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राम के पथ पर

लल्लन प्रसाद व्यास

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5126
आईएसबीएन :81-288-1499-0

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राम के जीवन पर आधारित पुस्तक...

Ram ke path per

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


लल्लन प्रसाद व्यास बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति हैं। उच्चकोटि के चिंतक और लेखक होने के साथ ही पत्रकारिता के क्षेत्र में भी असाधारण है।
दैनिक ‘स्वतंत्र भारत’ के सह-सम्पादक के रूप में पत्रकारिता प्रारंभ करके ‘तरुण भारत’ की स्थापना एवं संपादन से लेकर ‘ज्ञान भारती’, ‘प्राची-दर्शन’, ‘आलोक भारती’ और अब हिंदी प्रथम विश्व पत्रिका ‘विश्व हिंदी दर्शन’ के संपादन तक लगभग 5 दशक की पत्रकारिता-जगत की यात्रा में अनेक कीर्तिमानों की स्थापना की है।
सांस्कृतिक दूत के रूप में कई बार विश्व परिक्रमा की है तथा सांस्कृतिक लेखक और विश्व पर्यटक के रूप में  हिंदी जगत में अद्वितीय प्रसिद्धि अर्जित की है।

इनकी अनेक हिंदी और सम्पादित अंग्रेजी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। हिंदी और अंग्रजी में विश्व महत्त्व के कई स्मारिका ग्रंथों का सफल संपादन भी इन्होंने किया है।

1983 में ‘विश्व साहित्य संस्कृति संस्थान’ नामक सांस्कृतिक संस्था की स्थापना का श्रेय प्राप्त करके भारत सहित 25 देशों में 22 ‘अंतर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलनों’ की अभूतपूर्व विश्व श्रृंखला का संयोजन श्रीरामकृपा से किया है। इसके पूर्व नागपुर के प्रथम और मॉरीशस के द्वितीय विश्व हिंदी सम्मेलनों में विशेष सहयोगी के नाते जगत प्रसिद्धि अर्जित की है। साथ ही अब तक 5 देशों में 12 अंतर्राष्ट्रीय हिंदी संगोष्ठियां भी आयोजित की हैं।


वर्तमान में संपादक ‘विश्व हिंदी दर्शन’ पत्रिका और अध्यक्ष-‘अंतर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन’।
पता सी-13, प्रेस इन्क्लेव,  नयी दिल्ली-110017

आज जब जीवन के संध्याकाल की एक ऊँचाई पर अपनी मंजिल के आस-पास खड़े होकर देखता हूँ तो ऐसी भावना होती है कि जैसे पूरी रामचरितमानस के पन्ने मेरे सामने खुलते चले गए और मेरे मन में महाकवि गोस्वामी तुलसीदास के दो भावों को अपना लिया- पहला शुरू के सातवें श्लोक की पंक्ति ‘‘स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा’’ यानी आत्मसुख-संतोष के लिए उन्होंने रामकथा लिखी। तब अंत में मिला-‘‘पायो परम विश्रामु राम समान प्रभु नाही कहूँ’’ अर्थात् ‘‘रामकथा लिखकर जीवन में परम विश्राम मिल गया, राम के समान कोई स्वामी कहीं नहीं है।

जीवन के अनुभव


आज जब जीवन के संध्याकाल की एक ऊँचाई पर अपनी मंजिल के आस-पास खड़े होकर देखता हूँ तो ऐसी भावना होती है कि जैसे पूरी रामचरितमानस के पन्ने मेरे सामने खुलते चले गए और मेरे मन में महाकवि गोस्वामी तुलसीदास के दो भावों को अपना लिया- पहला शुरू के सातवें श्लोक की पंक्ति स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा’’ यानी आत्मसुख-संतोष के लिए उन्होंने रामकथा लिखी।

तब अंत में मिला-‘‘पायो परम विश्रामु राम समान प्रभु नाही कहूँ’’ अर्थात् ‘‘रामकथा लिखकर जीवन में परम विश्राम मिल गया, राम के समान कोई स्वामी कहीं नहीं है।’’ यह अंतिम श्लोक के पूर्व की कुछ पंक्तियों में से एक है।

