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नारी विमर्श >> विजयी वसंत

विजयी वसंत

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : सन्मार्ग प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :167
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5123
आईएसबीएन :0000

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नारी के जीवन पर केन्द्रित उपन्यास....

Vijayi Vasant

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित बंगला की शीर्षस्थ लेखिका आशापूर्ण देवी का एक नया उपन्यास।
आशापूर्णा देवी का लेखन उनका निजी संसार नहीं है। वह हमारे आस-पास फैले संसार का विस्तारमात्र है।
इनके उपन्यास मूलतः नारी केन्द्रित होते हैं। सृजन की श्रेष्ठ सहभागी होते हुए भी भारतीय समाज में नारी का पुरुष के समान मूल्यांकन नहीं ? पुरुष की बड़ी-सी कमजोरी पर समाज में कोई हलचल नहीं, लेकिन नारी की थोड़ी–सी चूक उसके जीवन को रसातल में डाल देती है। यह है एक असहाय विडम्बना !
बंकिम, रवींन्द्र, शरत् के पश्चात् आशापूर्णा देवी हिन्दी भाषी अंचल में एक सुपरिचित नाम है—जिनकी हर कृति एक नई अपेक्षा के साथ पढ़ी जाती है।

विजयी वसंत
1


न, फिलहाल अनन्या इससे ज्यादा कुछ माँग भी नहीं रही है। उसे कुछ नहीं चाहिए। बस दो-चार इंच जगह चाहिए।
एक चप्पल रख सकने भर की।
उतना काफी है, इससे ज्यादा की माँग पेश करे, इतनी बड़ी मूर्ख नहीं है अनन्या। वह अच्छी तरह से जानती है कि इससे ज्यादा की माँग की, दो चप्पलें रखने के लिए जगह माँगी, तो बगल वाले धक्के मारकर नीचे फेंक देंगे। महिला जानकर इज्जत नहीं बख्शेंगे। वह दिन अब लद गए। और कैसे कोई इज्जत-विज्जत दे ?
अनन्या, जिनसे तुम उम्मीद कर सकती हो, उन्हीं के पांव तले शून्यता की भयावह खाई है। वे तो केवल अपनी कलाई के भरोसे लटके हुए हैं। कहाँ से फिर मिलेगी शराफत, सहानुभूति और सम्मान ?
अनन्या शायद इसी बहात को समझती है इसीलिए तो, वह दोनों चप्पलें रखने की जगह नहीं मांग रही है। लेकिन कम से कम एक चप्पल रखने के लिए दो-चार इंच जगह तो चाहिए न ? उसकी कलाई में ताकत ही कितनी है जो अनंतकाल तक शून्य में लटकती रहे अतएव उस परम प्राथित तथा अत्यंत दुर्लभ आशा से पैर को शून्य में घुमाने भर गई थी कि उसी क्षण घटित हो गई वह घटना।
हाँ, एक ही पल में सारी घटना घटित हो गई।
जिसके कारण अनन्या लाल पड़ गई, और अंत में ठंडी पड़ गई। ठंडा पड़ने के अलावा कोई चारा भी तो नहीं था। क्योंकि इस बीच तो छाती पर हथौड़ों की चोट पड़ने लगी थीं।
इसी चोट के कारण तो कुछ बोलने की शक्ति ही नहीं रह गई थी उसमें।
बस, इन सारी बातों में पल भर ही लगे।
लेकिन घटना में ऐसी कौन सी बात थी ?
कुछ भी नहीं।
खूब बड़ी दुर्घटना घट सकती था परंतु ऐसा कुछ हुआ ही नहीं।
