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निबन्धों की दुनिया

चन्द्रधर शर्मा गुलेरी

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : h
पुस्तक क्रमांक : 5120
आईएसबीएन :81-8143-580-x

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चन्द्रधर शर्मा के जीवन पर आधारित निबन्ध.....

nibandhon ki duniya Chandrdhar Sharma Guleri

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यह श्रृंखला

कुछ समय पहले वाणी प्रकाशन के श्री अरुण माहेश्वरी के प्रस्ताव पर हिन्दी के चुने हुए निबन्धकारों की प्रतिनिधि रचनाओं के संकलन तैयार करने की योजना बनायी गयी थी। प्रस्तुत संकलन उस श्रृंखला की एक कड़ी है। तय किया गया था कि निबन्धकारों के चयन की जिम्मेदारी विभिन्न संकलनों के सम्पादक मिलकर निभाएँ। इस अर्थ में यह एक सहयोगी प्रयास है।

चुनाव रचनाकारों का हो या रचनाओं का, मतभेद की सम्भावना ऐसे हर प्रयास के बारे में बराबर रहती है। निबन्धकारों का चुनाव करते समय हमारा आग्रह ‘निबन्ध’ की किन्हीं प्रचलित या परिपाटीबद्ध परिभाषाओं और प्रकारों को ध्यान में रखने का नहीं रहा। चयन की प्रकिया पूरी हो जाने के बाद, मुझे ऐसा लगा कि हमारे मन में अनजाने ही कहीं न कहीं ‘चिन्तामणि’ के ‘निवेदन’ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का वह प्रसिद्ध कथन आधार-रूप में बना रहा होगा, जो ‘निबन्ध’ विधा को काफी हद तक परिभाषित करता है। पाठकों की स्मृति को ताजा करने की गरज से उस कथन को उद्धृत करना वाजिब होगा :

‘‘इस पुस्तक में मेरी अन्तर्यात्रा में पड़ने वाले कुछ प्रदेश हैं। यात्रा के लिए निकलती रही है बुद्धि, पर हृदय को भी साथ लेकर। अपना रास्ता निकालती हुई बुद्धि जहां कहीं मार्मिक या भावाकर्षक स्थलों पर पहुँची है, वहाँ हृदय थोड़ा बहुत रमता होता रहा है बुद्धि पथ पर हृदय भी अपने लिए कुछ-न-कुछ पाता रहा है।’’
आचार्य शुक्ल ने यह भी पाठकीय विवेक पर छोड़ दिया था कि वे स्वयं तय करें कि ये निबन्ध विषय-प्रधान हैं या व्यक्ति-प्रधान।

निबन्धकारों का चुनाव करते समय हृदय और बुद्धि की इसी कमोबेश पारस्परिक उपजीविता को हमने आधार बनाया होगा, इसलिए निपट बौद्धिक-व्यापार के रूप में निबन्ध-रचना करने वाले कुछ अतिशय संजीदा और ऐकेडेमिक निबन्धकार हमारी गिनती में न आ सके। साथ ही कुछ ऐसे निबन्धकार भी छूट गए जिनके लिए निबन्ध मुख्यतः भाव की एक तरंग या मनमौजीपन की हार्दिक अभिव्यक्ति भर होता है। जिनके निबन्धों को प्रायःशब्द के व्यापक अर्थ में ‘ललित’ की कोटि में रखा जाता है। निबन्ध न मात्र ‘रम्य’ रचना होती है न निपट ‘बौद्धिक जुगाली’। उसमें हार्दिकता और बौद्धिकता का जो मेल घटित होता है उसकी मिलावट का अनुपात एक हद तक तो विषय की प्रकृति से निर्धारित होता है और बाकी रचनाकार के दृष्टिकोण और मानसिक बनावट से। रचना में ‘व्यक्ति’ और ‘वस्तु’ की प्रधानता के नियामक तत्त्व भी यही होते हैं।