तो गोस्वामी जी को राम कथा लिखकर जो प्राप्त हुआ, उसी के आस-पास का भाव मुझे राम की कृपा से रामकथा से जुड़कर प्राप्त हुआ। हाँ, इतना अवश्य है कि मैं गोस्वामी तुलसीदास की तरह विश्राम या संतोष के साथ ‘‘परम’’ लगाने का साहस नहीं कर सकता। मेरे लिए तो आत्मसंतोष या आत्मसुख की उपलब्धि की मंजिल ही पर्याप्त है। मेरे परम विश्राम को परमता तो मेरे परम स्वामी राम ही प्रदान करेंगे।

तभी मन कहीं अंदर ही गुनगुनाता रहता है-‘‘राम कीन्ह आपन जब हीते भयो भुवन भूषन तब हीते’’, राम ने जब से अपना लिया, संसार में हम श्रृंगार या आभूषण बन गए या संसार ही भूषण बन गया।

बाल्यकाल पिता की छाया से रहित



किन्तु ऐसा सुख और आनन्द प्राप्त करने की पूर्व की कहानी कुछ दुख, अभाव, अपमान, संघर्ष और विपत्तियों से भरी थी। बचपन में पाँच वर्ष की उम्र में ही सिर पर से पिता का साया उठ गया। मुझे याद है कि जब उनके शव को श्मशान ले जाने की तैयारी की जा रही थी, उसी समय मैंने अपनी माँ से पूछा था-‘‘अम्मा अब मुझे पढ़ाएगा कौन ?’’ कुछ दिनों पहले ही मैंने क.ख.ग. पढ़ना शुरू किया था।

अम्मा का आँसू भरा उत्तर था ‘मैं पढ़ाऊँगी।’’ उन्होंने अपना वचन पूरी तरह निभाया।

पहले साधारण स्कूल और फिर हाईस्कूल में दाखिला लिया। उस समय हाईस्कूल पास कर लूँ, यह सपना हुआ करता था। जब मैं सातवीं में था तो किसी पारिवारिक अनुष्ठान में हरिद्वार गया। वहाँ मनसादेवी के दर्शन करने गया तो मनौती मानी थी-हे जगदम्बा मुझे हाईस्कूल पास करा दो।

उनकी कृपा से जब हाईस्कूल पास हो गया तो विश्वविद्यालय में जाने का सपना देखने लगा। यह सपना और किसी विश्वविद्यालय के लिए नहीं, केवल काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए था। मैं इसके संस्थापक महामना मालवीय जी के जीवन से बहुत प्रभावित था। मैं इसके संस्थापक महामना मालवीय जी के जीवन से बहुत प्रभावित था अतएव जीवन में ऐसा सुअवसर मिलने पर यहीं उच्च शिक्षा के लिए भर्ती होना चाहता था।

पिताजी की मृत्यु के बाद माताजी ने मेरे और छोटे भाई, जो दो साल मुझसे छोटा था, के भविष्य को ध्यान में रखते हुए अपने सारे गहने बेचकर और कुछ कर्ज लेकर हमारे कुछ निकट संबंधियों की सहायता से दो पुराने मकानों के साथ तीन दुकानों को गिरवा कर नई बनवा दी थीं।

उन सबसे 120 रु. प्रतिमाह किराया आता था। इसमें से सौ रुपए माता जी मुझे बनारस भेज देती थीं जिसमें विश्वविद्यालय की फीस, किताब-कापियाँ और शहर में रहने खाने के खर्च पूरे करने होते थे। शेष 20 रुपये में माता जी और छोटा भाई छोटे शहर बहराइच में किसी प्रकार काम चलाते थे। इतने कम रुपये में उनका काम कैसे चलता था, इसकी अलग दुःखभरी कहानी हो सकती है। इतना तो सच है कि परिवार के त्याग, तप और सहयोग के बिना कोई व्यक्ति आगे नहीं बढ़ सकता।

काशी विश्वविद्यालय से बी.कॉम करने के बाद मैं आगे की पढ़ाई जारी नहीं रख सकता था। वैवाहिक जीवन तथा अन्य पारिवारिक जिम्मेदारियाँ मुझे अपने शहर में ही छोटी नौकरी के लिए बाध्य कर रही थीं। यह बाध्यता मैंने स्वीकार भी की, किन्तु दो-तीन माह में ही स्वाभिमान ने जोर मारा और मैंने भले ही छोटी हो, किन्तु स्थायी सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया।


लेखक पत्रकार कैसे बना ?