किसी तरह से बस का रॉड पकड़कर ऊपर उठ आई थी। अनन्या, उस समय तक पांव शून्य में लटक रहे थे। कुछ संभली तो पाँव के नीचे जमीन पाने की उम्मीद लिए लिए अनन्या ने हवा में पाँव नचाया ही था कि पाँव से स्ट्रैपविहीन अति साधारण चप्पल फिसलकर गिर गई और किंकर्तव्यविमूढ़ अनन्या सहसा रॉड छोड़कर नीचे झुकी उसी चप्पल को ढूँढ़ने या यूँ कहिए कि उस अकृतज्ञ पदसेवक का पता करने।
मुश्किल से एक सेकेण्ड से भी कम समय लगा होगा बाकी समय तो एक्सीडेंट की चपेट में आ गया। बस के दरवाजे के सामने ही इंसानों की दीवार सी बनी हुई थी, उसी में से एक जना चिल्ला उठा, हाथ बढ़ाकर लगभग घसीटते हुए सीने से चिपका लिया अनन्या को। उसके चिल्लाने की भाषा समझ पाना अनन्या के लिए दुरूह था क्यों कि उसने आर्तनाद नहीं, डपट लगाई थी। शायद कहा था, ‘‘क्या कर रही है ? मरना है क्या ?’’
बस—इतना ही, इसके बाद ही तो सीने पर हथौड़े की चोट पड़ने लगी।
इसी बीच वही मनुष्य रूपी दीवार की हर ईंटें बोलने लगीं। हर एक ने तिल-तिल भर जगह छोड़ी, साथ ही तरह-तरह की टिप्पणियाँ करने से भी बाज न आए।
‘‘ताज्जुब है, औरत होकर भी...’’
‘मरते-मरते बच गई।’’
‘बच गई ही थी बेमौत मरतीं।’’
‘‘क्या सोचकर आपने हाथ हटा लिया रॉड से और चप्पल ढूढ़ने चल पड़ी ? है ? आश्चर्य है...क्या जान से ज्यादा चप्पल प्यारी है ?’’
सभी कुछ न कुछ कह रहे हैं।
दमघोटू विचित्रहीनता के बीच यह एक विचित्रता तो थी ही। एक तरुणी से बातें करने का मौका तो मिला। यह तो वही लड़कियाँ हैं जो घमंड से चूर-चूर दो घंटे तक रॉड पकड़ कर लटकी रहेंगी एक सरीफ आदमी के बगल की खाली सीट पर नहीं बैठेंगी, मुँह भी उनका ऐसा बना होगा कि चेहरा देखकर लगेगा ऐसी भयंकर जगह में पहली बार आना हुआ है...अर्थात् अचानक ही आ गई है
तो उन्हीं में से एक है यह लड़की भी। सहसा बुद्धू बन गई। लोग क्या ऐसा अवसर छोड़ देंगे ? सीख देना जरूरी नहीं है ? उपदेश न दें क्या ? कहना पड़ेगा कि नहीं, ‘‘उन्होंने आपको घसीट न लिया होता तो चली जातीं सीधे पहियों के नीचे...गनीमत समझिए वरना अब तक तो ऐंबुलेंस पर चढ़ी स्वर्ग जाने की तैयारी कर रही होतीं ।’’
कितनी बातें, किस-किस तरह की टिप्पणियाँ, कितनी शैलियाँ, भाव, भंगिमा, उन्हें प्रयोग में लाने की निपुणता ! लोग जानते नहीं हैं क्या भाषा प्रयोग करने की शिल्पकला को ?
दुनिया में लोग अपनी वाक्यशैली से औरों को मुग्ध करना चाहते हैं लेकिन दूसरों की बातें बिलकुल नहीं सुनना चाहते हैं। सुनते तो हैं ही नहीं बल्कि अपनी कहते चलते हैं आपकी बात काटते हुए....या फिर आपकी बात सुनते-सुनते बड़ी-बड़ी जम्हाइयाँ लेते रहते हैं।
दूसरे की बात सुनने को मजबूर है केवल कटघरे में खड़ा अपराधी। इसीलिए उसी किस्म का एक श्रोता मिल जाए तो कौन चुप रहता है ? इन्हीं में से एक महाशय खेद प्रकट कर उठे, ‘‘ओफ ! कैसी भयानक बात है जरा सोचिए ! हम पुरुषों में से कोई बस के चक्के में आ जाता या फुटपाथ पर गिर जाता तो शर्म की कोई बात नहीं थी लेकिन एक लड़की के लिए...’’