इस श्रृंखला में जो संकलन पाठकों के सामने आ रहे हैं, उनके लेखकों और रचनाओं का चुनाव, निर्बंध रूप में सम्पादकों के द्वारा किया गया है। इनका प्रकाशन न रचनाकारों के कालक्रम के अनुसार किया जा रहा है, न किसी प्रवृत्ति या प्रकार-क्रम के अनुरूप। किसी भी पूर्वापर-क्रम के निर्धारण से, योजना विलम्बित हो सकती थी। सम्पादकों के काम करने की भी अपनी गति और लय होती है। तय सिर्फ इतना है कि एक बार में कम से कम छः संकलन पाठकों के सामने आ सकें। योजना इसी रूप में चलती रहेगी। सम्पादक यही रह सकते हैं। किन्हीं कारणों से कुछ फेर-बदल हो सकता है या कुछ और नाम जुड़ सकते हैं। ऐसा किसी मजबूरी की स्थिति में ही हो, हमारा प्रयास यही रहेगा। पर यह मसला प्रकाशक प्रधान-सम्पादक और संकलनों के सम्पादकों के आपसी सम्बन्धों और सहयोग का है। हमें आशा है इसकी समरसता बनी रहेगी। चुने हुए निबन्ध व्यक्ति प्रधान हैं या वस्तु-प्रधान, ललित हैं, या विचारप्रधान शैली में वर्णनात्मक हैं या विश्लेणात्मक, इनमें इन सभी का सह-अस्तित्व है या प्रधान-गौण का रिश्ता है-इसका विचार पाठक करेंगे। सम्पादकों का दावा शायद इतना ही हो सकता है कि चुनी हुई रचनाओं पर लेखकीय व्यक्तित्व की छाप कुछ इस तरह है कि गुमनाम रचना के रूप में पढ़े जाने पर भी साहित्य के जानकार पाठकों को यह पहचानने में दिक्कत न होगी कि इन्हें रचने वाली कलम किसकी है। आखिर यह भी तो सच है कि इनमें काफी संख्या सर्जानात्मक रचनाकारों की है।

प्रधान सम्पादक की भूमिका, संकलनों के बीच पारस्परिक अनुपात और सामग्री में नोक-पलक सँवारने भर की रही है।
1 जनवरी, 2006

 

-डॉ. निर्मला जैन

 

पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी

 

 

मूलतः हिमाचल प्रदेश के गुलेर गाँव के वासी ज्योतिर्विद महामहोपाध्याय पंडित शिवराम शास्त्री राजसम्मान पाकर जयपुर (राजस्थान) में बस गए थे। उनकी तीसरी पत्नी लक्ष्मीदेवी ने सन् 1883 में चन्द्रधर को जन्म दिया। घर में बालक को संस्कृत भाषा, वेद, पुराण आदि के अध्ययन, पूजा-पाठ, संध्या-वंदन तथा धार्मिक कर्मकाण्ड का वातावरण मिला और मेधावी चन्द्रधर ने इन सभी संस्कोरों और विद्याओं आत्मसात् किया। आगे चलकर उन्होंने अँग्रेज़ी शिक्षा भी प्राप्त की और प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होते रहे। कलकत्ता विश्वविद्यालय से एफ. ए. (प्रथम श्रेणी में द्वितीय और प्रयाग विश्वविद्यालय से बी. ए. (प्रथम श्रेणी में प्रथम) करने के बाद चाहते हुए भी वे आगे की पढ़ाई परिस्थितिवश जारी न रख पाए हालाँकि उनके स्वाध्याय और लेखन का क्रम अबाध रूप से चलता रहा। बीस वर्ष की उम्र के पहले ही उन्हें जयपुर की वेधशाला के जीर्णोद्धार तथा उससे सम्बन्धित शोधकार्य के लिए गठित मण्डल में चुन लिया गया था और कैप्टन गैरेट के साथ मिलकर उन्होंने ‘द जयपुर ऑब्ज़रवेटरी एण्ड इट्स बिल्डर्स’ शीर्षक अँग्रेज़ी ग्रन्थ की रचना की।