इस समय तक मेरे दो-एक लेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके थे, अतएव मैंने लेखन को ही अपना पेशा बनाने का प्रयास किया जिससे स्वाभिमान की रक्षा हो सकती थी। एक साल की अवधि में ही मेरे लेख देश के प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं यहाँ तक कि प्रसिद्ध साप्ताहिक ‘‘धर्मयुग’’ में प्रकाशित होने लगे और आकाशवाणी से प्रसारण का सिलसिला भी चल पड़ा।

 तभी 1956 में 23 वर्ष की आयु में लखनऊ के प्रसिद्ध दैनिक स्वतंत्र भारत में सहायक संपादक पद मिल गया और ऐसा लगा कि जैसे जीवन की गाड़ी अब पटरी पर आ गई है। उसी दौरान मैंने लेखन और पत्रकारिता के साथ-साथ एम.ए. (हिन्दी) कर लिया और गोरखपुर विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. करने का भी विचार बन गया किन्तु उसी समय मुझे लखनऊ से एक सांध्य दैनिक की स्थापना और संपादन का प्रस्ताव मिला जिसे मैंने सहर्ष स्वीकार किया। यह बात 1961 की है।

इस दैनिक के शुरू होने के कुछ ही समय बाद इस पर एक विशेष राजनैतिक दल का प्रभाव होने लगा जो मेरी भावनाओं के अनुकूल नहीं था, क्योंकि मैं पत्रकारिता को जीवन के एक मिशन के रूप में देखता था। पहले तो उस प्रभाव और दबाव का सामना करने का प्रयास किया, किन्तु जब लगा कि जो पैसा लगाता है नीति उसी की चलती है तब मैंने उससे सप्रेम इस्तीफा देकर ज्ञान भारती नामक एक प्रसिद्ध पत्रिका का संपादक बन गया।

 यह बात 1962 के गर्मियों की है। मेरे संपादन में इसका पहला अंक बलिदान अंक के रूप में अगस्त, 1962 में प्रकाशित हुआ।
संयोगवश ‘‘बलिदान अंक’’ उस समय निकला जिसके तुरन्त बाद अक्तूबर में देश पर चीनी आक्रमण हुआ। युद्ध के दौरान और उसके तत्काल बाद देश को बलिदानी साहित्य की ही जरूरत थी, अतएव यह विशेषांक देश भर की जनता का मानो कण्ठहार बन गया।

इसका दूसरा संस्करण तीन सप्ताह बाद ही छप गया था और फिर दूसरे वर्ष 26 जनवरी के अवसर पर इसका प्रसिद्ध ‘‘देश रक्षा’’ अंक प्रकाशित हुआ जिसमें एक साथ शिखर के विद्वानों, राजनीतिक नेताओं, संत-महात्माओं, सेनापतियों और साँस्कृतिक विभूतियों के लेख छपे थे। एक साथ इतनी विशिष्ट विभूतियों का किसी पत्रिका के अंक में आना शायद पहली घटना थी।

इससे मेरा मनोबल बहुत बढ़ा और मेरे संपर्क उस समय के लगभग सभी जीवित क्रान्तिकारियों से भी बना। इनसे से अधिकांश इतने अभावग्रस्त थे कि बीमार होने पर अपना इलाज भी नहीं करा सकते थे और रोजाना की रोटी कैसे मिले, यह भी समस्या थी।

अतएव मुझे प्रेरणा हुई कि मैं ‘‘धर्मयुग’’ जैसे शिखर के हिंदी साप्ताहिक में जीवित क्रान्तिकारियों पर एक लेखमाला प्रकाशित करूँ जिससे उनके जीवन की करूणा या दयनीय स्थिति भारत की जनता को पता चले और वे द्रवित होकर उनकी कुछ आर्थिक सहायता करें, फलस्वरूप उनका शेष जीवन कुछ सुखी बन सके।