एक्सीडेंटल डेथ किसी महिला के लिए अत्यंत ही लज्जाजनक बात है, शायद उन महाशय ने यह कहना चाहा था, पर बात पूरी न कर सके।
बाधा पहुँचाई उस लड़के ने। जो इस नाटक का प्रधान नायक है।
सहसा जो एक डांट लगाकर चुप मार गया था, जिसे देखकर यह कह पाना मुश्किल था, उसका इस घटना से कोई संबंध है। अचानक ही वह बोल उठा, ‘‘जिस तरह आप लोगों ने कहना चालू रखा है, मुझे तो यह लग रहा है कि यह सोच रही होंगी इससे तो अच्छा होता वह चक्के के नीचे आ ही जातीं।’’
अरे, और देखो !
यह तो उल्टा राग अलापने लगा।
विक्षुब्ध जनता के बीच से कोलाहल उठा। एक कोई बोल उठे, ‘‘मुसीबत देखकर इंसान ही इंसान को सावधान कर देता है ब्रदर....वरना आपने ही क्यों उन्हें अपने से टिपटाकर गिरने से बचा लिया था ? वह मुसीबात में फंस गई है जानकर ही न, ऐसा किया था ?’’ किसने यह टिप्पणी की यह पता नहीं चल पाया। सामने पीछे नरमुंड ही नरमुंड।
अनन्या का चेहरा ताँबे जैसा लग रहा था। हृदय बल्लियों उछल रहा था इसी कारण अभी तक उसने बोलने की कोशिश नहीं की थी।
अब उसने कुछ कहना चाहा। उसके होंठ हिले। गले से अस्पुट-सा शब्द निकला। और उसी समय गौतम उसे संबोधित कर बोल उठा, ‘‘और ज्यादा देर तक इनकी बातें सुनी आपने तो अवश्य ही बस के चक्के के नीचे कूद पड़ेंगी। इससे तो अच्छा हम यहाँ उतर ही लें।’’
कहा ! अनायास ही कहा उसने।
जिस तरह अनायास ही डाँट बैठा था, ठीक उसी तरह अनायास ही कहा उसने।
कहने के बाद ही वह दरवाजे की तरफ बढ़ने लगा। जैसे ग्रहण लगने पर गंगास्नार्थी भीड़ चीरते हुए धीरे-धीरे बढ़ा करते हैं। आगे बढ़ते हुए उसने फिर पुकारा, ‘‘चली आइए, चली आइए।’’
और आश्चर्य की बात देखिए। अनन्या ने भी उसकी बात मान ली।
दफ्तर पहुँचने का समय हो रहा था, ऐसे में स्वेच्छा से कोई बस छोड़ देने के अर्थ होते हैं सब कुछ गँवा देना। पर जबकि उसे बैठने की जगह मिल गई हो। फिर भी बड़ी किस्मत से मिला ऐसी बहुमूल्य जगह से स्वेच्छा से त्याग के गौतम के पीछे-पीछे बस से उतर आई।
जैसे ऐसा ही करना तय था।
जैसे हमेशा से उसी के कहने के मुताबिक चलती चली आ रही हो।
‘‘अब ? अब क्या किया जाए ?’’
धाँय से एक आलतू-फालतू जगह पर उतरकर दोनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा। उस देखने के पीछे क्या है किसी की समझ में नहीं आ रहा था।
रोष ?
क्षोभ ?
व्यंग्य ?
विरक्ति ?
या अभियोग ?
क्या पता किसी की नजर में क्या है ?
लेकिन हाँ, सबसे पहले बोली अनन्या है, ‘‘अब ? अब क्या किया जाए ?’’