अपने अध्ययन काल में ही उन्होंने सन् 1900 में जयपुर में नगरी मंच की स्थापना में योग दिया और सन् 1902 से मासिक पत्र ‘समालोचक’ के सम्पादन का भार भी सँभाला। प्रसंगवश कुछ वर्ष काशी की नागरी प्रचारिणी सभा के सम्पादक मंडल में भी उन्हें सम्मिलित किया गया। उन्होंने देवी प्रसाद ऐतिहासिक पुस्तकमाला और सूर्य कुमारी पुस्तकमाला का सम्पादन किया और नागरी प्रचारिणी पुस्तकमाला और सूर्य कुमारी पुस्तकमाला का सम्पादन किया और नागरी प्रचारिणी सभा के सभापति भी रहे।

जयपुर के राजपण्डित के कुल में जन्म लेनेवाले गुलेरी जी का राजवंशों से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा। वे पहले खेतड़ी नरेश जयसिंह के और फिर जयपुर राज्य के सामन्त-पुत्रों के अजमेर के मेयो कॉलेज में अध्ययन के दौरान उनके अभिभावक रहे। सन् 1916 में उन्होंने मेयो कॉलेज में ही संस्कृत विभाग के अध्यक्ष का पद सँभाला। सन् 1920 में पं. मदन मोहन मालवीय के प्रबंध आग्रह के कारण उन्होंने बनारस आकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राच्यविद्या विभाग के प्राचार्य और फिर 1922 में प्राचीन इतिहास और धर्म से सम्बद्ध मनीन्द्र चन्द्र नन्दी पीठ के प्रोफेसर का कार्यभार भी ग्रहण किया। इस बीच परिवार में अनेक दुखद घटनाओं के आघात भी उन्हें झेलने पड़े। सन् 1922 में 12 सितम्बर को पीलिया के बाद तेज़ बुख़ार से मात्र 39 वर्ष की आयु में उनका देहावसान हो गया।

इस थोड़ी-सी आयु में ही गुलेरी जी ने अध्ययन और स्वाध्याय के द्वारा हिन्दी और अँग्रेज़ी के अतिरिक्त संस्कृत प्राकृत बांग्ला मराठी आदि का ही नहीं जर्मन तथा फ्रेंच भाषाओं का ज्ञान भी हासिल किया था। उनकी रुचि का क्षेत्र भी बहुत विस्तृत था और धर्म, ज्योतिष इतिहास, पुरातत्त्व, दर्शन भाषाविज्ञान शिक्षाशास्त्र और साहित्य से लेकर संगीत, चित्रकला, लोककला, विज्ञान और राजनीति तथा समसामयिक सामाजिक स्थिति तथा रीति-नीति तक फैला हुआ था। उनकी अभिरुचि और सोच को गढ़ने में स्पष्ट ही इस विस्तृत पटभूमि का प्रमुख हाथ था और इसका परिचय उनके लेखन की विषयवस्तु और उनके दृष्टिकोण में बराबर मिलता रहता है।

पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के साथ एक बहुत बड़ी विडम्बना यह है कि उनके अध्ययन, ज्ञान और रुचि का क्षेत्र हालाँकि बेहद विस्तृत था और उनकी प्रतिभा का प्रसार भी अनेक कृतियों, कृतिरूपों और विधाओं में हुआ था, किन्तु आम हिन्दी पाठक ही नहीं, विद्वानों का एक बड़ा वर्ग भी उन्हें अमर कहानी ‘उसने कहा था’ के रचनाकार के रूप में ही पहचानता है। इस कहानी की प्रखर चौंध ने उनके बाकी वैविध्य भरे सशक्त कृति संसार को मानो ग्रस लिया है। उनके प्रबल प्रशंसक और प्रखर आलोचक भी अमूमन इसी कहानी को लेकर उलझते रहे हैं। प्राचीन साहित्य, संस्कृति, हिन्दी भाषा समकालीन समाज, राजनीति आदि विषयों से जुड़ी इनकी विद्वता का जिक्र यदा-कदा होता रहता है, पर ‘कछुआ धरम’ और ‘मारेसि मोहि कुठाऊँ’ जैसे एक दो निबन्धों और पुरानी हिन्दी जैसी लेखमाला के उल्लेख को छोड़कर उस विद्वता की बानगी आम पाठक तक शायद ही पहुँची हो। व्यापक हिन्दी समाज उनकी प्रकाण्ड विद्वता और सर्जनात्मक प्रतिभा से लगभग अनजान है।