इस लेखमाला का ऐसा ही प्रभाव हुआ और अनेक सहृदय लोगों ने इन जीवित क्रान्तिकारियों की कुछ-न-कुछ सहायता की। बलिदानी इतिहास के प्रसिद्ध शहीद रामप्रसाद बिस्मिल की बहन की कुछ सहायता तो उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी ने भी लेख पढ़कर की।

7 मई, 1964 मेरे जीवन में एक विशेष दिन बनकर आया जब मुझे दक्षिण-पूर्व एशिया की यात्रा का सौभाग्य मिला। शुरू में तो यह यात्रा बर्मा में एक दिन रुकते हुए तीन महीने तक थाईलैण्ड में रहने के लिए थी, किन्तु भगवद्कृपा से ऐसी परिस्थितियाँ बनीं कि मैं इस यात्रा में लगभग पूरे दक्षिण-पूर्व एशिया या सुदूर पूर्व के देशों में हो आया जिससे मेरे जीवन को एक विस्तृत आयाम प्राप्त हुआ।

विदेश यात्राओं का आरम्भ


27 मई 1964 के जिस दिन मैं थाईलैण्ड में था, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के निधन का दुखद समाचार मिला। कुछ ही समय बाद यह भी पता चला कि उनकी जगह पर अत्यन्त विनयी, विनम्र और व्यावहारिक नेता लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बन गए हैं।

मैंने वहीं से नए प्रधानमंत्री को बधाई देते हुए एक पत्र लिखा कि आपका उद्भव देश की साधारण परिस्थियों से ही हुआ है और आप देश के दुःख दर्द की नब्ज खूब पहचानते हैं जिससे आशा की जाती है कि आप भारत की व्यावहारिक विदेश नीति चलाएंगे। अतएव यदि आप अनुमति दें तो मैं स्वदेश लौट कर इन देशों से बेहतर संबंध बनाने के कुछ सुझाव-सलाह दे सकता हूँ।

 भारत वापस पहुँचते ही उनका पत्र मिला जिसमें उन्होंने सूचित किया था कि मैं दिल्ली आने पर उनसे अवश्य मिलूँ। ऐसा ही हुआ। मुझे याद है जब मैं उनसे बातें कर रहा था तो वे पेंसिल से कुछ नोट भी करते जा रहे थे। किसी देश विशेष के बारे में मैंने एक महत्त्वपूर्ण सुझाव दिया था जिसे उन्होंने तत्काल कार्यान्वित भी किया।

विदेशों से सांस्कृतिक संबंध


शास्त्री जी की जो सद्भावना और सहृदयता मुझे प्राप्त हुई, उससे मुझे इन देशों में कुछ सांस्कृतिक कार्य करने की प्रेरणा हुई। चूँकि मेरी थाईलैण्ड यात्रा प्रवासी भारतीयों के एक सांस्कृतिक नेता स्वामी कृष्णानन्द जी के सहयोग से हुई थी। अतएव उनका प्रेम और विश्वास तो मुझे प्राप्त था, साथ ही कभी श्री जवाहर लाल नेहरू के सहयोगी रहे बाबू श्रीप्रकाश जी और मोरारजी देसाई का भी मुझे मार्गदर्शन और आत्मीयता प्राप्त थी।

नवभारत टाइम्स के तत्कालीन संपादक श्री अक्षय कुमार जैन मेरे अग्रज जैसे सहयोगी थे, अतएव इन सबके साथ मिलकर हमने 1966 में प्राच्य संस्कृतिक परिषद् (Council for Cultural Relation in the East) की स्थापना की जिसका पहला बड़ा आयोजन मई, 1967 में दिल्ली के विज्ञान भवन में सम्पन्न हुआ। इसका उद्घाटन तत्कालीन उप प्रधानमंत्री श्री

 मोरारजी देसाई ने किया तथा स्वागताध्यक्ष थीं राजमाता ग्वालियर श्रीमती विजयाराजे सिंधिया। इस विशेष अवसर पर तत्कालीन विदेश राज्य मंत्री राजा दिनेश सिंह तथा प्रसिद्ध साहित्यकार अज्ञेय जी भी उपस्थित थे।


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