‘‘बहुत कुछ किया जा सकता है अब।’’ गौतम बोला, ‘‘मान लीजिए दूसरी बस की खड़े रहकर प्रतीक्षा की जा सकती है। भाग-दौड़कर एक टैक्सी भी पकड़ी जा सकती है और उस पर चढ़ बैठा भी जा सकता है। या फिर दफ्तर जाने की कोशिश न करके कहीं बैठकर चाय पी जा सकती है अथवा दफ्तर से भागकर बेलूड़, या दक्षिणेश्वर घूमने चल दिया जाए।’’
अनन्या को याद नहीं रहा कि अब तक दफ्तर की हाजिरी वाले रजिस्टर में उसके नाम के आगे लाल गोला बन चुका होगा। आज समय पर खाना तैयार न होने के कारण अनन्या अपनी भाभी को डाँट-डपट कर आई है।
अनन्या बात करने के इरादे से ही बोली, ‘‘लगता है ये सारी बातें आपको कंठस्थ हैं।’
‘‘कंठस्थ ? अरे नहीं-नहीं ! बिलकुल नहीं ! दफ्तर के मामले में मैं बिलकुल ही निष्ठावान हूँ।’’
‘‘लेकिन फिलहाल देख-सुनकर तो ऐसी ही कुछ लग रहा है।’’
‘‘अब इंसान ही के जीवन में तो कभी-कभी परिवर्तन आता है।’’
‘‘मेरे ही कारण आज आप इस मुसीबत में फँसे।’’
‘‘आपको यह किसने कह दिया कि मुसीबत ?’’
‘‘मेरी समझ और बुद्धि तो यही कहती है।’’
‘‘आपकी विवेचना, आपकी समझ ?’’ गौतम हँसने लगा।
‘‘मुझे इस पर जरा भी आस्था नहीं है। आपके लिए तो प्राणों से ज्यादा कीमती चीज चप्पल।’’
‘‘चुप रहिए ! बस के उन बुद्धू लोगों जैसी बातें मत कीजिए। ओफ, कैसी–कैसी बातें, टिप्पणियाँ ? सहसा, उस तरह कोई अगर जूताविहीन हो जाए ...’’
‘‘तो देह को मुंडहीन कर डाला जरा भी असंभव नहीं-क्यों, है न ?’’
अनन्या गुस्सा होकर बोली, ‘‘आप लेकिन उन लोगों से भी ज्यादा कटु मंतव्य रखते हैं ?’’
‘गुस्सा हो गईं अच्छा, माफी चाहता हूँ।’’
‘‘आश्चर्य की बात है, गुस्सा क्यों होऊंगी ? लेकिन सोच रही हूँ....’’
‘‘क्या सोच रही हैं ?’’
अनन्या ने सहसा जरा-सी गर्दन उठाकर देखा। उसके बाद फिर धीरे से बोली, ‘मैं तो आपको न जानती हूँ न ही पहचानती हूँ, आपने अचानक उतरने के लिए कहा, मैं भी उतर आई। इसका मतलब क्या हुआ ?’’
‘मतलब ?’’ गौतम हँसने लगा, ‘‘मान लीजिए इच्छाशक्ति का खेल था।’’
‘‘नहीं सचमुच आश्चर्य लग रहा है। मैं लेकिन ऐसी, सीधी-साधी लड़की नहीं हूँ। शायद आपने मेरी जीव-रक्षा भी इसीलिए कृतज्ञतावश...’’
‘‘जीवन रक्षा,’’ गौतम फिर हँस दिया, ‘‘ओः ! मैंने तो बड़ी जोर की डाँट लगाई थी ! सचमुच बहुत ही अभद्र व्यवहार किया था मैंने।
‘‘अभद्रता !’’ अनन्या अन्यमनस्क होकर बोली, ‘‘हो सकता है।’’
पल भर के लिए दोनों चुप हो गए।
इसके बाद गौतम ही बोल उठा, ‘‘मूर्खतावश आपका दफ्तर जाना खत्म कर बैठा। सचमुच, मेरा आपको उतरने के लिए कहना उचित नहीं हुआ। लेकिन क्या करता ? उन लोगों ने भी ऐसे-ऐसे मंतव्य करने शुरू कर दिए कि असह्य लगने लगा था।’’
‘‘ऐसे ही लोग तो दुनिया में अस्सी प्रतिशत हैं।’’
‘‘ठीक कह रही हैं ! हमें अविचलित रहना चाहिए था। बड़ी भारी मूर्खता हो गई। आपकी बात सोच-सोच कर अपना विवेक मुझे डंक मार रहा है।’’
‘‘केवल मेरी बात सोचकर ? आप क्या यूँ ही टहलने निकले थे ?’’


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