कुछ वर्ष पहले डॉ. मनोहरलाल ने बड़े परिश्रम से गुलेरी जी की ज्ञात-अज्ञात, अल्पज्ञात रचनाओं, सम्पादकीय टिप्पणियों, पत्रों आदि को संकलित करके प्रकाशित करवाया था। कलेवर में कुछ भारी से संग्रह हिन्दी के अध्येताओं के लिए बहुमूल्य सन्दर्भ ग्रन्थ हैं, मगर हिन्दी के सामान्य पाठक की ऐसे ग्रन्थों तक या तो पहुँच नहीं होती, या वह उनकी मोटाई से बिदक जाता है। और वैसे भी, गुलेरी जी के कहानीकार से इतर रूपों के बारे में आम पाठक को उतनी स्पष्ट जानकारी ही नहीं है तो वह कष्ट उठाकर उस अनचीन्हे, क्षेत्र में कदम रखने के लिए उत्सुक ही क्यों होगा ? नतीजा यह हुआ कि अपनी प्रतिभा की जो पहचान और स्वीकृति गुलेरी जी का न्यायसंगत अधिकार थी, वह उन्हें बृहत्तर हिन्दी समाज से अब तक नहीं मिल गई है।

गुलेरी जी की प्रतिभा और विद्वता से आम पाठक का यही अपरिचय मिटाना इस संकलन का मुख्य उद्देश्य है। इसके अलावा यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि उनके लेखन में मानव समाज तथा सामाजिक संस्थाओं के प्रति ऐसी अन्तर्भेदी किन्तु उदार दृष्टि मिलती है जो उसे आज भी प्रासंगिक बनाती है। अपने 39 वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में गुलेरी जी ने किसी स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना तो नहीं कि किन्तु फुटकर रूप में बहुत लिखा, अनगिनत विषयों पर लिखा और अनेक विधाओं की विशेषताओं और रूपों को समेटते-समंजित करते हुए लिखा। उनके लेखन का एक बड़ा हिस्सा जहाँ विशुद्ध अकादमिक अथवा शोधपरक है, उनकी शास्त्रज्ञता तथा पाण्डित्य का परिचायक है; वहीं, उससे भी बड़ा हिस्सा उनके खुले दिमाग, मानवतावादी दृष्टि और समकालीन समाज, धर्म राजनीति आदि से गहन सरोकार का परिचय देता है। लोक से यह सरोकार उनकी ‘पुरानी हिन्दी’ जैसी अकादमिक और ‘महर्षि च्यवन का रामायण’ जैसी शोधपरक  रचनाओं तक में दिखाई देता है। इन बातों के अतिरिक्त गुलेरी जी के विचारों की आधुनिकता भी हमसे आज उनके पुराविष्कार की माँग करती है।
मात्र 39 वर्ष की जीवन-अवधि को देखते हुए गुलेरी जी के लेखन का परिमाण और उनकी विषय-वस्तु तथा विधाओं का वैविध्य सचमुच विस्मयकर है। उनकी रचनाओं में कहानियाँ कथाएँ, आख्यान, ललित निबन्ध, गम्भीर विषयों पर विवेचनात्मक निबन्ध, शोधपत्र, समीक्षाएँ, सम्पादकीय टिप्पणियाँ, पत्र विधा में लिखी टिप्पणियाँ, समकालीन साहित्य, समाज, राजनीति, धर्म, विज्ञान, कला आदि पर लेख तथा वक्तव्य, वैदिक/पौराणिक साहित्य, पुरातत्त्व, भाषा आदि पर प्रबन्ध, लेख तथा टिप्पणियाँ-सभी शामिल हैं। इस संकलन में कथा-साहित्य को छोड़कर अधिकतर विधाओं और विषयों में कृतियों का चुनाव करने का प्रयास किया गया है। रचनाओं के चयन में मुख्यतः तीन बातों का ध्यान रखने की कोशिश की गई है :

