच पहुँच गया, तो उन दोनों सज्जनों ने इत्मीनान से मुझे विदेशी जहाज़ के फर्स्ट क्लास की एक या दो नंवर सीट पर बिठा दिया। खुद भी एक-दो हाथ के फ़ासले पर बने रहे। जहाज़ एमस्टरडम की तरफ जा रहा था। ढाका से स्वीडन क्या, बैंकॉक और एमस्टरडम घूमकर जाना पड़ता है? नहीं, ऐसा नहीं होता। लेकिन, सुरक्षा की सोच के नशे में ही अगर रात-दिन डूबे रहो तो ऐसा ही होता है। इस वक्त मैं क्या करूं, कुछ तय नहीं कर पा रही थी। ङ से बातचीत करूँ खिड़की से बाहर बादलों का उड़ना-भटकना देखू? कुछ पढूँ या आँखें मूंदकर लेटी रहूँ या सो जाऊँ? बारी-बारी से यह सभी कुछ करने का मन हो आया। अगले ही पल कुछ भी करने का मन नहीं हुआ। अंदर ही अंदर स्थिरता और साथ ही एक किस्म की अस्थिरता, बादलों की तरह तैरती रही। इस जहाज़ ने तो जैसे कसम खा रखी थी कि वह अनंतकाल तक चलता ही रहेगा। कभी-कभी यह भी लग रहा था कि जहाज़ विल्कुल स्थिर ठहरा हुआ है; सामने या पीछे इंच-भर भी हिल-डुल नहीं रहा है। कहीं किसी मिट्टी के अहसास के लिए, खिड़की से बार-बार झाँकते हुए मैं नीचे देखती रही। धरती की माटी छूने के लिए मेरे पाँव कसमसा उठे। क्या मैं कोई भी, कैसी भी मिट्टी छूना चाहती थी? शायद कैसी भी मिट्टी!

एमस्टरडम एयरपोर्ट पर उतरते ही मुझे झटपट वीआईपी लाउंज में ले जाया गया। लाउंज लगभग खाली था। सिर्फ दो मुसाफिर बैठे हुए थे। मुझे इस ढंग से वैठने की हिदायत दी गयी, ताकि कोई मुझे देख न ले। कोई पहचान न ले कि मैं कौन हूँ, मेरा नाम-परिचय क्या है। लार्स एंडरसन और वुल्फ वेइरन मुझे इस ढंग से घेरे रहे। मुसीवत के केंद्र से जितनी दूर होती जा रही थी, उन दोनों सज्जनों का चेहरा उतना ही प्रशांत होता जा रहा था। अचानक डर-भय कट जाने के बाद प्रशांत चेहरे की सिकुड़न जैसे बढ़ गयी। सिर के ऊपर ही जोरदार आवाज़ के साथ टेलीविजन चालू था। लार्स और वुल्फ की डरी हुई, विस्मित-विस्फारित निगाहें उसी तरफ लगी हुई। ङ के इशारे पर मेरी भी निगाहें टेलीविजन, खबर, हेडलाइन पर जा लगीं। पूरी स्क्रीन पर मेरी तस्वीर और बार-बार खवर गूंजती हुई–'तसलीमा ने देश छोड़ दिया है और स्वीडन की तरफ रवाना हो गयी है। मैं कहाँ जा रही हूँ, क्यों जा रही हूँ, दुनिया के लिए यह कोई ज़रूरी ख़बर कतई नहीं है, इस विश्वास क बावजद मेरे तन-वदन में अजीब-सी सिहरन दौड़ गई। कालकोठरी के अँधेरे से अपने को बाहर निकालकर अगर मैं यह देखती कि मेरे चारों तरफ रोशनी झिलमिला रही है और मैं तो मरी ही नहीं हूँ, बल्कि और ज़्यादा जीवंत हो उठी हूँ, तो मुमकिन है मेरे दिल की धडकनें बढ़ जातीं। लेकिन जिन लोगों को सुरक्षा के लिए देश-निकाला दे दिया गया हो. उनकी साँसें ख़त्म हो जाती हैं और वे लोग आपादमस्तक वर्फ हो आते हैं। गैर-देशी वे दोनों सज्जन पसीने-पसीने होते हुए, थर-थर काँपते हुए, मुझे झपट्टा मारकर उठा ले गए और हवाई अड्डे के निचले कक्ष में, किसी निजन-सुरक्षित कोठरी में उन दोनों ने मुझे बिठा दिया। ङ भावलेशहीन निगाहों से वस, देखते रहे। मैं उत्तेजित हो उठी। मैंने उन्हें समझाना चाहा कि यहाँ कोई मेरा खून नहीं करेगा। यहाँ, इस हवाई अड्डे तक बांग्लादेश का कोई मुल्ला दौड़ा नहीं आया। अस्तु, तुम लोग अपनी डोर ढीली करो और मुझे अपनी मन-मर्जी से घूमने-फिरने की आज़ादी दो। लेकिन, नहीं, डोर ढीली करने के लिए वे दोनों किसी हाल भी राजा नहीं हुए। वे हाथ में कसकर लटाई थामे हुए बैठे रहे, मानो अगर वे खुद भी न चाहें, तो भी उन्हें साथ रहना होगा।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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