•    रचना से गुलेरी जी की बहुज्ञता, बहुमुखी दिलचस्पियों तथा व्यापक दृष्टि का परिचय मिले,
•    रचना यथासम्भव सुपाठ्य तथा रोचक हो,
•    वह आज के युग में भी प्रासंगिक हो।
इस संग्रह में गुलेरी जी के बाईस लेख दिए जा रहे हैं। ‘पुरानी हिन्दी’ तथा ‘शेशुनाक मूर्तियाँ’ बहुत लम्बे लेख हैं जिन्हें इस संग्रह के कलेवर को देखते हुए पूरा-पूरा देना सम्भव नहीं था। किन्तु गुलेरी जी के लेखन में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान होने के कारण इन्हें पूरी तरह छोड़ा भी नहीं जा सकता था। अतः इन लेखों के कुछ अंश को संकलन में रख लिया गया है ताकि लेखक की अभिरुचि तथा क्षमता का न्यायसंगत आकलन हो सके। ‘मौलाराम की हस्ताक्षरित कलाकृति’ मूल अँग्रेज़ी से अनूदित है। विषय सूची में ‘ललित निबन्ध’ शीर्षक के अन्तर्गत छः निबन्ध रखे गए हैं, किन्तु कुछ एक अपवादों को छोड़कर अन्य तमाम लेखों में भी ललित निबन्धों जैसी ही मन की मौज, लालित्य तथा दिलचस्प प्रसंगों से भरी मस्त शैली के दर्शन होते हैं।

इन लेखों से गुलेरी जी की बहुज्ञता तथा बहुमुखी दिलचस्पियों की एक संक्षिप्त-सी झलक भर मिल सकती है। अध्यात्म, दर्शन, शरीर-विज्ञान आदि जैसे अनेक विषयों से संबद्ध उनके लेखन का कोई भी नमूना इस संकलन में रखना सम्भव नहीं था। लेकिन अन्य क्षेत्रों से नमूने के तौर पर जो थोड़ी सी रचनाएँ ली गई हैं वे उनकी अनेकमुखी प्रतिभा, विशाल ज्ञान-संसार और व्यापक दृष्टि का परिचय ज़रूर देती हैं। उनकी बहुज्ञता जितना प्रभावित करती है, उतना ही प्रभाव इस बात का भी पड़ता है कि वे इस प्रभुत जानकारी का उपयोग कैसी करते हैं। एक विषय को दूसरे से जोड़ने की उनमें अद्भुत क्षमता थी और इसलिए किसी एक ज्ञान-क्षेत्र की बात को स्पष्ट करने के लिए वे बड़े सहज रूप से दूसरे ज्ञान-क्षेत्रों से उदाहरण-उद्धरण देते चलते हैं। इससे उनकी रचनाओं में गहराई और व्यापकता तो आती ही है, वे एक विशालतर और भिन्न-भिन्न रुचि वाले पाठकों का वर्ग आकर्षित भी करती हैं।

इन रचनाओं की सुपाठ्यता तथा रोचकता एक ओर इनकी विषय-वस्तु से निर्धारित होती है, दूसरी ओर इनकी प्रस्तुति से। विषय-वस्तु की व्यापकता की दृष्टि से गुलेरी जी का लेखन धर्म पुरातत्त्व, इतिहास और भाषाशास्त्र जैसे गम्भीर विषयों से लेकर काशी की नींद जैसे हलके-फुलके विषयों तक को समान भाव से समेटता है। विषयों का इतना वैविध्य लेखक के अध्ययन, अभिरुचि और ज्ञान के विस्तार की गवाही देता है, तो हर विषय पर इतनी गहराई से समकालीन परिप्रेक्ष्य में विचार अपने समय और नए विचारों के प्रति उसकी सजगता को रेखांकित करता है। राज ज्योतिषी के परिवार में जन्मे, हिन्दू धर्म के तमाम कर्मकाण्डों में विधिवत् दीक्षित, त्रिपुण्डधारी निष्ठावान ब्राह्मण की छवि से यह रूढ़िभंजक यथार्थ शायद मेल नहीं खाता, मगर उस सामाजिक-राजनीतिक-साहित्यिक उत्तेजना के काल में उनका प्रतिगामी रुढ़ियों के खिलाफ़ आवाज़ उठाना स्वाभाविक ही था। यह याद रखना ज़रूरी है कि वे रूढियों के विरोध के नाम पर केवल आँख मूँदकर तलवार नहीं भाँजते। खण्डन के साथ ही वे उचित और उपयुक्त का मंडन भी करते हैं। किन्तु धर्म, समाज, राजनीति और साहित्य में उन्हें जहाँ कहीं भी पाखण्ड या अनौचित्य नज़र आता है, उस पर वे जमकर प्रहार करते हैं। इस क्रम में उनकी वैचारिक पारदर्शिता, गहराई और दूरदर्शिता इसी बात से सिद्ध है कि उनके उठाए हुए अधिकतर मुद्दे और उनकी आलोचना आज भी प्रासंगिक हैं।

आज के पाठक के लिए उनके लेखन की रोचकता उसकी प्रासंगिकता के अतिरिक्त उसकी प्रस्तुति की अनोखी भंगिमा में भी निहित है। उस युग के कई अन्य निबन्धकारों की तरह गुलेरी जी के लेखन में भी मस्ती तथा विनोद भाव एक अन्तर्धारा लगातार प्रवाहित होती रहती है। धर्मसिद्धान्त, अध्यात्म आदि जैसे कुछ एक गम्भीर विषयों को छोड़कर लगभग हर विषय के लेखन में यह विनोद भाव प्रसंगों के चुनाव में भाषा के मुहावरों में उद्धरणों और उक्तियों में बराबर झंकृत रहता है। जहाँ आलोचना कुछ अधिक भेदक होती है, वहाँ यह विनोद व्यंग्य में बदल जाता है-जैसे शिक्षा, सामाजिक, रूढ़ियों तथा राजनीति सम्बन्धी लेखों में इससे गुलेरी जी की रचनाएँ कभी गुदगुदाकर, कभी झकझोरकर पाठक की रुचि को बाँधे रहती हैं।

गुलेरी जी की शैली मुख्यतः वार्तालाप की शैली है जहाँ वे किस्साबयानी के लहजे़ में मानो सीधे पाठक से मुख़ातिब होते हैं। यह साहित्यिक भाषा के रूप में खड़ी बोली को सँवरने का काल था। अतः शब्दावली और प्रयोगों के स्तर पर सामरस्य और परिमार्जन की कहीं-कहीं कमी भी नज़र आती है। कहीं वे ‘पृश्णि’, ‘क्लृप्ति’ और ‘आग्मीघ्र’ जैसे अप्रचलित संस्कृत शब्दों का प्रयोग करते हैं तो कहीं ‘बेर’, ‘बिछोड़ा’ और ‘पैंड़’ जैसे ठेठ लोकभाषा के शब्दों का। अँग्रेज़ी अरबी-फारसी आदि के शब्द ही नहीं पूरे-के-पूरे मुहावरे भी उनके लेखन में तत्सम या अनूदित रूप में चले आते हैं। पर भाषा के इस मिले-जुले रूप और बातचीत के लहज़े से उनके लेखन में एक अनौपचारिकता और आत्मीयता भी आ गई है। हाँ गुलेरी जी अपने लेखन में उद्धरण और उदाहरण बहुत देते हैं। इन उद्धरणों और उदाहरणों से आमतौर पर उनका कथ्य और अधिक स्पष्ट तथा रोचक हो उठता है पर कई जगह यह पाठक से उदाहरण की पृष्ठभूमि और प्रसंग के ज्ञान की माँग भी करता है आम पाठक से प्राचीन भारतीय वाङ्मय, पश्चिमी साहित्य, इतिहास आदि के इतने ज्ञान की अपेक्षा करना ही गलत है। इसलिए यह अतिरिक्त ‘प्रसंगगर्भत्व’ उनके लेखन के सहज रसास्वाद में कहीं-कहीं अवश्य ही बाधक होता है।

बहरहाल गुलेरी जी की अभिव्यक्ति में कहीं भी जो भी कमियाँ रही हों, हिन्दी भाषा और शब्दावली के विकास में उनके सकारात्मक योगदान की उपेक्षा नहीं की जा सकती। वे खड़ी बोली का प्रयोग अनेक विषयों और अनेक प्रसंगों में कर रहे थे-शायद किसी भी अन्य समकालीन विद्वान से कहीं बढ़कर। साहित्य पुराण-प्रसंग इतिहास, विज्ञान, भाषाविज्ञान, पुरातत्त्व, धर्म, दर्शन, राजनीति, समाजशास्त्र आदि अनेक विषयों की वाहक उनकी भाषा स्वाभाविक रूप से ही अनेक प्रयुक्तियों और शैलियों के लिए गुंजाइश बना रही थी। वह विभिन्न विषयों को अभिव्यक्त करने में हिन्दी की सक्षमता का जीवन्त प्रमाण है। हर सन्दर्भ में उनकी भाषा आत्मीय तथा सजीव रहती है, भले ही कहीं-कहीं वह अधिक जटिल या अधिक हलकी क्यों न हो जाती हो। गुलेरी जी की भाषा और शैली उनके विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र नहीं थी। वह युग-सन्धि पर खड़े एक विवेकी मानस का और उस युग की मानसिकता का भी प्रामाणिक दस्तावेज़ है। इसी ओर इंगित करते हुए प्रो. नामवर सिंह का भी कहना है, ‘‘गुलेरी जी हिन्दी में सिर्फ एक नया गद्य या नयी शैली नहीं गढ़ रहे थे। बल्कि वे वस्तुतः एक नयी चेतना का निर्माण कर रहे थे और यह नया गद्य नयी चेतना का सर्जनात्मक साधन है।’’
अपने युग में गुलेरी जी की प्रासंगिकता और आधुनिकता’ समकालीन सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक स्थितियों से उनके गम्भीर जुड़ाव और इनसे सम्बद्ध उनके चिन्तन तथा प्रतिक्रियाओं में स्पष्ट होती है। उनका सरोकार अपने समय के केवल भाषिक और साहित्यिक आन्दोलनों से ही नहीं, उस युग के जीवन के हर पक्ष से था। किसी भी प्रसंग में जो स्थिति उनके मानस को आकर्षित या उत्तेजित करती थी, उस पर टिप्पणी किए बगैर वे रह नहीं पाते थे। ये टिप्पणियाँ उनके सरोकारों, कुशाग्रता और नज़रिये के खुलेपन की गवाही देती हैं। अनेक प्रसंगों में गलेरी जी अपने समय से इतना आगे थे कि उनकी टिप्पणियाँ आज भी हमें अपने चारों ओर देखने और सोचने को मज़बूर करती हैं।

‘खेलोगे कूदोगे होगे खराब’ की मान्यता वाले युग में गुलेरी जी खेल को शिक्षा का सशक्त माध्यम मानते थे। बाल-विवाह के विरोध और स्त्री-शिक्षा के समर्थन के साथ ही आज से सौ साल पहले उन्होंने बालक-बालिकाओं के स्वस्थ चारित्रिक विकास के लिए सहशिक्षा को आवश्यक माना था। ये सब आज हम शहरी जनों को इतिहास के रोचक प्रसंग लग सकते हैं किन्तु पूरे देश के सन्दर्भ में, यहाँ फैले अशिक्षा और अन्धविश्वास के माहौल में गुलेरी जी की बातें आज भी संगत और विचारणीय हैं। भारतवासियों की कमज़ोरियाँ का वे लगातार ज़िक्र करते रहते हैं-विशेषकर सामाजिक राजनीतिक सन्दर्भों में। हमारे अधःपतन का एक कारण आपसी फूट है-‘‘यह महाद्वीप एक दूसरे को काटने को दौड़ती हुई बिल्लियों का पिटारा है’’ (डिनामिनेशन कॉलेज : 1904) जाति-व्यवस्था भी हमारी बहुत बड़ी कमज़ोरी है। गुलेरी जी सबसे मन की संकीर्णता त्यागकर उस भव्य कर्मक्षेत्र में आने का आह्वान करते हैं जहाँ सामाजिक जाति भेद नहीं, मानसिक जाति भेद नहीं और जहाँ जाति भेद है तो कार्य व्यवस्था के हित (वर्ण विषयक कतिपय विचार : 1920)। छुआछूत को वे सनातन धर्म के विरुद्ध मानते हैं। अर्थहीन कर्मकाण्डों और ज्योतिष से जुड़े अन्धविश्वासों का वे जगह-जगह ज़ोरदार खण्डन करते हैं। केवल शास्त्रमूलक धर्म को वे बाह्यधर्म मानते हैं और धर्म को कर्मकाण्ड से न जोड़कर इतिहास और समाजशास्त्र से जोड़ते हैं। धर्म का अर्थ उनके लिए ‘‘सार्वजनिक प्रीतिभाव है’’ ‘‘जो साम्प्रदायिक ईर्ष्या-द्वेष को बुरा मानता है’’ (श्री भारतवर्ष महामण्डल रहस्य : 1906)। उनके अनुसार उदारता सौहार्द और मानवतावाद ही धर्म के प्राणतत्त्व होते हैं और इस तथ्य की पहचान बेहद ज़रूरी है-‘‘आजकल वह उदार धर्म चाहिए जो हिन्दू, सिक्ख, जैन, पारसी, मुसलमान, कृस्तान सबको एक भाव से चलावै और इनमें बिरादरी का भाव पैदा करे, किन्तु संकीर्ण धर्मशिक्षा...(आदि) हमारी बीच की खाई को और भी चौड़ी बनाएँगे।’’ (डिनामिनेशनल कॉलेज : 1904)। धर्म को गुलेरी जी बराबर कर्मकाण्ड नहीं बल्कि आचार-विचार, लोक-कल्याण और जन-सेवा से जोड़ते रहे।

भारतवासियों का चरित्र, उनकी प्रकृति सामाजिक जीवन, रूढ़ियाँ मान्यताएँ उनके विचारों से किसी का मतभेद हो सकता है, किन्तु उन्हें पुराना और  असंगत कहकर ख़ारिज नहीं किया जा सकता। तब से आज तक समय बदला है, पर क्या समस्याएँ भी बदली हैं ? ग़ौर करें तो आज के दौर में उनके लेखन की प्रासंगिकता और भी बढ़ गई है क्योंकि हम पाते हैं कि लगभग सौ साल आगे बढ़ आने और भूमण्डलीकृत आधुनिकता के हिस्से बन जाने पर भी हमारी अनेक वृत्तियां तथा सामाजिक-धार्मिक स्थितियाँ वही-वैसी ही हैं जिनके खिलाफ़ गुलेरी जी इतने जागरूक और सक्रिय भाव से मुखर थे। अब ये बातें हमें विचार का दोहरा मुद्दा देती हैं। एक विस्तृत मुद्दा तो वे समस्याएँ ही हैं जिन पर गुलेरी जी ने लिखा और जो आज भी हमारे जीवन और जगत में मौजूद हैं। दूसरा इकहरा लेकिन अधिक गहरा और गम्भीर मुद्दा यह है कि सदियों से इस तमाम ज्ञान-गुण की वर्षा से क्या हमने कुछ भी नहीं सीखा ? नहीं सीखा तो क्यों ? इतने ढोल-ढमाके से दिशाएं गुंजायमान करते हुए चलनेवाले हमारे प्रगति-रथ का पहिया एक ही जगह खड़ा-खड़ा क्यों घूम रहा है ?

 

कुसुम बाँठिया


 

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